अंग्रेजों की सत्ता स्थापित होने के बाद राष्ट्रीयता की एक अखिल भारतीय संकल्पना उभर कर आती है। भाषा का मुद्दा प्रमुख हो उठता है। क्योंकि पूरे देश को एक सूत्र में पिरोने के लिए हमें एक संपर्क भाषा की जरूरत थी। जिसे हिंदी भाषा पूरा कर रहा था। यही कारण है की उस समय जितने भी महत्वपूर्ण सुधारक-विचारक या संस्थाएं हुई उन्होंने विचार-विनिमय या संप्रेषण के लिए हिंदी को अपनाया और उसके विकास में महत्वपूर्ण हस्तक्षेप किया। स्वाधीनता संघर्ष के दौरान इस आंदोलन में और तेजी दिखाई पड़ती है, जहाँ अंग्रेजी के खिलाफ निज भाषा के रूप में राज भाषा हिंदी का आंदोलन नया आकार लेता है। हिंदी के प्रचार-प्रसार में विभिन्न संस्थाएं और व्यक्तियों का योगदान रहा है। इन संस्थाओं को तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है-
1. धार्मिक एवं सामाजिक संस्थाएं2. राजनीतिक संस्थाएं3. साहित्यिक संस्थाएं
यहाँ पर हम प्रमुख संस्थाओं एवं व्यक्तियों के अवदान एवं भूमिका पर सिलसिलेवार बात करेंगे। सर्वप्रथम हम प्रमुख धार्मिक एवं सामाजिक संस्थाओं पर विचार करेंगे, राजनीतिक और साहित्यिक संस्थाएं पर आगे दूसरे आर्टिकल में विचार करेंगे।
प्रमुख धार्मिक एवं सामाजिक संस्थाएं और उसके संस्थापक
संस्था | वर्ष (ई.) | संस्थापक |
---|---|---|
ब्रह्म समाज | 1828 | राजाराम मोहन राय |
प्रार्थना समाज | 1867 | महादेव गोविंद रानाडे |
आर्य समाज | 1875 | स्वामी दयानंद सरस्वती |
थिओसोफ़िकल सोसाइटी | 1875 | मदाम् ब्लाखत्स्की तथा कर्नल आलकोट |
सनातन धर्म सभा | 1973 | – |
रामकृष्ण मिशन | 1897 | स्वामी विवेकानंद |
धार्मिक एवं सामाजिक संस्थाएं
उन्नीसवीं शती के दूसरे दशक (1813 ई.) में विलफोर्स एक्ट के पास होने से ईसाई पादरियों को ईसाई धर्म के प्रचार करने की पूरी छूट मिल गई थी। ईसाई धर्म प्रचारकों ने भारतीयों को अपने धर्म में दीक्षित करने का कार्य प्रारम्भ कर दिया। भारतीयों के मध्य अपने धर्म के प्रचार के लिए उन्होंने 2 बातों पर ज्यादा ध्यान केंद्रित किया- भारतीय समाज में फैले जात-पात, छुआछूत, परदा प्रथा, बाल विवाह, सती प्रथा, आदि अनेकानेक विकृतियों की आलोचना प्रारंभ किया और ईसाइयत के प्रचार का माध्यम हिंदी भाषा को बनाया।
इन धर्म प्रचारकों ने बाइबिल का हिंदी में अनुवाद कराने के साथ-साथ धर्म संबंधी अनेक छोटी-मोटी पुस्तकें एवं पैम्फलेट छपवाकर बाटें। क्योंकि जिन लोगों के बीच उन्हें अपना धर्म प्रसारित करना था वे इन सामाजिक बुराइयों से त्रस्त थे और उनकी भाषा हिंदी थी। ध्यान देने योग्य बात यह है की इन मिशनरियों का मुख्य उद्देश्य ईसाई धर्म का प्रचार करना था न की हिंदी भाषा का। इनकी भाषा का गद्य सीधा, सरल और स्पष्ट जरूर होता था ताकि आम-जन के समझ में आ सके।
बड़े स्तर पर हिन्दू जनता स्वधर्म का परित्याग कर ईसाई धर्म स्वीकार करने लगी थी। ठीक ऐसे समय में नई शिक्षा से प्रभावित, नवीन चेतना को आत्मसात करने वाले अनेक भारतीय विचारकों एवं समाज सुधारकों का हृदय आंदोलित हो उठा। इन विचारकों ने नैतिक मूल्यों के आधार पर धर्म परिवर्तन की प्रक्रिया को रोकने एवं हिन्दू धर्म की विकृतियों को दूर कर उसे स्वच्छ रूप प्रदान करने की आकांक्षा से विविध सामाजिक और धार्मिक आंदोलनों का सूत्र पात किया और तत्संबंधी संस्थाओं की स्थापना भी की। इनमें प्रमुख रूप से ब्रह्म समाज, प्रार्थना समाज, आर्य समाज, थियोसोफिकल सोसाइटी, रामकृष्ण मिशन, सनातन धर्म सभा, राधा स्वामी सम्प्रदाय आदि उल्लेखनीय है।
a) ब्रह्म समाज
आधुनिक भारत में नवजागरण के अग्रदूत, राजनीतिक जागृति के सूत्रधार राजा राममोहन राय ने हिंदू समाज में फैली बुराइयों को दूर करने और समाज के पुनर्गठन के उद्देश्य से कलकत्ता (1828 ई.) में ‘ब्रह्म समाज’ की स्थापना की। ब्रह्म समाज संस्था का प्रमुख उद्देश्य हिन्दू धर्म में व्याप्त कुरीतियों को दूर कर उसे सर्वसुलभ तथा सुग्राह्य बनाना था। इस संस्था के उद्देश्यों का तत्कालीन अनेक विद्वानों/ विचारकों का समर्थन मिला तथा उन्होंने इसके प्रचार में भी योग दिया। जिसमें महर्षि देवेंद्र नाथ, प्रसन्न कुमार, केशव चंद्र सेन, ईश्वरचंद्र विद्यासागर, भूदेव मुखर्जी, नवीन चंद्र राय आदि प्रमुख हैं।
हिंदू समाज में धार्मिक तथा सामाजिक सुधार की दृष्टि से ब्रह्म समाज की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। ब्रह्म समाज ने सामाजिक समानता तथा स्त्रियों के उद्धार के लिए महत्वपूर्ण कार्य किया। जिसका तत्कालीन राजनीतिक वातावरण पर भी व्यापक प्रभाव पड़ा। ब्रह्म समाज ने देश में राष्ट्रीय भावना को जगाने, राजनीतिक चेतना को गतिशील बनाने में विशेष सफलता प्राप्त की। अपने विचारों के प्रचार-प्रसार के लिए इस संस्था ने सम्पर्क भाषा के रूप में हिंदी का प्रयोग किया।
राजा राममोहन राय (सन् 1774-1833) के व्यक्तित्व पर पूर्व तथा पश्चिम दोनों का समन्वय था। “आरम्भ से ही उनका झुकाव प्राचीन भारतीय संस्कृति एवं वेदों तथा उपनिषदों में संपादित दर्शन की ओर था। इसके साथ ही राजा राममोहन राय का दृष्टिकोण पश्चिम के बुद्धिवाद तथा आधुनिक विचारधारा से भी प्रभावित था।… उनकी आधुनिकता ने उन्हें रूढ़िवाद, निरर्थक धर्मान्धता और कर्मकांड से ऊपर उठने की प्रेरणा दी और समयानुकूल पाश्चात्य विचारों का स्वागत करने को विवश किया। उधर उनके भारतीय संस्कारों ने अपने देश की संस्कृति पर गर्व करने के लिए प्रेरित किया।”[1] इसीलिए राजा राममोहन राय को आधुनिक भारत के निर्माता तथा राष्ट्रीय चेतना के प्रवर्तक माना जाता है।
अब उनके भाषा संबंधी दृष्टिकोण पर आते हैं। राजा राममोहन राय अंग्रेजी भाषा के प्रबल समर्थक थे, लेकिन वे राष्ट्रीय हित के कार्यों में हिंदी को सर्वोपरि स्थान देते थे। “भाषा के संदर्भ में उनका यह निर्विवाद मत था कि यदि अखिल भारतीय भाषा बनने की पूर्ण क्षमता किसी भी भाषा में है तो वह सिर्फ हिंदी में ही है।”[2] वे स्वयं हिंदी लिखते थे और दूसरों को भी प्रोत्साहित करते थे। राजा राममोहन राय ने 1826 ई. में ‘बंगदूत’ नामक एक पत्र भी निकाला था, जिसकी भाषा अंग्रेजी के साथ हिंदी, बंगला और फारसी थी।
राजा राममोहन राय को हिंदू समाज की कुरीतियों और स्त्रियों के सवाल उठाने की वजह से उनका कट्टर पुरातन पंथियों से बराबर वाद-विवाद होता रहा। पुरातन पंथियों से हुए इन शास्त्रार्थ को वे हिंदी में छपवाते रहे। राजा राममोहन के इस हिंदी प्रेम से हिंदी के विकास के लिए ऐसा मार्ग प्रशस्त जिस पर चलकर अन्य संस्थाओं एवं नेताओं ने देश में हिंदी का व्यापक प्रचार-प्रसार किया।
नवीनचंद्र राय ब्रह्म समाज के दूसरे प्रसिद्ध नेता थे जिन्होंने ब्रह्म समाज के सिद्धांतों एवं विचारों का प्रचार करते हुए हिंदी के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया। नवीनचंद्र राय द्वारा पंजाब में चलाये गए समाज सुधार संबंधी आंदोलन का माध्यम हिंदी था। इन्होंने लाहौर से हिंदी में दो पत्रिकाएं भी निकाली थीं, जिसमें ‘ज्ञान प्रदायिनी’ पत्रिका (1867 ई.) महत्वपूर्ण थी। यद्यपि इन पत्रिकाओं का मुख्य उद्देश्य ब्रह्म समाज की सिद्धांतों का प्रसार करना तथा उसके प्रति लोगों का ध्यान आकृष्ट करना था, फिर भी इससे हिंदी को बड़ा बल मिला। “नवीन बाबू के प्रयास के फलस्वरूप पंजाब में नवीन जागरण की जो लहर दौड़ी, उससे हिंदी में पुनर्जीवन आ गया और उसने पंजाबी और उर्दू के साथ मिलकर आगे बढ़ना शुरू किया। इतना ही नहीं, उन्नीसवीं शती के हिंदी-उर्दू-विवाद में भी उन्होंने हिंदी का जमकर समर्थन किया।”[3]
भूदेव मुखर्जी ब्रह्म समाज के तीसरे प्रसिद्ध नेता थे जिनकी सेवाएं भी हिंदी जगत के लिए महत्वपूर्ण हैं। भूदेव मुखर्जी जी नें बिहार के पाठ्य पुस्तकों तथा अदालतों में हिंदी और नागरी का प्रवेश कराने में महत्वपूर्ण भूमिका रही, बहुत कुछ श्रेय इन्हीं को जाता है। भूदेव जी हिंदी के कट्टर समर्थक तो थे ही, साथ ही इनका भी दृढ़ विश्वास था कि हिंदी ही एक ऐसी भाषा है जिसमें अखिल देशीय सम्पर्क भाषा होने की पूर्ण क्षमता विद्यमान है। अपनी इस धारणा को उन्होंने अपनी पुस्तक ‘आचार प्रबन्ध’ में बड़े प्रभावशाली ढंग से व्यक्त भी किया है।
केशव चंद्र सेन भी ब्रह्म समाज के प्रमुख नेताओं में गिने जाते हैं। इन्होंने भी हिंदी का प्रबल समर्थन किया था। 1875 ई. में ‘सुलभ समाचार’ के अंक में केशव बाबू ने हिंदी को भारत की सर्वाधिक प्रचलित भाषा स्वीकार किया, साथ ही उसे भारत की एकता के लिए अनिवार्य भी बतया। इन्हीं के प्रेरणा स्वरूप आर्य समाज के संस्थापक दयानंद सरस्वती ने भी संस्कृत की जगह हिंदी में अपना व्याख्यान देना प्रारम्भ किया था और हिंदी में अपना ग्रंथ ‘सत्यार्थ प्रकाश’ की रचना की। कहने का तात्पर्य यह की इन सामाजिक और धार्मिक सुधारक नेताओं ने हिंदी के विकास में स्वयं महती भूमिका निभा ही रहे थे साथ में दूसरों को भी प्रेरित कर रहे थे।
b) प्रार्थना समाज
उन्नीसवीं शताब्दी में हिंदी भाषा को प्रोत्साहित करने वाली धार्मिक व सामाजिक संस्थाओं में ‘प्रार्थना समाज’ भी एक महत्वपूर्ण संस्था थी। इसकी स्थापना बम्बई (1867 ई.) में हुआ था, जिसके संस्थापक महादेव गोविंद रानाडे थे। इसकी स्थापना भी उन्हीं उद्देश्यों को लेकर हुई, जिन उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए कलकत्ता में ‘ब्रह्म समाज’ की स्थापना हुई थी। एकेश्वर वाद का प्रचार तथा तत्कालीन भारतीय समाज में फैली कुरीतियों को दूर कर उसे स्वस्थ रूप प्रदान करना इस संस्था का भी अन्यतम उद्देश्य था।
‘प्रार्थना समाज’ की स्थापना के पूर्व 1949 ई. में महाराष्ट्र में ‘परमहंस सभा’ की स्थापना हुई थी, किंतु यह संस्था सफल न हुई। आगे चलकर जब ब्रह्म समाज के नेता केशव चंद्र सेन बम्बई पहुंचे तब इस संस्था और इसके नेताओं को बड़ा बल मिला। केशव चंद्र सेन के व्यक्तित्व एवं उनके ओजस्वी भाषणों से यहाँ के शिक्षित लोग काफी प्रभावित हुए। प्रभाव स्वरूप सामाजिक चेतना की जो धार कुंद थी उसको एक सुनिश्चित मार्ग मिल गया और समाज सुधार संबंधी आंदोलन की गति तेज हो गई।
इस आंदोलन का परिणाम यह हुआ कि ‘परमहंस सभा’ संस्था ‘प्रार्थना समाज’ के रूप में बदल गई। डी. एन. बनर्जी ने लिखा कि “वस्तुतः प्रार्थना-समाज पर केशव चंद्र सेन के धर्मगुरुत्व की छाप लगी है, क्योंकि उन्होंने ही विचारशील लोगों का ध्यान धर्म को उदार बनाने और उन लोगों में सुधार के लिये उत्साह भरने की आवश्यकता पर जोर दिया, जो अंध रीति-रिवाज, जात-पांत और पंडों-पुरोहितों में विश्वास रखते थे।”[4]
प्रार्थना समाज में महादेव गोविंद रानडे, नारायण चंदावरक तथा आर. जी. भंडारकर आदि लोकप्रिय नेता हुए। इस संस्था और इसके नेताओं का प्रमुख उद्देश्य हिंदू धर्म में आमूल-चूल सुधार लाना, अछूतोद्धार करना, जात-पांत का विरोध, स्त्री शिक्षा और विधवा विवाह का प्रोत्साहन आदि था, जिसके लिए यह संस्था लगातार प्रयत्नशील रही। इस संस्था ने अनेक अनाथालयों, कन्या पाठशालाओं, विधवाश्रमों आदि की स्थापना किया।
आधुनिक शिक्षा एवं राष्ट्रीय चेतना के प्रचार-प्रसार में इस संस्था को आशातीत सफलता मिली। जहाँ तक हिंदी भाषा के विकास और प्रचार-प्रसार की बात है उसमें इसका कोई विशेष योगदान नहीं रहा, लेकिन इस संस्था के साप्ताहिक प्रवचनों आदि के माध्यम से यत्र-तत्र हिंदी का प्रचार अवश्य हुआ। संस्था के प्रमुख नेता महादेव गोविंद रानाडे के सजग विचारों का तत्कालीन हिंदी साहित्य पर भी व्यापक प्रभाव पड़ा है जिसे उस समय के साहित्य पर देखा जा सकता है।
c) आर्य समाज
उन्नीसवीं शताब्दी में धार्मिक व सामाजिक आंदोलनों के साथ हिंदी भाषा के प्रचार-प्रसार में में भी आर्य समाज का सर्वोपरि स्थान है। आर्य समाज की स्थापना 10 अप्रैल 1875 ई., गिरगाँव, मुम्बई में हुई। जिसके संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती थे। इस संस्था की स्थापना का उद्देश्य वैदिक धर्म, सभ्यता एवं संस्कृति का प्रचार-प्रसार करना था। इस संस्था की स्थापना से हिंदी को भी अपूर्व बल मिला।
‘आर्य समाज’ की स्थापना से पूर्व ‘ब्रह्म समाज’ के दो प्रसिद्ध समाज सुधारक ‘राजा राममोहन राय’ तथा ‘ईश्वरचंद विद्यासागर’ ने समाज सुधार के क्षेत्र में कई महत्वपूर्ण कार्य किये थे। किंतु इनका प्रचार क्षेत्र मुख्यतः बंगाल तक ही सीमित था, बंगाल के बाहर जो प्रभाव था भी उसे नगण्य माना जा सकता है। दूसरी बात यह कि ‘ब्रह्म समाज’ के द्वारा जो सामाजिक क्रांति हुई, उसका प्रभाव आम जन की अपेक्षा शिक्षित समुदाय के ऊपर अधिक पड़ा। समाज के निचले पायदान पर खड़े व्यक्तियों पर उसका कोई खास असर पड़ा हो, नहीं दिखाई पड़ता।
इसके पीछे भाषा का मसला भी था, यद्यपि ‘ब्रह्म समाज’ ने अखिल भारतीय संपर्क भाषा हिंदी को भी महत्व दिया, लेकिन उसकी अधिकांश कार्यवाही अंग्रेजी में हुआ करती थी। दूसरी बात उसका बौद्धिक स्तर भी काफी ऊंचा था, जो आमजन की समझ से परे था। यही कारण था कि उसके प्रचार-प्रसार में वह व्यापकता न आ पायी, जो आगे चलकर हमें आर्य समाज में दिखाई पड़ती है।
उन्नीसवीं शताब्दी के धार्मिक एवं सामाजिक संस्थाओं में आर्य समाज ही वह सर्वप्रथम संस्था है जिसने अखिल भारतीय स्तर पर स्वभाषा, स्वधर्म, स्वदेश एवं स्वराज्य का व्यापक आंदोलन खड़ा किया। “उसके द्वारा स्वभाषा के लिये किया गया आंदोलन राजभाषा, राष्ट्रभाषा हिंदी के विकास में एक महत्वपूर्ण कड़ी सिद्ध हुआ है। आर्य समाज का सारा कार्य हिंदी में ही होता था। इसके अनुयायी हिंदी को ‘आर्यभाषा’ के नाम से पुकारते थे। आर्य समाज के 28 नियमों में से पांचवें के अनुसार समाज सदस्यों के लिये ‘आर्य भाषा’ का ज्ञान अनिवार्य था। दयानंद जी के वैदिक धर्म-रक्षा एवं समाज सुधार संबंधी जो भी उपदेश हुआ करते थे, उनका जन सामान्य से सीधा संबंध रहता था तथा उपदेशों की वाणी जन साधारण की वाणी (हिंदी) हुआ करती थी। स्वामी जी की इस व्यावहारिक सूझबूझ का ही यह परिणाम था कि आर्य समाज को अखिल भारतीय व्यापकता प्राप्त हुई और भारत के छोटे-से-छोटे नगरों, यहाँ तक कि कहीं-कहीं ग्रामीण अंचलों में भी आर्य समाज की छोटी-बड़ी विविध शाखायें स्थापित हो गयीं।”[5]
जहाँ कहीं भी आर्य समाज की स्थापना हुई, वहाँ के लोगों में हिंदी-प्रेम उमड़ पड़ा। प्रांतवाद, जातिवाद तथा वर्ग जैसी सीमाओं को लांघते हुए हजारों लोग इसके सदस्य बने और हिंदी को अपनी भाषा का माध्यम बनाया। आर्य समाज के साप्ताहिक सत्संगों तथा वार्षिक अधिवेशनों आदि में सभी कार्य हिंदी में ही होता था। इस संस्था ने हिंदी प्रचार के लिये हिंदी पुस्तकों तथा पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन के साथ हिंदी सम्मेलनों का आयोजन एवं हिंदी माध्यम से कुछ धार्मिक परीक्षाओं का संचालन जैसे महत्वपूर्ण कार्य भी किये। “आर्य समाज द्वारा उत्तर भारत, विशेषत: पंजाब में हिंदी का कार्य अपेक्षाकृत अधिक व्यापक रूप में किया गया।”[6]
हिंदी भाषा को शिक्षा का माध्यम बनाने में भी आर्य समाज की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। राजकीय विद्यालयों पर निर्भर न रहकर इस संस्था ने पंजाब, राजस्थान, उत्तर प्रदेश तथा बिहार जैसे प्रांतों में सैकड़ों शिक्षण संस्थाओं को स्थापित किया। इन शिक्षण संस्थाओं में शिक्षा का माध्यम प्रायः हिंदी ही थी, जिससे हिंदी भाषा को विकसित होने का सुअवसर मिला। ‘आर्य समाज’ राष्ट्रभाषा के विकास में अग्रगामी भूमिका निभाया। उसने गुरुकुल कांगड़ी की स्थापना की जो भारत का पहला शिक्षणालय था जिसमें राष्ट्र भाषा के माध्यम द्वारा सम्पूर्ण ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा का सफल परीक्षण किया गया था। जिसके बाद आर्य समाज को अनेक शिक्षा संस्थानों की स्थापना को बल मिला।
आर्य समाज को सबसे अधिक सफलता स्त्री-शिक्षा के क्षेत्र में मिली। “स्त्रियों की सामाजिक दशा सुधारने तथा उनमें आत्म-गौरव की भावना जगाने के उद्देश्य से आर्य समाज ने स्त्री शिक्षा पर विशेष बल दिया और इसके लिये एक व्यापाक आंदोलन चलाया।”[7] परिणामस्वरूप पूरे भारत में स्त्री शिक्षा को एक दिशा मिला और पक्की नींव पड़ी। स्त्री शिक्षा के लिये आर्य समाज ने अनेक कन्या पाठशालाओं, गुरुकुलों एवं महिला विद्यालयों की स्थापना किया। इन शिक्षण संस्थाओं में हिंदी भाषा अनिवार्य विषय के रूप में तो थी ही, साथ ही अन्य विषयों की शिक्षा भी हिंदी माध्यम से दी जाने लगी। इन शिक्षण-संस्थाओं के द्वारा स्त्रियों के बीच हिंदी भाषा को व्यापकता मिली।
हिंदी प्रचार के लिए आर्य समाज ने अनेक पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन भी किया जिसका महत्वपूर्ण योगदान है। आर्य समाज ने विभिन्न उद्देश्यों की पूर्ति के लिये हिंदी में शताधिक पत्र-पत्रिकाओं एवं छोटी-मोटी पुस्तिकाओं का प्रकाशन कराया। “प्रथमतः इसकी पत्रिकाएं साप्ताहिक एवं मासिक हुआ करती थीं, किंतु बाद में जलकर (बीसवीं शती के प्रथम चरण में) इस संस्था के द्वारा दैनिक हिंदी समाचार पत्र भी प्रकाशित होने लगे। इन समाचार पत्रों एवं पत्र-पत्रिकाओं द्वारा अपेक्षा कृत हिंदी का विशेष प्रचार एवं प्रसार हुआ।”[8]
“आर्य समाज ने सिर्फ भारत में ही नहीं, बल्कि भारत से बाहर विदेशों में भी धर्म-प्रचार के साथ हिंदी का प्रचार किया।”[9] विदेशों में आर्य समाज ने सर्वाधिक विस्तार अफ्रीका को बनाया। आर्य समाज ने अफ्रीकी देशों में हिंदी तथा संस्कृत के अध्ययन के लिये अनेक विद्यालय खोले। इस संस्था ने हिंदी प्रचार के लिए केनिया, टांगानिका, डचगायन, ब्रिटिश गायना, फीजी, मारिशस, लंदन आदि देशों में महत्वपूर्ण कार्य किया।
उन्नीसवीं शती के मध्य में आर्य समाज को ईसाई पादरियों और सनातन धर्मियों का विरोध कट्टरता के साथ झेलना पड़ा। इस विरोध के परिणाम स्वरूप इन धर्मावलंबियों से आर्यसमाज के नेताओं का अकसर वाद-विवाद हुआ करता था, सभी धर्मावलंबी एक दूसरे के सिद्धांतों के खंडन एवं अपने सिद्धांतों के मंडन किया करते थे। यह वाद-विवाद अथवा शास्त्रार्थ इसलिए महत्वपूर्ण था क्योंकि यह सारा संवाद हिंदी में होता था। इस खंडन-मंडन की प्रवृत्ति से हिंदी-आंदोलन बढ़ावा ही मिला।
स्वामी दयानंद सरस्वती (जिन्होंने आर्य समाज की स्थापना की थी) गुजरात के रहने वाले थे। इनका जन्म 1824 ई. और देहावसान 1883 ई. में हुआ था। इन्हें अपनी मातृ भाषा गुजराती के साथ-साथ संस्कृत पर भी असाधारण अधिकार था। “प्रथमत: स्वामी जी के मत-प्रचार एवं साहित्य का माध्यम संस्कृत थी, किंतु बाद में चलकर ब्रह्म समाज के नेता श्री केशवचंद्र सेन के आग्रह पर स्वामी दयानंद ने हिंदी को अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया।”[10] दयानंद सरस्वती ने उस समय में प्रचलित हिंदू धर्म और वैदिक धर्म के बीच जो गहरी खाई पैदा हो गई थी, को पाटकर, हिंदू समाज एवं कर्मकांड की विकृतियों को दूर करने का कार्य किया।
आर्य समाज के सिद्धांतों के प्रचार के सिलसिले में उन्होंने सम्पूर्ण देश का भ्रमण किया और उन्होंने यह अनुभव किया कि हिंदी ही एक ऐसी भाषा है जिसके माध्यम से देश के किसी कोने में आर्य समाज का संदेश सुनाया जा सकता है। इसीलिए उन्होंने यह घोषणा की कि प्रत्येक आर्य समाजी को हिंदी की जानकारी रखना आवश्यक ही नहीं अनिवार्य भी है, आर्य समाज का सारा काम और इसका समस्त साहित्य भी हिंदी में होना चाहिए, क्योंकि हिंदी ही ‘आर्यभाषा’ (अखिल देश की भाषा) है।
जिस प्रकार महात्मा बुद्ध एवं स्वामी महावीर ने संस्कृत के स्थान पर लोकभाषा पालि तथा अर्ध-मागधी को अपना संदेश देने का आधार बनाया उसी प्रकार दयानंद ने हिंदी को अपनी अभिव्यक्ति माध्यम चुनाना। “जिस प्रकार बल्लभाचार्य आदि आचार्यों एवं कृष्ण भक्तों द्वारा अपनायी जाने पर संपूर्ण भारत में ब्रजभाषा की प्रतिष्ठा हुई, उसी प्रकार जन जागृति तथा आर्य धर्म के प्रचार के लिए स्वामी दयानंद तथा उनके अनुयायियों द्वारा अपनायी जाने पर हिंदी (खड़ी बोली) के सर्वांगीण विकास का पथ प्रदर्शित हुआ।”[11] दयानंद ने आर्यभाषा को अपना माध्यम बनाकर न केवल अपने मिशन में सफल हुए अपितु हिंदी भाषा को राष्ट्रभाषा और राजभाषा बनाने का मार्ग भी प्रशस्त किया।
स्वामी दयानंद सरस्वती जी का हिंदी के प्रति अपूर्व अनुराग ही था जिससे हिंदी को एक नई गति, एक नई चेतना के साथ नया जीवन मिला। उसमें व्यापकता आई और सबसे बढ़कर उसे लोकप्रियता प्राप्त हुई। आर्य समाज के जिन नेताओं ने हिंदी की अमूल्य सेवा की उनमें स्वामी दयानंद सरस्वती का स्थान सर्वोपरि है।
स्वामी दयानंद सरस्वती जी के अतिरिक्त आर्य समाज के जिन नेताओं ने हिंदी भाषा के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई उसमें भीमसेन शर्मा, भाई परमानंद, महात्मा हंसराज, लाला लाजपत राय, स्वामी श्रद्धानंद, पंडित पद्मसिंह शर्मा, श्री इंद्र विद्यावाचस्पति का नाम महत्वपूर्ण है। उपरोक्त सभी नेताओं ने हिंदी के सर्वांगीण विकास के लिये अथक प्रयास किया। हिंदी भाषा के प्रचार कार्य में स्वामी श्रद्धानंद (मुंशीराम) का योगदान अभूतपूर्व ही कहा जायगा। स्वामी श्रद्धानंद के ही प्रयास से 1902 ई. में हरिद्वार में ‘गुरुकुल कांगड़ी’ की स्थापना हुई थी जहाँ पर हिंदी-माध्यम में ज्ञान-विज्ञान संबंधी विविध विषयों की शिक्षा की व्यवस्था की गयी थी।
d) थियोसोफिकल सोसाइटी
जिन धार्मिक तथा सामाजिक आंदोलनों का भारतीय जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ा, उनमें ‘थियोसोफिकल सोसाइटी’ भी एक है। इसकी स्थापना ‘विश्व बंधुत्व’ की भावना पर 1875 ई. में अमरीका में हुई थी। इसके संस्थापक मदाम् ब्लाखत्स्की तथा कर्नल आलकोट भारतीय दर्शन तथा संस्कृति एवं तत्कालीन भारतीय धार्मिक आंदोलनों से काफी प्रभावित थे। इन्होंने ही 1879 ई. में सोसाइटी का केंद्रीय कार्यालय बंबई में, 1888 ई. में प्रधान अन्तर्राष्ट्रीय कार्यालय अड्यार (मद्रास) में और राष्ट्रीय कार्यालय काशी में स्थापित किया। तत्कालीन ‘आर्य समाज’, ‘ब्रह्म समाज’ तथा ‘प्रार्थना समाज’ और इस संस्था के सिद्धांतों, उद्देश्यों एवं कार्य प्रणाली में काफी समानता थी। लेकिन इस सोसाइटी पर आर्य समाज की प्रमुख रूप में स्वामी दयानंद सरस्वती के व्यक्तित्व की गहरी छाप पड़ी। थियोसोफिकल सोसाइटी ने स्वामी जी को अपना आध्यात्मिक गुरु भी स्वीकार किया था।
“प्रथमतः इसे भारत में यथेष्ठ सफलता न मिली। किंतु आगे चलकर सन 1893 ई. में जब श्रीमती एनीवेसेंट ने इस संस्था के सिद्धांतों का प्रचार कार्य अपने हाथ में लिया, तब संपूर्ण देश में इसका प्रभाव लक्षित होने लगा। अनेकानेक शिक्षित भारतीय इसकी ओर आकर्षित हुए।”[12]
शिक्षा के क्षेत्र में इस संस्था ने कई महत्वपर्ण कार्य किए। एनीबेसेंट ने सन 1898 ई. में काशी में ‘सेन्ट्रल हिंदू स्कूल’ की स्थापना किया जिसमें धार्मिक शिक्षा पर विशेष बल दिया जाता था। इसके पश्चात इस संस्था द्वारा ‘सेंट्रल हिंदु कालेज’ तथा ‘हिंदू बालिका विद्यालय’ की भी स्थापना किया गया था। सोसाइटी ने दक्षिण भारत और देश के अन्य भागों में अनेक शिक्षण संस्थाओं, विद्यालयों एवं कालेजों की स्थापना किया। जिसमें धार्मिक शिक्षा के साथ भारतीयता, भारतीय संस्कृति तथा भारतीय भाषाओं पर विशेष बल दिया जाता था। इससे शिक्षा के क्षेत्र में हिंदी भाषा को पनपने का अच्छा अवसर मिला।
राष्ट्रीय कार्यालय काशी में होने के कारण सोसाइटी आरंभ से ही शिक्षा और प्रकाशन का कार्य हिंदी भाषा में करती रही। सोसाइटी अपने सिद्धांतों के प्रचार के लिए जो भी साहित्य प्रकाशित करती, वह अंग्रेजी के साथ हिंदी में भी होता था। सोसाइटी द्वारा हिंदी भाषा का जो प्रचार-प्रसार हुआ, उसका बहुत कुछ श्रेय एनीबेसेण्ट को है।
एनीबेसेण्ट भारतीय संस्कृति, दर्शन तथा चिंतन से विशेष प्रभावित थीं। उन्होंने राष्ट्रीय भावनाओं के साथ राष्ट्र भाषा हिंदी का सदैव ध्यान रखा और समर्थन किया। उन्होंने 1918 ई. से 1921 ई. के मध्य गांधीजी के साथ दक्षिण भारत में घूम-घूम कर हिंदी का व्यापक प्रचार-प्रसार किया। एनीबेसेण्ट हिंदी प्रचार को राष्ट्रीयता का अभिन्न अंग मानती थीं। उनके विचार से सम्पूर्ण देश की एकता के लिए हिंदी भाषा का ज्ञान अनिवार्य था।
एनीबेसेण्ट ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘नेशन बिल्डिंग’ में हिंदी के बारे में लिखा है कि, “भारतवर्ष के भिन्न-भिन्न भागों में जो अनेक देशी भाषाएं बोली जाती हैं, उनमें एक भाषा ऐसी है, जिसमें शेष सभी भाषाओं की अपेक्षा एक भारी विशेषता है, वह यह कि उसका प्रचार सबसे ज्यादा है। वह भाषा हिंदी है। हिंदी जानने वाला आदमी संपूर्ण भारत में यात्रा कर सकता है और उसे हर जगह हिंदी बोलने वाले मनुष्य मिल सकते हैं। हिंदी सीखने का कार्य ऐसा त्याग है जिसे दक्षिण भारत के निवासियों को राष्ट्र की एकता के हित में करना चाहिये।”[13]
मद्रास में हुए हिंदी सम्मेलन (1928 ई.) में अपना संदेश भेजते हुए उन्होंने हिंदी के प्रति अपना उद्गार निम्नांकित शब्दों में प्रकट किया था: “मैं यह देखने की आशा करती हूँ कि हिंदी भारत की आम भाषा बन जाए, और मुझे लगता है कि हिंदी का शिक्षण अंग्रेजी के अनिवार्य ज्ञान के बजाय भारतीय स्कूलों में अनिवार्य किया जाना चाहिए, अगर आप दोनों नहीं हो सकते”[14]
e) सनातन धर्म सभा
‘ब्रह्म समाज’ और ‘आर्य समाज’ के द्वारा मूर्तिपूजा और बहुदेवतावाद के प्रबल विरोध की प्रतिक्रिया में सन् 1973 ई. में ‘सनातन धर्म-रक्षिणी सभा’ की स्थापना हरिद्वार तथा दिल्ली में किया गया। सन् 1900 ई. में पं. मदन मोहन मालवीय आदि ने सभा को व्यवस्थित रूप प्रदान करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाया। सनातन धर्म सभा का मुख्य उद्देश्य- हिन्दु धर्म की स्मृतियों और पुराण आदि का शास्त्रों के आधार पर सुधार कार्य करना था। परिणाम स्वरूप सनातन धर्म की हजारों शाखाएँ देश के विभिन्न प्रान्तों में खुलीं। सनातन धर्म सभा का अधिकांश कार्य संस्कृत और हिंदी में होता था जिससे हिंदी के प्रचार-प्रसार को बल मिला।
सनातन धर्म सभा के माध्यम से देश के विभिन्न भागों में कई शिक्षण संस्थाएँ शुरू हो गई, जिसमें हिंदी को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया। उत्तर भारत में इस संस्था को सर्वाधिक सफलता मिली। “पं. मदन मोहन मालवीय के प्रिय शिष्य गास्वामी गणेश दत्त इस सभा के कर्णधार थे। इनका जन्म पंजाब के लायलपुर (पाकिस्तान) में हुआ था। उन्होंने सर्वप्रथम लायलपुर में एक गुरूकुल की स्थापना की। इसमें संस्कृत-हिंदी अध्ययन-अध्यापन व्यवस्था थी। इसके पश्चात् सैंकड़ों संस्थाएँ खुली। इससे पंजाब में हिंदी का व्यापक प्रचार हुआ। गोस्वामी जी ने सन् 1940 में ‘विश्वबन्धु’ दैनिक समाचार-पत्र का श्रीगणेश किया। भारत-विभाजन के बाद इन्होंने अपना कार्यक्षेत्र हरिद्वार बनाया। सन् 1947 में दिल्ली में ‘अमर भारत’ हिंदी दैनिक का प्रकाशन किया।”[15]
गोस्वामी गणेश दत्त के साथ इस संस्था के दूसरे नेता श्रद्धाराम फिल्लौरी थे, जिन्होंने हिंदी प्रचार-प्रसार में महत्वपूर्ण योगदान दिया। कहना न होगा की सनातन धर्म सभा का भी हिंदी के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका रही, जिसके अथक प्रयास से उत्तर भारत में हिंदी जन-मानस की भाषा बन सकी।
[1] भारतीय नेताओं की हिंदी सेवा- डॉ. ज्ञानवती दरबार, पृष्ठ- 49
[2] राजभाषा के संदर्भ में हिंदी-आंदोलन का इतिहास- उदय नारायण दूबे, पृष्ठ- 140
[3] वही
[4] वही, पृष्ठ- 141
[5] राजभाषा के संदर्भ में हिंदी-आंदोलन का इतिहास- उदय नारायण दूबे, पृष्ठ- 142
[6] आर्य समाज का इतिहास- इंद्र विद्या वाचस्पति, पृष्ठ- 303
[7] सत्यार्थ प्रकाश- स्वामी दयानंद सरस्वती, पृष्ठ- 45
[8] राजभाषा के संदर्भ में हिंदी-आंदोलन का इतिहास- उदय नारायण दूबे, पृष्ठ- 143
[9] हिंदी और आर्य समाज- प्रकाशवीर शास्त्री, पृष्ठ- 293
[10] आर्य समाज का इतिहास- इंद्र विद्या वाचस्पति, पृष्ठ- 242
[11] राजभाषा के संदर्भ में हिंदी-आंदोलन का इतिहास- उदय नारायण दूबे, पृष्ठ- 145
[12] राजभाषा के संदर्भ में हिंदी-आंदोलन का इतिहास- उदय नारायण दूबे, पृष्ठ- 146
[13] राजभाषा के संदर्भ में हिंदी-आंदोलन का इतिहास- उदय नारायण दूबे, पृष्ठ- 145
[14] “I do hope to see that Hindi becomes the common language of India, and I do think that the teaching of Hindi should be made compulsory in Indian schools instead of the compulsory knowledge of English, if you can not have both” भारतीय नेताओं की हिंदी सेवा- डॉ. ज्ञानवती दरबार, पृष्ठ- 62
[15] हिन्दी-प्रसार आन्दोलन- https://hi.wikibooks.org/