राजस्थानी हिंदी की प्रमुख बोलियाँ और विशेषताएँ | rajasthani

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राजस्थानी हिंदी की बोलियाँ और विशेषताएँ

भाषाशास्त्रियों ने राजस्थानी को हिंदी की पाँच उपभाषाओं- पश्चिमी हिंदी, पूर्वी हिंदी, बिहारी, पहाड़ी और राजस्थानी में स्थान दिया है। राजस्थान शब्द का इस प्रांत के लिए पहला लिखित प्रयोग ‘कर्नल टॉड’ ने किया था, जिनको आधार बनाकर जार्ज ग्रियर्सन ने इस क्षेत्र की भाषा को राजस्थानी (rajasthani hindi) कहा और साथ-साथ राजस्थानी की बोलियों का सर्वेक्षण भी प्रस्तुत किया। इस प्रकार भाषा के अर्थ में राजस्थानी शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग ग्रियर्सन ने किया था।
राजस्थानी का उद्गम ग्रियर्सन शौरसेनी अपभ्रंश के एक रूप ‘नागर अपभ्रंश’ से मानते हैं। वहीँ डॉ. सुनीति कुमार चटर्जी शौरसेनी से भिन्न ‘सौराष्ट्री अपभ्रंश’ से और कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी, मोतीलाल मनेरिया, मुनि जिन विजय एवं डॉ. हीरालाल महेश्वरी ‘गुर्जरी अपभ्रंश’ से मानते हैं। गुर्जर अपभ्रंश शौरसेनी अपभ्रंश का ही पश्चिमी रूप है।


जार्ज ग्रियर्सन ने rajasthani hindi (राजस्थानी उपभाषा) को 6 बोलियों में विभाजित किया है- मारवाड़ी (पश्चिमी राजस्थानी), मेवाती (उत्तर-पूर्वी राजस्थानी), जयपुरी (मध्य-पूर्वी राजस्थानी), मालवी (दक्षिण-पूर्वी राजस्थानी), नीमाड़ी (दक्षिणी राजस्थानी) तथा अहीरवाटी। डॉ. सुनीति कुमार चटर्जी ने इसे दो वर्गों- पश्चिमी राजस्थानी और पूर्वी राजस्थानी में विभाजित किया है। वहीं डॉ. भोलानाथ तिवारी उत्तर-पूर्वी राजस्थानी और दक्षिणी राजस्थानी को पश्चिमी हिन्दी में रखना चाहते हैं। परंतु अधिकांश विद्वान मारवाड़ी, जयपुरी, मेवाती और मालवी को ही राजस्थानी की बोलियाँ मानते हैं। क्योंकी अधिक विभाजन करने से बोलियों की संख्या अधिक हो जाती है जबकि एक-दूसरे से काफी साम्यता रखती हैं।

हिंदी की बोलियाँ (hindi ki boliyan) श्रृंखला के अंतर्गत राजस्थानी हिंदी की चारों बोलियों का परिचय, अन्य नाम, उपबोलियाँ, क्षेत्र तथा विशेषताएँ आदि नीचे दिया जा रहा है-  

राजस्थानी हिंदी की बोलियाँ

1. मारवाड़ी

मारवाड़ी राजस्थानी की सर्वप्रमुख बोली है। इस बोली का उल्लेख ‘कुवलयमाला’ (778 ई.) में ‘मरूभाषा’ नाम से हुआ है।
मारवाड़ी बोली (marwadi boli) की लिपि महाजनी रही है किंतु प्रायः नागरी लिपि में लिखी जाती है। जार्ज ग्रियर्सन के अनुसार इसके बोलने वालों की संख्या लगभग 65 लाख थी। 1971 की जनगणना के अनुसार यह संख्या 6242449 है। साहित्यिक दृष्टि से यह बोली समृद्ध है। राजस्थान का लगभग सम्पूर्ण साहित्य मारवाड़ी के साहित्यिक रूप ‘डिंगल’ में लिखा गया है। वस्तुतः ‘डिंगल’ मारवाड़ी की साहित्यिक शैली है जिसमें यहाँ के चारण कवियों ने काफी साहित्य लिखा है। पृथ्वीराज रासो जैसा विशाल महाकाव्य इसका श्रेष्ठ उदाहरण है। मीराबाई की रचनाएँ भी मारवाड़ी बोली में ही हैं।

मारवाड़ी बोली के अन्य नाम

मुख्य रूप से मारवाड़ की बोली होने के कारण यह मारवाड़ी कहलाती है। इसे ‘अगरवाला’ भी कहा गया है। साहित्यिक मारवाड़ी को प्रायः ‘डिंगल’ नाम से जाना जाता है। इस बोली (marwadi boli) को कोलकाता में मारवाड़ी हिन्दी के नाम से जाना जाता है।

मारवाड़ी बोली की उपबोलियाँ

मारवाड़ी बोली के निम्न रूप देखने को मिलते हैं-मारवाड़, मेरवाड़ी, गिरासियानी, थली, ढटकी, महेश्वरी, ओसवाली, बीकानेरी, नागौरी, गोड़वारी, शेखावाटी, बागड़ी, सिरोही आदि।

मारवाड़ी बोली का क्षेत्र

marwadi boli (मारवाड़ी बोली) मारवाड़, जोधपुर, मेवाड, पूर्वी सिन्ध बीकानेर, जैसलमेर, दक्षिणी पंजाब तथा उत्तर-पश्चिमी जयपुर में बोली जाती है। इसका परिनिष्ठित रूप जोधपुर के आसपास का है।

मारवाड़ी बोली की विशेषताएँ

मारवाड़ी की प्रमुख विशेषताएँ इस प्रकार हैं-
1. मारवाड़ी बोली में ऐ और औ का उच्चारण तत्सम शब्दों में- अइ, अए और अउ, अओ जैसे होता है।
2. मारवाड़ी में अनेक स्थानों पर ‘च्’ और ‘छ्’ का उच्चरण ‘स्’ हो जाता है, जैसे- चक्की > सक्की, छाछ > सास आदि।
3. मारवाड़ी बोली में ‘ल’ के स्थान पर ‘ळ’ का उच्चारण होता है, जैसे- बाल > बाळ, जल > जळ, काला > काळा आदि।
4. मारवाड़ी में ‘न’ के स्थान पर ‘ण’ का उच्चारण होता है, जैसे- पानी > पाणी, नानी > नाणी आदि।
5. मारवाड़ी बोली में शब्द के प्रारम्भ में ‘स्’ ध्वनि की जगह ‘ह्’ का उच्चारण होता है, जैसे- सड़क > हड़क, साथ > हाथ आदि।
6. मारवाड़ी में हकार (ह) का लोप होता है- रहणो > रैणो, कहयो > कयो आदि।
7. मारवाड़ी बोली में अल्पप्राणीकरण पाया जाता है, जैसे-  भूख > भूक, हाथ > हात
8. मारवाड़ी बोली में संज्ञा के निम्न रूप मिलते हैं, जैसे- घोड़ा, घोड़ो, घोड़े, घोड़ौ, घोड्या आदि।
9. मारवाड़ी में प्रयुक्त कुछ सर्वनाम दृष्टव्य हैं- म्हूं, म्हे, अयाँ, तू, थूं, थे, ताथे, तायां, ऊ, वा, उण, उणी, जिको, कुण आदि।
10. मारवाड़ी बोली के विशेषण भी विशिष्ट हैं, जैसे- दोय्, दोयाँ, चिथार, च्यार, छव, पैलो, दुजो, चोथो, छट्ठो आदि।
11. मारवाड़ी की कुछ क्रिया निम्नलिखित हैं- चळूँ, चळियो, चळतो, चळहूँ, चळहाँ आदि।
12. मारवाड़ी बोली में वर्तमान काल की सहायक क्रिया- ‘है’, भूतकाल की सहायक क्रिया- ‘हो’ तथा भविष्यतकाल की सहायक क्रिया- ‘स्यूँ’ / ‘लो’ लगाकर कालवाचक क्रिया रूप बनते हैं।
13. मारवाड़ी में निम्न क्रियाविशेषण प्रयुक्त होते हैं- अबै, अमै, जदी, जदै, अठी, अठै, ईठै, ऊँठैं, कठै, कैंठे आदि।
14. मारवाड़ी बोली के पर्सर्गों में कर्म-सम्प्रदाय के स्थान पर- नै, ने, कने, रै, करण-अपादान के स्थान पर- सूँ, ऊँ, संबंध में- रो, रा, री, नौ को और अधिकरण में- में, माँ, माई का चलन है।
15. मारवाड़ी बोली में ‘ही’ के अर्थ में हीज, ईज प्रत्यय चलता है और शब्द के बीच में ईज’ प्रत्यय लगाकर कर्मणि वाच्य बनाया जाता है, जैसे- मारणों > मारना, मरीजणो > मारा जाना आदि।

2. जयपुरी

जार्ज ग्रियर्सन इसे मध्य पूर्वी राजस्थानी कहते हैं। यह बोली शौरसेनी अपभ्रंश के उपनागर रूप से विकसित हुई है। अजमेरी, किशनगढ़ी तथा हड़ौती को भी जयपुरी (jaipuri boli) में ही शामिल किया जाता है। जयपुरी नाम यूरोपियों का दिया हुआ बताया जाता है।
jaipuri boli (जयपुरी) की भी मुख्य लिपि नागरी ही है। जार्ज ग्रियर्सन के अनुसार इसके बोलने वालों की संख्या 1687899 थी। जयपुरी में साहित्य-रचना कम ही हुई है। दादू और उनके पंथ का काफी साहित्य जयपुरी में मिलता है।

जयपुरी बोली के अन्य नाम

जयपुरी बोली के अन्य नाम निम्नलिखित हैं- ढूँढाड़ी, मध्य पूर्वी राजस्थानी, झाड़साही बोली और काईं कूईं आदि। ढूँढ़ (टीला) शब्द से ढूँढ़ाड़ी शब्द बना है

जयपुरी बोली की उपबोलियाँ

जयपुरी बोली (jaipuri boli) की प्रमुख उपबोलियाँ निम्नलिखित हैं- मानक जयपुरी, तोड़ावरी या तोरावाटी, काठोड़ी या काठेरा, चौरासी, नागरचाल, राजावाटी, किशनगढ़ी, शाहपुरी, सिपाड़ी, अजमेरी आदि। जयपुरी में शामिल हड़ौती बोली कोटा, बूंदी और झालावाड़ जिलों में बोली जाती है।

जयपुरी बोली का क्षेत्र

यह बोली जयपुर के अतिरिक्त किशनगढ़, इन्दौर, अलवर के अधिकांश भाग, अजमेर और मेरवाड़ा के उत्तर-पूर्वी भाग, टोंक, दौसा जिलों में बोली जाती है।

जयपुरी बोली की प्रमुख विशेषताएँ

जयपुरी की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
1. जयपुरी बोली की कुछ ध्वनि परिवर्तन निम्नलिखित हैं-
आ > इ-      सड़ > सिंड

इ > अ-      पंडित > पंडत

उ > अ-      मानुख > मिनखाकि

आ > इ-      मामुख > मिनख

न > ण-      कहानी > खाँणी
2. जयपुरी में ‘ह’ ध्वनि का लोप हो जाता है, जैसे- शहर > सैर
3. इस बोली में अल्पप्राणीकरण की प्रवृति मिलती है, जैसे- खुशी > कुसी, जीभ > जीब, आधा > आदो आदि।
4. इस बोली में महाप्राणीकरण की प्रवृति भी मिलती है, जैसे- वक्त > बखत आदि।
5. जयपुरी बोली में संज्ञा के निम्न रूप मिलते हैं, जैसे- घोड़ा, घोड़ौ, घोड्यां, घोड्या, आदि।
6. जयपुरी में प्रयुक्त कुछ सर्वनाम दृष्टव्य हैं- म्हे, अयाँ, म्हाँ, मूँ, तू, थ, तै, थां, वै, ऊँ, जो, ती, कुण, कोऊँ आदि।
7. इस बोली के विशेषण भी विशिष्ट हैं, जैसे- चोखो, येक्, च्यार, छै आदि।
8. जयपुरी बोली की कुछ क्रिया निम्नलिखित हैं- चळूँ, चळाँ, चळो, चळै, चळयो, चळूला, चळस्यूँ आदि।
9. संबंध कारक को, का और की प्रचलित हैं।
10. इस बोली की मुख्य पहचान इसकी सहायक क्रियाएँ हैं- हूँ, छा, छाँ, छूँ, छै, छो, छै, छे, छी आदि।
11. इस बोली में भविष्यत् काल के लिए लो, ला स्यूँ, सी कृदंत का प्रयोग होता है।

3. मेवाती

मेवाती बोली शौरसेनी अपभ्रंश के उपनागर रूप से विकसित हुई है। जार्ज ग्रियर्सन के अनुसार यह उत्तर-पूर्वी राजस्थान की एक बोली है। ‘मेव’ लोगों के कारण इस क्षेत्र का नाम मेवात और मेवात के कारण बोली का नाम मेवाती पड़ा है। मेवाती बोली पश्चिमी हिंदी एवं राजस्थानी के बीच सेतु का काम करती है।
मेवाती (mewati boli) की लिपि भी देवनागरी है। जार्ज ग्रियर्सन ने अपने भाषा सर्वेक्षण में मेवाती बोलने वालों की संख्या 758600 बताई है। 1971 के भाषा-सर्वेक्षण में मेवाती बोलने वालों की संख्या 285921 मिलती  है। मेवाती बोली में साहित्य रचना नहीं हुई, इसमें सिर्फ लोक साहित्य मिलता है।

मेवाती बोली की उपबोलियाँ

ब्रज प्रदेश के निकट वाले क्षेत्र की mewati boli (मेवाती बोली) पर ‘ब्रज’ का पर्याप्त प्रभाव दिखाई पड़ता है। इस बोली को राजस्थानी का ब्रजभाषा में विलीन होता रूप भी कहा गया है। मेवाती बोली पर कहीं-कहीं जयपुरी तथा अहीरवाटी का प्रभाव भी देखा जा सकता है। कुछ विद्वानों ने ‘अहिरवाटी बोली’ को भी मेवाती की बोली माना है।
मेवाती बोली की चार उपबोलियाँ मानी जाती हैं- 1. मानक मेवाती (अलवर की भाषा), 2. राठी मेवाती (अहीरवाटी मिश्रित मेवाती), 3. नहेड़ा या महेड़ा मेवाती (जयपुरी मिश्रित मेवाती) और 4. कठेर मेवाती (भरतपुर की बोली)। कुछ लोग गूजरी को भी इसी का एक रूप मानते हैं।

मेवाती बोली का क्षेत्र

mewati boli (मेवाती बोली) का क्षेत्र मेवात की तुलना में अधिक विस्तृत है। यह पूरे अलवर की भाषा है। भरतपुर के उत्तर-पश्चिमी भाग तथा हरियाणा के गुड़गाँव जिले के उत्तर-पश्चिमी भाग में भी मेवाती का प्रयोग होता है।

मेवाती बोली की विशेषताएँ

मेवाती बोली की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
1. मेवाती बोली की कुछ ध्वनि परिवर्तन निम्नलिखित हैं-
ल > ळ      बालक > बाळक, बाल > बाळन > ण      पानी > पाणीउ > ओ-      मुँह > मोंह
2. मेवाती बोली में महाप्राण की जगह अल्पप्राण ध्वनियों का प्रयोग होता है, जैसे- हाथ > हात, जीभ > जीब, बतख > बतक आदि।
3. मेवाती बोली में अकारण अनुनासिकता पाया जाता है, जैसे- पचास > पँचास आदि।
4. मेवाती में संज्ञा के निम्न रूप मिलते हैं, जैसे- घोड़ा, घोड़ां, घोड़ौ, घोड्यां, घोड्या आदि।
5. मेवाती बोली में प्रयुक्त कुछ सर्वनाम दृष्टव्य हैं- मैं, हमा, मूँ, तम, थम, वो, वा, वैं, उन, कौण, कैंह, कोई, कियई आदि।
6. मेवाती के विशेषण भी विशिष्ट हैं, जैसे- आकारांत > योअन्त- बड़ो > बड्यो, छोटो > छोट्यो आदि।
7. इस बोली की कुछ क्रिया निम्नलिखित हैं- चलूँ, चला, चलै, चलो, चलाँ, चल्या, चल्यो, चलूँगो, चलागो, चलैगो आदि।
8. मेवाती बोली की कुछ सहायक क्रियाएं निम्नलिखित हैं- हूँ, सूँ, सां, सै, सैं, हो, सो, है, सै आदि।
9. मेवाती बोली में ‘ने’ परसर्ग का प्रयोग कर्म संप्रदान में और ‘तै’ परसर्ग का प्रयोग अपादान में मिलता है।

4. मालवी

शौरसेनी अपभ्रंश के उपनागर रूप से विकसित मालवी मालवा प्रदेश अर्थात् उज्जैन के निकटवर्ती क्षेत्र की बोली है। इस क्षेत्र की बोली को पहले ‘आवन्ती’ कहा जाता था। मालवी बोली (malwi boli) को आवन्ती का ही विकसित रूप माना जाता है। जार्ज ग्रियर्सन इस बोली को दक्षिण-पूर्वी राजस्थानी कहते हैं। वहीं डॉ. सुनीति कुमार चटर्जी इसे पश्चिमी हिन्दी और राजस्थानी दोनों के निकट मानते हैं।
malwi boli (मालवी) की भी प्रमुख लिपि नागरी है। इसके अतिरिक्त महाजनी तथा महाजनी और मुडिया प्रभावित नागरी लिपि का भी प्रयोग होता था। जार्ज ग्रियर्सन के भाषा सर्वेक्षण के अनुसार इसके बोलने वालों की संख्या 4350507 थी। 1971 की जनगणना के अनुसार यह संख्या 1142478 है। मालवी में लोक साहित्य के साथ ही साहित्य की भी रचना हुई है। चन्द्रसखी इसकी प्रसिद्ध कवयित्री हैं।

मालवी बोली के अन्य नाम

मालवी बोली के अन्यनाम निम्नलिखित हैं- आवंती, दक्षिण-पूर्वी राजस्थानी, अहीरी आदि।

मालवी बोली की उपबोलियाँ

मालवी (malwi boli) की मुख्य उपबोलियाँ हैं- डांगी, सोंडवाड़ी रांगडी धोलेवाडी, मोयारी, पाटनी, करियाई, उमठवाडी, मन्दसौरी, रतलामी और डंगेसरी। कछ लोग निमाड़ी को भी इसके अन्तर्गत ही रखते हैं। परिनिष्ठित मालवी को अहीरी भी कहा जाता है।

 
मालवी बोली का क्षेत्र

malwi boli (मालवी बोली) का अधिकांश क्षेत्र मध्य प्रदेश में और कुछ राजस्थान में पड़ता है। यह मुख्यतः इंदौर, उज्जैन, देवास, भोजावाड़, झाबुआ, सीतामऊ, रतलाम, भोपाल, होशंगाबाद और मेवाड़ के कुछ भागों में बोली जाती है।

मालवी बोली की विशेषताएँ

मालवी बोली की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
1. मालवी बोली की कुछ ध्वनि परिवर्तन निम्नलिखित हैं-
ऐ > ए-      चैन > चेन

औ > ओ-     सौ > सो, पैसा > पेसा

ह > य-      मोहन > मोयन

य > ज-      युद्ध > जुद्ध

न > ण-      कहानी > कैंणी

म > ड-      मेंढक > डेंडक
2. मध्य और अंत में जोड़ने वाल ‘ड़’ का उच्चारण ‘ङ’ होता है।
3. मालवी में ‘ह’ के स्थान पर ‘य’ या ‘व’ ध्वनि मिलती है या उसका लोप हो जाता है, जैसे- मोहन > मोयन, लुहार > लुवार, महीना > मइना आदि।
4. मालवी में संज्ञा के निम्न रूप मिलते हैं, जैसे- घोड़ा, घोड़ो, घोड़ौ, घोड्याँ आदि।
5. मालवी बोली में प्रयुक्त कुछ सर्वनाम दृष्टव्य हैं- मूं, हू, म्हें, अयां, तूं, थे, था, थ, थां, वो, वा, उणी, जाणी, कुंण, कणी, काईं आदि।
6. मालवी के विशेषण भी विशिष्ट हैं, जैसे- प्रायः हिन्दी के समान। कुछ भिन्न- इक्कोत्तर (71), बहोत्तर (72), तियोत्तर (73), चुम्मोत्तर (74) आदि।
7. मालवी बोली के कुछ क्रिया निम्नलिखित हैं- चळ्ँ, चळाँ, चळो, चळेगा, चळेंगा आदि।
8. इस बोली की कुछ सहायक क्रिया निम्नलिखित हैं-  हूँ, हाँ, हे, हो, है आदि।
9. मालवी बोली के कुछ क्रियाविशेषण निम्नलिखित हैं-  याँ, अठे, उठे, अइँ, वइँ, तोड़ी, बायर आदि।

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