हिंदी के प्रचार-प्रसार में राजनीतिक संस्थाओं की भूमिका

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हिंदी के प्रचार-प्रसार में धार्मिक एवं सामाजिक संस्थाओं की भूमिका

उन्नीसवीं शताब्दी में हुए धार्मिक व सामाजिक आंदोलन के परिणाम स्वरूप शिक्षित भारतीयों के मध्य राजनीतिक चेतना का उदय हुआ। चूँकि उन्नीसवीं शताब्दी में धार्मिक व सामाजिक आंदोलनों का केंद्र बंगाल था इसलिए सर्वप्रथम वहीं से राजनीतिक चेतना का उद्भव भी हुआ। वहीं से समस्त देश में यह चेतना विस्तारित और प्रचारित होती है। इसी चेतना के फलस्वरूप एकाधिक राजनीतिक संस्थाओं की स्थापना हुई, जिनमें ‘अखिल भारतीय कांग्रेस’ सर्वोपरि थी। इस संस्था को अपने महान उद्देश्य की पूर्ति में अपूर्व सफलता भी मिली जो जगजाहिर है।


कांग्रेस के उदय से पूर्व देश में छोटे-बड़े कुछ ऐसे संगठन भी थे, जिनका उद्देश्य शिक्षित वर्ग को संगठित करके शासन में सुधार लाना था। इस प्रकार का सबसे पुराना संगठन ‘ब्रिटिश इंडियन एसोसिएशन’ था, जिसकी स्थापना कलकत्ता (1851 ई.) में हुई थी। कलकत्ता (1876 ई.) में ही ‘इंडियन एसोसिएशन’ नामक एक अन्य संस्था की स्थापना हुई थी। यह संस्था अपेक्षाकृत अधिक सक्रिय तथा सतर्क थी। इसका उद्देश्य सिर्फ शासन-सुधार ही नहीं, बल्कि राष्ट्रीय हित एवं राष्ट्रीयता संबंधी महत्वपूर्ण प्रश्नों पर गंभीरता और स्पष्टता के साथ उनके व्यावहारिक पक्ष पर विचार-विमर्श करना था। इसके प्रमुख नेता सुरेंद्रनाथ बनर्जी ने कलकत्ता में 1883 ई. में एक राष्ट्रीय सम्मेलन बुलाया था, जिसमें अखिल भारतीय स्तर पर राष्ट्रीय चेतना को जागृति करने वाली एक संस्था की स्थापना पर बल दिया गया था। परिणाम स्वरूप 1880 ई. में दादा भाई नौरोजी एवं उनके साथियों के सहयोग से बंबई में ‘बंबई एसोसिएशन’ नामक एक नवीन संस्था का उदय हुआ। यह संस्था भी ‘इंडियन एसोसिएशन’ के उद्देश्यों को लेकर उदित हई थी। इसके पश्चात ‘मद्रास नेटिव एसोसिएशन’ तथा ‘पूना की सार्वजनिक सभा’ (महाजन सभा) जैसी अनेक राजनीतिक संस्थाएं प्रकाश में आयीं। ये सभी संस्थाएं भी अपनी पूर्ववर्ती संस्थाओं के सिद्धांतों एवं उद्देश्यों से प्रेरित थीं।
अखिल भारतीय कांग्रेस के पूर्व उदित होने वाली इन राजनीतिक संस्थाओं का मूल्यांकन करते हुए श्री जे. नटराजन ने लिखा है कि इन संस्थाओं ने ही सन् 1885 में कांग्रेस की स्थापना का मार्ग प्रशस्त किया। इन्हीं के कारण सुरेंद्र नाथ बनर्जी ने उत्तरी-पश्चिमी भारत का सन् 1878-79 में विस्तृत दौरा किया और छ: वर्ष बाद एक अखिल भारतीय संस्था के लिए भूमि तैयार की।[1]

अखिल भारतीय कांग्रेस

एलन ह्यूम ने 1884 ई. में ‘इंडियन नेशनल यूनियन’ नाम से एक राजनीतिक संस्था की स्थापना की, जिसका प्रथमतः उद्देश्य भारत में राष्ट्रीय विचारधारा के व्यक्तियों को संगठित करना था। दिसंबर 1885 ई. में इस संस्था का अधिवेशन बंबई में हुआ, जिसमें इसका नाम बदलकर ‘इंडियन नेशनल कांग्रेस’ कर दिया गया। धीरे-धीरे कांग्रेस भारतीय जनता की प्रतिनिधि संस्था बन गयी और आगे चलकर तो इसने विशुद्ध रूप से भारत की एक मात्र राजनीतिक संस्था का रूप धारण कर लिया।

1885 ई. हरिश्चंद्र की मृत्यु के साल है, यह वर्ष कांग्रेस की स्थापना का भी है। प्रताप नारायण मिश्र ने इसे साक्षात् दुर्गा का अवतार माना था, क्योंकि देश-हितैषी प्रकृति के लोगों की स्नेह शक्ति से वह आविर्भूत हुई थी। और स्वदेशानुरागी चौधरी प्रेमघन ने लिखा था कि-
‘नीके भारत के दिन आये, नेशनल कांग्रेस अब होय।जागे भाग राजऋषि आये, लाटरियन छल खोय।।’[2]
प्रारंभ में (सन् 1905 ई. तक) कांग्रेस के नेताओं ने अपने उदारवादी दष्टिकोण का परिचय दिया लेकिन उसके बाद खासकर गांधी जी के राजनीति में पदार्पण करने के बाद इसके सिधान्तों में रचनात्मक बदलाव दिखाई देता है।

अखिल भारतीय कांग्रेस और हिंदी

राष्ट्रीय कांग्रेस और उसके नेताओं पर गांधीजी के विचारों एवं व्यक्तित्व की अमिट छाप थी। इसलिए कांग्रेस की भाषा नीति गांधी जी की भाषा नीति के पर्याय के रूप में दिखाई देती है। ‘गांधी जी का हिंदी-प्रेम स्वयं हिंदी सीख लेने और दूसरों को हिंदी पढ़ने का परामर्श देने तक ही सीमित नहीं था, बल्कि इनके हिंदी प्रेम की सीमा सुदूर दक्षिण भारत के अहिंदी भाषी प्रांतों में हिंदी प्रचार तक विस्तृत थी। हिंदी-प्रचार एवं अहिंदी भाषी प्रांतों में हिंदी पढ़ाने की समुचित व्यवस्था करना उनके सार्वजनिक जीवन का स्थायी कार्यक्रम बन चुका था।’[3] फलस्वरूप हिंदी का प्रचार-प्रसार करना देश की राजनीति का अभिन्न अंग बन गया।

जिस समय कांग्रेस का नेतृत्व गांधी जी के हाथ में आया, उस समय कांग्रेस में अधिकतर अंग्रेजी पढ़े-लिखे लोगों का बोलबाला था और अधिकतर कार्य अंग्रेजी माध्यम में ही संपन्न होता था। परंतु गांधी जी के आगमन के बाद भाषा स्थिति ने नया मोड़ लिया। कांग्रेस के अधिवेशनों में हिंदी के प्रयोग जैसे क्रांतिकारी प्रस्ताव पर सभी नेताओं ने आम सहमति प्रकट की। गांधी जी के प्रयत्नों के फलस्वरूप ही कानपुर में होने वाले कांग्रेस के चालीसवें अधिवेशन (1925 ई.) में हिंदी संबंधी निम्नलिखित प्रस्ताव पारित किया गया- ‘कांग्रेस को यह सभा प्रस्ताव पास करती है कि कांग्रेस, अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी, और वर्किंग कमेटी की कार्रवाई आमतौर पर हिंदुस्तानी में चलेगी। अगर कोई वक्ता हिंदुस्तानी न जानता हो या दूसरी आवश्यकता पड़ने पर अंग्रेजी प्रांतीय भाषा इस्तेमाल की जा सकती है। प्रांतीय कमेटियों को कार्रवाई आम तौर पर प्रांतीय भाषाओं में चलेगी। हिंदुस्तानी भी इस्तेमाल की जा सकती है।’[4]

कांग्रेस जैसी राजनीतिक संस्था का यह निर्णय हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए महत्वपूर्ण और क्रांतिकारी कदम सिद्ध हुआ। परिणाम स्वरूप कांग्रेस के अधिवेशनों का विवरण, जो अभी तक सिर्फ अंग्रेजी में ही तैयार तथा प्रकाशित होता था, अब हिंदी तथा अंग्रेजी दोनों भाषाओं में प्रकाशित होने लगा। दूसरी बात यह हुआ की अब हिंदी भाषी कार्यकर्ताओं के साथ ऐसे अहिंदी भाषी कार्यकर्ताओं ने भी जो हिंदी जानते थे, हिंदी भाषा में अपना भाषण देने लगे।

सन् 1936 ई. में कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन फैजपुर में हुआ। जिसमें डॉ. राजेंद्र प्रसाद की अध्यक्षता में ‘राष्ट्रभाषा सम्मेलन’ का भी आयोजन किया गया। इस सम्मेलन में महात्मा गांधी, पुरुषोतमदास टंडन, काका साहब कालेलकर, पं. जवाहरलाल नेहरू आदि हिंदी सेवियों ने भाग लिया। ‘सम्मेलन के मध्य सर्वसम्मति से एक प्रस्ताव पास हुआ जिसमें यह कहा गया था कि देश का अंतप्रादेशिक कार्य राष्ट्रभाषा हिंदी द्वारा ही होना उचित तथा हितकर है। अंतरप्रांतीय कार्यों में अंग्रेजी भाषा का व्यवहार हमारे गौरव के विपरीत और राष्ट्रीय भावों की जागृति तथा उनके प्रचार के लिए हानिकारक है।[5] इस तरह कांग्रेस जैसी राजनीतिक पार्टी के  अधिवेशनों में हिंदी का प्रयोग और समर्थन होता रहा, जिससे हिंदी के प्रचार-प्रसार को मजबूती मिली।

आगे चलकर सन् 1937 ई. के आम चुनाव में कांग्रेस की छ: प्रांतों- उत्तर प्रदेश, बिहार, उड़ीसा, मद्रास, मध्यप्रदेश एवं बंबई में विजय प्राप्त हुई और कांग्रेस का मंत्रिमण्डल बना। जिससे प्रांतीय विधान-सभाओं और राजनीतिक क्षेत्रों में हिंदी को विशेष स्थान प्राप्त हुआ। इन प्रांतीय सरकारों ने अपने-अपने प्रांतों के विद्यालयों में हिंदी को प्रवेश दिलाया। फलस्वरूप हिंदी को असाधारण बढ़ावा मिला।

राष्ट्रीय कांग्रेस ने अहिंदी भाषी प्रांतों में भी हिंदी का न सिर्फ प्रचार-प्रसार किया, अपितु हिंदी भाषा की सर्वांगीण उन्नति भी किया। राष्ट्रभाषा हिंदी की प्रगति और कांग्रेस की भूमिका की  रूपरेखा खींचते हुए पं. किशोरी दास वाजपेयी ने लिखा है कि, ‘सन् 1901 से 1910 तक जो राष्ट्रभाषा की प्रगति हुई थी, उसमें अत्यधिक प्रेरणा राजनीतिक आंदोलन से मिली थी। …1910 से 1920 तक फिर हिंदी की प्रगति बड़े वेग से हुई जो उसी जागरण का फल थी। 1921 से 23-24 तक महात्मा गांधी के नेतृत्व में सत्याग्रह आंदोलन चला। इससे तो राष्ट्रभाषा की नींव पाताल तक चली गई और उस नींव पर अन्य प्रासाद की आधी इमारत भी खड़ी हो गई। फिर 1924 से 1930 तक का राष्ट्रभाषा का प्रसार विद्युत वेग से देश में हुआ। …1931-34 के राष्ट्रीय आंदोलन ने एक बार राष्ट्रभाषा की भावना में शक्ति भर दी। …1942 से 44 तक जो राष्ट्रीय संघर्ष चला, उससे राष्ट्रभाषा का प्रवाह अत्यधिक वेगवान हो गया। अब तक भारत का कोई भी प्रदेश राष्ट्रभाषा से शून्य न रहा था।’[6]

कांग्रेस के अमूमन सभी नेताओं ने हिंदी को देश की राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकार किया और राजभाषा बनाने की भूमिका तैयार करते हुए इसके व्यापक प्रचार-प्रसार के लिए यथाशक्ति प्रयास भी किया। कांग्रेस के अहिंदी भाषी नेता भी इस मामले में किसी से पीछे न रहे, बल्कि उनकी भूमिका ज्यादा काबिलेगौर रही। इस संबंध में नेता सुभाष चंद्र\ बोस के निम्नलिखित वक्तव्य महत्वपूर्ण है, ‘देश की एकता के लिए एक भाषा का होना जितना आवश्यक है, उससे अधिक आवश्यक है देश भर के लोगों में देश के प्रति विशुद्ध प्रेम तथा अपनापन होना। अगर आज हिंदी भाषा मान ली गई है तो वह इसलिए नहीं कि वह किसी प्रांत विशेष की भाषा है, बल्कि इसलिए कि वह अपनी सरलता, व्यापकता तथा क्षमता के कारण सारे देश की भाषा हो सकती है।’[7]

राजनीतिक नेता और हिंदी

यह एक निर्विवाद सत्य है कि हिंदी को प्रचारित-प्रसारित करने और उसके राजनीतिक स्थिति को सुदढ़ बनाने एवं उसके सर्वांगीण विकास में जो योगदान राष्ट्रीय कांग्रेस ने किया, उतना किसी और संस्था ने नहीं किया। चाहे वह धार्मिक व सामाजिक रही हो, राजनीतिक अथवा साहित्यिक, राष्ट्रीय कांग्रेस द्वारा की गई सेवाओं से किसी से भी तुलना नहीं की जा सकती। ‘कांग्रेस से इतर हिंदी पर यदि सबसे अधिक ऋण किसी संस्था का है, तो वह है आर्य समाज। किंतु आर्य समाज द्वारा हिंदी की जो उन्नति हुई, उसका जो विकास हुआ, वह यद्यपि तत्कालीन भारतीय परिवेश में अपना एक विशिष्ट स्थान रखता है, फिर भी उसमें कांग्रेस द्वारा किए गए हिंदी के प्रचार जैसी न तो व्यापकता देखी जा सकती है, न प्रभावोत्पादकता और न स्थायित्व ही। कांग्रेस एवं उसके नेताओं द्वारा हिंदी के प्रति किया गया त्याग, प्रेम, प्रयास आदि सबका-सब अपना शानी नहीं रखते।’[8]

हिंदी का प्रचार-प्रसार करने वाले स्वतंत्रता-संग्राम के हमारे राजनेताओं की भूमिका महत्त्वपूर्ण रही है। हिंदी के विकास के लिए उन चिन्तकों, मनीषियों और नेताओं ने अभूतपूर्व कार्य किया है जो अधिकतर हिंदीतर प्रदेश के थे। इन प्रमुख राजनीतिक नेताओं में केशवचंद्र सेन, महात्मा गांधी, लाला लाजपत राय, लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक, पंडित मदन मोहन मालवीय, पुरुषोत्तम दास टंडन, विनायक दामोदर सावरकर, काका कालेलकर, डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, पं. जवाहर लाल नेहरू, विनोबा भावे और सेठ गोविंद दास आदि हैं, जो अनेक राजनीतिक संस्थाओं से जुड़े हुए थे। इन नेताओं में सर्वाधिक योगदान महात्मा गांधी का था, जिनकी तपस्या, उदारता एवं उनका त्याग व प्रेम अनुपमेय है।
आइए अब हम हिंदी को प्रचारित-प्रसारित करने वाले प्रमुख नेताओं के बारे में संक्षिप्त रूप से विचार करते हैं-

1. केशवचंद्र सेन

हिंदी के प्रचार-प्रसार और राजभाषा-राष्ट्रभाषा बनाने का विचार सर्वप्रथम बंगाल से उठता है और इसे वहाँ के प्रमुख राजनीतिक नेताओं का सहयोग प्राप्त हुआ। इनमें सबसे अग्रणी नाम केशवचंद्र सेन का है, जिन्होंने 1873 में अपने पत्र ‘सुलभ समाचार’ (बंगला) में लिखा था कि ‘यदि भाषा एक न होने पर भारतवर्ष में एकता न हो तो उसका उपाय क्या है? समस्त भारतवर्ष में एक भाषा का प्रयोग करना इसका उपाय है। इस समय भारत में जितनी भी भाषाएं प्रचलित हैं, उनमें हिंदी भाषा प्राय: सर्वत्र प्रचलित है। इस हिंदी भाषा को यदि भारतवर्ष की एक मात्र भाषा बनाया जाए तो अनायास ही (यह एकता) शीघ्र ही संपन्न हो सकती है।’[9]

केशवचंद्र सेन पहले ऐसे राष्ट्रीय नेता थे जिन्होंने ‘राष्ट्रभाषा हिंदी’ के महत्व को न केवल समझा बल्कि स्वीकार भी किया। उन्होंने भारत को एकता के सूत्र में बांधने की दृष्टि से सभी से यह आह्वान किया कि सब हिंदी को आत्मसात करें क्योंकि हिंदी हमारे देश की आत्मा है। केशवचंद्र सेन ने हिंदी के प्रचार-प्रसार हेतु हर संभव प्रयास किया। उनका मानना था कि हमारा प्राथमिक उद्देश्य अपनी बात को आखिरी व्यक्ति तक पहुँचाना है और इस देश में आखिरी व्यक्ति तक संदेश पहुँचाने का सरलतम मार्ग है हिंदी। उनका मत था कि हिंदी के माध्यम से हम किसी व्यक्ति को ही नहीं अपितु उसकी आत्मा तक को स्पर्श करने की क्षमता रखते हैं क्योंकि हिंदी भारत के जनसामान्य की आत्मा में बसती है। केशवचंद्र सेन के अलावा भी बंगाल के अनेक राष्ट्रीय नेताओं ने प्रान्तीयता की भावना से ऊपर उठकर मुक्त कंठ से हिंदी का समर्थन किया, जिनकी हिंदी सेवा अविस्मरणीय रहेगी।

2. बाल गंगाधर तिलक

‘स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है जिसे मैं प्राप्त करके रहूंगा’ का नारा देनेवाले नेता बाल गंगाधर तिलक का स्वाधीनता संग्राम के साथ हिंदी के प्रचार-प्रसार में भी विशिष्ट स्थान है। तिलक भारतीय परंपरा तथा राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली के उच्च कोटि के समर्थक थे। हिंदी भाषा के बारे में तिलक का मत था कि हिंदी ही एक मात्र भाषा है जो राष्ट्रभाषा हो सकती है। हिंदी का समर्थन करते हुए ‘नागरी प्रचारिणी पत्रिका’ में उन्होंने लिखा था कि ‘यह आंदोलन उत्तर भारत में केवल एक सर्वमान्य लिपि के प्रचार के लिए नहीं है, यह तो उस आंदोलन का एक अंग है जिसे मैं राष्ट्रीय आंदोलन कहूंगा और जिसका उद्देश्‍य समस्त भारत वर्ष के लिए एक राष्ट्रीय भाषा की स्थापना करना है, क्योंकि सबके लिए समान भाषा राष्ट्रीयता का महत्वपूर्ण अंग है, अतएव अदि आप किसी राष्ट्र के लोगों को एक दूसरे के निकट लाना चाहें तो सबके लिए समान भाषा के बढ़कर सशक्त अन्य कोई बल नहीं है।’[10]
देवनागरी को राष्ट्र लिपि तथा हिंदी को राष्ट्रभाषा मानने वालों में तिलक अग्रणी राष्ट्रीय नेता थे। उन्होंने 1903 ई. में ‘हिंदी केसरी’ नामक पत्रिका के प्रकाशन किया और यह दिखाया की जन साधारण तक अपने विचारों को पहुंचाने के लिए केवल हिंदी ही एक सरल और सशक्त माध्यम है। महाराष्ट्र जैसे गैर हिंदी भाषी प्रदेश में राष्ट्रभाषा हिंदी की राजनीतिक प्रतिष्ठा तिलक द्वारा ही हुई। साथ ही तिलक ने अंग्रेजी की बजाय हिंदी में भाषण देने की परम्परा आरंभ कर अन्य नेताओं के समक्ष एक आदर्श प्रस्तुत किया था।

3. लाला लाजपतराय

‘पंजाब केसरी’ के नाम से प्रसिद्ध लालालाजपतराय एक महान देशभक्त शिक्षाशास्त्री ही नहीं, एक प्रभावशाली पत्रकार भी थे। पंजाब में हिंदी के प्रचार-प्रसार का बहुत सारा श्रेय लाजपतराय जी को जाता है। जिस समय हिंदी-उर्दू का विवाद जोरों पर था, तब लाजपतराय ने हिंदी का न केवल समर्थन किया बल्कि उन्हीं के प्रयत्न से पंजाब के शिक्षा क्षेत्र में हिंदी को स्थान मिला। उन्होंने अनेक शिक्षण संस्थाओं की स्थापना किया और उसमे हिंदी का अध्ययन अनिवार्य कराया। लाजपतराय की ही प्रेरणा से ही पंजाब विश्वविद्यालय के पाठयक्रम में हिंदी को स्थान मिला था। हिंदी के प्रचार-प्रसार, खासकर पंजाब प्रांत में लाजपतराय जी की महत्वपूर्ण भूमिका है, जिसे कोई भी हिंदी प्रेमी नजरअंदाज नहीं कर सकता।

4. महात्मा गांधी

गांधी जी भाषा के प्रश्न को राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम के प्रश्नों में सबसे अधिक महत्वपूर्ण मानते थे। उन्होनें सर्वप्रथम और प्रारंभ से हिंदी को स्वतंत्रता संग्राम की भाषा बनाने के लिए प्रयास किया। उनका मानना था कि ‘पराधीनता चाहे राजनीतिक क्षेत्र की हो अथवा भाषाई क्षेत्र की, दोनों ही एक दूसरे की पूरक और पीढ़ी-दर-पीढ़ी सदा परमुखापेक्षी बनाये रखने वाली है’[11]

जिस समय गांधी जी ने कांग्रेस और देश के नेतृत्व का बागडोर संभाला उस समय हिंदी को अखिल भारतीय स्तर पर प्रचारित-प्रसारित करने की बात उठ जरूर चुकी थी परंतु उतने व्यापक और तर्कपूर्ण तरीके से किसी ने नहीं उठाया जितना की गांधी जी। राष्ट्रभाषा के प्रश्न पर महात्मा गांधी की दृष्टि अंग्रेजी के बरक्स हिंदी पर टिकी थी और उनके अनुसार ‘अंग्रेजी राष्ट्रीयता के विकास में सबल बंधन थी। वे स्वभाषा प्रेम को स्वदेश प्रेम का अभिन्न अंग मानते थे।‘[12] उन्होंने अपने एक लेख ‘क्या अंग्रेजी राष्ट्रभाषा हो सकती है?’ में अंग्रेजी को भारतीय वायुमण्डल के लिए सर्वथा अहितकर बतलाया है और उसकी प्रवृत्ति पर गहरी चोट किया। अंग्रेजी का जबर्दस्त विरोध करते हुए उन्होंने लिखा कि, ‘कितने ही स्वदेशाभिमानी विद्वान कहते हैं कि अंग्रेजी राष्ट्रीय भाषा होनी चाहिए। मेरी समझ में यह प्रश्न ही अज्ञान दशा का सूचक है। …अंग्रेजी न तो राष्ट्रीय भाषा हो सकती है और न होनी चाहिए।’[13]
गांधी जी अंग्रेजी के बरक्स हिंदी को राष्ट्रभाषा के लिए ज्यादा उपयुक्त पाते हैं। उनके अनुसार राष्ट्रभाषा को निम्नलिखित पांच लक्षणों से युक्त होना चाहिये-

  • वह राजकीय कर्मचारियों के लिए सरल हो।
  • उस भाषा के द्वारा भारतवर्ष के परस्पर के धार्मिक, आर्थिक, तथा राजनीतिक व्यवहार निभ सकें।
  • उस भाषा को देश के अधिकांश निवासी बोलते हों।
  • वह भाषा राष्ट्र के लिए सरल हो।
  • वह भाषा क्षणिक या अल्प स्थाई स्थिति के ऊपर निर्भर न हो।

उपर्युक्त पांचों लक्षणों की कसौटी पर कसते हुए गांधीजी ने देश के समक्ष राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी को सर्वाधिक उपयुक्त पाया है। उनका मत था कि हिंदुस्तान में उच्च आफीसरों को छोड़कर शेष राजकर्मचारी हिंदुस्तानी हैं, इन भारतियों के लिए भारतीय भाषाओं की अपेक्षा अंग्रेजी भाषा कठिन है। इतना ही नहीं, इनके लिए अंग्रेजी की तुलना में हिंदी काफी सरल तथा व्यावहारिक दृष्टि से उपयुक्त भाषा है।

गांधी जी के मातृभाषा को महत्वपूर्ण मानते थे और शिक्षा का माध्यम मातृभाषा बनाने के पक्ष में थे। मातृभाषा के प्रति उनका यह लगाव, उनके निम्न वक्तव्यों में देखा जा सकता है, ‘मेरी मातृभाषा में कितनी ही खामियां क्यों न हों, मैं उससे उसी तरह चिपटा रहूंगा, जिस तरह अपनी मां की छाती से।’[14] शिक्षा के माध्यम की चर्चा करते हुए उन्होंने 2 सितंबर, 1921 ई. के ‘हिंदी नव जीवन’ में लिखा कि, ‘अगर मेरे हाथों में तानाशाही सत्ता हो, तो मैं आज से ही विदेशी माध्यम के जरिए हमारे लड़के-लड़कियों की शिक्षा बंद कर दूं और सारे शिक्षकों और प्रोफेसरों से यह माध्यम तुरन्त बदलवा दूं।’[15]

आगे चलकर वे इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि, ‘अब तो मैं यह मानता हूं कि भारतवर्ष के उच्च शिक्षण क्रम में मातृभाषा के उपरान्त राष्ट्रभाषा हिंदी के लिये भी स्थान होना चाहिए।’[16] 1917 ई. में भड़ौच में होने वाले ‘गुजरात शिक्षा-परिषद’ के अधिवेशन में उन्होंने हिंदी के महत्व की सर्वप्रथम घोषणा किया था। उन्होंने इस अधिवेशन में बोलते हुए कहा कि, ‘राष्ट्र की भाषा अंग्रेजी नहीं हो सकती। अंग्रेजी को राष्ट्र भाषा बनाना देश में, अेस्पेरेण्टों को दाखिल करना है। अंग्रेजी को राष्ट्रीय भाषा बनाने की कल्पना हमारी निर्बलता की निशानी है।’[17]

1918 में इंदौर में होने वाले ‘हिंदी साहित्य सम्मेलन’ के आठवें अधिवेशन में गाँधी जी को सम्मेलन का सभापति चुना गया था। सभापति पद से व्याख्यान देते हुए उन्होंने मातृभाषा और मां की समकक्षता प्रदर्शित करते हुए श्रोताओं से मातृभाषा के प्रति पूर्ण श्रद्धा व आस्था रखने का आग्रह किया। हिंदी के प्रति देश प्रेमियों का क्या कर्तव्य है? को स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा कि, ‘आप हिंदी को भारत की राष्ट्रभाषा बनाने का गौरव प्रदान करें। हिंदी सब समझते हैं। इसे राष्ट्रभाषा बनाकर हमें अपना कर्तव्य पालन करना चाहिए।’[18] इसी अधिवेशन में गांधी जी ने अहिंदी भाषी क्षेत्रों में हिंदी प्रचार की व्यापक योजना बनायी थी और उसे कार्य रूप में परिणत करने की समुचित व्यवस्था भी किया था। 1918 से 1927 ई. तक दक्षिण में हिंदी प्रचार का कार्य ‘सम्मेलन’ के माध्यम से गांधी जी के संरक्षण में होता रहा। 1927 ई. में गांधी जी के ही सुझाव पर दक्षिण भारत में हिंदी प्रचार सभा की स्थापना हुई। ‘हिंदी प्रचार सभा’ ने तमिल, तेलुगु, कन्नड़ और मलयालम भाषी राज्यों में बड़ी सफलतापूर्वक हिंदी प्रचार का कार्य किया। दक्षिण में हिंदी प्रचार-प्रसार का कार्य आगे बढ़ता रहा। फिर भी वे इस प्रगति से पूर्ण संतुष्ट न थे।

गांधी जी ने दक्षिण भारत में हिंदी प्रचार-प्रसार को गति प्रदान करने के लिए 1935 ई. में काका कलेलकर को दक्षिण भारत भेजा, जिसके फलस्वरूप सन् 1936 में ‘हिंदी-प्रचार समिति’ नामक दूसरी संस्था की स्थापना हुई। 1937 ई. में इस संस्था का नाम बदल कर ‘राष्ट्रभाषा प्रचार समिति’ हो गया। तब से लेकर आज तक यह समिति अपना कार्य करती चली आ रही है।

महात्मा गांधी द्वारा दक्षिण भारत में किए गए हिंदी प्रचार का मूल्यांकन करते हुए डॉ. रामविलास शर्मा ने लिखा है कि, ‘दक्षिण भारत में गांधी जी और उनके अनुयायियों-सहयोगियों ने जितना हिंदी प्रचार किया, उतना और किसी नेता, राजनीतिक पार्टी या सांस्कृतिक संस्था ने नहीं किया। इसलिए आज के विभिन्न दलीय नेताओं के अंग्रेजी प्रेम को देख कर कहना पड़ता है कि इन सबकी तुलना में गांधी जी देश की जनता के बहुत नजदीक थे।’[19]

1935 ई. में ‘हिंदी साहित्य सम्मेलन’ का चौबीसवां अधिवेशन इंदौर में हुआ था, गांधी जी को इस अधिवेशन का पुन: दूसरी बार सभापति चुना गया। सभापति पद से दिए गए अपने अभिभाषण में उन्होंने राष्ट्रीय एवं व्यवहारिक दोनों दृष्टियों से हिंदी के महत्व की बात की। उन्होंने हिंदी प्रचार एवं उसके पठन-पाठन की समुचित व्यवस्था को कांग्रेस के रचनात्मक कार्य का अभिन्न अंग बतलाते हुए कहा कि ‘मैं हमेशा से यह मानता रहा हूं कि हम किसी भी हालत में प्रान्तीय भाषाओं को मिटाना नहीं चाहते। हमारा मतलब तो सिर्फ यह है कि विभिन्न प्रान्तों के पारस्परिक संबंध के लिए हम हिंदी भाषा सीखें। ऐसा कहने में हिंदी के प्रति हमारा कोई पक्षपात प्रकट नहीं होता। हिंदी को हम राष्ट्रभाषा मानते हैं। वह राष्ट्रीय होने लायक है। वही भाषा राष्ट्रीय बन सकती है जिसे अधि-संख्यक लोग जानते, बोलते हों और जो सीखने में सुगम हो, ऐसी भाषा हिंदी ही है, यह बात यह सम्मेलन सन् 1910 से बता रहा है और इसका कोई वजन देने लायक विरोध आज तक सुनने में नहीं आया है। अन्य प्रान्तों ने इस बात को स्वीकार कर ही लिया है।’[20]

इसी अभिभाषण में उन्होंने आगे कहा कि, ‘अंग्रेजी का इससे आगे बढ़ना मैं असंभव समझता हूँ। चाहे कितना भी प्रयत्न क्यों न किया जाए। अगर हिंदुस्तान को सचमुच एक राष्ट्र बनना है तो चाहे कोई माने या न माने, राष्ट्रभाषा तो हिंदी ही बन सकती है, क्योंकि जो स्थान हिंदी को प्राप्त है, वह किसी दूसरी भाषा को नहीं मिल सकता।’[21]
इसी अधिवेशन में हिंदी-हिंदुस्तानी को लेकर गांधी जी तथा सम्मेलन में मतभेद उत्पन्न हो गया। यह मतभेद 1942 से 45 ई. के मध्य इस सीमा तक पहुंच गया कि जवाहरलाल नेहरू, डॉ. राजेन्द्र प्रसाद तथा मौलाना अब्दुल कलाम आजाद आदि कतिपय नेताओं के साथ गांधी जी को सम्मेलन से नाता तोड़ लेना पड़ा। और ‘हिंदुस्तानी प्रचार सभा, वर्धा’ नामक एक नई संस्था की स्थापना करनी पड़ी।

गांधी जी की दृष्टि में अखिल भारतीय संपर्क भाषा की शक्ति मात्र हिंदी में ही निहित थी। इसीलिए उन्होंने अभिभाषण, प्रचार-प्रसार, साहित्य पत्र-पत्रिकाओं एवं छोटी-बड़ी विविध संस्थाओं के माध्यम से हिंदी की आजीवन सेवा की और पूरे देश को स्वाभाषा से प्रेम करने की प्रेरणा दी और राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी को अपनाने का सुझाव भी दिया। वे हिंदी को राष्ट्रीय एकता एवं स्वाधीनता की प्राप्ति का साधन मानते थे। उनकी दृष्टि में हिंदी भाषा ही राष्ट्रीय आवश्यकता की पूर्ति कर सकती थी। इसीलिए वे आजीवन हिंदी भाषा के विकास और प्रचार-प्रसार में संलग्न रहे।

5. पं. मदन मोहन मालवीय

कांग्रेस व हिंदू महासभा के वरिष्ठ नेतापंडित मदनमोहन मालवीय जी का नाम हिंदी प्रचारकों में बड़े आदर और सम्‍मान के साथ लिया जाता है। वे हिंदी आंदोलन के अग्रणी नेताओं में थे। मालवीय जी राष्ट्रभाषा हिंदी व राष्ट्रीय शिक्षा के प्रबल समर्थक और पोषक थे। मालवीय जी देशी भाषाओं के प्रबल समर्थकों में गिने जाते हैं। हिंदी के प्रचार एवं प्रसार और हिंदी के स्‍वरूप निर्धारण दोनों ही दृष्टियों से उन्‍होंने हिंदी की अभूतपूर्व सेवा की। हिंदी भाषा को प्रशासन एवं राजकाज की भाषा बनाने में उनकी महती भूमिका थी। ‘हिंदी, हिन्दू और हिन्दुस्तान’ उनके लिए सिर्फ नारा भर न था, बल्कि जीवन का उद्देश्य और संकल्प भी था। उनके सार्वजनिक जीवन की सक्रियता, आदर्श और योजनाएँ इसी संकल्प से प्रेरित थी।


जिस तरह मालवीय जी भारतीय स्वराज्य के लिए जीवन-पर्यन्त संघर्ष करते रहे, उसी तरह हिंदी की प्रतिष्ठापना के लिए भी वे अनवरत साधना में लीन रहे। ‘सन् 1986 के काँग्रेस अधिवेशन में श्री मालवीय के भाषण से प्रभावित होकर कालाकांकर के राजा ने अपने हिंदी दैनिक ‘हिन्दुस्तान’ का उन्हें संपादक बनाया उसके बाद उन्होंने हिंदी साप्तहिक ‘अभ्युदय’ प्रारंभ किया और 1910 में प्रयाग से ‘मर्यादा’ नामक हिंदी पत्रिका तथा सन् 1933 से ‘सनातन धर्म’ नामक हिंदी पत्र भी प्रारंभ किया। उन्हीं की प्रेरणा से कई और हिंदी पत्रिकाओं का जन्म हुआ।’[22] उन्होंने ही हिंदी के प्रसार में अपूर्व योग देने वाली शिक्षण संस्था के रूप में ‘काशी हिंदू विश्वविद्यालय’ (सन् 1917) की स्थापना किया। मालवीय जी अध्यापक, पत्रकार, प्रचारक, सार्वजनिक नेता और साहित्यिकों के आश्रयदाता के रूप में आजीवन हिंदी की अपूर्व सेवा करते रहे, हिंदी के प्रचार-प्रसार में उनका योगदान अविस्मरणीय है।

6. राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन

पं. मदन मोहन मालवीय के एकमात्र उत्तराधिकारी थे राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन जिन्होंने हिंदी भाषा के प्रचार-प्रसार और सेवा महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनके द्वारा हिंदी प्रचार व प्रसार को जो गति मिली, वह अमूल्य है। वे सजग नेता होने के साथ राष्ट्रभाषा हिंदी के प्रबल प्रहरी, कुशल साहित्यकार तथा हिंदी साहित्य सम्मेलन के कर्ताधर्ता थे। टंडन जी ने हिंदी भाषा के प्रचार-प्रसार के लिए 10 अक्टूबर 1910 ई. को ‘नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी’ के प्रांगण में ‘हिंदी साहित्य सम्मेलन’ की स्थापना किया था। इसके अलावा उन्होंने 1918 ई. में ‘हिंदी विद्यापीठ’ और 1947 में ‘हिंदी रक्षक दल’ की भी स्थापना किया था, जिसने हिंदी को राष्ट्रभाषा और राजभाषा बनाने में महती भूमिका निभाई।
टंडन जी हिंदी को देश की आज़ादी के पहले ‘आज़ादी प्राप्त करने का’ और आज़ादी के बाद ‘आज़ादी को बनाये रखने का’ साधन मानते थे। इनके व्यक्तित्व का मूल्यांकन करते हुए सेठ गोविंददास ने लिखा है, ‘टंडन जी का अंतरंग उस प्रकार का है, जो हिमालय के सदृश अडिग और गंगा के सदृश निर्मल चरित्र का निर्माण करता है। …वह उन व्यक्तियों में हैं, जिनका सारा जीवन किसी न किसी प्रकार की क्रांतिकारी सेवा में व्यतीत हुआ है। …इस देश के पराधीन होने के कारण इस सेवा का सर्वोत्कृष्ट और उच्चतम मार्ग था देश को स्वाधीन करने का प्रयत्न। इस प्रयत्न में आवश्यकता थी बड़ी से बड़ी जोखिम उठाने की और बड़े से बड़े त्याग करने की। टंडन जी ने जीवन-भर यही किया। फिर वह अपने मतों पर इस प्रकार अडिग रहे कि महात्मा गांधी के सदृश नेता के सामने झुके नहीं।’[23]

टंडन जी हिंदी भाषा तथा नागरी लिपि के प्रश्न पर विशुद्धता के पक्षपाती थे। इसीलिए गांधी जी और टंडन जी में हिंदुस्तानी और हिंदी को लेकर गहरा मतभेद हो गया, परिणाम स्वरूप गांधी जी ने सम्मेलन से त्यागपत्र दे दिया। फिर भी टंडन जी हिंदी और देवनागरी के प्रबल समर्थक बने रहे और वे अपने पक्ष तथा नीति पर अंत समय तक अडिग रहे।
टंडन जी द्वारा हिंदी का निरंतर प्रचार, दृढ़ नीति, अनवरत परिश्रम और योगदान के संदर्भ में डॉ. ज्ञानवती दरबार ने लिखा है कि, ‘हिंदी की सेवा करने वालों और इसके साहित्य की अभिवृद्धि करने वालों की संख्या काफी बड़ी है, किंतु टंडन जी का स्थान इस सूची में निराला है। उनके लिए यह कहना कि हिंदी प्रचार अथवा विस्तार में टंडन जी ने सहायता की हास्यास्पद-सा लगेगा, क्योंकि वह इस शती के प्रथम दशक से इस समस्त आंदोलन के प्रवर्तकों में से हैं।’[24] वास्तव में टंडन जी उस मंच के निर्माता हैं, जिस पर आकर अनेक हिंदी-प्रेमियों ने अपनी-अपनी श्रद्धा और क्षमता के अनुसार हिंदी की सेवा और देशभर में हिंदी का प्रचार-प्रसार किया।

7. विनायक दामोदर सावरकर

हिंदी का प्रचार-प्रसार और सेवा करने वाले अहिंदी भाषी नेताओं में विनायक दामोदर सावरकर का नाम महत्वपूर्ण है। क्रांतिकारी विचारों वाले सावरकर जी के सार्वजनिक जीवन मूल आधार राष्ट्रभक्ति और हिंदुत्व था, जिसकी स्थापना के लिए वे लगातार प्रयत्नशील रहे। सावरकर का संबंध ‘हिंदू महासभा’ जैसी राजनीतिक संस्था से था जो हिंदूवादी विचारधारा की पार्टी थी। उन्हें उत्साह, साहस तथा वीरता जैसे वीरोचित गुणों का मूर्तिमान स्वरूप कहा जाता है। सावरकर ने देवनागरी लिपि को राष्ट्र लिपि और संस्कृत गर्भित हिंदी को राष्ट्रभाषा की मान्यता दी और इसी की वकालत करते रहे। इन्होने राष्ट्रभाषा हिंदी को हिंदुत्व के प्रतीक के रूप में प्रस्तुत किया। इन्हीं के प्रयत्नस्वरूप हिंदी भाषी क्षेत्रों के साथ महाराष्ट्र जैसे अहिंदी राज्य में हिंदी ने विशेष ख्याति प्राप्त की, प्रचारित-प्रसारित हुई।

8. काका कालेलकर

हिंदी की सेवा और प्रचार-प्रसार करने वाले अहिंदी भाषी नेताओं में काका कालेलकर जी का नाम आदर के साथ लिया जाता है। कालेलकर जी गांधी जी के सच्चे अनुयायी और राष्ट्रवादी नेताओं में से थे। कालेलकर जी कांग्रेस, हिंदी साहित्य सम्मेलन, राष्ट्रभाषा प्रचार समिति आदि राजनीतिक एवं साहित्यिक संस्थाओं से सक्रिय रूप से जुड़े हुए थे। साहित्यिक प्रतिभा, विनम्रता, ओजस्विता तथा अहिंसा जैसे गुण इनके व्यक्तित्व के अहम हिस्सा थे। काका जी को समस्त दक्षिण भारत और मुख्य रूप से गुजरात में हिंदी-प्रसार को अपूर्व सफलता प्राप्त हुई।

काका कालेलकर ने हिंदुस्तानी भाषा व नागरी लिपि के समर्थकों में रहे, क्योंकि वे भारतीय जनता की भाषा का वकालत करने वाले नेताओं में थे। उन्हीं के शब्दों में, ‘यदि भारत में प्रजा का राज चलाना है, तो वह जनता की भाषा में चलाना होगा।’ जब वर्धा (1942 ई.) में ‘हिन्दुस्तानी प्रचार सभा’ की स्थापना हुई तो काका कालेलकर जी ने ‘हिन्दुस्तानी’ के प्रचार के लिए पूरे देश का भ्रमण किया। उन्होंने राष्ट्र भाषा हिंदी के प्रचार-प्रसार को राष्ट्रीय जीवन का न केवल अभिन्न अंग माना बल्कि ‘दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा’ (1938 ई.) के अधिवेशन में इसका खुलकर ऐलान भी किया। अपने इसी लक्ष्य पर अडिग रहते हुए उन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन हिंदी के विकास और प्रचार-प्रसार में लगा दिया।

9. डॉ. राजेन्द्र प्रसाद

राष्ट्रीय नेताओं में डॉ. राजेन्द्र प्रसाद के हिंदी सेवा से हम सभी परिचित ही हैं। भारतीय संविधान सभा के अध्यक्ष के रुप में उन्होंने हिंदी को वह स्थान दिलाया जिसकी वह काबिलियत रखती थी। उन्होंने ही भारतीय भाषाओं में परिभाषिक कोष तैयार करवाने का महत्वपूर्ण कार्य किया। भारत के प्रथम राष्ट्रपति के पद से उन्होंने जो हिंदी की सेवा की उसका अपना महत्व है। उनके कार्यकाल में ही सरकारी स्तर पर हिंदी को मान्यता मिली थी।

डॉ. राजेन्द्र प्रसाद का संबंध कांग्रेस के साथ देश की अधिकांश हिंदी सेवी संस्थाओं- नागरी प्रचारिणी सभा, हिंदी साहित्य सम्मेलन, दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, राष्ट्रभाषा प्रचार समिति के साथ भी था तथा वे हिंदुस्तानी के प्रबल समर्थकों में थे। राजेंद्र जी का मानना था कि, ‘हिंदी भी यदि जीती-जागती भाषा होना चाहती है तो उसे अपने शब्दभंडार को बढ़ाना पड़ेगा। बहिष्कार की नीति तो वह कदापि स्वीकार नहीं कर सकती और न विदेशी शब्दों को बाहर रखकर वह अपनी उन्नति कर सकती है। हिंदी संस्कृत नहीं है, हिंदुस्तान में हिंदू, मुसलमान, फारसी, ईसाई, सिख बसते हैं और तो भी वह हिंदुस्तान है। उसी प्रकार हिंदी में सभी भाषाओं से उत्तम शब्द हम लेंगे तो भी वह हिंदी ही रहेगी।’[25]

10. पं. जवाहर लाल नेहरू

महात्मा गांधी के प्रिय शिष्यों में पं. जवाहरलाल नेहरू का नाम ससम्मान से लिया जाता है। वे न केवल कांग्रेसी नेताओं में थे बल्कि देश के प्रथम प्रधानमंत्री भी थे।नेहरु जी उन भारतीय नेताओं में से एक थे जो जीवनपर्यन्त मातृभूमि और मातृभाषा (हिंदी) की अमूल्य सेवा करते रहे। इनका भी संबंध नागरी प्रचारिणी सभा, हिंदी साहित्य सम्मेलन, दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, राष्ट्रभाषा प्रचार समिति जैसी देश की अधिकांश हिंदी सेवी संस्थाओं से था। नेहरु भी गांधी जी की तरह हिंदुस्तानी के प्रबल समर्थक थे।

मात्रभाषा और हिंदी के संदर्भ में उन्होंने लिखा है कि, ‘मेरा दृढ़ मत है कि कोई भी शख्स अपनी मातृभाषा के द्वारा ही तरक्की कर सकता है। हमारा ध्येय पुरानी भाषाओं को जोरों से चलाना है और उनके द्वारा शिक्षा आदि को भी चलाना चाहिए। लेकिन देश-भर को बांधने के लिए, भारत के भिन्न-भिन्न हिस्से एक दूसरे से संबंधित रहें, इसके लिए हिंदी की जरूरत है।’[26] नेहरू जी का हिंदी के प्रति पूर्ण श्रद्धा और उसकी जीवंतता के प्रति पूर्ण विश्वास भी था। तभी तो उन्होंने कहा- ‘हिंदी में जान है, वह जीवित भाषा है और मुझे यकीन है कि वह उछलती-कूदती हई तरक्की का अपना रास्ता खुद बना लेगी। …हजार शब्द कोश भी भाषा में वह जान नहीं डाल सकते, जो उसमें अपने अंदर होती है। जिस भाषा में अपनी शक्ति नहीं होती, वह दूसरों की बार-बार कोशिश से भी नहीं बढ़ती और जिसमें अपनी ताकत होती है, वह खुद ब खुद तरक्की कर लेती है।’[27]

11. विनोबा भावे

भारतीय समाज सुधारकों एवं नेताओं में संत विनोबा भावेका नाम बड़े आदर के साथ लिया जाता है। इनके द्वारा राष्ट्रभाषा, भूदान, गोरक्षा, समाजसुधार आदि विविध क्षेत्रों में बहुत महत्वपूर्ण कार्य हुए। ‘भारतीय संस्कृति, भारतीय विचारधारा, भारतीय तत्व ज्ञान, भारतीय साहित्य, ये सब विनोबा में मानो प्रस्फुटित और पल्लवित हो उठे हैं।’[28] वे सच्चे अर्थों में गांधी जी के अनुयायी एवं उनकी विचारधारा को आगे बढ़ाने वालों में रहे हैं। जहां तक हिंदी का प्रश्न है, विनोबा जी हिंदुस्तानी के कट्टर समर्थकों में से थे, उनका हिंदी प्रेम गांधी जी से प्रेरित था।

विनोबाजी ने भूदान-आंदोलन के माध्यम से हिंदी के प्रचार तथा प्रसार में बड़ा योगदान दिया। लेकिन वे मातृभाषा एवं राष्ट्रभाषा के बीच संतुलन के पक्षपाती थे, इसके संबंध में उन्होंने लिखा है कि, ‘शिक्षा शास्त्री सूक्ष्म विचार करें तो उन्हें स्वयं ध्यान में आ जायेगा कि आरंभ से अन्त तक मातृभाषा ही शिक्षा का माध्यम बननी चाहिये। सिर्फ कालेज में यह सुविधा हो कि दूसरी यूनिवर्सिटी का प्रोफेसर वहां की मातृभाषा न बोलकर हिंदी में बोले तो विद्यार्थी उसे समझ जायं। मेरा तो यह मत है कि जिस तरह मानव दो-दो आंखों से देखता है, उसी तरह हर भारतीय को मातृभाषा और राष्ट्रभाषा दोनों आनी चाहिये।’[29]

12. सेठ गोविंद दास

हिंदी को ‘राजभाषा’ का स्थान दिलाने में अग्रणी सेठ गोविंद दास ने अन्यतम देशभक्त तथा राष्ट्रभाषा हिंदी के प्रहरी के रूप में राजनीति तथा साहित्य साधना, इन दोनों क्षेत्रों में महती सफलता प्राप्त की है। उन्होंने अपने युवाकाल में ही हिंदी की कई पत्रिकाओं का संपादन भी किया। सेठ गोविंद दास ने नई दिल्ली के अनिश्चित वातावरण में न केवल हिंदी के प्रहरी की भूमिका निभाई अपितु लोकसभा के सदस्य के रुप में हिंदी के प्रसार-प्रसार के लिए कई महत्वपूर्ण कदम उठाये जो हिंदी को राजभाषा का स्थान दिलाने में सहायक सिद्ध हुए। सेठ जी का हिंदी की समृद्धि और प्रचार-प्रसार में महत्वपूर्ण योगदान रहा है। इसी कारण से 1963 ई. में सेठ जी को अखिल भारतीय हिंदी साहित्य सम्मेलन का अध्यक्ष चुना गया था।

18 मई सन् 1949 में जब भारतीय संविधान सभा की बहस चल रही थी तब गोविंद दास जी ने कहा था– ‘मैं व्यक्तिगत रूप से यह चाहता हूं कि– संविधान मौलिक रूप में हमारी मुख्य भाषा में हो, अंग्रेजी में नहीं; जिससे हमारे भावी न्यायाधीश अपनी भाषा पर निर्भर हो सकें, विदेशी भाषा पर नहीं।’[30] वे हिंदी भाषा के विशुद्ध रूप के पक्षपाती थे। संविधान सभा में हिंदुस्तानी के विरुद्ध बोलते हुए उन्होंने कहा, ‘हिंदुस्तानी का समर्थन करने वाले उसका समर्थन साम्प्रदायिकता की भावना से करते हैं। जो देश में एक संस्कृति चाहते हैं, वे भला दो लिपियों में लिखी जाने वाली भाषा का समर्थन कैसे करेंगे?’[31]


[1] राजभाषा के संदर्भ में हिंदी आंदोलन का इतिहास- उदय नारायण दूबे, पृष्ठ- 148

[2] श्री वर्षा बिंदु- चौधरी प्रेमघन, पृष्ठ- 41

[3] राजभाषा के संदर्भ में हिंदी आंदोलन का इतिहास- उदय नारायण दूबे, पृष्ठ- 150

[4] राजभाषा के संदर्भ में हिंदी आंदोलन का इतिहास- उदय नारायण दूबे, पृष्ठ- 151

[5] वही

[6] राष्ट्रभाषा का इतिहास, पृष्ठ- 84

[7] हिंदी आंदोलन, पृष्ठ- 32

[8] राजभाषा के संदर्भ में हिंदी आंदोलन का इतिहास- उदय नारायण दूबे, पृष्ठ- 153

[9] स्वाधीनता संग्राम के राजनेता और हिन्दी- अनुराधा महेन्द्र, उप महाप्रबंधक, आईडीबीआई बैंक

[10] स्वाधीनता संग्राम के राजनेता और हिन्दी- अनुराधा महेन्द्र, उप महाप्रबंधक, आईडीबीआई बैंक

[11] स्वाधीनता संग्राम के राजनेता और हिन्दी- अनुराधा महेन्द्र, उप महाप्रबंधक, आईडीबीआई बैंक

[12] राजभाषा के संदर्भ में हिंदी आंदोलन का इतिहास- उदय नारायण दूबे, पृष्ठ- 154

[13] राष्ट्रभाषा हिंदुस्तानी, पृष्ठ- 55

[14] शिक्षा का माध्यम, पृष्ठ- 11

[15] वही, पृष्ठ-12

[16] आत्मकथा- गांधी जी, पृष्ठ- 18

[17] राष्ट्रभाषा हिंदुस्तानी, पृष्ठ- 45

[18] वही, पृष्ठ- 11

[19] भाषा और समाज- रामविलास शर्मा, पृष्ठ- 414

[20] राजभाषा हिंदुस्तानी, पृष्ठ- 44

[21] वही पृष्ठ- 49

[22] स्वाधीनता संग्राम के राजनेता और हिन्दी- अनुराधा महेन्द्र, उप महाप्रबंधक, आईडीबीआई बैंक

[23] स्मृतिकण, पृष्ठ- 151

[24] भारतीय नेताओं की हिंदी सेवा, पृष्ठ- 213

[25] साहित्य शिक्षा और संस्कृति, पृष्ठ- 57

[26] हिंदी प्रचारक (मद्रास), सितम्बर-अक्टुबर- 1936

[27] राजभाषा के संदर्भ में हिंदी आंदोलन का इतिहास- उदय नारायण दूबे, पृष्ठ- 161

[28] विनोबा-स्तवन- बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’, पृष्ठ- 4

[29] कन्हैयालाल माणिक लाल मुंशी अभिनंदन ग्रंथ, पृष्ठ- 87

[30] स्वाधीनता संग्राम के राजनेता और हिन्दी- अनुराधा महेन्द्र, उप महाप्रबंधक, आईडीबीआई बैंक

[31] सेठ गोविंद दास अभिनंदन ग्रंथ, पृष्ठ- 66

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