हिंदी का आदिकालीन गद्य साहित्य पद्य जैसा सम्पन्न, विशाल और बहुमुखी नहीं है। परंतु मौलिक गद्य के साथ टीकाओं तथा अनुवाद के रूप में प्रचुर मात्रा में गद्य सामग्री मिलती है। राजस्थानी में तेरहवीं शती, मैथिली में चौदहवीं शती, ब्रजभाषा और दक्खिनी में सोलहवीं शती, खड़ीबोली में सत्रहवीं शती और हिंदी की अन्य बोलियों में प्रायः 18वीं शताब्दी के उत्तरार्ध से हिंदी गद्य का प्रमाणिक रूप मिलने लगता है। हलांकि अवधी, भोजपुरी, बघेली और छत्तीसगढ़ी में प्राचीन गद्य बहुत कम मात्रा में मिलता है। इन भाषाओं में प्रायः गद्य पत्र, शिलालेख और टीका-टिप्पड़ी के रूप में ही प्राप्त होता है।
अध्ययन की सुविधा के लिए हिंदी गद्य के विकास को तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है-
- आरंभिक (Start) हिंदी गद्य का विकास,
- प्रारंभिक (Restart) हिंदी गद्य का विकास
- आधुनिक हिंदी गद्य का विकास
1. आरंभिक हिंदी गद्य का विकास
हिंदी गद्य का आरंभिक (Beginning) रूप नवीं से चौदहवीं शती की रचनाओं में मिलने लगता है। जिसमें उद्योतनसूरि की कुवलयमाला कथा (नवीं शती), रोड कवि की राउलवेल (ग्यारहवीं शती), दामोदर शर्मा की उक्तिव्यक्तिप्रकरण (बारहवीं शती), ठाकुर ज्योतिश्वर की वर्णरत्नाकर (चौदहवीं शती) तथा विद्यापति की कीर्तिलता (चौदहवीं शती) आदि का नाम लिया जा सकता है। इन ग्रंथों में कहीं-कहीं या बीच-बीच में तत्कालीन बोलचाल की भाषा में सुंदर गद्य का प्रयोग हुआ है। उपर्युक्त गद्य कृतियों के अतिरिक्त जैन लेखकों द्वारा लिखी हुई कई धार्मिक एवं कथात्मक गद्य रचनाएँ भी मिलती हैं।
अपभ्रंश (अवहट्ट) या पुरानी हिंदी के बाद और 19वीं शदी से पहले हिंदी गद्य का विकास मुख्यतः राजस्थानी, ब्रजभाषा और खड़ी बोली आदि में दिखाई देता है। इनमें राजस्थानी गद्य सबसे प्राचीन है।
(a) राजस्थानी गद्य
राजस्थानी गद्य की परम्परा काफी पुरानी है। कुछ विद्वान् दसवीं शताब्दी से और कुछ बारहवीं शती से राजस्थानी गद्य की परम्परा स्वीकार करते हैं। वहीं पं. मोतीलाल मेनारिया राजस्थानी गद्य का प्रारंभ तेरहवीं शताब्दी के मध्य से मानते हैं। इसे ही हिंदी गद्य का प्राचीन स्वरूप माना जाता है। वातों, वार्ता, ख्यातों, वचनिका (गद्य-पद्य में कथा और वर्णन), सलोका, दान पत्रों, वंशावली, पट्टावली, जैन ग्रंथों आदि के रूप में हिंदी गद्य प्राप्त होता है। इसमें इतिहास, अध्यात्म, ज्योतिष, धर्म, नीति, गणित आदि विषय उपलब्ध होते हैं।
गुलाब राय के अनुसार, “आरंभ में राजस्थानी गद्य पर संस्कृत की समास शैली और अपभ्रंश का प्रभाव था, बाद में ब्रजभाषा का प्रभाव उस पर पड़ा और खड़ी बोली क्षेत्र की निकटता के कारण वह खड़ी बोली के प्रभाव से भी न बच सका।”1 वहीं रामचंद्र तिवारी के अनुसार “स्वतंत्र रूप से लिखे गए ग्रंथों में गद्य का रूप अधिक प्रौढ़ और परिमार्जित है।”2 वैसे तो अधिकांश राजस्थानी गद्य समय के प्रभाव में नष्ट हो चूका है किंतु जो बचा है उसके आधार पर यह कहा जा सकता है कि ब्रजभाषा की तुलना में राजस्थानी गद्य में विषय-वैविध्य और समृद्ध रहा है।
(b) ब्रज भाषा का गद्य
राजस्थानी गद्य परम्परा की तरह ब्रजभाषा गद्य परम्परा भी काफी पुरानी है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने ब्रजभाषा गद्य का प्रयोग संवत् 1400 (1343 ई.) के आस-पास से माना है। किंतु प्रमाणिक रूप से सीमा निर्धारण नहीं किया जा सकता। ब्रजभाषा गद्य का प्राचीनतम रूप गोरखपंथी योगियों के धार्मिक-ग्रंथों में मिलता है। इन धार्मिक ग्रंथों का संबंध हठयोग और ब्रम्हज्ञान से है। गोरखपंथी रचनाओं में राजस्थानी और खड़ी बोली मिश्रित ब्रजभाषा गद्य का रूप मिलता है।
इसके बाद भक्तिकाल में आकर कृष्णभक्ति शाखा के अंतर्गत ब्रजभाषा का दिखाई देता है। 17वीं शताब्दी के उत्तरार्द्व में बल्लभाचार्य के पुत्र गोसाईं बिट्ठलनाथ कृत ‘शृंगारस मंडन’ ब्रजभाषा गद्य में मिलता है जिसकी भाषा न ही परिमार्जित है और न ही व्यवस्थित। इसके अलावा गोसाईं बिट्ठलनाथ के पुत्र गोसाईं गोकुलनाथ कृत ‘चौरासी वैष्णव की वार्ता’ तथा ‘दो सौ बावन वैष्णव की वार्ता’ ब्रजभाषा गद्य में मिलती हैं। गुलाब राय के शब्दों में “इन वार्ताओं में गद्य का अपेक्षाकृत सुथरा रूप देखने को मिलता है।”3 इनकी भाषा बोलचाल की चलती ब्रजभाषा है, कहीं-कहीं आम-फहम अरबी-फारसी शब्दों का भी प्रयोग हुआ है। इनके बाद नाभादास कृत ‘अष्टयाम’ (संवत् 1660), वैकुंठ मणि शुक्ल कृत ‘अगहन माहात्म’ (संवत् 1680) तथा ‘वैशाख माहात्म’, सूरति मिश्र कृत ‘बैताल पचीसी’ (संवत् 1767) और लाला हीरालाल ने ‘आईने अकबरी की भाषा वचनिका’ (संवत् 1852) आदि रचनाएँ ब्रजभाषा गद्य में मिलती हैं।
धार्मिक, ललित गद्य के साथ टीकाएं भी पर्याप्त मात्रा में ब्रजभाषा गद्य में लिखा गया। जिनमें हरिचरण दास कृत ‘बिहारी सतसई की टीका’ (1777 ई.) तथा ‘कविप्रिया की टीका’, जानकी प्रसाद कृत ‘रामचंद्रिका की टीका’ (1815 ई.), प्रतापसाहि कृत ‘रसराज की टीका’ (1839 ई.) आदि प्रमुख हैं।
क्रमबद्ध परम्परा का भाव और गद्य लिखने की परिपाटी के सम्यक प्रचार न होने के कारण ब्रजभाषा गद्य अविकसित रह गया। वैष्णव वार्ताओं की तरह बाद की रचनाओं की भाषा न ही व्यवस्थित थी और न ही परिमार्जित। नवीन युगीन परिस्थितिओं में नवीन विषयों के प्रतिपादन, नये विचारों का वहन करने तथा नवीन विचारों की अभिव्यक्त का माध्यम वह नहीं बन सकी। जिसकी वजह से वह आगे चल कर अनगढ़ और शिथिल होता गया। फिर भी रीतकालीन ब्रजभाषा का गद्य उस समय के खड़ी बोली गद्य की अपेक्षा अधिक विकसित और समृद्व था।
(c) दक्खिनी का गद्य
उत्तर भारत से पूर्व दक्खिनी खड़ीबोली का विकास हो चुका था, जिसमें गद्य और पद्य दोनों की रचनाएँ हो रही थीं। “खड़ी बोली का जैसा व्यापक और व्यावहारिक रूप अमीर खुसरो की रचनाओं में मिलता है वैसा उनसे पहले नहीं। इनका समय चौदहवीं शताब्दी के आस-पास का है, इन्होने ब्रजभाषा के साथ ‘खलिस खड़ी बोली’ में साहित्य सृजन किया। खुसरो की रचनाओं में खड़ी बोली का साफ-सुथरा रूप दिखाई देता है और वर्तमान खड़ीबोली के एक दम निकट है। जगन्नाथ शर्मा के अनुसार खुसरो ने, ‘आधुनिक खड़ीबोली की जड़ जमाई।’
अमीर खुसरो के बाद दक्षिण राज्यों के रचनाकारों ने खड़ीबोली गद्य के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया। ख़्वाजा बंदा नवाज़ गैसूदराज, शाह मीराँ जी, बुरहानुद्दीन जानम और मुल्ला वजही जैसे लेखकों ने काव्य के साथ गद्य भी लिखा। ख़्वाजा बंदा नवाज़ गैसूदराज की ‘मेराजुल आशकीन’ को दक्खिनी गद्य की पहली पुस्तक मानी जाती है। ‘शिकारनामा’ और ‘तिलवातुल-वजूद’ इनकी अन्य गद्य रचनाएँ हैं। मुल्ला वजही का ‘सबरस’ (1635 ई.) गद्य रचना काफी प्रसिद्ध है जिसे उर्दू साहित्य की प्रथम गद्य रचना माना जाता है। दक्खिनी में अनेक रचनाओं का अनुवाद भी हुआ जिसमें सैयद हुसैन का ‘चार दरवेश’ (1775 ई.) काफी प्रसिद्ध है।
(d) खड़ी बोली का गद्य (उत्तर भारत)
खड़ी बोली का प्रयोग यत्र-तत्र थोड़ा-बहुत वीरगाथा काल और निर्गुण शाखा के संत कवियों (कबीर, दादू, नानक आदि) में मिलता है। परंतु ब्रजभाषा के बरक्स वह काव्यभाषा के रूप में उभर नहीं पाई। “काव्य रचना में ब्रजभाषा की ही प्रभुता रही परंतु गद्य रचना में खड़ी बोली का व्यवहार ब्रजभाषा की अपेक्षा बढ़ने लगा। अकबर के समय तक आते-आते खड़ी बोली का गद्य किसी न किसी रूप में व्यवहृत होते दिखाई देता है।”4
खड़ी बोली गद्य के उद्भव के संबंध में विद्वानों में मतभेद है। एक वर्ग जार्ज ग्रियर्सन, आर.डब्लू. फ्रेजर, नलिनीमोहन सान्याल का है जो आधुनिक साहित्यिक खड़ी बोली का उद्भव गिलक्राईस्ट की अध्यक्षता में लल्लूलाल तथा सदलमिश्र से मानते हैं। दूसरा मत आचार्य रामचंद्र शुक्ल, गुलाब राय और डॉ. वार्ष्णेय का है जो खड़ी बोली गद्य का प्रारंभ अकबर के दरबारी कवि गंगकवि कृत ‘चंद-छंद बरनन की महिमा’ (1570 ई.) से मानते हैं। बच्चन सिंह ने इसे जाली ग्रंथ माना है। उनके अनुसार यह ग्रंथ ‘पृथ्वीराज रासो’ को प्रामाणिक सिद्ध करने के लिए लिखा गया है। डॉ. कवड़े के अनुसार भी इसकी प्रामाणिकता, रचनाकाल और रचयिता सब कुछ संदिग्ध है।
आगे चलकर जहाँगीर के शासनकाल में जटमल की ‘गोरा-बादल की कथा’ खड़ी बोली गद्य में मिलती है। जिसमें शुद्ध तत्सम शब्दों का रूप हमें दिखाई देता है, जैसे- ‘गुरु व सरस्वती को नमस्कार करता हूँ।’, ‘उस गाँव के लोग भी बहुत सुखी हैं घर-घर में आनंद होता है।’
(e) गुरुमुखीलिपि का गद्य
“रामप्रसाद निरंजनी के ‘भाषायोगवसिष्ठ’ की रचना से पूर्व पंजाब में सोढ़ी मिहरिवानु, हरिजी, दयाल अनेमी आदि लेखक अपनी रचनाएँ”5 हिंदी गद्य में दे चुके थे। सोढ़ी मिहरिवानु ने ‘सचुषंड पोथी’ में गुरूवाणी की व्याख्या प्रस्तुत किया है। सोढ़ी मिहरिवानु के पुत्र हरिजी की तीन रचनाएँ- ‘सुषमनी सहंसरनामा / परमारथ’, ‘गोसट गुरुमिहरिवानु’ तथा ‘पोथी हरिजी’ मिलती हैं। वहीं दयालु अनेमी की ‘अवगतउल्लास’, ‘असटावक्रभाषा’ और ‘गीता भाषा’ प्रसिद्ध रचनाएँ हैं।
इनके अलावा रामप्रसाद निरंजनी की ‘भाषायोगवशिष्ठ’ रचना मिलती है जिसे रामचंद्र शुक्ल ने 1741 ई. का गद्य स्वीकार किया है। इसकी भाषा अत्यंत व्यवस्थित, साफ-सुथरी और आधुनिक गद्य के निकट है। परंतु नवीन अनुसंधान यह बताते हैं कि यह रचना 1741 ई. की नहीं है और न ही इसका पंजाबी भाषा और साहित्य के इतिहास में कोई अस्तित्व है।
2. प्रारंभिक हिंदी गद्य का विकास
अकबर और जहाँगीर के समय तक आते-आते खड़ी बोली गद्य की परम्परा का विकास होने लगा था। मुगल साम्राज्य के विघटन के परिणाम स्वरूप दिल्ली की केंद्रीयता नष्ट हो गई, परिणाम स्वरूप व्यापारी वर्ग दिल्ली और आगरे से निकल कर देश के कोने-कोने में फैलने लगा। यह वर्ग जहाँ भी गया अपने साथ बोलचाल की खड़ीबोली भी लेते गया। अंग्रेजी सत्ता स्थापित होने के बाद उन्होंने संपर्क और वैचारिक आदान-प्रदान के लिए खड़ीबोली का सहारा लिया। फोर्ट विलियम कॉलेज के द्वारा पाठ्यपुस्तके तैयार करने के लिए भाखा मुंशियों को रखा गया। साथ में कई गैर सांस्थानिक विद्वानों और विभिन्न धार्मिक-राजनीतिक संस्थाओं ने भी हिंदी गद्य के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
(a) फोर्ट विलियम कॉलेज का गद्य
हिंदी खड़ी बोली गद्य के विकास में फोर्ट विलियम कॉलेज का महत्वपूर्ण योगदान है। इसकी स्थापना कलकत्ता (1800 ई.) में मार्कि्वस वेलेजली ने किया था। सिविल कर्मचारियों को अन्य विषयों के साथ भाषा की शिक्षा देने के लिए राजनीतिक उद्देश्य से इसकी स्थापना की गई थी। हिंदी के साथ अन्य भारतीय भाषाओं की शिक्षा यहाँ दी जाती थी। 1800 ई. में यहाँ पर हिंदी और उर्दू के अध्यापक जॉन गिलक्राइस्ट को हिंदुस्तानी भाषा का प्रोफेसर बनाया गया। इन्होंने ही भाषा मुंशियों के रूप में लल्लू लाल, सदल मिश्र आदि को नियुक्ति किया था।
लल्लू लाल की कुल 11 रचनाएँ मिलती हैं। सिंहासन बत्तीसी (1801 ई.), बैताल पच्चीसी (1801 ई.), शाकुंतल नाटक (1810 ई.), प्रेम सागर (1810 ई.), लतायफ-इ-हिंदी (1810 ई.), ब्रजभाषा व्याकरण (1811 ई.), लाल चंद्रिका (1818 ई.) आदि इनकी प्रमुख रचनाएँ हैं।
भाषा की दृष्टि से इनकी सबसे महत्वपूर्ण रचना ‘लतायफ-इ-हिंदी’ है, इसकी भाषा हिंदुस्तानी है। इसमें अरबी-फरासी के तत्सम शब्दों का प्रयोग हुआ है। लल्लू लाल की सबसे प्रसिद्ध रचना ‘प्रेमसागर’ है जो कथावार्ता के अनुरूप है, इसमें श्रीमद्भागवत के दशम स्कन्द की छाया है। इसकी शैली पंडिताऊँ, शब्द रूप अनिश्चित और आगरा निवासी होने के कारण ब्रज रंजित भाषा है। हजारी प्रसाद द्विवेदी जी के शब्दों में, ‘इस ब्रजरंजित खड़ी बोली में वह सहज प्रवाह नहीं है जो सदासुखलाल की भाषा में है।’ शुक्ल जी भी इसकी भाषा को ‘नित्य व्यवाहर के अनुकूल’ नहीं मानते। इसकी भाषा के संदर्भ में उन्होंने लिखा है, ‘भाषा की सजावट भी प्रेमसागर में पूरी है। विरामों पर तुकबंदी के अतिरिक्त वर्णनों में वाक्य भी बड़े-बड़े आए हैं और अनुप्रास भी, यत्र-तत्र हैं। मुहावरों का प्रयोग कम है।’ उन्होंने आगे लिखा है कि, “अकबर के समय में गंग कवि ने जैसी खड़ी बोली लिखी थी वैसी ही खड़ी बोली लल्लूलाल ने भी लिखी”6 जार्ज ग्रियर्सन ने अपने इतिहास ग्रंथ की भूमिका में लिखा है कि ‘हिंदी अंग्रेजों द्वारा आविष्कृत है। लल्लू लाल ने प्रेमसागर में इसी का प्रयोग किया है।
फोर्ट विलियम कॉलेज के दूसरे भाषा मुंशी सदल मिश्र थे, हिंदी गद्य के उन्नायकों में इनका नाम महत्वपूर्ण है। ‘नासिकेतोपाख्यान’ (1803 ई.), ‘रमचरित’ (1806 ई.) तथा ‘हिंदी पर्शियन वॉकेबुलरी’ (1809 ई.) आदि इनकी रचनाएँ हैं। नासिकेतोपख्यान चंद्रावती (संस्कृत) का अनुवाद है। आरा, बिहार के निवासी होने के कारण इनके गद्य पर ‘बिहारी’ भाषा का प्रभाव है, थोड़ा बहुत ‘बँगला’ और ब्रजभाषा का भी प्रभाव है। रामचंद्र शुक्ल के अनुसार, “लल्लूलाल के समान इनकी भाषा में न तो ब्रजभाषा के रूपों की वैसी भरमार है और न परंपरागत काव्य भाषा की पदावली का स्थान-स्थान पर समावेश।”7 इनके गद्य में पूर्वीपन के साथ लल्लू लाल की तरह पंडिताऊपन भी दिखाई देता है।
(b) फोर्ट विलियम कॉलेज के बाहर का गद्य
फोर्ट विलियम कॉलेज के बाहर भी बिना किसी आश्रय के खड़ी बोली में गद्य रचना होती रही, जिनमें दो लेखकों का नाम प्रसिद्ध है- मुंशी सदासुख लाल और इंशाअल्ला खाँ। जिसमें सदासुख लाल कॉलेज के मुंशियों से पहले ही गद्य रचना कर रहे थे और इंशाअल्ला खाँ कॉलेज के मुंशियों के समकालीन थे।
सदासुख लाल दिल्ली के रहने वाले थे। लक्ष्मी सागर वाष्णेय के अनुसार इनकी रचना ‘सुखसागर’ है। परंतु बच्चन सिंह के अनुसार उनकी इस नाम से कोई रचना नहीं है। बल्कि यह उनका उपनाम है और वे उर्दू में ‘निसार’ उपनाम से लिखते थे। रामचंद्र शुक्ल ने जिस विष्णुपुराण के अनुवाद को इनकी भाषा माना है वह भी देखने को नहीं मिलता। लेकिन लाला भगवानदीन और रामदास गौड़ ने एक पुस्तक ‘हिंदी भाषा सार’ संपादित की है जिसमें सदासुख लाल का एक निबंध ‘सुरासुर निर्णय’ संगृहीत है।
सदासुख लाल की भाषा कथावाचकों की भाषा से मिलती-जुलती है। रामचंद्र शुक्ल ने इनकी भाषा के संदर्भ में लिखा है कि, “मुंशीजी ने यह गद्य न तो किसी अंग्रेज अधिकारी की प्रेरणा से और न किसी दिए हुए नमूने पर लिखा है।”8 उन्होंने हिंदुओं की बोलचाल की जो शिष्ट भाषा प्रचलित थी, का प्रयोग अपने गद्य में किया। बीच-बीच में शुद्ध तत्सम संस्कृत शब्दों का प्रयोग किया है। इसी संस्कृत मिश्रित हिंदी को उर्दू वाले ‘भाषा’ कहते थे, जिसका चलन उर्दू के कारण कम होने से मुंशी सदासुख ने दुःख व्यक्त करते हुए लिखा कि- ‘रस्मोरिवाज भाखा का दुनिया से उठ गया।’
इंशाअल्ला खाँ का जन्म मुर्शिदाबाद, बंगाल में हुआ था लेकिन उन्होंने कुछ समय दिल्ली में रहने के बाद लखनऊ चले गए। इंशा उर्दू और फारसी भाषा के भी विद्वान थे। ‘रानी केतकी की कहानी’ (उदयभान चरित) उनकी खड़ी बोली में रचित महत्वपूर्ण रचना है। इस कहानी की भाषा के बारे में उन्होंने लिखा है कि, “एक दिन बैठे यह बात अपने ध्यान में चढ़ी कि कोई कहानी ऐसी कहिए कि जिसमें हिंदी की छुट और किसी बोली का पुट न मिले ……. बाहरी की बोली और गँवारी कुछ उसके बीच में न हो। ……….. हिंदवीपन भी न निकले और भाषापन भी न हो।” “इंशा की भाषा हिंदी और शैली उर्दू की है।”9 आरंभ के चारों लेखकों में इंशा की भाषा सबसे चटकीली, मटकीली, मुहावरेदार और चलती है। इनकी भाषा में घरेलूपन अधिक है।
कहना न होगा कि हिंदी गद्य के आरंभिक विकास में इन चारों लेखकों (सदल मिश्र, लल्लू लाल, सदासुख राय और इंशा अल्ला खाँ) का महत्वपूर्ण स्थान है। भाषा की दृष्टि से श्यामसुंदर दास ने इंशा को सबसे महत्वपूर्ण लेखक माना है। वहीं रामचंद्र शुक्ल ने पहले स्थान पर सदासुख राय को तथा दूसरे स्थान पर सदल मिश्र स्थान दिया है।
(c) विभिन्न संस्थाओं का गद्य
हिंदी गद्य के विकास में विभिन्न धार्मिक, सामाजिक, राजनैतिक संस्थाओं की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही है, जिनमें से प्रमुख संस्थाएं हैं-
(i) ईसाई धर्म प्रचारक और उनका हिंदी गद्य
भारत में अंग्रेजों की सत्ता स्थापित होने के बाद ईसाई धर्म प्रचारकों ने ईसाई धर्म का प्रचार तेज कर दिया। 19वीं शती के पूर्वार्द्ध में ही देश के कोने-कोने में केंद्र बनाकर अनेक मिशन की स्थापना हुई। इन धर्म प्रचारकों ने सामान्य जनता की बोली में ही अपने धर्म का प्रचार-प्रसार किया। इन मिशनरियों ने ‘बाइबिल’ का अनुवाद भी खड़ी बोली के साथ अनेक भाषाओं में कराया। इस क्रम में हेनरी मार्टिन का ‘बाइबिल’ (1809) अनुवाद काफी महत्वपूर्ण है। “इन ईसाई अनुवादकों ने सदसुख लाल और लल्लू लाल की विशुद्ध भाषा को ही आदर्श माना, उर्दूपन को बिल्कुल दूर रखा।”10 परंतु इन धर्म प्रचारकों की भाषा में साहित्यिकता का अभाव है, बोल-चाल की भाषा के अधिक नजदीक है।
(ii) आर्यसमाज आंदोलन और हिंदी का गद्य
हिंदी गद्य के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाला दूसरा धार्मिक आंदोलन आर्यसमाज का था। स्वामी ‘दयानंद सरस्वती’ गुजराती भाषी और संस्कृत के विद्वान होते हुए भी अपने विचारों को ‘सत्यार्थ प्रकाश’ द्वारा आर्यभाषा (परिमार्जित हिंदी-गद्य) में अभिव्यक्त किया। आर्यसमाज से जुड़े लोगों को हिंदी भाषा का प्रयोग करना अनिवार्य किया। उन्होंने हिंदी भाषा में अनेक पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन करवाया। स्वामी दयानंद सरस्वती की भाषा गद्य शैली का विकास हुआ, यह निर्विवाद है।”11
(d) राजा शिव प्रसाद ‘सितारे हिंद’ और राजा लक्ष्मण सिंह का गद्य
गद्य के विकास में छापाखानों (प्रेस) की महत्वपूर्ण भूमिका है। क्योंकि इसके बिना इतनी बड़ी संख्या में पाठ्य पुस्तकें प्रकाशित नहीं हो सकती थीं। इसके अलावा अंग्रेजी शिक्षा के प्रसार के साथ हिंदी, उर्दू की पढ़ाई की व्यवस्था भी सरकार ने की। आगरा कॉलेज (1817 ई.), बरेली कॉलेज, दिल्ली कॉलेज आदि की स्थापना हुई। इसके लिए पुस्तकों के प्रकाशन की व्यवस्था हुई और हिंदी गद्य का प्रयोग हुआ। पाठ्य पुस्तकों के प्रकाशन में राजा शिव प्रसाद सिंह का महत्वपूर्ण भूमिका है।
राजा शिव प्रसाद सिंह शिक्षा विभाग में इंस्पेक्टर के पद पर नियुक्त थे। वे देवनागरी और ‘आम फहम और खास पसंद’ भाषा के पक्षधर थे। उन्होंने हमेशा भद्रजन समुदाय को ध्यान में रखा। सरकारी हलकों में उर्दू को शिष्ट भाषा और हिंदी को गंवारू भाषा माना जाता था। ऐसी स्थिति में राजा शिव प्रसाद सिंह ने उर्दू मिश्रित हिंदी को अपने गद्य की भाषा बनाया। अरबी, फारसी के शब्दों को ग्रहण करने में उन्होंने संकोच नहीं किया। लेकिन उनकी प्रारंभिक कृतियों में उर्दूपन अपेक्षाकृत कम है जो परवर्ती रचनाओं में बढ़ता जाता है। सरकारी पद पर होने के कारण सरकारी नीति का खुलकर विरोध भी नहीं कर सकते थे।
उस समय पाठ्यपुस्तकें नहीं थीं। उन्होंने पाठ्यक्रम के लिए हिंदी और उर्दू दोनों भाषाओं में गद्य में पाठ्यपुस्तकें तैयार की। उन्होंने साहित्य, भूगोल और इतिहास आदि विषयों पर कुल 35 पुस्तकों की रचना की। जिसमें गुटका, हिंदी व्याकरण, कथासार, भूगोल हस्तामलक, इतिहास तिमिरनाशक, राजा भोज का सपना, मानवधर्मसार, वैताल पच्चीसी, आलसियों का कोड़ा आदि प्रमुख हैं। इसके अलावा उन्होंने ‘बनारस अखबार’ (1845 ई.) में हिंदी पत्र निकाला, जिसके माध्यम से हिंदी का प्रचार-प्रसार किया। राजा शिव प्रसाद सिंह जी ने इतिहास, भूगोल, गणित आदि के लिए नये शब्दों का निर्माण किया, जो आज भी प्रमुखता के साथ प्रचलित हैं।
इनकी भाषा के संदर्भ में शुक्ल जी ने लिखा है कि, ‘प्रारंभकाल से ही वे ऐसी चलती ठेठ हिंदी के पक्षपाती थे जिसमें सर्वसाधारण के बीच प्रचलित अरबी-फारसी शब्दों का भी स्वच्छंद प्रयोग हो। यद्यपि अपने गुटका में जो साहित्य की पाठ्यपुस्तक थी उन्होंने थोड़ी संस्कृत मिली ठेठ और सरल भाषा का ही आदर्श बनाये रखा।’ दरअसल उन्होंने पाठ्यपुस्तकों की भाषा को एक समान रखा लेकिन लिपि को अलग-अलग। “शिवप्रसाद के गद्य का ऐतिहासिक महत्त्व था कि उन्होंने हिंदी गद्य लेखन को उर्दू के टक्कर का बनाया और शिक्षित समाज में प्रतिष्ठित किया।”12
जिस प्रकार राजा शिव प्रसाद सिंह उर्दू मिश्रित हिंदी के पक्षपाती थे उसी तरह राजा लक्ष्मण सिंह संस्कृतनिष्ठ हिंदी के। इनकी भाषा नीति राजा शिव प्रसाद के सर्वथा विपरीत था। इनकी भाषा में ब्रजी का प्रभाव भी पर्याप्त मात्रा में है। शुक्ल जी के शब्दों में, ‘असली हिंदी का नमूना लेकर उस समय राजा लक्ष्मण सिंह ही आगे बढ़े।’ शकुंतला (1861 ई.), रघुवंश (1878 ई.), मेघदूत (1882 ई.) आदि इनके अनुदित ग्रंथ हैं। भाषा के संदर्भ में उनका मत था कि, “हमारे मत में हिंदी और उर्दू दो बोली न्यारी-न्यारी हैं। हिंदी इस देश के हिन्दू बोलते हैं और उर्दू यहाँ के मुसलमानों और फारसी पढ़े हुए हिंदुओं की बोलचाल है। हिंदी में संस्कृत के पद बहुत आते हैं, उर्दू में अरबी-फारसी के; परंतु कुछ आवश्यक नहीं है कि अरबी-फारसी के शब्दों के बिना हिंदी न बोली जाए और न हम उस भाषा को हिंदी कहते हैं, जिसमें अरबी-फारसी के शब्द भरे हों।”13
जो शब्द जनता में अधिक प्रचलित थे (जैसे- गवाह, अदालत, कलेक्टर आदि), केवल विदेशी होने के कारण, राजा लक्ष्मण सिंह ने उन्हें भी हिंदी के अंतर्गत स्वीकार नहीं किया। आचार्य रामचंद्र शुक्ल राजा लक्ष्मण सिंह की भाषा के संदर्भ में लिखा है कि, “यह भाषा ठेठ और सरल होते हुए भी साहित्य में चिरकाल से व्यवहृत संस्कृत के कुछ रससिद्ध शब्द लिए हुए हैं।”14
राजा शिव प्रसाद सिंह और राजा लक्ष्मण सिंह के भाषा नीतियों का परिणाम यह हुआ कि भाषा को लेकर लोग दो विरोधी गुटों में विभाजित हो गए। एक उर्दू का और दूसरा हिंदी का पक्षपाती था, एक और गुट था जिसने मध्यम मार्ग को चुना। उर्दू के सबसे प्रबल दावेदारों में सर सैयद अहमद खां का नाम है। उनका मत था कि, “हिंदी हिंदुओं की जबान है जो बुतपरस्त है और उर्दू मुसलमानों की।”15 वहीं हिंदी का जोरदार समर्थन आर्य और ब्रह्म समाजियों ने किया।
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3. आधुनिक हिंदी गद्य का विकास
आधुनिक काल में गद्य की अनेक विधाओं का विकास होता है। गद्य आधुनिक युग की जरूरत भी थी क्योंकि विचारों को संप्रेषित करने के लिए पद्य की अपेक्षा गद्य में अधिक समर्थ होता है। इससे पूर्ववर्ती कालों में साहित्य केवल पद्य में उपलब्ध था, गद्य लेखकों का साहित्यिक महत्व न के बराबर है। इस काल में गद्य की प्रचुरता और महत्त्व को देखते हुए आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इसे ‘गद्य काल’ कहा है। आधुनिक काल में गद्य के विकास को कई भागों में विभाजित किया जा सकता है-
(a) भारतेंदु युगीन हिंदी गद्य
भारतेंदु युग में हिंदी गद्य का बहुमुखी विकास हुआ। इन्होंने न केवल अनेक विधाओं को समृद्ध किया अपितु कई गद्य विधाओं का प्रवर्तन भी किया। इसीलिए उन्हें हिंदी साहित्य में आधुनिक युग का प्रवर्तक माना जाता है। उन्होंने हिंदी गद्य के स्वरूप को स्पष्ट करने के लिए ‘हिंदी भाषा’ नामक एक छोटी सी पुस्तिका प्रकाशित किया। वे निज भाषा के पक्षधर थे, इसीलिए उन्होंने लिखा-
“निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।
बिनु निज भाषा ज्ञान के मिटत न हिय को शूल॥”
उन्होंने हरिश्चंद्र मैगजीन में लिखा कि ‘हिंदी नए चाल में ढली।’ उन्होंने भाषा के आदर्श रूप को स्थापित करने का प्रयास किया परंतु उसका परिमार्जन नहीं कर सके। “वे भी पंडिताऊपन से पीछा न छुड़ा सके। ब्रजी का प्रभाव बना रहा। पूरबी प्रयोग होते रहे।”16 भारतेंदु के गद्य में तद्भव, देशज शब्दों और मुहावरों की भरमार है, विदेशी शब्दों से भी कोई परहेज नहीं किया है।
भारतेंदु ने अपने युग के लिखकों को भी लिखने के लिए प्रेरित किया। उनके प्रभाव और प्रयास से लेखकों की एक मंडली तैयार हुई जिसने भारतेंदु की परम्परा को आगे बढ़ाया। भारतेंदु मंडली के लिखकों में प्रताप नारायण मिश्र, बालकृष्ण भट्ट, बद्रीनारायण चौधरी ‘प्रेमघन’, जगन्नाथ दास रत्नाकर, जगमोहन सिंह, बालमुकुंद गुप्त, श्री निवास दास, राधा कृष्ण दास आदि थे। वे व्यक्ति नहीं बल्कि संस्था थे।
प्रताप नारायण मिश्र जी की गद्य भाषा चलती हुई है, उनमें मनोरंजन की प्रवृत्ति के साथ स्वच्छंद दृष्टिकोण दिखाई पड़ता है। इनके यहाँ भी अरबी-फारसी और अंग्रेजी के शब्दों तथा मुहावरों और लोकोक्तियों का खूब प्रयोग हुआ है। इनकी भाषा बोलचाल की भाषा के सबसे निकट है।
भारतेंदु मंडल के दूसरे महत्वपूर्ण लेखक बालकृष्ण भट्ट हैं। इनकी भाषा मिश्र जी की अपेक्षा अधिक शिष्ट है। भाषा विस्तार के संदर्भ में उनका मत था कि, किसी भी देश के शब्दों को हम अपनी भाषा में मिलाते जाएँ और उसे अपना करते रहें।”17
इस युग के सभी लेखक कोई न कोई पत्रिका संपादित कर रहे थे- भारतेंदु (हरिश्चंद्र चंद्रिका, बालबोधनी), बालकृष्ण भट्ट (हिंदी प्रदीप), प्रताप नारायण मिश्र (ब्राह्मण), बदरीनारायण चौधरी ‘प्रेमघन’ (आनंद कादंबिनी), जिससे हिंदी गद्य के विकास को बल मिला।
“हिंदी-गद्य की प्रतिष्ठा कर गद्य-साहित्य की विविध विधाओं के विकास का ऐतिहासिक कार्य भारतेंदु युग में हुआ।”18 इस युग में सर्वाधिक विकास नाटकों का हुआ। अनेक भाषाओं की महत्वपूर्ण रचनाओं का अनुवाद हुआ, जिससे गद्य के विकास को बल मिला। इस युग के गद्य में अनेक भाषाओं के शब्दों का प्रयोग हुआ है, ब्रजभाषा और कहीं-कहीं पूर्वी बोलियों का भी प्रभाव है। इस युग का गद्य बोलचाल और भाषण शैली से अधिक प्रभावित है।
(b) द्विवेदी युगीन हिंदी गद्य
भारतेंदु युग के लेखकों ने हिंदी गद्य को समृद्ध किया किंतु उसका मानक रूप स्थिर नहीं हो पाया था। लेखकों के गद्य भाषा में एकरूपता नहीं थी, भाषागत दोष भी थे। दूसरी बात इस युग में काव्य भाषा के रूप में ब्रज भाषा का ही प्रयोग हो रहा था। ऐसी स्थिति में महावीर प्रसाद द्विवेदी का आगमन हुआ। 1903 ई. में सरस्वती पत्रिका के संपादक बनने के बाद उन्होंने हिंदी भाषा को स्थिर करने और भाषाई दोषों को दूर करने का प्रयास किया। उन्होंने सरस्वती में प्रकाशन के लिए आने वाली रचनाओं की भाषा को सुधार कर परिमार्जित और एकरूपता लाने का काम किया। द्विवेदी जी ने प्रांतीय शब्दों के स्थान पर व्यापक स्वीकृति वाले शब्दों के प्रयोग पर बल दिया। काव्य भाषा के रूप में खड़ी बोली को प्रतिष्टित करने का काम किया। उन्होंने पद्य (काव्य) की भाषा के लिए भी खड़ी बोली को सुनिश्चित किया। उन्होंने काव्य भाषा के रूप में ब्रज भाषा का ही विरोध नहीं किया बल्कि हिंदी काव्य को रीतिवाद से भी मुक्ति दिलाई।
द्विवेदी युग हिंदी गद्य का विकास करने वाले अन्य लेखकों में चंद्रधर शर्मा गुलेरी, अध्यापक पूर्ण सिंह, गणेश शंकर विद्यार्थी, शिवपूजन सहाय, श्यामसुंदर दास आदि की भी महत्वपूर्ण भूमिका है। इन लेखकों में हिंदी गद्य-शैली के अनेक रूप देखने को मिलते हैं।
द्विवेदी युग में नाट्य साहित्य का अधिक विकास नहीं हुआ, वहीं रहस्यात्मक, रोमांचकारी और कौतूहलवर्द्धक उपन्यासों की रचना अधिक हुई। दूसरी बात द्विवेदी जी के गद्य में भी अनेक त्रुटियाँ मिलती हैं, जैसे लिंग प्रयोग हिंदी व्याकरण के अनुसार न करके संस्कृत व्याकरण के अनुरूप क्या है।
(c) छायावादी हिंदी गद्य
छायावाद की समय सीमा सन् 1920 से 1936 ई. तक माना जाता है। इस युग में हिंदी का साहित्यिक रूप अपने पूर्ण उत्कर्ष पर पहुँच गया था। “द्विवेदी-युग के परिमार्जन एवं प्रौढ़ता के पश्चात हिंदी-गद्य कलात्मक एवं काव्यात्मकता की ओर झुकने लगा था।”19 छ्यावादी युग में कहानी, उपन्यास, नाटक और निबंध के क्षेत्र में काफी विकास हुआ। छायावादी युग में प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद, निराला, महादेवी वर्मा, नंददुलारे वाजपेयी, पांडेय वेचन शर्मा ‘उग्र’ शिवपूजन सहाय आदि गद्य-लेखकों ने छायावादी गद्य साहित्य को समृद्ध किया। द्विवेदी युग के उत्तरार्द्ध के लेखक इस युग में भी गद्य लेखन कर रहे थे, जिनमें आचार्य रामचंद्र शुक्ल, बाबू गुलाब राय तथा पदुमलाल पुन्नालाल बक्सी प्रमुख हैं।
कवि गद्य लेखकों की भाषा पर काव्य भाषा का प्रभाव परिलक्षित होता है। जयशंकर प्रसाद मर्मस्पर्शी कल्पनाचित्र के लिए, सुमित्रानंदन पंत सुकुमार कल्पना प्रधान के लिए, निराला व्यंग्यात्मकता के लिए, माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीयता और स्वछंद अलंकारिक शैली के लिए जाने जाते हैं। वहीं पर प्रेमचंद की गद्य भाषा में सहजता और सरलता विद्यमान है, उर्दू शब्दों का प्रयोग भी पर्याप्त मात्रा में हुआ है।
(d) छायावादोत्तर हिंदी गद्य
वर्ष 1936 बाद के समय को हिंदी गद्य में छायावादोत्तर काल के नाम से जाना जाता है। यह युग हिंदी गद्य के लिए सर्वंगीण विकास का काल है जिसमें अनेक गद्य विधाओं का बहुमुखी प्रगति देखने को मिलती है। इस युग के लेखकों ने कहानी, उपन्यास, आलोचना आदि क्षेत्रों में नये आयामों को स्थापित करने के साथ-साथ अपने मनोभाओं की अभिव्यक्ति के लिए रिपोर्ताज, इंटरव्यू जैसे सर्वथा नवीन विषयों का आश्रय लिया।
छायावादोत्तर युग में स्वतंत्रता पूर्व से लिख रहे लेखकों में हजारी प्रसाद द्विवेदी, यशपाल, उपेंद्रनाथ ‘अश्क’, अमृतलाल नागर, जैनेद्र कुमार, रामवृक्ष बेनीपुरी, अज्ञेय आदि प्रमुख हैं। स्वतंत्रता प्राप्ति के उपरांत गद्य लेखन में प्रवृत्ति हुए लेखकों में विद्यानिवास मिश्र, हरिशंकर परसाई, फणीश्वर नाथ ‘रेणु’, धर्मवीर भारती, भुवनेश्वर, रामविलास शर्मा, नामवर सिंह आदि प्रमुख हैं।
छायावादोत्तर काल के गद्य लेखकों ने हिंदी गद्य को न केवल पर्याप्त सशक्त बनाया अपितु उसकी शब्द संपदा में वृद्धि भी किया। इन लेखकों ने गद्य को जीवन की वाह्य परिस्थितिओं, सामाजिक संबंधों, विसंगतियों, द्वंदों और तनावों को अभिव्यक्त करने में सक्षम बनाया।
निष्कर्ष रूप में आधुनिक काल हिंदी गद्य का सर्वांगीण उन्नति का काल है। इस युग में न केवल नवीन गद्य विधाओं का उद्भव हुआ बल्कि सभी विधाओं का यथेष्ट विकास हुआ भी हुआ। इस युग में आधुनिक जीवन की यथार्थ परक चित्रण विविधता के साथ हुआ है। यही कारण है की उतरोत्तर हिंदी गद्य का विकास होता रहा। जिसका परिणाम यह हुआ की आज हिंदी भाषा विश्व की प्रमुख भाषाओं में गिनी जाती है।
FAQ:
Ans. हिंदी में गद्य का विकास 19वीं शताब्दी के आसपास हुआ। जिसमें कलकत्ता के फोर्टविलियम कॉलेज की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही। इस कॉलेज के दो विद्वानों लल्लूलाल जी तथा सदल मिश्र ने गिलक्राइस्ट के निर्देशन में क्रमशः प्रेमसागर तथा नासिकेतोपाख्यान नामक पुस्तकें तैयार कीं। इनके अलावा उसी समय फोर्टविलियम कॉलेज के बाहर मुंशी सदासुख लाल और इंशाअल्ला खाँ हिंदी गद्य के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई जिन्होंने क्रमशः सुखसागर और रानी केतकी की कहानी की रचना की।
Ans. हिंदी गद्य के विकास को तीन भागों में बांटा गया है। 1. आरंभिक हिंदी गद्य, 2. प्रारंभिक हिंदी गद्य और 3. आधुनिक हिंदी गद्य।
Ans. आधुनिक युग में हिंदी गद्य का चमुखी विकास में भारतेंदु की महत्वपूर्ण भूमिका है। उन्होंने हिंदी गद्य को एक व्यवस्थित रूप प्रदान किया और कई गद्य की कई विधाओं में लेखन प्रारंभ किया। हिंदी गद्य का सर्वमान्य स्वरूप निर्धारित करने के कारण उन्हें हिंदी गद्य के जनक कहा जाता है और उनके युग को भारतेंदु युग।
संदर्भ:
1. शंभूनाथ पांडेय, पृष्ठ- 19
2. हिंदी का गद्य साहित्य- रामचंद्र तिवारी, पृष्ठ- 8
3. शंभूनाथ पांडेय, पृष्ठ- 20
4. शंभुनाथ, पांडेय पृष्ठ- 23
5. हिंदी का गद्य साहित्य- रामचंद्र तिवारी, पृष्ठ- 14
6. हिंदी साहित्य का इतिहास- रामचंद्र शुक्ल, पृष्ठ- 305
7. हिंदी साहित्य का इतिहास- रामचंद्र शुक्ल, पृष्ठ- 306
8. हिंदी साहित्य का इतिहास- रामचंद्र शुक्ल, पृष्ठ- 301
9. हिंदी साहित्य का दूसरा इतिहास- बच्चन सिंह, पृष्ठ- 290
10. हिंदी साहित्य का इतिहास- रामचंद्र शुक्ल, पृष्ठ- 423
11. आधुनिक हिंदी साहित्य- डॉ. वार्ष्णेय, पृष्ठ- 140
12. राजा शिवप्रसाद ‘सितारेहिंद’- सं. वीर भारत तलवार, नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया- 2000, पृष्ठ- 17
13. रघुवंश- राजा लक्ष्मण सिंह (अनु.), विज्ञापन, पृष्ठ- 2-3
14. हिंदी साहित्य का इतिहास- रामचंद्र शुक्ल, पृष्ठ- 430
15. हिंदी साहित्य का इतिहास- आचार्य रामचंद्र शुक्ल, पृष्ठ- 434
16. भारतेंदुयुगीन निबंध- शिवनाथ, पृष्ठ- 112
17. हिंदी गद्य के निर्माता पं. बालकृष्ण भट्ट, पृष्ठ- 303
18. हिंदी साहित्य का इतिहास- सं. नगेन्द्र, पृष्ठ- 467
19. हिंदी का गद्य साहित्य- रामचंद्र तिवारी, पृष्ठ- 42