पहाड़ी हिंदी की प्रमुख बोलियाँ और विशेषताएँ | pahadi hindi

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पहाड़ी हिंदी की बोलियाँ और उनकी विशेषताएँ

खश (कुछ नये मतों के अनुसार शौरसेनी) अपभ्रंश से पहाड़ी भाषाएँ निकली हैं। इनकी लिपि देवनागरी है। हिमालय के तराई (निचले) भागों में बोली जाती है। पूर्व में नेपाल से लेकर पश्चिम में भद्रवाह तक की भाषाओँ को जार्ज ग्रियर्सन ने पहाड़ी हिन्दी माना है। उन्होंने पहाड़ी हिन्दी को तीन वर्गों में विभजित किया गया है- पूर्वी पहाड़ी, पश्चिमी पहाड़ी और मध्य पहाड़ी। पूर्वी पहाड़ी की प्रधान बोली नेपाली है, इसे गोरखाली अथवा खसकुश भी कहते हैं। यह नेपाल की राजभाषा है। नेपाल राज्य की अधिकांश प्रजा की भाषाएं तिब्वती-चीनी वर्ग की हैं, जिनमें निवार जाति के लोगों की भाषा ‘नेवारी’ मुख्य है। 1961 की जनगणना में भी ‘नेपाली’ को पूर्वी पहाड़ी के अन्तर्गत ही माना गया है। वर्तमान पहाड़ी भाषाएं राजस्थानी से बहुत मिलती हैं। विशेषतया मध्य पहाड़ी का संबंध जयपुरी से और पश्चिमी पहाड़ी का संबंध मारवाड़ी से अधिक है।


परंतु पहाड़ी हिन्दी में मुख्य रूप से पश्चिमी पहाड़ी और मध्य पहाड़ी को ही माना जाता है। मध्य पहाड़ी के अंतर्गत कुमायूँनी और गढ़वाली बोलियाँ आती हैं। इनकी प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं।

पहाड़ी हिंदी की प्रमुख बोलियाँ

1. पश्चिमी पहाड़ी

पश्चिमी पहाड़ी की बोलियों का क्षेत्र पंजाब के उत्तरी-पूर्वी पहाड़ी भाग में भद्रवाह, चम्बा, कुल्ल, मण्डी, शिमला, चकराता और लाहुल-स्पिति तथा इसके आसपास है।
1961 की जनगणना के अनुसार पश्चिमी पहाड़ी में 62 बोलियाँ आती हैं। इनमें प्रमुख हैं- मण्डयाली, सिरमौरी, भरमौरी, जौनसारी, कोटगढ़ी, चौपाली, चम्बा पहाड़ी, भद्रवाही, पंगवाली, सिराजी, पहाड़ी देहरादून, महलोगी, सुकेती तथा बघाती आदि।
पश्चिमी पहाड़ी के लिए मुख्य रूप से नागरी, उर्दू और टाकरी लिपि का प्रयोग होता है। इन सभी बोलियों में साहित्य-रचना नहीं हुई है, परन्तु लोक साहित्य पर्याप्त मात्रा में है। सभी बोलियों की अपनी कुछ अलग विशेषताएँ भी हैं। उदाहरणार्थ जौनसारी और सिरमौरी की कुछ विशेषताएँ नीचे दी जा रही हैं-

जौनसारी बोली की विशेषताएँ

जौनसारी की प्रमुख विशेषताएँ इस प्रकार हैं-
1. जौनसारी बोली की कुछ ध्वनि परिवर्तन निम्नलिखित हैं-
स > छ      सत्यानाश > छत्यानाश

द् > ज-      खेद > खेज

लोप- याद >   आद, वास्ते > आस्ते
2. इस बोली में अल्पप्राणीकरण की प्रवृति मिलती है, जैसे- था > ता, भाई > बाया आदि।
3. जौनसारी बोली में संज्ञा के निम्न रूप मिलते हैं, जैसे- घोड़ा, घोड़ो ; घॅर, घॅरो आदि।
4. जौनसारी में प्रयुक्त कुछ सर्वनाम दृष्टव्य हैं- हाऊँ, मे, ताऊँ, तौं, सो, एऊ, एजा आदि।
5. जौनसारी बोली की कुछ क्रिया निम्नलिखित हैं- चल्दो, मारदा, चलो, मारि, चलिकर, देकरि आदि।
6. इस बोली की सहायक क्रियाएँ निम्नलिखित हैं- ऊँ, ओं, हूँ, असो, ओं, आँ, थो, था, थी आदि।

b) सिरमौरी बोली की विशेषताएँ

सिरमौरी बोली की प्रमुख विशेषताएँ इस प्रकार हैं-
1. सिरमौरी बोली मेंआदि ‘ह’ का लोप और ‘ह’ का आगम दोनों मिलता है, जैसे-
आदि ‘ह’ का लोप-     होना > ओणा, हिरण > इरण

‘ह’ का आगम-       और > होर।
2. सिरमौरी बोली मेंअ, ओ, औ; इ, ए, ऍ; ए तथा ई, उ, ओ में आपसी परिवर्तन मिलता है।
3. सिरमौरी में संज्ञा के निम्न रूप मिलते हैं, जैसे- पैड़ (पेड़), पैड़ो; किताब, किताबो; बेटा, बेटो आदि।
4. सिरमौरी बोली में प्रयुक्त कुछ सर्वनाम दृष्टव्य हैं- आँ, आँव, हाँ, हों, मी, मेह, तू, ताँई, तेस, तेसी आदि।
5. इस बोली की कुछ क्रिया निम्नलिखित हैं- चलदा, होन्दा, चलो, चला, चली, टीपीरो (मारकर) टीपणा (मारना, चलना) आदि।
6. सिरमौरी की कुछ सहायक क्रियाएँ निम्नलिखित हैं- असू, ॲसू, असे, अस, स, सो, था, थी, थे आदि।

2. मध्य पहाड़ी

मध्य पहाड़ी बोली को माध्यमिक, मध्यवर्ती अथवा केन्द्रीय पहाड़ी भी कहते हैं। इसमें मुख्य रूप से कुमायूँनी और गढ़वाली बोलियाँ आती हैं। इन दोनों बोलियों में भी साहित्य विशेष नहीं है। यहाँ के लोगों ने साहित्यिक व्यवहार के लिए हिंदी भाषा को ही अपना लिया है। ये दोनों बोलियां देवनागरी लिपि में लिखी जाती हैं।
इनका संक्षिप्त वर्णन निम्नलिखित है।

a) कुमायूँनी

माध्यमिक पहाड़ी की प्रमुख बोली कुमायूँनी का क्षेत्र ‘कुमायूँ’ है। इस बोली का यह नाम कुमायूँ क्षेत्र के आधार पर ही पड़ा है। ‘कुमायूँ’ शब्द का संबंध संस्कृत ‘कूर्माचल’ या ‘कूर्मांचल’ से है।
इस बोली का प्रयोग कुमायूँ क्षेत्र के नैनीताल, अलमोड़ा, पिथौरागढ़, चमोली तथा उत्तर-काशी जिलों में किया जाता है। भाषा की दृष्टि से यह चारों ओर गढ़वाली, तिब्बती, नेपाली और पश्चिमी हिन्दी से घिरी है। कुमायूँनी बोली पर भोट और राजस्थानी बोलियों का काफी प्रभाव है। राजस्थानी का तो इस पर इतना अधिक प्रभाव है कि यह उसका ही रूप-सा ज्ञात होती है।
कुमायूँनी की अनेक उपबोलियाँ तथा स्थानीय रूप निम्नलिखित हैं- खसपरजिया (खसपरिया), कुमैयाँ, फल्दकोटिया, पछाईं (पछाहीं), चोगरखिया (चौगरखिया), गंगोला, दानपुरिया (दनपुरिया), सीराली (सिरयाली या सिरखाली), सोरियाली (सोराली), अस्कोटी, जोहारी, रउचौभैसी (इसके प्रमुख स्थानीय रूप हैं- छखातिया, रामगढ़िया और बाज़ारी) और भोटिया आदि।
कुमायूँनी के लिए नागरी लिपि का प्रयोग होता है। कुमायूँनी बोलने वालों की संख्या जार्ज ग्रियर्सन के अनुसार 436788 थी। कुमायूँनी में साहित्य-रचना पिछले दो-ढाई सौ वर्षों में ही हुई है। गुमानी पंत, सिवदत्त सत्ती और कृष्ण दत्त पाण्डे आदि इस बोली के प्रसिद्ध साहित्यकार हैं।

कुमायूँनी बोली की विशेषताएँ

कुमायूँनी की प्रमुख विशेषताएँ इस प्रकार हैं
1. कुमायूँनी बोली की कुछ ध्वनि परिवर्तन निम्नलिखित हैं-
न > ण-      बहिन > बैणी, किसान > किसाण

ल > ळ-      बादल > बादळ, काला > काळो
2. कुमायूँनी में अकारण अनुनासिकता पाया जाता है, जैसे- चावळ > चाळँ, जौ > जौं
3. कुमायूँनी बोली मेंके आदि में ‘ह’ का और अंत में ‘आ’ का आगम पाया जाता है, जैसे-
आदि में ‘ह’ का आगम-       और > हौर, हौरेअंत में ‘आ’ का आगम-       सात > शाता; बीसा, तीशा
4. कुमायूँनी बोली में संज्ञा के निम्न रूप मिलते हैं, जैसे- बल्द, बल्दन, बल्दों, चेलो (लड़का), च्याला आदि।
5. कुमायूँनी में प्रयुक्त कुछ सर्वनाम दृष्टव्य हैं- में, मैं, हेम लोग, तू, तु, त्वीले, त्वैले, वी, उ, ऊँ, येकणी, एकणी, क्वे, कै, कैं, कौ, कूण आदि।
6. इस बोली के विशेषण भी विशिष्ट हैं, जैसे- एका, द्वि, द्विया, बारा, तेरा, चौदा, शोल, त्याइस, पैलु (पहला), दुसरु, तिशौरु आदि।
7. कुमायूँनी बोली की कुछ क्रिया निम्नलिखित हैं- मारन, मारनू, मारनो, मारी, मारियाछन, मारलो आदि।
8. इस बोली की मुख्य पहचान इसकी सहायक क्रियाएँ हैं- छूँ, छुँ, छै, छे, छो, छा, छियूँ, छ्यूँ, छिये, छियो आदि।
9. कुमायूँनी में निम्न क्रियाविशेषण प्रयुक्त होते हैं- इतकै, याँ, वाँ, जितकै, भोल (कल), भोअ (आने वाला कल), पोर्हूँ (परसों) कथली (कभी), तल्ली (नीचे) मल्ली (ऊपर) आदि।

b) गढ़वाली

माध्यमिक पहाड़ी की दूसरी महत्वपूर्ण बोली गढ़वाली है, इसका क्षेत्र प्रमुख रूप से गढ़वाल प्रदेश है। गढ़वाल की भाषा होने के कारण ही इसे ‘गढ़वाली’ कहा जाता है। पहले का केदारखण्ड या उत्तराखण्ड बहुत से गढ़ों के कारण मध्ययुग में ‘गढ़वाल’ कहा जाता था।
गढ़वाली बोली का प्रयोग-क्षेत्र गढ़वाल और इसके आसपास का प्रदेश, टेहरी, अलमोड़ा के अतिरिक्त देहरादून (उत्तरी भाग), सहारनपुर (उत्तरी भाग), बिजनौर (उत्तरी भाग) और मुरादाबाद (उत्तरी भाग) जिलों के उत्तरी भाग तक विस्तृत है। गढ़वाली का परिनिष्ठित रूप ‘श्रीनगरिया’ है।
गढ़वाली बोली की बहुत सी उपबोलियाँ भी हैं, जिनमें प्रमुख हैं- राठी, लोहव्या (लोबयाली), बधानी (बधाणी), दसौलया, माँझ-कुमैयाँ (कुमायूँनी और गढ़वाली का मिश्रण, इसे अल्मोड़े में ‘दो सन्धि’ कहा जाता है।), नगपुरिया, सलानी और टेहरी। ‘टेहरी’ को ‘गंगापारिया’ भी कहा जाता है। इसके स्थानीय रूप हैं- टकनौरी-बाड़ाहटी, रमोल्या, जौनपुरी, रवांल्टी, वसौलया, बडियार गड्डी तथा गंगाड़ी।
जार्ज ग्रियर्सन के अनुसार गढ़वाली बोली बोलने वालों की संख्या 670824 थी। गढ़वाली भी नागरी लिपि में लिखी जाती है, और इसमें भी साहित्य लगभग नहीं है। किन्तु लोक साहित्य की दृष्टि से यह पर्याप्त संपन्न है।

गढ़वाली बोली की विशेषताएँ

गढ़वाली की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं।
1. गढ़वाली बोली की कुछ ध्वनि परिवर्तन निम्नलिखित हैं-
क्ष > क-      ऋक्ष > रिक्

त्स, प्स > छ- मत्स्य > माछो, अप्सरी > आछरी

श > छ-      शनिश्चर > छंछर

ल > ळ-      पाताल > पयाळ
2. गढ़वाली बोली में ‘ग’ का आगम और ‘ह’ का लोप मिलता है, जैसे-
‘ग’ का आगम-       संसार > संगसार

‘ह’ का लोप-         चान्स > चांगस
3. गढ़वाली में संज्ञा के निम्न रूप मिलते हैं, जैसे- नौना (लड़का), नौनो, नौनु, नौनौंन्, नौनूँन, नौनौंक, नौनूँक आदि।
4. गढ़वाली बोली में प्रयुक्त कुछ सर्वनाम दृष्टव्य हैं- मैं, मइँ, मैंक, मैंकु, मेरो, मेरु, हमतें, हमुंतें, हमुमान, हमुसि, हमारु, तुइन, वु, ओ, एइ, सणि, क्वी, कुइ आदि।
5. गढ़वाली के विशेषण भी विशिष्ट हैं, जैसे- आकारांत > ओकारांत- काला > काळो, तुलना हेतु ‘ती’, ‘चै’, ‘चुली’ का प्रयोग, यअक, द्वि, दू, चअर, त्याइस, सुत्तैस, एक बिसि सात, ढामा (2 सही 1/2 %), पैलू (पहला) आदि।
6. इस बोली की कुछ क्रिया निम्नलिखित हैं- चलदूँ, चलदू, चलणे, चलणै, चलण्यूँ, चल्यूँ, चल्यान आदि।
7. गढ़वाली बोली की कुछ सहायक क्रियाएं निम्नलिखित हैं- छौं, छऊँ, छवाऊँ, छौं, छवाँ, छया, थौ, थो, थयो आदि।
8. गढ़वाली में निम्न क्रियाविशेषण प्रयुक्त होते हैं- अब, अबेर, जदि, जैअ, वख, वत्थ, यथैं, वथैं, जथैं आदि।

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