पश्चिमी हिंदी की प्रमुख बोलियाँ और विशेषताएँ | pshcimi hindi

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पश्चिमी हिंदी की प्रमुख बोलियाँ और विशेषताएँ

शौरसेनी अपभ्रंश से विकसित पश्चिमी हिंदी (pshcimi hindi) के अन्तर्गत पाँच बोलियों आती है- हरियाणी, खड़ी बोली, ब्रजभाषा, कन्नौजी और बुन्देली। डॉ. भोलानाथ तिवारी ने पश्चिमी हिंदी के अन्तर्गत दो अन्य बोलियों ताजब्बेकी तथा निमाड़ी को भी स्वीकार किया है। जार्ज ग्रियर्सन ‘कन्नौजी’ को बोली न मानकर ब्रजभाषा की उपबोली मानते हैं, परन्तु उन्होंने जनमत को ध्यान में रखकर उसे स्वतन्त्र बोली का दर्जा दिया है। डॉ. भोलानाथ तिवारी ‘ताजुज्बेकी’ को भी pshcimi hindi (पश्चिमी हिंदी) के अन्तर्गत मानते हैं। परन्तु ग्रियर्सन, धीरेन्द्र वर्मा और उदयनारायण तिवारी आदि ‘निमाड़ी’ को पश्चिमी हिंदी की बोली नहीं मानते हैं, इसे राजस्थानी की बोली मानते हैं। पश्चिमी हिंदी कीबोलियों का परिचय, अन्य नाम, उपबोलियाँ, क्षेत्र तथा विशेषताएँ नीचे दिया जा रहा है।


पश्चिमी हिंदी की बोलियाँ

1. हरियाणी

हरियाणी पश्चिमी हिंदी (pshcimi hindi) की महत्वपूर्ण बोली है। जार्ज ग्रियर्सन ने इसे ‘बाँगरू’ कहा है। ‘बाँगर’ का अर्थ होता है ऊँची भूमि। यमुना के बाँगर क्षेत्र की बोली होने के कारण यह बाँगरू है। इसके हरियाणी नाम के संबंध में कई मत मिलते हैं। कुछ लोगों के अनुसार हरि का यान यहाँ से गुजरा था इसलिए यह क्षेत्र हरियाणा है। डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल इसे ‘आभीरायण’ का तद्भव मानते हैं।
हरियाणी बोली (haryanvi boli) की लिपि देवनागरी है, परन्तु कुछ लोग इसे फारसी लिपि में भी लिखते हैं। 1971 की जनगणना के अनुसार इसके बोलने वालों की संख्या 62790 है। हरियाणी बोली में साहित्य-रचना नहीं हुई है लेकिन लोकसाहित्य पर्याप्त मात्रा में मिलता है। ‘गरीबदास’ हरियाणी बोली के प्रमुख कवि हैं।

हरियाणी बोली के अन्य नाम

हरियाणी बोली के अन्य नाम निम्नलिखित है-haryanvi boli (हरियाणी बोली) को बाँगरू, देसवाली आदि नामों से भी जाना जाता है।

हरियाणी बोली की उपबोलियाँ

हरियाणी की मुख्य उपबोलियाँ केन्द्रीय हरियाणी, जाटू, चमरवा और अहीरवाटी हैं। डॉ. नानकचन्द अहीरवाटी को हरियाणी की एक उपबोली मानते हैं जबकि दूसरे विद्वान इसे राजस्थानी के अन्तर्गत मानते हैं।

हरियाणी बोली का क्षेत्र

हरियाणी (haryanvi) मुख्य रूप में करनाल, रोहतक, पानीपत, कुरुक्षेत्र, जींद, हिसार आदि जिलों में बोली जाती है। दिल्ली और पंजाब के पश्चिमी भागों में भी हरियाणी का प्रयोग होता है। केन्द्रीय हरियाणी गोहाना, बहादुरगढ़, दादरी, हिसार, अगरोहा और रोहतक जिलों में बोली जाती है। वहीं बाँगरू कैथल, जींद, नरवाना, कुरुक्षेत्र और करनाल आदि क्षेत्रों बोली जाती है। अहीरवाटी महेन्द्रगढ़, नारनौल तथा रिवाड़ी में बोली जाती है।

हरियाणी बोली की विशेषताएँ

haryanvi boli (हरियाणी बोली) की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
1. ‘ल’ की जगह ‘ळ’ का प्रयोग किया जाता है, जैसे- काळा, माळा, बादळ, धौळा

2. ‘न’ की जगह ‘ण’ का प्रयोग किया जाता है, जैसे- होणा, पाणी, उठणा, अपणा

3. ‘ड़, ढ़’ की जगह ‘ड, ढ’ का प्रयोग किया जाता है, जैसे- बड्डा, डेढ, पढाई

4. हरियाणी बोली में ध्वनिलोप पाया जाता है, जैसे- ‘अँगूठा’ की जगह ‘गुट्ठा’, ‘इकहत्तर’ की जगह ‘कहत्तर’

5. हरियाणी बोली में महाप्राण की जगह अल्पप्राण ध्वनियों का प्रयोग होता है, जैसे- ‘हाथ्’ की जगह ‘हात्’

6. हरियाणी में व्यंजन के स्थान पर द्वित्त्व का प्रयोग होता है, जैसे- बाब्बू, बेट्टा, उप्पर।

7. हरियाणी में में, मैं, मन्नें, मत्ते, मेरै, यो, या, ईहनें, इसते, आदि सर्वनाम का प्रयोग होता है।

8. हरियाणी बोली में बड्डा, बड्डी, ग्यारा (11), बारा (12), तेरा (13), ठंतर (78) आदि विशेषण का प्रयोग होता है।

9. हरियाणी बोली में सूँ, साँ, सै, से, था, थे आदि सहायक क्रिया का प्रयोग होता है।

10. हरियाणी में अठै, आडै, अडै, हाडै, हडै, इत, उरै, किब, कद्, जिब, जड़ै आदि क्रियाविशेषण का प्रयोग होता है।

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2. खड़ी बोली

खड़ी बोली (khadi boli) भी पश्चिमी हिंदी (pshcimi hindi) की प्रमुख बोली है, इसका विकास शौरसेनी अपभ्रंश के उत्तरी रूप से हुआ है। हिन्दुस्तानी, दक्खिनी हिंदी, उर्दू, साहित्यिक हिंदी और आधुनिक हिंदी का आधार यही खड़ी बोली ही है।

khadi boli (खड़ी बोली) की लिपि देवनागरी है। 1971 की जनगणना के अनुसार इसके बोलने वालों की संख्या 5989128 है। खड़ी बोली में भी साहित्य रचना प्राप्त नहीं हुई है, परन्तु लोक साहित्य की दृष्टि से यह बोली भी काफी संपन्न है। लोक साहित्य की दृष्टि से इसमें पवाड़ा, नाटक, लोककथा, लोकगीत, स्वांग आदि पर्याप्त मात्रा में मिलते हैं। मानक हिंदी का विकास इसी खड़ी बोली से हुआ है।

खडी बोली के अन्य नाम

खडी बोली के अन्य नाम निम्नलिखित हैं-
राहुल सांकृत्यायन और भोलानाथ तिवारी इसे ‘कौरवी’ नाम अभिहित करते हैं। इस नाम के पीछे ये 2 तर्क देते हैं, एक तो इसका क्षेत्र वही है, जिसे पहले ‘कुरु’ जनपद कहा जाता था और दूसरा, आधुनिक हिंदी को इस नाम के आधार पर आसानी से भिन्न किया जा सकता है। अन्य विद्वानों में सुनीति कुमार चटर्जी इसे हिन्दुस्तानी अथवा जनपदीय हिन्दुस्तानी, जार्ज ग्रियर्सन सिरहिंदी, सरहिंदी, वर्नाक्यूलर हिन्दुस्तानी तथा महावीर प्रसाद द्विवेदी सिरहिंदी नाम भी दिया है। परन्तु khadi boli का सर्वाधिक प्रचलित नाम खड़ी बोली ही है।

भाषा के अर्थ में खड़ी बोली शब्द का प्रयोग सबसे पहले लल्लू लाल (प्रेमसागर) तथा सदलमिश्र (नासिकेतोपाख्यान) ने किया था। लल्लू लाल और गार्सा द तासी ‘खड़ी’ शब्द का आधार ‘खरी’ को मानते हैं। कामता प्रसाद गुरु और धीरेन्द्र वर्मा के अनुसार इस बोली में मिलने वाली कर्कशता के कारण इसे खड़ी बोली कहा जाता है। वहीं चन्द्रधर शर्मा ‘गुलेरी’ के अनुसार ब्रजभाषा पड़ी है और ब्रजभाषा के विपरीत यह ‘खड़ी’ है, इसलिए यह खड़ी बोली है। गिलक्राइस्ट तथा अब्दुलहक ‘खड़ी’ का अर्थ ‘गँवारू’ मानते हैं और किशोरी दास वाजपेयी के मतानुसार ‘खडी पाई’ की प्रमुखता के कारण इसे खड़ी बोली कहा जाता है।

खडी बोली की उपबोलियाँ

khadi boli की मुख्य उपबोलियाँ हैं- पश्चिमी खड़ी बोली (पंजाबी से प्रभावित), पूर्वी खड़ी बोली (परिनिष्ठित हिंदी के निकट), पहाड़ताली और बिजनौरी।

खडी बोली का क्षेत्र

खडी बोली का शुद्ध रूप बिजनौर, उत्तर प्रदेश में मिलता है। इसका क्षेत्र काफी विस्तृत है, जार्ज ग्रियर्सन के अनुसार इसका क्षेत्र रामपुर, मुरादाबाद, बिजनौर, मेरठ, मुजफ्फरनगर, सहारनपुर, देहरादून का मैदानी भाग, अम्बाला (पूर्वी भाग) और पटियाला (पूर्वी भाग) है। गाजियाबाद, दिल्ली तथा ब्रज के कुछ भागों में भी खडी बोली का प्रयोग होता है।

खड़ी बोली की विशेषताएँ

खड़ी बोली (khadi boli) की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
1. ‘ऐ’ की जगह ‘ए’ का प्रयोग किया जाता है, जैसे- ‘पैर’ की जगह ‘पेर’।

2. इसी तरह ‘औ’ की जगह ‘ओ’, ‘है’ की जगह ‘हे’ का प्रयोग किया जाता है, जैसे- ‘और’ की जगह ‘ओर’, ‘दौड़’ की जगह ‘दोड़’

3. ‘इ’ की जगह ‘अ’ का प्रयोग किया जाता है, जैसे- ‘शिकारी’ की जगह ‘शकारी’ या ‘सकारी’, ‘मिठाई’ की जगह ‘मठाई’

4. ‘औ’ की जगह ‘अ’ का प्रयोग किया जाता है, जैसे-  ‘और’ की जगह ‘अर’। 

5. हरियाणवी की तरह ‘ल’ की जगह ‘ळ’ का प्रयोग किया जाता है, जैसे-  ‘जंगल’ की जगह ‘जंगळ’, ‘बलद’ की जगह ‘बळद’।

6. खड़ी बोली में ‘न’ के स्थान पर ‘ण’ का प्रयोग होता है, जैसे- ‘खाणा, माणुस, जाणा, राणी, सुणणा, अपणा आदि।

7. खड़ी बोली के कुछ विशिष्ट अव्यय प्रयुक्त होते हैं; जैसे- कद (कब), जद (जब), इब (अब), होर (और), कदी (कभी) आदि।

8. व्यंजन द्वित्व की प्रवृत्ति भी इस बोली की प्रमुख विशेषता है- बेट्टा, राज्जा, बाप्पू, उप्पर, रोट्टी, गड्डी आदि।

9. खड़ी बोली में महाप्राण के पूर्व अल्पप्राण का प्रयोग होता है, जैसे- ‘देखा’ की जगह ‘देक्खा’, ‘भूखा’ की जगह ‘भुक्खा’

10. खड़ी बोली की प्रधान प्रवृत्ति है- शब्दों का आकारान्त होना। जैसे- आणा, खोटूटा, लोटूटा, आदि। अवधी व्यंजनांत (घोड़) और ब्रज ओकारांत (घोरो) की तुलना में आकारांत (घोड़ा)

11. खड़ी बोली में प्रयुक्त कुछ सर्वनाम भी विशेष प्रकार के हैं, जैसे- अपणा (अपना), मुज (मुझ), के (क्या), म्हारा (हमारा), थारा (तुम्हारा), कुच्छ (कुछ), विस्का (उसका), कोण (कौन), किस्का (किसका) आदि।

12. खड़ी बोली में विशेषण परिनिष्ठित हिंदी के समान प्रयुक्त होते हैं।

13. च्यार (4) ग्यारै (11), पंद्रा (15), पैला (पहला), पउवा, अद्धा, पड़वा, छट्ट आदि विशेष का प्रयोग खड़ी बोली में मिलता है।

14. खड़ी बोली में क्रिया का निम्न प्रयोग दिखाई देता है- 

एकवचनबहुवचन 
हूँ हें 
हेहों
हे  हें 
था  थे

15. इभी, इबजा (अभी), कद (कब), इंगै, उंगै, जिंगै, नईं, नीं, ने (नहीं) आदि क्रियाविशेषण का प्रयोग होता है।

3. ब्रजभाषा

braj bhasha (ब्रजभाषा) pshcimi hindi (पश्चिमी हिंदी) की महत्वपूर्ण बोली है, इसका उद्भव लगभग सन् 1000 ई. से माना जाता है। प्रारम्भ में इसे पिंगल या भाखा कहा जाता था। ब्रजभाषा (braj bhasha) शब्द का प्राचीनतम प्रयोग गोपाल कृत ‘रस विलास टीका’ (1587 ई.) में मिलता है। परन्तु भाषा के अर्थ में यह शब्द अठारहवीं शताब्दी से ही प्रचलित हुआ है। ब्रज शब्द का मूल सं. ‘ब्रज’ है जिसका प्रयोग ऋग्वेद में ‘चरागाह’ के अर्थ में हुआ है।
कुछ लोग ‘ब्रजबुली’ को ब्रजभाषा ही समझते हैं पर वास्तव में ‘ब्रजबुलि’ बंगला भाषा की एक शैली है। ब्रजभाषा मुख्य रूप से ‘देवनागरी’ लिपि में लिखी जाती है। कुछ लोग इसे ‘फारसी’ और ‘कैथी’ लिपि में भी लिखते रहे हैं। 1971 की जनगणना के अनुसार ब्रजभाषा बोलने वालों की संख्या 25864 थी। जार्ज ग्रियर्सन के अनुसार ब्रज भाषा-भाषियों की संख्या 79 लाख है और डॉ. धीरेन्द्र वर्मा इनकी संख्या एक करोड़ तेईस लाख तक मानते हैं। 

साहित्यिक दृष्टि से braj bhasha अन्य बोलियों की तुलना में सर्वाधिक समृद्ध बोली है। सोलहवीं शताब्दी के प्रारम्भ से ही साहित्य में ब्रजभाषा का प्रयोग हो रहा है। भक्तिकालीन कवियों में सूरदास और तुलसीदास ने ब्रजभाषा में महत्वपूर्ण रचनाएँ की तथा ब्रजभाषा को साहित्यिक भाषा के रूप में स्थापित कर दिया। जिसका प्रभाव यह हुआ की रीतिकाल का लगभग सम्पूर्ण साहित्य ब्रजभाषा में ही लिखा गया। बिहारी, घनानन्द, नन्ददास, देव, रत्नाकर, भूषण, आलम, रहीम, रसखान आदि ब्रजभाषा के ही कवि हैं। आधुनिक काल में जगन्नाथदास ‘रत्नाकर’ और रमाशंकर शुक्ल ‘रसाल’ ब्रजभाषा के महत्वपूर्ण कवि हैं।

ब्रजभाषा के अन्य नाम

ब्रजभाषा के अन्य नामनिम्नलिखित हैं-
braj bhasha (ब्रजभाषा) को अन्तर्वेदी, माथुरी या नागभाषा भी कहा जाता है।

ब्रजभाषा की उपबोलियाँ

ब्रजभाषा की उपबोलियाँ निम्नलिखित हैं-
भुक्सा, भरतपुरी, डांगी, माथी कठेरिया, गाँववारी, जादोवाटी या जादोवारी, ढोलपुरी तथा सिकरवाड़ी आदि। भरतपुरी राजस्थान के भरतपुर क्षेत्र में बोली जाती है।

ब्रजभाषा का क्षेत्र

ग्रियर्सन के अनुसार ब्रजभाषा (braj bhasha) का क्षेत्र है- मथुरा, आगरा, अलीगढ़, मैनपुरी, एटा, बदायूँ, बरेली, गुड़गाँव जिले की पूर्वी पट्टी, राजस्थान में भरतपुर, धौलपुर आदि तथा ग्वालियर का पश्चिमी भाग है। वहीं लल्लू लाल ब्रज, ग्वालियर, भरतपुर, बांसवाड़ा, भदावर, अन्तर्वेद तथा बुन्देलखण्ड को ब्रजभाषा का क्षेत्र मानते हैं।
डांगी, जयपुर, करौली तथा भरतपुर में प्रयुक्त होती है। माधुरी का संबंध मथुरा प्रदेश से है। कठेरिया का मुख्य क्षेत्र बदायूँ है। गाँववारी आगरा जिले के पूर्वी भाग में बोली जाती है। जादोबारी करौली, भरतपुर और ग्वालियर के कुछ भागों में प्रयुक्त होती है। ढोलपुरी का क्षेत्र है- राजस्थान का ढोलपुर और सिकरवाड़ी का मुख्य क्षेत्र ग्वालियर का उत्तर पूर्वी भाग है।

ब्रजभाषा की विशेषताएँ

braj bhasha (ब्रजभाषा) की कुछ प्रमुख विशेषताएँ इस प्रकार हैं-
1. ब्रजभाषा की प्रमुख विशेषता है- इसकी औकारान्त प्रवृत्ति, जैसे- आयौ, गयौ, खायौ, कारौ, पीरौ, अच्छौ, बुरौ आदि।

2. ब्रजभाषा में में आकारांत की जगह ओकारांत की प्रवृत्ति भी पाई जाती है, जैसे- घोड़ा की जगह घोरा, भला की जगह भलो, बड़ा की जगह बड़ो आदि।

3. ब्रजभाषा में व्यंजनांत की जगह उकारांत प्रवृत्ति मिलता है, जैसे- ‘सब्’ की जगह ‘सबु’, ‘घर्’ की जगह ‘घरु’ आदि।

4. ब्रजभाषा में ‘ह’ का लोप हो जाता है, जैसे- ‘साहूकार’ की जगह ‘साउकार’, ‘बारह’ की जगह ‘बारा’ आदि।

5. ‘क्’ की जगह ‘च’ का प्रयोग होता है, जैसे- ‘क्यों’ की जगह ‘च्यौं’ या ‘चौं’।

6. ‘ड़’ की जगह ‘र’ का प्रयोग होता है, जैसे- ‘घोड़ो’ की जगह ‘घोरो’, ‘साड़ी’ की जगह ‘सारी’ आदि।

7. ‘न्’ की जगह ‘ल्’ का प्रयोग होता है, जैसे- ‘नम्बरदार’ की जगह ‘लम्बरदार’।

8. ‘ल्’ की जगह ‘न्’ का प्रयोग होता है, जैसे- ‘बाल्टी’ की जगह ‘बान्टी’।

9. ‘र्’ की जगह ‘ल्’ का प्रयोग होता है, जैसे- ‘रज्जु’ की जगह ‘लेजू’, ‘जरूरत’ की जगह ‘जरूलत’।

10. ‘ल्’ की जगह ‘र्’ का प्रयोग होता है, जैसे- ‘बादल’ की जगह ‘बादर’, ‘ताला’ की जगह ‘तारौ’।

11. उत्तम पुरुष एकवचन में ‘हौं’ (मैं) का प्रयोग होता है, जैसे- हौं ना जातु (मैं नहीं जाता)

12. ब्रजभाषा में सर्वनाम हों, हौं (मैं), तै, तैं (तू), वो, वह, वुह (वह) ; यिह (यह), उनि, उन, उन्हौं, विन, विन्हौं, तुम्हार्यो, तिहार्यो आदि का प्रयोग होता है।

13. ब्रजभाषा में विशेषण प्रायः खड़ी बोली के समान होते हैं। उनमें सिर्फ आकारांत शब्द ओकारांत हो जाते हैं। इनके विकारी रूप एकवचन में ए अथवा ऐ और पुल्लिंग बहुवचन में ए, एँ, ऐ, ऐं प्रत्ययांत होते हैं। संख्यावाचक विशेषण भी विशिष्ट हैं, जैसे- एकु, दै, तीनि, चारि, छै, ग्यारा, बारा, चउदा, किरोड़ आदि।

14. ब्रजभाषा में भविष्य काल की क्रियाओं में ‘ग’ वाले रूप चलते हैं, जैसे–आइगे, खाडगे, जाड़्गे आदि। क्रिया का मारना के रूप- मारिबौ, मारिबौं, मारिबे, मारिबै, मारतु, मारि, मारिकै होता है।

15. ब्रजभाषा में हौं, हैं, हौ, हुतौ, हुती, हुते, हुतीं और भए, भई, ह्वै, ह्वैको, होऊँ, होइहौं आदि सहायक क्रियाओं का प्रयोग होता है।

16. भूतकाल की सहायक क्रिया के लिए हो, ही, है का प्रयोग होता है। जैसे- बु जातु हो (वह जाता था।)

17. ब्रजभाषा में क्रियाविशेषण अबै, तबै, आजु, काल्लि, इहाँ, हियाँ उतै, बितै, माँ, म्हाँ, हवाँ, इत, उत, कित, तित आदि का प्रयोग होता है।

4. कन्नौजी

kannauji (कन्नौजी) बोली pshcimi hindi (पश्चिमी हिंदी) के अंतर्गत आती है। कन्नौजी बोली का नामकरण कन्नौज (सं. कान्यकुब्ज) नगर के नाम पर हुआ है। डॉ. धीरेन्द्र वर्मा इसे ब्रजभाषा की ही एक उपबोली ‘पूर्वी ब्रज’ की संज्ञा देते हैं। परन्तु ब्रजभाषा से व्याकरणिक भिन्नता के कारण अलग बोली माना जाता है। जार्ज ग्रियर्सन ने भी कन्नौजी बोली अलग बोली मानते हैं।

कन्नौजी बोली की भी लिपि देवनागरी ही है। 1971 की जनगणना में कन्नौजी बोलने वालों की संख्या का उल्लेख नहीं मिलता है। जार्ज ग्रियर्सन ने अपने भाषा सर्वेक्षण में कन्नौजी बोलने वाला की संख्या 4481500 बताई है। इस क्षेत्र के महत्वपूर्ण कवियों में चिन्तामणि, मतिराम, भूषण तथा बीरबल आदि का नाम प्रमुख हैं। परंतु इन कवियों ने अपनी रचनाएँ kannauji boli (कन्नौजी बोली) की जगह ब्रजभाषा में की हैं। फिर भी इन कवियों की ब्रजभाषा पर कन्नौजी की छाप देखी जा सकती है। आधुनिक युग में कमलूदास (अभिमन्युवध) जैसे कुछ कवियों ने कुछ रचनाएँ कन्नौजी बोली में प्रस्तुत की हैं।

कन्नौजी बोली के अन्य नाम

kannauji boli (कन्नौजी बोली) को कन्नौजिया तथा कनउजी भी कहा जाता है।

कन्नौजी बोली की उपबोलियाँ

तिरहारी, पचरुआ, भुक्सा (बुक्सा) संडीली, इटावी, बंगराही, शाहजहाँपुरी, पीलीभीती आदि कन्नौजी की प्रमुख उपबोलियाँ हैं।

कन्नौजी बोली का क्षेत्र

जार्ज ग्रियर्सन ने कन्नौजी (kannauji) बोली का क्षेत्र इटावा, फर्रुखाबाद, शाहजहाँपुर, कानपुर, हरदोई तथा पीलीभीत बताया है। इस बोली का केन्द्र फर्रुखाबाद जिला है। पीलीभीत और इटावा की कन्नौजी पर ब्रजभाषा की छाप मिलती है तथा हरदोई और कानपुर की कन्नौजी अवधी बोली से प्रभावित है। कानपुर की कन्नौजी पर बुन्देली का प्रभाव भी दिखाई पड़ता है।

कन्नौजी बोली की प्रमुख विशेषताएँ

kannauji (कन्नौजी) बोली की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
1. कन्नौजी बोली की प्रधान विशेषता है, इसकी ओकारान्त प्रवृत्ति, जैसे- बड़ो, छोटो, आओ, गओ, आदि। ये शब्द ब्रजभाषा में औकारान्त तथा खड़ी बोली में आकारान्त है।

2. कन्‍नौजी में व्यंजनांत उकारांत में परिवर्तित हो जाता है, जैसे- खातु (खात्), सबु (सब्), घरु (घर) आदि।

3. कन्‍नौजी बोली में अन्त्य महाप्राण वर्णों की जगह अल्पप्राण वर्णों का प्रयोग होता है, जैसे- ‘हाथ्’ की जगह ‘हॉत्’।

4. कन्‍नौजी में ल्ह, रहु, म्ह शब्दारम्भ में लगते हैं, जैसे- ल्हसुन, र्हटा, म्हगाई आदि।

5. कन्‍नौजी बोली में मध्य ‘ह’ का लोप हो जाता है, जैसे- जाहि का जाइ में तथा लेहु का लेउ में।

6. हिंदी ‘र’ का स्पर्श व्यंजनों से योग होने पर प्राकृत के समान दोनों व्यंजनों का समीकृत रूप का प्रयोग होता है, जैसे- ‘मिर्च’ की जगह ‘मिच्च’, ‘उर्द’ की जगह ‘उद्द’, ‘हल्दी’ की जगह ‘हद्दी’।

7. संज्ञा या सर्वनाम के बहुवचन रूपों के साथ- हार, हर का प्रयोग होता है, जैसे- ‘हम हार’ अथवा ‘हम हर’ की जगह ‘हमलोग’।

8. कन्‍नौजी बोली में प्रयुक्त होने वाले कुछ सर्वनाम रूप विशिष्ट हैं, जैसे- मँई, मोरो, मेयो, हमाओ, तुमरो, जउन, जौनु, जौन, तौनु, तौन, कौनौं, कौनउ, किसऊ, बौ, वउ, यहु, इहु, उहि आदि।

9. कन्‍नौजी बोली में इया, वा प्रत्यय का योग क्रमशः स्त्रीलिंग और पुल्लिंग में होता है जैसे-‘जीभ’ की जगह ‘जिभिया’, ‘दांत’ की जगह ‘दतियां’, ‘छोकरी’ की जगह ‘छोकोरिया’, ‘बेटा’ की जगह ‘बेटवा’, ‘बच्चा’ की जगह ‘बचवा’ आदि।

10. कन्‍नौजी में संख्यावाचक विशेषण- इकु, एकु, दुइ, तीनि, चारि, छा (6) नउ (9) हजारू, किड़ोर आदि का प्रयोग होता है।

11. कन्‍नौजी में क्रिया- चलत्, चलतु, चलो, चली, चलन्, चलनु, चलनो, चलिबो आदि का प्रयोग होता है।

12. भूतकालिक सहायक क्रियाओं का विशिष्ट प्रयोग कन्‍नौजी की एक अन्यतम विशेषता है। हिंदी में जहाँ था, थी, थे का प्रयोग होता है, वहाँ कन्‍नौजी में हतो, हती, हते का प्रयोग होता है।

13. कन्‍नौजी में भविष्यकाल की क्रिया में इहै प्रत्यय लगता है; जैसे: अइहै, खइहै, जइहै आदि।

14. कन्‍नौजी बोली में क्रियाविशेषण- ह्याँ, ह्वाँ, जहाँ, इत्तो, उत्तो, कित्तो, ऐसो, वैसो, ज्यौं, त्यों आदि का प्रयोग होता है।

15. कन्‍नौजी बोली के कारक चिन्हों में कुछ विशिष्टता है, जैसे-
कर्ता- नैं,कर्म- कउँ, कोकरण- से, सनअधिकरण- माँ, पै, लो।

5. बुन्देली

बुन्देली (bundeli)  भी pshcimi hindi (पश्चिमी हिंदी) की महत्वपूर्ण बोली है, जो बुन्देलखण्ड में बोली जाती है। यह शौरसेनी अपभ्रंश के दक्षिणी रूप से विकसित हुई है। डॉ. धीरेन्द्र वर्मा बुन्देली को स्वतंत्र बोली नहीं मानते हैं। उनके अनुसार, “ब्रज, कन्नौजी तथा बन्देली एक ही बोली के तीन प्रादेशिक रूप मात्र हैं।”
बुन्देली बोली मुख्यतः नागरी लिपि में लिखी जाती है, परन्तु कुछ लोग इसे मुड़िया, महाजनी अथवा कैथी लिपि में भी लिखते हैं। 1961 की जनगणना के अनुसार इसे बोलने वालों की संख्या 54147 थी। जार्ज ग्रियर्सन ने उन्नीसवीं शताब्दी के आरम्भ में  किए गये अपने भाषा सर्वेक्षण में यह संख्या 6869201 बताई है।
बुन्देली (bundeli) में साहित्य रचना बहुत कम हुई है, किन्तु लोक साहित्य पर्याप्त मात्रा में रचा गया है। इस क्षेत्र के कवियों में प्रमुख्य रूप से तुलसीदास, केशवदास, पदमाकर, ठाकुर, गोरे लाल आदि हैं जिन्होंने ब्रजभाषा अथवा अवधी बोली में ही रचनाएँ की हैं। एनसाईं, ईसुरी, धर्मदास, लाल कवि, गंगाधर ने बुन्देली में रचना की है। लाल कवि की रचना ‘छत्र प्रकाश’ बुन्देली में है। जगनिक ने अपनी प्रसिद्ध रचना ‘आल्हाखण्ड’ को बन्देली की उपबोली ‘बनाफरी’ में लिखा है।

बुन्देली बोली का अन्य नाम

बुन्देली (bundeli) का अन्य नाम बुन्देलखण्डी भी है।

बुन्देली की प्रमुख उपबोलियाँ

बुन्देली (bundeli) की प्रमुख उपबोलियाँ निम्नलिखित हैं-
आदर्श बुन्देली, खटोला, लोघांत्ती, पॉवरी या पंवारी, बनाफरी, कुंडारी, तिरहारी, निभट्ठा, भदावरी, लोधी और कुम्भारो आदि।

बुन्देली बोली का क्षेत्र

बुन्देली (bundeli) का क्षेत्र उरई, जालौन, हमीरपुर, झाँसी, बाँदा, ग्वालियर, ओरछा, सागर, दमोह, नरसिंहपुर, सिवनी तथा जबलपुर, होशंगाबाद तक फैला हुआ है। इसके कई मिश्रित रूप दतिया, पन्ना, चरखारी बालाघाट, नृसिंहपुर, तथा छिंदवाड़ा के कुछ भागों में पाए जाते हैं।

बुन्देली की कुछ प्रमुख विशेषताएँ

बुन्देली बोली (bundeli boli) की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
बुन्देली बोली में-
1. ‘अ’ की जगह ‘इ’ का प्रयोग होता है, जैसे- ‘बरोबर’ की जगह ‘बिरोबर’।

2. ‘ए’ की जगह ‘इ’ का प्रयोग होता है, जैसे- ‘बेटी’ की जगह ‘बिटिया’।

3. ‘ओ’ की जगह ‘उ’ का प्रयोग होता है, जैसे- ‘घोरो’ की जगह ‘घुरवा’।

4. ‘औ’ की जगह ‘ओ’ का प्रयोग होता है, जैसे- ‘और’ की जगह ‘ओर’।

5. ‘ड़’ की जगह ‘र’ का प्रयोग होता है, जैसे- ‘पड़ो’ की जगह ‘परो’।

6. ‘ऐ’ की जगह ‘ए’ का प्रयोग होता है, जैसे- ‘कैहों’ की जगह ‘केहौं’।

7. ‘क’ की जगह ‘ग’ का प्रयोग होता है, जैसे- ‘हकीकत’ की जगह ‘हकीगत’।

8. ‘य’ की जगह ‘ज’ का प्रयोग होता है, जैसे- ‘यह’ की जगह ‘जो’।

9. ‘स’ की जगह ‘छ’ का प्रयोग होता है, जैसे- ‘सीढ़ी’ की जगह ‘छीड़ी’।

10. ‘च’ की जगह ‘स’ का प्रयोग होता है, जैसे- ‘साँचे’ की जगह ‘साँसे’।

11. बुन्देली में प्रयुक्त कुछ सर्वनाम दृष्टव्य हैं- में, मैं, मो, मोरो, मोई, मो, ओ, हमैं, तू, ते, तें, बौ, बो, जो, ई, इ, ऊको, तौन, ती, तोओ, तुमाओ, काये, कोऊ, कोउ, कौनऊं आदि।

12. बुन्देली बोली प्रायः औकारान्त है, भूतकालिक कृदन्त के लिए ‘ओ’ प्रत्यय लगता है, जैसे- आओ, गाओ, मारो, बैठो, आदि।

13. विशेषण भी इसकी विशिष्टता को रेखांकित करते हैं- अपुन, अपन, आप, छै (6), नौ (9), गेरा (11), बारा (12), तेरा (13), चउदा (14), पन्‍न्द्रा (15), उन्‍नैस (19), पैलो, दुसरौ, पाँचमौं, आधो, चौथयाई, सबाओ, दो बीसी (40) तीन बीसी (60) आदि।14. बुन्देली में क्रिया के लिए- लिखत्, मारत्, करत्, गओ, चलरऔहौं, चलरऔ है, चलरऔ आदि रूप चलते हैं। 15. बुन्देली में सहायक क्रिया के लिए- हौं, औं, हों, ओं, आँव, आँउँ, हुहौं, होउँगी आदि रूप चलते हैं। भूतकालिक सहायक क्रिया के लिए- हतो, हती, हते, तो, ती, ते, का प्रयोग होता है, जैसे- इकु राजा हतो।

16. बुन्देली के कुछ क्रिया विशेषण निम्नवत्‌ हैं- याँ, यौई, वां, बांई, क्याँई, इतै, इताँयँ, उतायें, आँगूँ, पाएं, पाछूं, पाछैं, अबई, तबई, ऐंगर आदि। सार्वनामिक क्रिया विशेषण भी विशेष प्रकार के हैं- इत्तो, इतनो, कित्तों, कितनौ, जित्तौ, वैसो, कै, जै, आदि।

6. निमाड़ी

निमाड़ी बोली (nimadi boli) का क्षेत्र मध्य प्रदेश का निमाड नामक प्रदेश है। जार्ज ग्रियर्सन इसे राजस्थानी उपभाषा के दक्षिणी वर्ग अर्थात् दक्षिणी राजस्थानी के अन्तर्गत रखते हैं। कई विद्वानों ने इसे मालवी का दक्षिणी रूप स्वीकार किया है। nimadi boli को डॉ. भोलानाथ तिवारी इसे पश्चिमी हिंदी (pshcimi hindi) में ही रखने के पक्ष में हैं। फोर्सिथ के अनुसार यह फारसी और मराठी शब्दों से युक्त हिंदी की एक बोली है।

निमाड़ी बोली की प्रमुख उपबोलियाँ

निमाड़ी (nimadi) की प्रमुख उपबोलियाँ निम्नलिखित हैं-
बंजारी निमाड़ी (भीली तथा कुरुकू से प्रभावित), ‘कन्बी निमाड़ी’ (गुजराती से प्रभावित) ‘गूजरी निमाड़ी’ (गजराती तथा मालवी से प्रभावित) तथा ‘नागरी निमाड़ी’ (गुजराती से काफी प्रभावित) आदि।

निमाड़ी बोली का क्षेत्र

परिनिष्ठित निमाड़ी का क्षेत्र खरगोन और खण्डवार के बीच का प्रदेश माना जाता है। इस बोली (nimadi) पर मालवी, मराठी, बन्देली, खानदेशी और भीली का पर्याप्त प्रभाव दिखाई पड़ता है। निमाड़ी में लोक साहित्य की रचना पर्याप्त मात्रा में हुई है परंतु साहित्य कम लिखा गया है। इसके प्रमुख कवि ‘सिंगाजी’ हैं।

निमाड़ी बोली की विशेषताएँ

निमाड़ी बोली (nimadi boli) की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं-
1. निमाड़ी बोली में अल्पप्राणी करण पाया जाता है, जैसे- हाथ की जगह हात्, साधु की जगह सादू।

2. निमाड़ी में घोषीकरण की प्रवृति पाई जाती है, जैसे- लोक की जगह लोग।

3. निमाड़ी बोली में ‘ल’ की जगह ‘ळ’ का प्रयोग होता है, जैसे- बाल की जगह बाळ।

4. निमाड़ी में अकारण अनुनासिकता की भी प्रवृति मिलती है, जैसे- चावल की जगह चाँवल।

5. निमाड़ी बोली में संज्ञा का विकारी रूप दिखाई देता है, जैसे- घोड़ा, घोड़ान्, घोड़ना, बकरीन, बकरीना आदि।

6.निमाड़ी बोली में प्रयुक्त होने वाले कुछ सर्वनाम रूप विशिष्ट हैं, जैसे- हऊँ, मन, मख, हमख, म्हसी, हमसी, तोसी, थारासी, थारो, ऊ, वा, ओख आदि।

7. निमाड़ी बोली में विशेषण प्रायः हिंदी के समान प्रयुक्त होते हैं, जैसे- पाच (5) चाळीस (40), आधो, घोड़ो, जादो, बड़ो, ऊचो आदि।

8. निमाड़ी में क्रिया के लिए- चलूँज्, चलूँच्, चलाँच्, चल्यो, चल्यो छे, चल्यो थो आदि रूप चलते हैं। 9. इसके कुछ क्रिया विशेषण निम्नवत्‌ हैं- अब, अवँ, जब, जवँ, आज, काल, परसों, याँ, वहाँ आदि।

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