हिंदी कहानी का विकास | Hindi Kahani ka Vikas

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हिंदी कहानी का विकास

हिंदी कहानी का उद्भव

हिंदी कहानी के उद्भव की विकास यात्रा का प्रारम्भ 1900 ई. के आसपास माना जाता है, क्‍योंकि इससे पूर्व हिंदी में कहानी जैसी किसी विधा का सूत्रपात नहीं हुआ था। हिंदी की प्रथम कहानी को लेकर आलोचकों में विवादा है। इस संबंध में जिन कहानियों का नाम लिया जाता है, वे हैं- रानी केतकी की कहानी- मुंशी इंशा अल्ला खां; राजा भोज का सपना- शिवप्रसाद सितारे हिन्द; इंदुमती- किशोरीलाल गोस्वामी; दुलाईवाली- बंगमहिला; एक टोकरी भर मिट्टी- माधवराव सप्रे; ग्यारह वर्ष का समय- आचार्य रामचंद्र शुक्ल।

इनमें से प्रथम दो में कहानी कला के तत्व विद्यमान नहीं हैं। इसलिए इन्हें हिंदी की पहली कहानी नहीं माना जा सकता। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने ‘इंदुमती’ को ही हिंदी की प्रथम मौलिक कहानी माना है जिसका प्रकाशन सन्‌ 1900 ई. में ‘सरस्वती’ पत्रिका में हुआ था। किन्तु शिवदान सिंह चौहान के अनुसार यह कहानी शेक्सपीयर के ‘टेम्पेस्ट’ का अनुवाद है, अतः मौलिक रचना नहीं कही जा सकती। सरस्वती पत्रिका में ही 1903 में रामचंद्र शुक्ल की कहानी ‘ग्यारह वर्ष का समय’ प्रकाशित हुई तथा सन्‌ 1907 में बंग महिला की ‘दुलाईवाली’ कहानी छपी। नवीन अनुसंधानों के आधार पर सन्‌ 1901 में माधवराव सप्रे की ‘एक टोकरी भर मिट्टी’ कहानी, जिसका प्रकाशन ‘छत्तीसगढ़ मित्र’ पत्रिका में हुआ था, उसे ही हिंदी की सर्वप्रथम मौलिक कहानी मानी जाती है।

हिंदी कहानी का विकास

कथा सम्राट प्रेमचंद को केन्द्र बिन्दु मान कर हिंदी कहानी की विकास यात्रा को चार भागों में विभक्त किया गया है-

1. प्रेमचंद पूर्व हिंदी कहानी

2. प्रेमचंदयुगीन हिंदी कहानी

3. प्रेमचन्दोत्तर हिंदी कहानी

4. नई कहानी

5. समकालीन हिंदी कहानी

1. प्रेमचंद पूर्व हिंदी कहानी (सन्‌ 1900 ई. से 1915 ई.)

इस काल में हिंदी कहानी अपना स्वरूप ग्रहण कर रही थी। उसकी शिल्पविधि का विकास हो रहा था और नए-नए विषयों पर कहानियां लिखी जा रही थीं। हिंदी की प्रथम कहानी के अन्तर्गत जिन कहानियों का उल्लेख किया जा चुका है, उनके अतिरिक्त इस काल में लिखी गई अन्य प्रसिद्ध कहानियां हैं- माधवप्रसाद मिश्र की मन की चंचलता, लाला भगवानदीन की प्लेग की चुड्रैल, वृन्दावनलाल वर्मा की राखीबन्द भाई और नकली किला, विश्वम्भरनाथ शर्मा ‘कौशिक’ की रक्षाबन्धन, ज्वालादत्त शर्मा की मिलन आदि हैं। वस्तुतः ‘सरस्वती’ पत्रिका में प्रकाशित कहानियों ने हिंदी कहानी को एक दिशा प्रदान की और हिंदी कहानी अपने विकास पथ पर अग्रसर हुई। उक्त सभी कहानियां इसी पत्रिका में प्रकाशित हुई थीं। सन्‌ 1909 ई. में काशी में ‘इन्दु’ नामक पत्रिका का प्रकाशन प्रारम्भ हुआ जिसमें जयशंकर प्रसाद की कहानियां प्रकाशित होने लगीं थीं। बाद में इन कहानियों का संग्रह ‘छाया’ नाम से सन् 1912 ई. में प्रकाशित हुआ। राधिकारमणप्रसाद की कहानी ‘कानों में कंगना’ भी ‘इंदु’ में सन 1913 ई. में प्रकाशित हुई। सन् 1918 ई. में काशी से ‘हिंदी गल्पमाला’ नामक पत्रिका का प्रकाशन प्रारम्भ हुआ जिसमें ‘प्रसाद’ जी की कहानियों के अतिरिक्त इलाचंद्र जोशी एवं गंगाप्रसाद श्रीवास्तव की कहानियां भी छपने लगी थीं। प्रेमचंद जी की कुछ कहानियां भी ‘सरस्वती’ में इस काल तक छपने लगी थीं।

उपर्युक्त कहानियों में बहुत सी कहानियों पर भारतीय एवं विदेशी भाषाओं की छाया है। इन कहानियों का विषय प्रेम समाज सुधार, नीति उपदेश से जुड़ा हुआ है।

चंद्रधर शर्मा गुलेरी इस काल के सर्वश्रेष्ठ कहानीकार कहे जा सकते हैं। उन्होंने केवल तीन कहानियां लिखीं- उसने कहा था, सुखमय जीवन और बुद्धू का कांटा। इनमें से ‘उसने कहा था’ का प्रकाशन सन्‌ 1915 ई. में ‘सरस्वती’ में हुआ था। कथ्य एवं शिल्प दोनों ही दृष्टियों से यह अपने युग की सर्वश्रेष्ठ कहानी मानी जा सकती है। कहानी का मूल विषय है- आदर्श प्रेम जो त्याग और बलिदान के लिए प्रेरित करता है। की दृष्टि से भी यह सशक्त एवं प्रभावपूर्ण कहानी मानी गई है।

हिंदी कथा यात्रा के इस युग में कहानी अभी बाल्यावस्था में ही थी। प्रेमचंद के आगमन से पूर्व हिंदी कहानी का कोई सशक्त रूप नहीं उभर पाया था।

2. प्रेमचंदयुगीन हिंदी कहानी (सन्‌ 1916 ई. से 1936 ई.)

प्रेमचंद हिंदी के युगप्रवर्तक कहानीकार माने जाते हैं। पहले वे नवाबराय के नाम से उर्दू में लिखते थे। उर्दू में लिखा हुआ उनका कहानी संग्रह ‘सोजे वतन’ 1907 ई. में प्रकाशित हुआ था। स्वातन्त्र्य भावना से ओतप्रोत होने के कारण इस कहानी संकलन को अंग्रेज सरकार ने जब्त कर लिया था। बाद में में वे हिंदी में ‘प्रेमचंद’ नाम से लिखने लगे और उनका यह नाम कथा साहित्य में अमर हो गया। उनकी पहली हिंदी कहानी ‘पंच परमेश्वर’ सन्‌ 1916 ई. में प्रकाशित हुई और अन्तिम ‘कफन’ 1936 ई. में। मुंशी प्रेमचंद ने अपने जीवन काल में लगभग 300 कहानियों की रचना की, जो ‘मानसरोवर’ के आठ खण्डों में प्रकाशित हुई है।

प्रेमचंद की कहानियों में विषय-वैविध्य दिखाई पड़ता है। किसी अन्य कथाकार ने जीवन के इतने व्यापक फलक को अपनी कहानियों में नहीं समेटा, जितना प्रेमचंद ने। उनकी कहानियां अपने परिवेश से, अपने आसपास के जीवन से जुड़ी हुई हैं। उनकी अधिकांश कहानियों का विषय ग्रामीण जीवन से लिया गया है, किन्तु कई कहानियां कस्बे की जिन्दगी या स्कूल-कॉलेज से भी जुड़ी हुई हैं। उनकी कहानियों के पात्र हर वर्ग, धर्म, जाति के हैं। कोई हिन्दू है तो कोई मुसलमान, कोई किसान है, तो कोई विद्यार्थी। अपनी कहानियों में उन्होंने विविध समस्याओं को भी उठाया है- जमींदारों के द्वारा किसानों के शोषण की समस्या, सूदखोरों के शोषण से पिसते ग्रामीणों की समस्या, छुआछूत की समस्‍या, रूढ़ि एवं अन्धविश्वास, संयुक्त परिवार की समस्या भ्रष्टाचार एवं व्यक्तिगत जीवन की समस्याएं आदि।

प्रेमचंद की प्रारम्भिक कहानियों में आदर्श का पुट दिया गया है। पंच परमेश्वर, आत्माराम, ईदगाह, नमक का दरोगा आदि कहानियों का मूल उद्देश्य है- सच्चे का बोलबाला और झूठे का मुंह काला जबकि परवर्ती कहानियां- पूस की रात और कफन तक आते-आते उनका दृष्टिकोण परिवर्तित हो गया। अब वे जीवन के यथार्थ से जुड़ गए थे। स्पष्ट है कि उनकी पहले वाली कहानियां आदर्शवादी हैं और बाद में लिखी गई यथार्थवादी कहानियां हैं।

प्रेमचंद्र का कथा शिल्प भी उत्तरोत्तर विकास पथ पर अग्रसर रहा है। प्रारम्भिक कहानियों में इतिवृत्तात्मकता अधिक है तथा चरित्र-चित्रण की मनोवैज्ञानिकता के स्थान पर व्यक्ति के आचरण का वर्णन अधिक किया गया है। ‘पंच परमेश्वर’ इसी कोटि की कहानी है। सन्‌ 1930 के बाद की कहानियों में कथानक छोटे एवं संश्लिष्ट होते गए तथा कहानी की मूल संवेदना को उभारने वाली दो-तीन घटनाओं पर ही बल दिया जाने लगा। कहानियों के पात्रों का चरित्रांकन मनोविश्लेषणात्मक पद्धति पर किया जाने लगा और कहानी को चरम सीमा तक द्वंद एवं समस्या माध्यम से पहुंचाया गया। ‘शतरंज के खिलाड़ी’ इसी प्रकार की कहानी है। इससे पूर्व की कहानियां प्रभाव की दृष्टि से कमजोर ही कही जाएंगी। प्रेमचंद का आदर्शवादी दृष्टिकोण, परम्परागत मूल्यों में आस्था और अन्धविश्वास परवर्ती कहानियों में नहीं दिखाई पड़ता।

सन्‌ 1930 से लेकर 1936 ई. तक का कालखण्ड प्रेमचंद की कहानी कला का उत्कर्ष काल है। इस काल की कहानियों में मनोवैज्ञानिक विश्लेषण एवं जीवन के यथार्थ का चित्रण किया गया है। इन कहानियों में कथानक और घटनाओं को उतना महत्व नहीं दिया गया जितना कहानी की मूल संवेदना को पाठकों तक पहुंचाने की ओर ध्यान दिया गया। ‘कफन’ और ‘पूस की रात’ इस वर्ग की कहानियां हैं। इनमें सच्चाई को नग्न रूप में उजागर किया गया है। हिंदी की आधुनिक कहानियों को ऐसी कहानियों से बहुत कुछ ‘दाय’ के रूप में प्राप्त हुआ है, इसे स्वीकार करना ही पड़ेगा।

पंच परमेश्वर, बूढ़ी काकी, परीक्षा, सवा सेर गेहूं, आत्माराम, सुजान भगत, शतरंज के खिलाड़ी, बड़े भाई साहब, नशा, ठाकुर का कुआं, ईदगाह, पूस की रात और कफन आदि प्रेमचंद की प्रमुख कहानियों हैं।

प्रेमचंद युग के अन्य कहानीकारों में पं. विश्वम्भरनाथ शर्मा ‘कौशिक’, सुदर्शन, जयशंकर प्रसाद, चतुरसेन शास्त्री, रायकृष्णदास, पाण्डेय बेचन शर्मा ‘उग्र’, भगवतीप्रसाद वाजपेयी, जैनेन्द्र, अज्ञेय, इलाचंद्र जोशी, यशपाल आदि हैं।

कौशिक जी की प्रथम कहानी ‘रक्षाबन्धन’ सन्‌ 1912 में ही प्रकाशित हुई थी। उन्होंने लगभग 200 कहानियां लिखी हैं जो गल्प मन्दिर, चित्रशाला, प्रेम प्रतिमा, मणिमाला और कल्लोल संग्रहों में संकलित हैं। उनकी कहानियों का विषय प्राय: सामाजिक समस्याओं– दहेज प्रथा, पर्दा प्रथा, बाल विवाह एवं अन्धविश्वास आदि से जुड़ा हुआ है। ताई, रक्षाबन्धन, विधवा, कर्तव्य बल, विद्रोही, पतितपावन आदि उनकी प्रसिद्ध कहानियां हैं।

सुदर्शन ने अपनी कहानियों का विषय जीवन की ज्वलंत समस्याओं को बनाया है। सुदर्शन सुधा, सुदर्शन सुमन, पुष्पलता, सुप्रभात, तीर्थयात्रा, गल्प मंजरी, परिवर्तन, पनघट आदि उनके कहानी संग्रह हैं। हार की जीत, कवि की स्त्री, प्रेम तरु, दो मित्र, एथेंस का सत्यार्थी, पत्थरों का सौदाग और कमल की बेटी आदि इनकी प्रसिद्ध एवं चर्चित कहानियां हैं। इनकी कहानियों में सुधारवादी दृष्टिकोण के साथ-साथ अंतर्द्वंद की प्रधानता है।

प्रेमचंद युग के एक प्रतिभाशाली कथाकार के रूप में श्री जयशंकर प्रसाद का नाम लिया जाता है। उनके पांच कहानी संग्रह प्रकाशित हुए हैं- छाया, प्रतिध्वनि, आकाशदीप, आंधी और इन्द्रजाल। कुल मिलाकर 69 कहानियां हैं। उनकी कहानियों में अनुभूति की तीव्रता, काव्यात्मकता, प्रेम चित्रण, प्रकृति निरूपण एवं कल्पना की प्रचुरता विद्यमान है। उनकी कुछ कहानियों में ऐतिहासिक देशकाल एवं वातावरण की सफल प्रस्तुति की गई है। अतीत गौरव, स्वप्निल भावुकता एवं कल्पना की ऊंची उड़ान उनकी कहानियों की विशेषता मानी जा सकती है। प्रेम, करुणा, त्याग, बलिदान, इनकी कहानियों के विषय हैं। उन्होंने उच्चकोटि के नारी चरित्र अपनी कहानियों में प्रस्तुत किए हैं जो अपने निश्छल प्रेम, बलिदान और त्याग से पाठकों पर अमिट छाप छोड़ते हैं। पुरस्कार, इन्द्रजाल, आकाशदीप, ममता, प्रतिध्वनि, आंधी, सालवती आदि प्रसाद की महत्वपूर्ण कहानियां हैं।

आचार्य चतुरसेन शात्री ने ऐतिहासिक विषयों पर मार्मिक कहानियों की रचना की। अंबपालिका, भिक्षुराज, सिंहगढ़ विजय, पन्नाधाय, रूठी रानी, दे खुदा की राह पर आदि उनकी प्रमुख कहानियां हैं। रायकृष्णदास भी प्रसाद परम्परा के कहानी लेखक हैं। उनकी कहानियों में कवित्वपूर्ण वातावरण और नाटकीयता विद्यमान है। अन्त :पुर का आरम्भ में इन तत्वों को देखा जा सकता है।

उपेन्द्रनाथ अश्क ने मध्यमवर्गीय जीवन से अपनी कहानियों के विषय चुने हैं। समाज की कुरीतियों, आंदोलनों एवं कुण्ठाओं को भी उनकी कहानियों में अभिव्यक्ति मिली है। व्यक्ति चित्रण के साथ-साथ समष्टि चित्रण भी अश्क जी की कहानियों में दिखाई पड़ता है। इनमें कहीं उनका मार्क्सवादी दृष्टिकोण है तो कहीं व्यक्तिमूलक चेतना एवं मनोविश्लेषण की प्रवृति है। अश्क जी के प्रमुख कहानी संग्रह हैं- निशानियां और दो धारा।

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भगवती प्रसाद वाजपेयी ने लगभग तीन सौ कहानियां लिखी हैं जिनमें सामाजिक यथार्थ का चित्रण हुआ है। इन कहानियों में विषय वैविध्य है। अछूत समस्या, विधवा विवाह, वेश्या समस्या, जैसी अनेक समस्याओं को इन कहानियों में उठाया गया है। लेखक का शिल्प विधान पुष्ट है तथा यथार्थवादी चरित्रों के प्रति रुझान दिखाई पड़ता है।

प्रेमचंदयुगीन कहानीकारों में पाण्डेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ एक उल्लेखनीय कथाकार हैं। चिनगारियां, शैतान मण्डली, बलात्कार, इंद्रधनुष, चाकलेट, दोजख की आग आदि उनके कहानी संग्रह हैं। सामाजिक यथार्थ को नग्न रूप में पेश करने में वे सिद्धहस्त कथाकार माने जाते हैं। इनकी कहानियों में सामाजिक शोषण, अनाचार एवं कुरीतियों के प्रति आक्रोश व्यक्त किया गया है।

राधिकारमणप्रसाद सिंह की भी कई कहानियां इस काल में प्रसिद्ध हो चुकी थीं। कानों में कंगन, दरिद्रनारायण और पैसे की घुंघनी उनकी प्रसिद्ध कहानियां हैं। इनका संकलन गांधी टोपी नामक संग्रह में किया गया है। इस काल के अन्य कहानीकारों में- राहुल सांकृत्यायन (सतनी के बच्चे), सुभद्राकुमारी चौहान (बिखरे मोती एवं उन्मादिनी संग्रह), शिवरानी देवी (कौमुदी), उषा देवी मित्रा, चच्रगुप्त विद्यालंकार, विष्णु प्रभाकर आदि।

इस काल की कहानियों में पारिवारिक, सामाजिक, राजनीतिक समस्यायों का चित्रण ही प्रधान रूप से हुआ है। व्यक्ति चरित्र एवं नारी को इस काल में प्रमुखता दी जाने लगी थी तथा शैली एवं शिल्प की दृष्टि से कहानी प्रौढ़ता प्राप्त कर रही थी। भाषा की दृष्टि से भी इस काल की कहानियाँ उल्लेखनीय हैं। प्रेमचंद की भाषा में सपाट बयानी, सादगी, लोकोक्तियां एवं मुहावरों का सही प्रयोग तथा पात्रानुकूलता जैसे गुण विद्यमान हैं, वहीं प्रसादजी की भाषा में काव्यात्मकता एवं लाक्षणिकता का पुट दिखाई पड़ता है।

3. प्रेमचन्दोत्तर हिंदी कहानी (सन्‌ 936 ई. से 1950 ई.)

सन्‌ 1936 से सन्‌ 1950 ई. तक का समय हिंदी कथा जगत में प्रेमचन्दोत्तर कहानी काल के रूप में जाना जाता है। प्रेमचन्दोत्तर कहानी किसी एक दिशा की ओर अग्रसर नहीं हुई अपितु विविध दिशाओं में उसका विकास हुआ। कहानी इस काल की केन्द्रीय विधा रही है अतः उसने जीवन और जगत के विविध पक्षों को अपनी परिधि में समेटने का प्रयास किया। इस काल में एक ओर तो प्रगतिवादी विचारधारा से अनुप्राणित कहानीकारों ने प्रगतिवादी कहानियां लिखीं तो दूसरी ओर मनोविश्लेषणपरक कहानीकारों ने ऐसे विषयों पर कहानियां लिखीं जिनमें व्यक्ति मन की आन्तरिक परतों को खोलकर देखा गया था।

प्रगतिवादी कथाकारों में सर्वप्रमुख हैं- यशपाल, जिन्होंने मार्क्सवादी चेतना से अनुप्राणित होकर अनेक कहानियों की रचना की; वर्ग संघर्ष, शोषण, सामाजिक एवं नैतिक रुढियों पर आक्रोश उनकी कहानियों के विषय रहे हैं। पिंजड़े की उड़ान, फूलों का कुर्ता, तर्क का तूफान एवं चक्कर क्लब आदि यशपाल के प्रमुख कहानी संग्रह हैं। यशपाल जी के कथा शिल्प पर टिप्पणी करते हुए डॉ. भगवतस्वरूप मिश्र ने लिखा है- ‘कथा शिल्प और कथ्य की दृष्टि से यशपाल जी प्रेमचंद के बहुत नजदीक हैं, पर वे अपनी कहानी को प्रेमचंद की तरह समस्या का समाधान देने वाले किसी आदर्श बिन्दु पर नहीं पहुंचाते, अपितु यथार्थ की कठोरता के तीखे व्यंग्य का बोध भर करा देते हैं।’ रांगेय राघव, नागार्जुन, अमृतराय, मन्मथनाथ गुप्त इसी परम्परा के अन्य कथाकार हैं।

मनोविश्लेषणवादी कहानी लेखकों में अज्ञेय, इलाचंद्र जोशी एवं जैनेन्द्र के नाम उल्लेखनीय हैं। अज्ञेय ने व्यक्ति के परिवेश और संघर्ष को अपनी कहानियों में उकेरा है। उनकी कहानियों में मनोविश्लेषण के साथ-साथ प्रतीकात्मकता एवं बौद्धिकता का प्रभाव भी है। अज्ञेय ने कहानी को बौद्धिक एवं वैचारिक आधार प्रदान किए तथा प्रतीकों एवं बिम्बों के प्रयोग में वृद्धि की। रोज, खितीन बाबू, पुलिस की सीटी, हजामत का साबुन, कोठरी की बात, गैग्रीन, पठार का धीरज आदि इनकी महत्वपूर्ण कहानियाँ और विपथगा, परम्परा, शरणार्थी, कोठरी की बात, जयदोल, अमर बल्‍लरी और ये तेरे प्रतिरूप आदि कहानी संग्रह हैं।

जैनेद्र की कहानियों में व्यक्ति-मनोविज्ञान के दर्शन होते हैं। मानवीय दुर्बलताओं का यथार्थ चित्रण जैनेन्द्र की कहानियों में प्रमुखता से हुआ है। वे प्रसाद की भांति आदर्श पात्रों को जन्म नहीं देते अपितु यथार्थ धरातल से उठाए हुए पात्रों को अपनी कहानी का विषय बनाते हैं। उनके पात्र अपने पास-पड़ोस से उठाए हुए मानव-चरित्र हैं। जैनेन्द्र जी की कहानियों का शिल्प भी अलग है, क्‍योंकि कहानी की मूल संवेदना अपनी उष्णता के साथ उसमें अन्त तक व्याप्त रहती है। जाह्नवी, पत्नी, मास्टर साहब, ध्रुवयात्रा, ग्रामोफोन का रिकार्ड, पानवाला आदि उनकी प्रसिद्ध कहानियां हैं।

मनोविश्लेषणवादी परम्परा के ही कहानीकार हैं- इलाचंद्र जोशी, जिनकी कहानियां, मनोविज्ञान की दृष्टि से केस हिस्ट्री सी प्रतीत होती हैं। जोशी जी की कहानियों में दमित काम वासना, अहं, कुण्ठा का चित्रण किया गया है तथा इनमें घटनाओं की अपेक्षा चरित्र पर विशेष बल दिया गया है। रोगी, मिस्त्री, परित्यक्ता, चौथे विवाह की पत्नी, प्रेतात्मा आदि इनकी प्रमुख कहानियां तथा खण्डहर की आत्माएं, डायरी के नीरस पृष्ठ, आहुति और दीवाली आदि कहानी संग्रह हैं।

प्रेमचन्दोत्तर युग के अन्य कहानीकारों में चंद्रगुप्त विद्यालंकार, रमाप्रसाद पहाड़ी, देवीदयाल चतुर्वेदी भगवतीचरण वर्मा, जानकीबल्लभ शास्त्री, रामवृक्ष बेनीपुरी विष्णु प्रभाकर, राधाकृष्ण, प्रभाकर माचवे, श्रीराम शर्मा आदि हैं। प्रभाकर माचवे ने द्वितीय विश्वयुद्ध से सम्बन्धित घटनाओं पर कहानियां लिखकर संगीनों का साया संकलन तैयार किया। पण्डित श्रीराम शर्मा ने ‘शिकार कथाओं’ का श्रीगणेश किया, किन्तु उनकी शिकार कथाएं वास्तविक घटना पर आधृत होने के कारण रिपोर्ताज के अधिक निकट हैं।

संक्षेप में प्रेमचन्दोत्तर कथाकारों में मनोविश्लेषण प्रवृत्ति की प्रधानता है। वर्ग संघर्ष एवं यथार्थवाद की ओर रुझान भी कुछ कहानीकारों का रहा है तथा उन्होंने प्रतीकात्माकता एवं सांकेतिकता का सहारा भी लिया है। इस काल में प्रेम, रोमांस एवं यौन समस्याओं को भी कहानीकारों ने अपनी विषयवस्तु बनाया है।

4. नई कहानी (सन्‌ 1950 के बाद)

सन्‌ 1950 के बाद की कहानी विषय और शिल्प दोनों ही दृष्टियों से पूर्ववर्ती कहानी से भिन्न है। पुरानी कहानी में जहां पूर्वाग्रह है वहीं नई कहानी पूर्वाग्रह से मुक्त है। पुराने कहानीकार ने अपनी आंखों पर समाजवादी, नैतिकतावादी, रूमानी या मनोविश्लेषणवादी चश्मा लगाकर जीवन को देखा, किन्तु नए कहानीकारों ने सभी पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर जीवन को यथार्थ रूप में देखने समझाने का प्रयास किया। उनकी कहानी ‘भोगे हुए यथार्थ’ से जुड़ी है, इसलिए वह अधिक प्रामाणिक है। आधुनिक मानव के जीवन को विविध कोणों से देखकर उसका सही परिप्रेक्ष्य में चित्रण करने का प्रयास इन कहानीकारों ने किया है। डॉ. नामवर सिंह के अनुसार- ‘अभी तक जो कहानी सिर्फ कथा कहती थी, या कोई चरित्र पेश करती थी अथवा एक विचार को झटका देती थी, वही… जीवन के प्रति एक नया भाव-बोध जगाती है। नई कहानी में विषयों की विविधता के साथ-साथ शिल्प का नयापन भी विद्यमान है। उसमें प्रभावान्विति पर इतना जोर नहीं है जितना जीवन के संश्लिष्ट खण्ड में व्याप्त संवेदना पर है।

नया कहानीकार किसी दार्शनिक, सामाजिक अथवा राजनीतिक विचारधारा से प्रतिबद्ध न होकर विशुद्ध अनुभूति की सच्चाई और विषय की यथार्थता के प्रति प्रतिबद्ध होता है।’ कमलेश्वर ने लिखा है कि, पुरानी और नई कहानी के बीच बदलाव का बिन्दु है- ‘नई वैचारिक दृष्टि’ आज का कहानीकार पहले से अधिक सूक्ष्मदर्शी और संवेदनशील है। वह बिना किसी लाग-लपेट के तटस्थता एवं सच्चाई के साथ यथार्थ वास्तविकता को अपनी रचना के माध्यम से व्यक्त करता है। डॉ. गणपतिचंद्र गुप्त के अनुसार- ‘नई कहानी का सबसे बड़ा वैशिष्टय है- कथा तत्व का हास, नया कहानीकार कथानक को महत्व नहीं देता।’

स्वतंत्रता के वाद हमारी मानसिकता में बदलाव आया है। प्रजातांत्रिक मूल्यों के संबंध में हमारी आदर्शवादी कल्पनाएं झूठी साबित हुई हैं तथा जीवन के कठोर यथार्थ से हमारा परिचय और घनिष्ठ हुआ है। भूख, गरीबी, बेरोजगारी अशिक्षा जैसी समस्याओं ने हमारे जन-जीवन को पूरी तरह प्रभावित किया है, अतः कहानियों के विषय अब जीवन की वास्तविक समस्याओं से पूरी तरह जुड़े हुए दिखाई पड़ रहे हैं। मार्कंडेय के अनुसार, ‘नई कहानी से हमारा मतलब उन कहानियों से है जो सच्चे अर्थों में कलात्मक निर्माण हैं, जो जीवन के लिए उपयोगी हैं और महत्वपूर्ण होने के साथ ही, उसके किसी-न-किसी नए पहलू पर आधारित हैं।’

नई कहानी की विकास यात्रा बीसवीं शताब्दी के छठे दशक में प्रारम्भ हुई। सन्‌ 1955 में ‘कहानी’ पत्रिका का प्रकाशन प्रारंभ हुआ जिसमें प्रकाशित होने वाली कहानियां परम्परागत कहनियों से कुछ अलग दिखाई पड़ रही थीं- कथ्य और टेक्नीक दोनों ही दृष्टियों से। बाद में इन कहानियों को 1955-56 के असपास ‘नई कविता’ के वजन पर ‘नई कहानी’ कहा जाने लगा। नई कहानी में जीवन के यथार्थ को ईमानदारी के साथ चित्रित किया गया है तथा वह कल्पना प्रसूत होने पर भी अपने आस-पास के जीवन की कहानी दिखती है। उसमें विषय वैविध्य भी है।

छठे दशक के आरम्भ में हिंदी कहानी में ग्रामीण अंचल की कहानियों ने पाठकों को विशेष आकृष्ट किया। इन कहानीकारों में शिवप्रसाद सिंह, मार्कण्डेय, फरणीश्वरनाथ रेणु के नाम प्रमुख हैं। इनकी कहानियों में गांव की तस्वीर साफ-सुथरे रूप में उभरी है, किन्तु उनमें रोमांस की प्रधानता है। शिवप्रसाद सिंह के कहानी संकलनों के नाम हैं- आरपार की माला, मुर्दा सराय, इन्हें भी इन्तजार है आदि। मार्कण्डेय के कहानी संकलनों में महुए का पेड़, भूदान, हँसा जाई अकेला, माही आदि हैं। फणीश्वरनाथ रेणु की कहानियों में आंचलिकता उभर आई है। लाल पान की बेगम और तीसरी कसम उनकी प्रमुख कहानियां हैं।

नई कहानी में नगरबोध की प्रवृत्ति प्रमुखता से व्यक्त हुई है। आज के नगरीय जीवन में पाई जाने वाली सतही सहानुभूति, आन्तरिक ईर्ष्या, स्वार्थपरता, जीवन की कृत्रिमता आदि की अभिव्यक्ति कमलेश्वर, निर्मल वर्मा, अमरकांत की कहानियों में देखि जा सकती है। नई कहानी में आधुनिक बोध कई अर्थो में विद्यमान है। मध्यकालीन मूल्यों के ह्रास तथा नवीन वैज्ञानिक सोच ने आज की कहानी को प्रभावित किया है। नगरीय जीवन की वास्तविक स्थितियों का चित्रण तो इन कहानियों में है ही साथ ही आधुनिक बोध से उत्पन्न अकेलेपन एवं रिक्तता की अनुभूति, युगीन संक्रमण एवं तनाव को भी उसमें अभिव्यक्त किया गया है। मोहन राकेश, राजेन्द्र यादव, अमरकान्त, कमलेश्वर, निर्मल वर्मा की कहानियों में ये स्थितियां देखी जा सकती हैं।

नई कहानी को समृद्ध करने में हिंदी कथा लेखिकाओं का भी महत्वपूर्ण स्थान है। उषा प्रियंवदा, मन्नू भण्डारी, कृष्णासोबती, शिवानी, मेहरुत्रिसा परवेज एवं रजनी पनिकर जैसी कहानी लेखिकाओं ने पति-पत्नी एवं नारी-पुरुष सम्बन्धों को अपनी कहानियों में प्रमुखता से अभिव्यक्त किया है। मैं हार गई, त्रिशंकु, तीन निगाहों की एक तस्वीर, यही सच है आदि मन्नू भण्डारी के प्रमुख कहानी संकलन हैं।

प्रेम और विवाह के कटु-मधुर सम्बन्धों का चित्रण भी नए कहानीकारों ने किया है। कमलेश्वर की बयान, राजा निरबंसिया, राजेन्द्र यादव की दूटना, मन्नू भ्रण्डारी की यहीं सच है और मोहन राकेश की अपरिचित कहानियां इस दृष्टि से उल्लेखनीय हैं। मोहन राकेश की मिसपाल, कमलेश्वर की तलाश, उषा प्रियंवदा की छुट्टी का एक दिन, अमरकान्त की जिन्दगी और जोंक कहानियां टूटी हुई नारी या टूटे हुए पुरुष की कहानियां हैं।

प्रमुख कहानी आन्दोलन

स्वातन्त्रयोत्तर कहानी लेखन में कई कहानी आन्दोलनों का सूत्रपात हुआ, यद्यपि कोई भी कहानी आन्दोलन लम्बे समय तक नहीं चल सका। ऐसे चर्चित कहानी आन्दोलनों में कुछ प्रमुख नाम हैं- नई कहानी, सचेतन कहानी, अचेतन कहानी, साठोत्तरी कहानी, अकहानी, समानान्तर कहानी, समकालीन कहानी, जनवादी कहानी, सक्रिय कहानी, और जन कहानी।

1. नई कहानी

नई कहानी का सूत्रपात 1950 ई. के आसपास नई कविता की तर्ज पर हुआ। नए कहानीकारों में प्रमुख हैं- मोहन राकेश, राजेन्द्र यादव, कमलेश्वर, धर्मवीर भारती, निर्मल वर्मा, अमरकान्त, मार्कण्डेय, मन्नू भण्डारी, राजकमल चौधरी, श्रीकान्त वर्मा आदि।

2. सचेतन कहानी

सन्‌ 1964 ई. के आसपास महीप सिंह द्वारा इसका प्रवर्तन किया गया। सचेतन कहानी में वैचारिकता को विशेष महत्व दिया गया। ‘आधार’ नामक पत्रिका में महीप सिंह जी ने ‘सचेतन कहानी विशेषांक’ निकाला। इस वर्ग के कहानीकार हैं- महीप सिंह, रामकुमार भ्रमर, बलराज पण्डित, हिमांशु जोशी, सुदर्शन चोपड़ा, देवेन्द्र सत्यार्थी।

3. समकालीन कहानी

इस कहानी आन्दोलन के प्रवर्तक डा. गंगा प्रसाद ‘विमल’ हैं। संजय, उदय प्रकाश, अब्दुल बिस्मिल्लाह, रमेश उपाध्याय, स्वयं प्रकाश, शिवमूर्ति आदि समकालीन कहानीकार हैं।

4. अकहानी

1960 के आसपास कुछ ऐसे कथाकार सामने आए जिन्होंने कहानी के स्वीकृत मूल्यों के प्रति निषेध व्यक्त करते हुए अपने स्वतन्त्र अस्तित्व की घोषणा की। डॉ. नामवर सिंह ने निर्मल वर्मा को इस कहानी आन्दोलन का प्रवर्तक उनकी कहानी ‘एक और शुरुआत’ के आधार पर बताया है। इस तरह की कुछ अन्य कहानियां हैं- त्रिकोण- कृष्णबलदेव वैद, पिता-दर-पिता- रमेश वक्षी, सुखान्त- दूधनाथसिंह, एक डरी हुई औरत- रवीन्द्र कालिया, सड़क दुर्घटना- सुदर्शन चोपड़ा, विध्वंस- गंगाप्रसाद ‘विमल’

5. समानान्तर कहानी

इस आन्दोलन के सूत्रधार कमलेश्वर हैं जिन्होंने 1971 के आसपास समानान्तर कहानी का प्रवर्तन किया। धर्मयुग पत्रिका में इस कहानी आन्दोलन का जमकर विरोध किया गया। इस प्रकार की कहानियों में निम्नवर्गीय समाज की स्थितियों, विषमताओं एवं समस्याओं का खुलकर चित्रण हुआ। ‘सारिका’ पत्रिका ने इस आन्दोलन को बढ़ावा दिया। इस आन्दोलन से जुड़े कुछ कहानीकारों के नाम हैं- कमलेश्वर, से.रा. यात्री, श्रवण कुमार, नरेन्द्र कोहली, हिमांशु जोशी, निरूपमा सोवती, मूदुला गर्ग, मणि मधुकर आदि।

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