पूर्वी हिंदी की प्रमुख बोलियाँ और विशेषताएँ | purvi hindi

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पूर्वी हिंदी की बोलियाँ और उनकी विशेषताएँ

जार्ज ग्रियर्सन ने हिंदी क्षेत्र को दो भागों- पश्चिमी हिंदी और पूर्वी हिंदी में विभाजित किया है। इन्हीं क्षेत्रों में बोली जाने वाली बोलियों को वे हिंदी की बोलियाँ (hindi ki boliyan) मानते हैं। ग्रियर्सन पूर्वी हिंदी की उत्पत्ति अर्धमागधी अपभ्रंश से मानते हैं। वहीं धीरेन्द्र वर्मा (हिंदी साहित्यकोश) के अनुसार पूर्वी हिंदी का विकास मागधी अपभ्रंश से हुआ है। purvi hindi (पूर्वी हिंदी) में तीन बोलियाँ- अवधी (awadhi), बघेली (bagheli) और छत्तीसगढ़ी (chhattisgarhi) मानी जाती हैं। जार्ज ग्रियर्सन मूल रूप से इनमें दो ही बोलियों- awadhi (अवधी) और chhattisgarhi (छत्तीसगढ़ी) को मानने के पक्ष में थे। bagheli boli (बघेली बोली) को उन्होंने जनमत को ध्यान में रखते हुए ही बोली स्वीकार किया। जार्ज ग्रियर्सन के अनुसार पूर्वी हिंदी बोलने वालों की कुल संख्या 24511647 है।


हिंदी की बोलियाँ (hindi ki boliyan) श्रृंखला के अंतर्गत पूर्वी हिंदी की तीनों बोलियों का परिचय, अन्य नाम, उपबोलियाँ, क्षेत्र तथा विशेषताएँ आदि नीचे दिया जा रहा है-

पूर्वी हिंदी की बोलियाँ

1. अवधी

अवधी पूर्वी हिंदी (purvi hindi) की प्रमुख बोली है जो अवध प्रदेश के अन्तर्गत बोली जाती है। ऐसा माना जाता है कि अयोध्या से अवध शब्द विकसित हुआ और इसी के आधार पर इस बोली को awadhi (अवधी) कहा गया। जार्ज ग्रियर्सन ने इसे अर्धमागधी अपभ्रंश से उद्भूत माना है, परन्तु डॉ. बाबूराम सक्सेना इसमें पालि से अधिक समानता पाते हैं। वहीं डॉ. भोलानाथ तिवारी इसे ‘कौसली’ से उद्भूत मानते हैं।

awadhi (अवधी) प्रायः नागरी लिपि में लिखी जाती है परन्तु मध्यकाल में कैथी और फारसी लिपि में भी इसे लिखा जाता रहा है। जार्ज ग्रियर्सन ने अवधी बोलने वालों की संख्या एक करोड़ साढ़े इकसठ लाख बताई है। 1971 की जनगणना के अनुसार अवधी बोलने वालों की संख्या 136259 है। 

अवधी बोली में साहित्य रचना व्यापक मात्रा में हुई है। अवधी की प्रथम रचना मुल्ला दाऊद कृति ‘चंदायन’ को मानी जाता है। तुलसीदास कृत ‘रामचरितमानस’ एवं जायसी कृत ‘पद्मावत’ जैसे हिंदी महाकाव्य इसी भाषा (awadhi boli) में लिखे गए हैं। हिंदी की प्रेमाश्रयी शाखा के लगभग सभी कवियों ने अवधी में ही साहित्य रचना की है। इनमें प्रमुख हैं- जायसी, मंझन, कुतबन, नूर मुहम्मद आदि। अवधी (awadhi) के अन्य प्रमुख कवि हैं- लालदास, नाभादास, अग्रदास, सूरजदास, ईश्वरदास, छेमकरन, कासिमशाह और आधुनिक काल में पं. द्वारिका प्रसाद मिश्र।

अवधी बोली के अन्य नाम

अयोध्या कोशल प्रदेश के अन्तर्गत आता है, इसलिए इसे क़ोशली बोली भी कहा जाता है। अवधी को कुछ विद्वान पूर्वी, उत्तरखण्डी अथवा बैसवाड़ी कहने के पक्ष में भी हैं। परन्तु अधिकांश विद्वान अवधी नाम के पक्ष में एकमत हैं।

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अवधी बोली की उपबोलियाँ 

अवधी बोली (awadhi boli) की उपबोलियों की संख्या तेरह बताई जाती है, जिनमें प्रमुख हैं-मिर्जापुरी (मिर्जापुर में प्रयुक्त अवधी), बनौधी (पश्चिमी जौनपुर), बैसवाड़ी (उन्नाव एवं रायबरेली के बीच के क्षेत्र की बोली) गंगापारी, पूर्वी, उत्तरी, जोलहा, गहोरा, जूड़र आदि।

अवधी बोली का क्षेत्र

awadhi boli (अवधी बोली) उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी, गोंडा, बहराइच, लखनऊ, उन्नाव, बस्ती, रायबरेली, सीतापुर, हरदोई का कुछ भाग, अयोध्या, फैजाबाद, सुलतानपुर, रायबरेली, प्रतापगढ़, बाराबंकी, कानपुर, फतेहपुर, इलाहाबाद, मिर्जापुर का कुछ भाग तथा जौनपुर (कुछ भाग) जिलों में फैला हुआ है।

अवधी बोली की विशेषताएँ

अवधी की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
1. अवधी में ‘ए’, ‘ओ’ के ह्रस्व और दीर्घ दोनों रूप तथा स, श, ष के स्थान पर ‘स’ का प्रयोग।
2. अवधी बोली में ‘ऐ’ का उच्चारण ‘अइ’ और ‘औ’ का उच्चारण ‘अउ’ रूप में होता है, जैसे, ‘ऐसा’ की जगह ‘अइसा’, ‘औरत’ की जगह ‘अउरत’।
3. अवधी भाषा के कुछ ध्वनि परिवर्तन निम्नलिखित हैं-

ण > न-      चरण > चरन, मणि > मनि, गुण > गुन

य > ज-      योग > जोग, सुयश > सुजस

के > ग-      भक्त > भगत

ल > र-      मूसल > मूसर , अंजलि > अंजुरी

ड़ > र-       जोड़ (कर) > जोरि

व > ब-      वाण > बान, वारि > बारि

ष > ख-      भाषा > भाखा

4. अवधी में अल्पप्राण की जगह महाप्राण ध्वनियों का प्रयोग होता है, जैसे- पेड़ की जगह फेड़, पुनः की जगह फुन। 
5. अवधी बोली में संज्ञा के तीन रूप मिलता है, जैसे- घोर (घोड़ा), घोरवा, घरउना; कुत्ता, कुतवा, कुतउना।
6. अवधी के कुछ प्रत्यय विशिष्ट हैं-
इया-         डिब्बी > डिबिया, बाछा > बछिया, खाट > खटिया, बिल्ली > बिलइया

वा-          रजिस्टर > रजिसटरवा, जगदीश > जगदीसवा

ई-           बकरा > बकरी

इनि, इनी-     साँप > साँपिनि, लरिका > लरिकिनी

आनी-        जेठ > जेठानी

नी-          मास्टर > मास्टन्नी
7. अवधी बोली सर्वनाम रूप में भी विशिष्टता लिए हुए है, जैसे-अन्य पुरुष- ऊ, बा, ओ, उइ, ई, इठ, इन येइ, केऊ, कौनो, काहु, ओकर, वहिकर आदि।मध्यम पुरुष- तूं, तैं, तुंह, तोर, तोहार, तोहि, तोहिं, तुहि आदि।उत्तम पुरुष- मैं, मइं, मोर, मोरे, मोरि, म्वार, मोकहं, हम, हमन, हमारा आदि।
8. अवधी बोली के विशेषण मूलरूप में अकारान्त होते हैं, जैसे- छोट, बड़, भल, नीक, खोट, याक् (1), पान (5), पहिल, दूसर, पउन आदि।
9. अवधी बोली की कुछ क्रिया निम्नलिखित हैं-चलउँ, चलइ, चलउ, चलतिहउँ, चलतिहइ, चलिसिहइ, चले होतिउँ आदि।
10. अवधी बोली की कुछ सहायक क्रियाएं निम्नलिखित हैं-वर्तमान काल- अहउं, आहि, हहि, आछै।भूतकाल- भा, भए, रहा, रहे, अहा, अहे।भविष्यकाल- होब, होबइ, होयउं, होइहि।
11. अवधी बोली के विशिष्ट क्रिया विशेषण निम्नलिखित हैं-यहां- इहँ, इहाँ, एठियाँ, हियाँ, इहवाँवहां- उहां, ओठियां, ओठियन, हुआँ, उहवांकहां- कहैं, कहवां, केठियां, केठियन।अन्य क्रिया विशेषण- ऊहाँ, ओइकी, जईसी, अब्बय, ई जून, तब्बइ, आजु, काल्हि, परउँ, फिन आदि।
12. बोलचाल की आधुनिक अवधी बोली खड़ी बोली से भी प्रभावित है। जबकि मध्यकालीन अवधी में अरबी-फारसी के शब्द अधिक प्रयुक्त होते थे।

2. बघेली

बघेली purvi hindi (पूर्वी हिंदी) की महत्वपूर्ण बोली है। बघेले राजपूतों की वजह से रीवाँ और आसपास का क्षेत्र बघेलखण्ड कहलाया और बघेलखण्ड की बोली bagheli (बघेली) कहलाई। बघेली और अवधी में इतनी अधिक साम्यता है कि कुछ विद्वान बघेली को अवधी की एक बोली मानते हैं। जार्ज ग्रियर्सन ने भी जनमत को ध्यान में रखकर ही बघेली (bagheli) को स्वतन्त्र बोली स्वीकार किया था। इसकी सीमावर्ती बोलियाँ है- बुन्दली, अवधी और भोजपुरी।

पहले bagheli boli (बघेली बोली) को कैथी लिपि में लिखा जाता था, परन्तु अब यह देवनागरी लिपि में ही लिखी जाती है। जार्ज ग्रियर्सन के अनुसार बघेली बोलने बालों की संख्या लगभग 46 लाख है। लेकिन बघेली बोलने वालों की संख्या लगभग 60 लाख है। बघेली बोली (bagheli boli) में कोई साहित्य रचना प्राप्त नहीं हुई है, लेकिन लोक साहित्य पर्याप्त मिलता है।

बघेली बोली के अन्य नाम

बघेली (bagheli boli) के अन्य नाम रीवाँई और बघेलखंडी भी है।

बघेली बोली की उपबोलियाँ

बघेली बोली की प्रमुख उपबोलियाँ निम्नलिखित हैं-
तिरहारी, बुन्देली, गहोरा, जुड़ार, बनाफरी, मरारी, पोंवारी, कुम्भारी, ओझी, गोंडवानी तथा केवरी आदि। डॉ. भगवती प्रसाद शुक्ल ने इसके कुल तीन रूप माने हैं, मानक बघेली, गोंडानी और मिश्रित बघेली।

बघेली बोली का क्षेत्र

जार्ज ग्रियर्सन ने बघेलखण्ड एजेंसी (रीवाँ, कोठी, सोहावल), चांग भखार का कुछ भाग, जिला मण्डल का कुछ भाग, दक्षिणी मिर्जापर कुछ भाग तथा जबलपुर का कुछ भाग बघेली का क्षेत्र मानते हैं। परंतु सामान्यतः रीवाँ, दमोह, शहडोल, सतना, मैहर, जबलपुर, नागौर कोठी, माँडला, बालाघाट, बाँदा, फतेहपुर, मिर्जापुर तथा हमीरपुर (कुछ भाग) जिले bagheli boli (बघेली) का क्षेत्र माने जाते हैं।

बघेली बोली की प्रमुख विशेषताएँ

बघेली की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं।
1. बघेली बोली में अवधी बोली का हस्व प्रयुक्त होता है, जैसे-

ओ > ब-     तोर > त्वार, मोर > म्बार

ओ > वा-     होस > हवास

ए > य-      पेट > प्याट, देत > द्यात

व > ब-      गवा > गबाव > म-      चरावै > चरामै

ग + ह > घ-  जगह > जाघा
2. बघेली में संज्ञा तथा विशेषण के रूप तीन तरह से चलते है, जैसे-लरिका, लरिकवा, लरिकौना।
छोटा, छोटवा, छोटकौना।
3. बघेली में सर्वनाम के रूप विशिष्ट हैं, जैसे- मँय, म्वारे, म्यहि, म्वार, हम्ह, हम्हार, तँय, तयां, त्वार, त्वारे, तुम्हार, वहि, वहिकर, या, य, उन्हा, वा, यहि, कोऊ, कोन्हों, कउन, जेन्ह, जेन, जौन, तौन आदि।
4. बघेली में चलतआँ, चलतआ, चलौं, चलस, चली, चलत्ये हैं, चलत अहे, चलेन्, चलिन आदि क्रिया का प्रयोग होता है।
5. बघेली बोली में भूतकालीन सहायक क्रिया में एकवचन में ‘रहा’ और बहुवचन में ‘ता-ते’ प्रत्यय जुड़ते हैं, जैसे- रहे, रहने हुते।
6. बघेली में इहँवाँ, उहँवाँ, एहै कैत, एहै कयोत, तेहै मुँह, केहै केत आदि क्रियाविशेषण का प्रयोग होते हैं।
7. बघेली बोली में कारक का प्रयोग विशिष्टता लिए हुआ है-

  • कर्ता कारक में किसी परसर्ग का प्रयोग नहीं होता है।
  • कर्म में- का, ला का प्रयोग
  • सम्बन्ध में- केर, के का प्रयोग होता है।

8. कृदन्त रूपों का निर्माण निम्नवत्‌ होता है-

  • वर्तमानकालिक कृदन्त बनाने के लिए क्रिया में ‘त’ जुड़ता है, जैसे- चलत, देखत, आउत।
  • भूतकालिक कृदन्त बनाने के लिए क्रिया में आ, ई प्रत्यय जुड़ते हैं, जैसे- चला, चली।
  • पूर्वकालिक कृदन्त बनाने हेतु ‘कै’, कइ प्रत्यय का योग होता है, जैसे- चलकै, खाकइ।
  • क्रियार्थक संज्ञा बनाने के लिए ‘ब’ प्रत्यय जुड़ता है, जैसे- चलब, देब, आदि।

3. छत्तीसगढ़ी

छत्तीसगढ़ी purvi hindi (पूर्वी हिंदी) की महत्वपूर्ण बोली है, इसका भी विकास अर्धमागधी अपभ्रंश के दक्षिणी रूप से हुआ है। इस बोली (chhattisgarhi boli) पर नेपाली, बंगला तथा उड़िया का प्रभाव भी पड़ा है। chhattisgarhi boli (छत्तीसगढ़ी बोली) मुख्य रूप से नागरी लिपि में लिखी जाती है परन्तु इसकी दो उपबोलियों, भुलिया तथा कलंगा के लिए उड़िया लिपि का प्रयोग किया जाता है। जार्ज ग्रियर्सन ने इसके बोलने वालों की संख्या 33 लाख बताई है। 1961 की जनगणना के अनुसार इसके बोलने वालों की संख्या 2962038 थी। साहित्य की रचना छत्तीसगढ़ी बोली में नहीं हुई, किन्तु लोक-साहित्य पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध है।

छत्तीसगढ़ी बोली के अन्य नाम

chhattisgarhi boli (छत्तीसगढ़ी बोली) का मुख्य क्षेत्र छत्तीसगढ़ होने के कारण इसे छत्तीसगढ़ी कहते हैं। बालाघाट के लोग इसे खल्हाटी अथवा खलोटी भी कहते हैं। पूर्वी सम्भलपुर के पास इसे ‘लरिया’ नाम से जाना जाता है। कुछ भागो में इसे खल्ताही भी कहा जाता है।

छत्तीसगढ़ी बोली की उपबोलियाँ

छत्तीसगढ़ी की प्रमुख उपबोलियाँ निम्नलिखित हैं-
सुरगुजिया, कलंगा, भुलिआ, सतनामी, काँकेरी, सदरी कोरवा, बैगानी, बिंझवाली, बिलासपुरी तथा हलबी। इनमें से ‘हलबी’ का प्रयोग बस्तर जिले में होता है। जार्ज ग्रियर्सन इसे मराठी की एक उपभाषा मानते हैं, परंतु सुनीति कुमार चटर्जी के अनुसार यह छत्तीसगढ़ी (chhattisgarhi) की एक उपबोली है।

छत्तीसगढ़ी बोली का क्षेत्र

छत्तीसगढ़ी बोली (chhattisgarhi boli) निम्नलिखित क्षेत्रों में बोली जाती है-छत्तीसगढ़ी रायपुर, बिलासपुर, सम्भलपुर जिले के पश्चिमी भाग, काँकेर, नंदगाँव, खैरागढ़, चुइखदान, कवर्धा, सुरगुजा, बालाघाट के पूर्वी भाग, सारंगढ़, जशपुर, बस्तर एवं बिहार के कुछ भागों में बोली जाती है।

छत्तीसगढ़ी बोली की विशेषताएँ

छत्तीसगढ़ी की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
1. छत्तीसगढ़ी बोली में ए, ऐ, ओ, औ के ह्रस्व रूपों का भी प्रयोग होता है।
2. छत्तीसगढ़ी में ‘ङ्’ ध्वनि का स्वतन्त्र प्रयोग नहीं होता है।
3. कुछ ध्वनि परिवर्तन विशेष प्रकार के हैं, जैसे-
ष > स्-      वर्षा > बरसा,  भाषा > भासा

ष > ख-      वर्षा > बरखा, भाषा > भाखा

क > ख-      इलाका > इलाखा, बंदकी > बंदखी

त > द-      रास्ता > रसदा

स > छ-      सीता > छीता

छ > स-      छतरी > सतरी

ब > प-      खराब > खराप, शराब > सराप आदि।
4. छत्तीसगढ़ी बोली में संज्ञा से बहुवचन बनाने के लिए ‘मन’, ‘अन’, ‘गंज’, ‘जमा’, ‘जम्मा’, ‘सब्बों’ आदि का प्रयोग किया जाता है, जैसे- मनुख मन (मनुष्यों), नोकरन, लड़कन, जम्मा पुतोमन आदि।
5. छत्तीसगढ़ी में स्त्रीलिंग बनाने के लिए ‘ई’, इया, निन, आइन आदि प्रत्ययों का प्रयोग किया जाता है, जैसे- दुबे > दुबाइन, बाघ > बघानिन
6. छत्तीसगढ़ी बोली के सर्वनाम भी विशिष्ट हैं, जैसे- में, मैं, मोर, तैं,, तुँहार, तुहमन, इया, येकर, एकर, जिन्हकर, कोन्मन्कर, कुछू, कोनो-कोनो (कोई), कुछू-कुछू आदि।

7. छत्तीसगढ़ी बोली में दू, छे, नों, ग्यारा, बारा, तेरा, चउदा, पन्द्रा, कोरी (20) एक कोरी दू (22), एकठो, छेठों, चरगुन (चौगुना) पहिल, दूसर आदि विशेषण प्रयुक्त होते हैं।
8. छत्तीसगढ़ी बोली के सार्वनामिक विशेषण भी अलग तरह के है, जैसे-
इतना-       इतका, अडुक

उतना-       ओतक, उतका, ओडुक

जितना-      जेतना, जतका, जडुक
9. छत्तीसगढ़ी के क्रिया भी विशिष्ट हैं, जैसे- होत, देखत, होते, देखते, देखे, होए, भए, होके, देखके, सोब, देखब आदि।
10. छत्तीसगढ़ी में हवउँ, हवौं, हवस्, हस्, अय्, अयूँ, हौं, औं आदि सहायक क्रिया प्रयुक्त होती है।
11. छत्तीसगढ़ी बोली के क्रिया-विशेषण भी विशिष्ट हैं, जैसे- इहाँ, उहाँ, तिहां, कहूं, जैसन, ओती (उधर), उतका, ओतका, कतको, जेती, अभिच (अभी ही), आगे, पाछू, भलुक (बल्कि), जतका (जितना) सामूँ (सामने) आदि।
12. छत्तीसगढ़ी बोली में-

  • कर्ता कारक में किसी परसर्ग का प्रयोग नहीं होता है।
  • कर्म कारक में ला और ल का प्रयोग होता है।
  • करण कारक में ले और से का प्रयोग होता है।
  • सम्प्रदान में ला, वर तथा खाति का प्रयोग होता है।
  • अधिकरण कारक में मां, पर का प्रयोग होता है।
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