बाँधो न नाव इस ठाँव, बंधु! कविता की व्याख्या | निराला

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बाँधो न नाव इस ठाँव, बंधु- सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’

बाँधो न नाव इस ठाँव, बंधु!कविता सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ की है। निराला की यह कविता ‘अर्चना’ नामक संग्रह में से ली गई है जिसका प्रकाशन 1950 ई. में हुआ था। इस कविता में नाव के रूपक और घाट के बिंब को लाकर एक साथ कई बातें कही जा रही हैं। कविता की सतह पर तैरता हुआ जो अर्थ है वह प्रेयसी या पत्नी से जुड़ा हुआ दिखता है लेकिन बात कुछ और गहरी है।

बाँधो न नाव इस ठाँव, बंधु कविता और उसकी व्याख्या

“बाँधो न नाव इस ठाँव, बंधु!

पूछेगा सारा गाँव, बंधु!

यह घाट वही जिस पर हँसकर,

वह कभी नहाती थी धँसकर,

आँखें रह जाती थीं फँसकर,

कँपते थे दोनों पाँव बंधु!”

कवि नाविक को संबोधित करते हुए कह रहा है कि तुम नाव को इस घाट पर मत बाँधो क्योंकि यह वही घाट है जिस पर वह स्नान करती थी। ‘वह’ कविता में प्रिया है, प्रिया के साथ साथ वह जीवात्मा भी है। ‘वह’ में सुखद दाम्पत्य जीवन से लेकर काव्य के क्षितिज पर चमकने की चाह तक देखी जा सकती है. यहाँ अर्थ की कई परतें गुथी हुई हैं।

निराला कह रहे हैं कि इसी घाट पर वह जल में धँसकर स्नान करती थी, जिसे देखने में आँखें फँस जाती थीं। आँखों के फँसने का मतलब है, दृश्य में डूब जाना, खो जाना, उलझ जाना।

ध्यान रहे कि दृश्य केवल स्नान नहीं है, स्नान केवल स्त्री का नहीं है। दूसरी बात पाँव के कँपने को केवल काम भावना से जोड़कर नहीं देखना चाहिए।

इस स्नान को जीव और ब्रम्ह के संदर्भ से देखें तो पाँव की कँपकँपी का व्यापक अर्थ यह है कि माया-मिथ्या में उलझे व्यक्ति को क्षणिक आवेश के सिवा कुछ नहीं मिल सकता। इसलिए इस घाट पर नाव को मत बाँधो।

“वह हँसी बहुत कुछ कहती थी,

फिर भी अपने में रहती थी,

सबकी सुनती थी, सहती थी,

देती थी सबके दाँव, बंधु!”

कविता का दूसरा पद अधिक संष्लिष्ट है। जल में धँसने और नहाने के दौरान कवि ने ‘वह’ की हँसी भी देख-सुन ली है. वह हँसी केवल प्रसन्नता मात्र न थी, उसमें दूसरे तीसरे अन्य भाव भी समाहित हैं। सबकी सुन लेना, सबकी सह लेना- यह बेबसी का, ‘वह’ के सीमित दायरे का चित्र है।

ख़ास बात यह है कि वह हँसी अपने में रहती थी। यहाँ ‘अपने में’ व्यक्तिगत दायरे की सीमा भी है, आत्मसम्मान और स्वाभिमान का भाव भी है। सबके दांव देने का तात्पर्य है कि वह अपने किरदार में सबको भुगत रही थी या सबसे उऋण हो रही थी अथवा उसे कुछ भी अनुत्तरित नहीं छोड़ना है। यहाँ दृष्टि के फँसने में दृश्य की फँसान भी शामिल है।

बाँधो न नाव इस ठाँव, बंधु! कविता में विशेष तथ्य

  • यह गीत, नवगीत की आहट लिए हुए है जिसका आगे चलकर और विकास हुआ।
  • रूपकों व बिम्बों का सुन्दर अंकन किया गया है।
  • यहाँ वस्तु चित्र में भाव चित्र को बड़ी सफलता से सँजोया गया है। कवि व्यक्ति की बात करते करते चार पंक्ति में उसके जीवन का समूचा इतिवृत्त पेश कर देता है।
  • इस गीत को निराला या उनकी पत्नी मनोहरा देवी के व्यक्तिगत जीवन से जोड़ने की शीघ्रता से बचना चाहिए।
  • कविता एक साथ कई स्तरों पर खुलती है इसलिए इसके किसी एक पहलू पर अनावश्यक बल नहीं देना चाहिए।
  • कविता में नाव को, घाट को वस्तुवाचक अर्थ से आगे देखना चाहिए। इसी प्रकार हँसी को, दाँव देने को स्त्री मात्र तक संकुचित करने के बजाय जीवन, समाज और मानवीय चेतना के पारलौकिक व्यापक संदर्भ तक देखना चाहिए।

Bandho na naav is thanv bandhu Kavita ki vyakhya

Bandho na naav is thanv bandhu- Niral

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