मैथलीशरण गुप्त द्वारा रचित चम्पू-काव्य ‘यशोधरा’ की उपरोक्त काव्य-पंक्तियाँ ‘सखि वे मुझसे कहकर जाते’ इतनी सुविख्यात रही हैं, कि जिन्होंने समूचा काव्य न भी पढ़ा हो, उन्होंने भी इन पंक्तियों को तो अवश्य ही पढ़ा होगा। उपरोक्त काव्य-पंक्तियाँ सिद्धार्थ (जो सिद्धि-प्राप्ति के उपरांत महात्मा बुद्ध हुए) की पत्नी यशोधरा और उनकी एक सखि के बीच संवाद से संदर्भित हैं। पति सिद्धार्थ एक रात्रि को चुपचाप यशोधरा और अपने पुत्र राहुल को सोते छोड़ सत्य की खोज में चले गए।
कविता का विषय सत्य की खोज में निकले सिद्धार्थ का गौतम बुद्ध हो जाना नहीं है। न ही ‘सत्य की उनकी खोज’ इस कविता के केन्द्र में स्थित है। यह कविता जिस भाव-स्थिति को अपना कथ्य बनती है, वह भाव-स्थिति है, यशोधरा का आहत मन। बिना कोई बात-संवाद किये पति (सिद्धार्थ) का यूँ चले जाना, पत्नी (यशोधरा) के ह्रदय को गहरी ठेस पहुंचा गया। सम्बन्ध के भाव-रूप के खंडित होने से जन्मे मर्म की अभिव्यक्ति ही कविता के केंद्र में विद्यमान है।
सखि वे मुझसे कहकर जाते गीत की व्याख्या
सखि, वे मुझसे कहकर जाते,
कह, तो क्या मुझको वे अपनी पथ-बाधा ही पाते?
मुझको बहुत उन्होंने माना
फिर भी क्या पूरा पहचाना?
मैंने मुख्य उसी को जाना
जो वे मन में लाते।
सखि, वे मुझसे कहकर जाते।
संदर्भ: विवेच्य काव्य-पंक्तियाँ मैथलीशरण गुप्त द्वारा रचित चम्पू-काव्य ‘यशोधरा’ से ली गयी हैं। ‘सत्य की खोज’ में अपने परिवार को सोता छोड़ जाने के उपरांत सिद्धार्थ (महात्मा बुद्ध) की पत्नी यशोधरा की मार्मिक कथा को यह काव्य अपना विषय बनता है।
प्रसंग: विवेच्य काव्य-पंक्तियाँ यशोधरा और उनकी एक सखी के मध्य हुए संवाद पर आधारित हैं। संवाद का विषय है, पति सिद्धार्थ द्वारा बिना बताये चले जाना।
व्याख्या:
यशोधरा अपनी सखि को संबोधित करते हुए कहती हैं, सखि! वे अगर सत्य की खोज में सब छोड़कर जाना ही चाहते थे तो मुझे वे बस एक बार, बता भर देते। बिना बताये चले जाने की पीड़ा से, जिससे मैं आज ग्रस्त हो गयी हूँ, वह न होती। क्या उन्हें लगा कि मैं उनके रास्ते की बाधा बन उन्हें जाने से रोकने का प्रयास करती? क्या इतना ही वे मुझे जान सके? इतने वर्षों का संग और उन्होंने मेरे ह्रदय को बस इतना ही जाना। सखि! मैंने तो सदैव उनकी हरेक इच्छा और उद्देश्य को ही अपना सर्वस्व माना है। फिर उनकी इस इच्छा के विरुद्ध मैं कैसे जा सकती थी? अपनी पत्नी के रूप में उन्होंने मुझे बहुत मान-सम्मान दिया, किन्तु इस भांति बगैर बताये, रात्रि के अँधेरे में मुझे यूँ सोता छोड़ चुपचाप दबे पांव चले जाना मुझे आहात कर रहा है। इतने मान-सम्मान के बाद भी क्या उन्होंने मुझे इस लायक भी नहीं समझा कि वे अपने ह्रदय की इस इच्छा को भी एकबार बता देते! यही बात बराबर मुझे भीतर से व्यथित किये जा रही है। पत्नी और बच्चे को छोड़कर पति सिद्धार्थ के ‘जाने का निर्णय’ पीड़ादायक तो उतना ही रहता, किन्तु बिना बताये चले जाना; यही वह ‘मार्मिक-स्थल’ है, जिसका वर्णन कवि इन पंक्तियों में कर रहा है।
विशेष:
- प्रख्यात पौराणिक आख्यान में नूतन भाव-रचना इस काव्य रचना की प्रमुख विशेषता है।
- संवाद-वर्णन शैली का प्रयोग इस काव्य रचना की एक उल्लेखनीय विशेषता है।
- सहज-संप्रेषणीय भाषा काव्य रचना की एक नया महत्वपूर्ण विशेषता है।
स्वयं सुसज्जित करके क्षण में,
प्रियतम को, प्राणों के पण में,
हमीं भेज देती हैं रण में-
क्षात्र-धर्म के नाते
सखि, वे मुझसे कहकर जाते।
संदर्भ: उपरोक्त
प्रसंग: विवेच्य काव्य पंक्तियाँ यशोधरा के ह्रदय के उस भाव को व्यक्त करती हैं, जिसमें वे अपनी सखि को जतलाती हैं कि क्षात्र-धर्म के पालन के उद्देश्य से हम क्षत्राणियां अपने पतियों को हमेशा से रण-क्षेत्रों में अपने से सुसज्जित करके भेजती आयी हैं।
व्याख्या:
यशोधरा अपनी सखि को संबोधित करते हुए कहती हैं, हे सखि! क्या वे नहीं जानते थे कि हम क्षत्राणियां तो सदा से क्षात्र-धर्म (क्षत्रियों का धर्म अर्थात युद्ध) के पालन के उद्देश्य से खुद से अपने प्राणों से प्रिय पतियों को, अपने जीवनाधारों को युद्ध के लिए सुसज्जित करके भेजती आई हैं! युद्ध तो सीधे मृत्यु की आशंकाओं से भरा हुआ रहता है। ऐसे में उनके मन में यह विचार क्योंकर आया, कि मैं उनके मार्ग में बाधा बनकर उपस्थित होती? क्या वे क्षात्र-धर्म पालन को लेकर हमारे त्यागों की सभी स्मृतियाँ भूल गए? जो स्तरीय अपने पतियों के लिए इस भांति के उच्चतर त्याग करने का सहस और सामर्थ्य रखती हैं, उन्हें बाधा स्वरुप जान बिना कहे चले जाने के निर्णय ने यशोधरा को मर्माहत कर दिया है। इन काव्य पंक्तियों में इसी मर्म-स्थिति को यशोधरा अपनी सखि को बताते हुए पुन:-पुन: दोहराते हुए दिखलाई पड़ती हैं कि हे सखि कितना सुन्दर होता अगर वे मुझसे कहकर, मुझे भी अपने निर्णय का अंग बनाते हुए वे अपनी उद्देश्य-पूर्ति के लिए चले जाते।
वस्तुत: पत्नी और बच्चे को छोड़कर पति सिद्धार्थ के ‘जाने का निर्णय’ पीड़ादायक तो उतना ही रहता, किन्तु बिना बताये चले जाना; यही वह ‘मार्मिक-स्थल’ है जिसे चाहे-अनचाहे मैथलीशरण गुप्त ने इस कविता में शब्द ही नहीं, अर्थ की ऐसी संभावनाएं दे दी हैं, जो इसके ‘पति-पत्नी’ संबंध के ढांचे को लांघते हुए ‘स्त्री-पुरुष’ संबंध के आयाम में प्रवेश की सूचना दे सकती हैं। इन काव्य-पंक्तियों में यशोधरा की पीड़ा सिर्फ पत्नी के रूप में सीमित न रहकर उस व्यक्ति को महत्वहीन समझ लिए जाने की पीड़ा से भी संदर्भित हो गयी है।
विशेष:
- विवेच्य काव्य-पंक्तियाँ यशोधरा के माध्यम से एक मर्माहत स्त्री के पीड़ित ह्रदय की सशक्त अभिव्यक्ति करती हैं।
- नवजागरणकालीन आधुनिकता के प्रभाव को विवेच्य काव्य-पंक्तियों का एक निजी वैशिष्ट्य कहा जा सकता है।
- भाषिक दृष्टि से विवेच्य काव्य-पंक्तियाँ काव्यार्थ को सहजता और संवेदनशीलता के साथ अभिव्यक्ति करने का सामर्थ्य प्रकट करती हैं।
हुआ न यह भी भाग्य अभागा,
किसपर विफल गर्व अब जागा?
जिसने अपनाया था, त्यागा;
रहे स्मरण ही आते!
सखि, वे मुझसे कहकर जाते।
संदर्भ: उपरोक्त
प्रसंग: विवेच्य काव्य-पंक्तियाँ यशोधरा और उनकी सखि के बीच हुए संवाद से संदर्भित हैं, जिसमें यशोधरा अपने मर्माहत ह्रदय को अपनी सखि के सम्मुख प्रकट कर रही हैं।
व्याख्या:
विवेच्य काव्य पंक्तियों में यशोधरा अपनी सखि को संबोधित करते हुए कहती है, कि हे सखि! मैं उनके मार्ग में किसी भी भांति से बाधा नहीं बनती। इस बात का ज्ञान होने के बावजूद वे मुझे बिना बताये ही चले गए। उनका यह कार्य मुझे अत्यधिक आहत कर गया है। जिसे उन्होंने अपनाया था लगता है उसी का त्याग उन्होंने कर दिया। हर दिशा में उनके निर्णय की प्रशंसा हो रही है। सभी गर्वित अनुभव कर रहे हैं। किन्तु हे सखि! मैं किस मुख से स्वयं को गर्वित महसूस करूँ? मुझे तो यह भी भाग्य प्राप्त नहीं हुआ कि उनके महत उद्देश्य का अंग हो पाती। अगर उन्होंने मुझे अपने निर्णय में शामिल किया होता तो आज में कितना गौरवान्वित अनुभव कर रही होती। हाय! उन्होंने मुझे सचमुच त्याग ही दिया।
कवि मैथलीशरण गुप्त ने इस कविता में शब्द ही नहीं, अर्थ की ऐसी संभावनाएं दे दी हैं, जो इसके ‘पति-पत्नी’ संबंध के ढांचे को लांघते हुए ‘स्त्री-पुरुष’ संबंध के आयाम में प्रवेश की सूचना दे सकती हैं। इन काव्य-पंक्तियों में यशोधरा की पीड़ा सिर्फ पत्नी के रूप में सीमित न रहकर उस व्यक्ति को महत्वहीन समझ लिए जाने की पीड़ा से भी संदर्भित हो गयी है, जिसे पत्नी के रूप में सिद्धार्थ ने स्वीकार किया था। अब यह सिर्फ एक पत्नी की वियोगजन्य पीड़ादायक ही नहीं, उससे अधिक है। पति और पत्नी का ‘स्ट्रेक्चर’ (ढांचा) इस कविता का मुख्य रूप है। अधिकांश कविता इसी ढांचे के भीतर जन्म लेती है। लेकिन यशोधरा के ह्रदय की पीड़ा, काव्य-पंक्तियों में वियोग से अधिक उस अस्वीकार से जुडी है, जो पत्नी के रूप में स्वीकार किये जाने के बावजूद उनका ‘सत्य’ बना है। एक व्यक्ति के तौर पर यशोधरा के लिए, उसे महत्वहीन समझे जाने के कटु अहसास ने, वियोगजन्य पीड़ा के दायरे से परे स्त्री की पीड़ा का आयाम ग्रहण कर लिया है।
विशेष:
- विवेच्य काव्य-पंक्तियाँ नवजागरणकालीन आधुनिकता के प्रभाव को समूची मुखरता के साथ व्यक्त करती हैं, इसे इनका वैशिष्ट्य कहा जा सकता है।
- एक पौराणिक आख्यान को आधुनिकता का प्रभाव कैसे विखंडित करते हुए नूतन अर्थों और काव्य-सन्दर्भों को जन्म देता है, विवेच्य काव्य-पंक्तियाँ इसका सटीक उदाहरण कही जा सकती हैं।
- विवेच्य काव्य भाषा की सहजता, संप्रेषणीयता और अर्थ-अभिव्यक्ति के सामर्थ्य की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं।
नयन उन्हें हैं निष्ठुर कहते,
पर इनसे जो आँसू बहते,
सदय हृदय वे कैसे सहते?
गये तरस ही खाते!
सखि, वे मुझसे कहकर जाते।
संदर्भ: उपरोक्त
प्रसंग: विवेच्य काव्य-पंक्तियाँ यशोधरा और उनकी सखि के बीच हुए संवाद से संदर्भित हैं, जिसमें यशोधरा अपने मर्माहत ह्रदय को अपनी सखि के सम्मुख प्रकट कर रही हैं।
व्याख्या:
विवेच्य काव्य पंक्तियाँ यशोधरा के ह्रदय की मार्मिक स्थिति को व्यक्त करती हैं। यशोधरा अपनी सखि को संबोधित करते हुए कहती हैं कि हे सखि! मेरे नयन उन्हें निष्ठुर कहते हैं। इतना निष्ठुर कि उन्होंने एक बार पलटकर मुझसे शब्द-भर बात करने की भी दया नहीं दिखलाई। मेरी आँखों से बहते ये आंसू क्या नहीं बताते कि मेरे ह्रदय की क्या स्थिति हो रही है! यह किस भांति अत्यधिक पीड़ा से त्रस्त हो विकल हो रहा है! मेरी आँखों से बहते आंसू क्या मरे मर्माहत ह्रदय को वाणी नहीं दे रहे हैं! मेरे ह्रदय की विकल स्थिति देखकर इन आंसूओं को भी मुझपर दया आ रही है, इसीलिए तो यह निरंतर मेरी आँखों से बहे जा रहे हैं। उन्हें भी मुझपर तरस आ रहा है। किन्तु, मुझे यूँ बिना कुछ कहे-बताये जाते हुए उन्हें (पति सिद्धार्थ को) मुझपर किंचित भी तरस नहीं आया। यह सोच-सोचकर मेरा ह्रदय विकल हुआ जाता है। इस भांति की पीड़ा आज मुझे नहीं सहनी पड़ती, अगर वे जाते समय मुझे बताकर जाते। उन्होंने मेरे बारे में जरा सी भी सहानुभूति नहीं दिखलाई।
विशेष:
- विवेच्य काव्य-पंक्तियाँ मर्माहत स्त्री-स्वर की सशक्त अभिव्यक्ति करती हैं।
- संवाद का अभाव फिर वो किसी भी भांति और रूपाकार का हो, कैसे संबंधों को पीड़ित और आहत करता है, विवेच्य पंक्तियाँ इसे समग्रता में अभिव्यक्ति प्रदान करती हैं।
- विवेच्य पंक्तियों की भाषा अपनी सहजता और संप्रेषणीयता की दृष्टि से विशेष महत्त्व रखती हैं।
जायें, सिद्धि पावें वे सुख से,
दुखी न हों इस जन के दुख से,
उपालम्भ दूँ मैं किस मुख से?
आज अधिक वे भाते!
सखि, वे मुझसे कहकर जाते।
संदर्भ: उपरोक्त
प्रसंग: विवेच्य काव्य-पंक्तियाँ यशोधरा और उनकी सखि के बीच हुए संवाद से संदर्भित हैं, जिसमें यशोधरा अपने मर्माहत ह्रदय को अपनी सखि के सम्मुख प्रकट कर रही हैं।
व्याख्या:
यशोधरा अपनी सखि को कहती हैं, हे सखि अब वे जायें और जो सिद्धि-सुख उन्हें पाना है उसे निश्चिन्त होकर पायें। विवेच्य काव्य पंक्तियों में प्रयुक्त ‘जायें’ क्रिया यहाँ बेहद अर्थवान है, लगता है मानो यशोधरा ने स्वयं को पति सिद्धार्थ के ‘निर्णय’ और ‘उद्देश्य’ दोनों से स्वयं को अलग कर लिया हो। वे जाये और जिस सिद्धि को प्राप्त करने के लिए उन्होंने उन्हें और बच्चे को छोड़ा था, उसे सुखी-सुखी पाएं, उनके दुःख से दुखी होने की आवश्यकता नहीं है। सखि को संभवतः लगा होगा कि यशोधरा मर्माहत हो उपालंभ की अभिव्यक्ति कर रही हैं। लेकिन क्या सचमुच ये उलाहना है? यशोधरा स्पष्ट करती हैं, उलाहना किस मुंह से? अर्थात किस ‘हैसियत’ से उलाहना दूँ? उन्होंने तो मुझे अपनी इच्छा और निर्णय से अवगत कराने की भी आवश्यकता नहीं जानी-मानी। ऐसे में उलाहना मेरे उस प्रेम को व्यक्त करता प्रतीत होगा, जिसका सम्मान उन्होंने नहीं किया। अगर वे मुझे अपने निर्णय में शामिल करते तो मुझे उन पर गर्व ही न होता, बल्कि उनके प्रति मेरे स्नेह और प्रेम में और भी गहराई हासिल होती। मैं उनके निर्णय में शामिल रहते हुए स्वयं को और भी भाग्यशाली मान पाती। किन्तु उन्होंने इन सभी से मुझे वंचित कर दिया। प्रेम और संबंध में सम्मान का अभाव यशोधरा को पीड़ित कर रहा है।
विशेष:
- विवेच्य काव्य-पंक्तियों का यह वैशिष्ठ्य है कि ये काव्य-पंक्तियाँ एक अति प्रख्यात पौराणिक आख्यान के भीतर छिपे स्त्री-मर्म को प्रकट करती हैं, जो आगे जाकर हिंदी कविता में स्त्री-स्वर का व्यवस्थित रूप ग्रहण करती हुई दिखलाई पड़ती हैं।
- विवेच्य काव्य-पंक्तियाँ एक प्रख्यात पौराणिक आख्यान का विखंडन करती हुई, उसमें छिपे स्त्री-स्वर को शब्द प्रदान करती हैं।
- विवेच्य पंक्तियों की भाषा आम-जन को सहज ढंग से अर्थ को संप्रेषित करने का सामर्थ्य प्रकट करती है।
गये, लौट भी वे आवेंगे,
कुछ अपूर्व-अनुपम लावेंगे,
रोते प्राण उन्हें पावेंगे,
पर क्या गाते-गाते?
सखि, वे मुझसे कहकर जाते।
संदर्भ: उपरोक्त
प्रसंग: विवेच्य काव्य-पंक्तियाँ यशोधरा और उनकी सखि के बीच हुए संवाद से संदर्भित हैं, जिसमें यशोधरा अपने मर्माहत ह्रदय की स्थिति अपनी सखि को बतला रही हैं।
व्याख्या:
यशोधरा अपनी सखि को कहती हैं, हे सखि! मुझे ज्ञात है कि आज नहीं तो कल वे वापस लौट ही आयेंगे। तब तक मेरा ह्रदय उनके वियोग में भी करूण क्रंदन करता रहेगा। जिस उद्देश्य से प्रेरित होकर वे गए थे, मुझे विश्वास है, उसे वे पाकर ही लौटेंगे। वह अपूर्व और अनुपम होगा यह भी मुझे ज्ञात है, लेकिन हे सखि! जब वे वापस लौटेंगे, तब क्या मेरा यह क्रंदन करता ह्रदय, मेरे विलखते प्राण, क्या ख़ुशी से झूमते हुए, समूचे हर्ष और प्रसन्नता के साथ उनका स्वागत कर पाएंगे? क्या उनका आकस्मिक ढंग से चले जाने को मेरा ह्रदय भूल जायेगा? मुझे जितनी वेदना की अनुभूति उनके इस भांति चले जाने से हुई है, क्या वो सब एकदम से समाप्त हो पायेगी? हे सखि! उनका लौटना मुझे वियोग के दुःख से भले मुक्त कर दे, किन्तु जिस पीड़ा को मैंने भोगा है उससे उनका लौट आना भी संभवत: मुक्त न कर सके। उनके लौट आने पर मैं उनका स्वागत अवश्य करुँगी, पर शायद प्रसन्नता से गाते और झूमते हुए नहीं। मेरे मुख पर वह वेदना और पीड़ा उस समय भी विद्यमान दिखलाई पड़ेगी, जिसकी अनुभूति मैं आज कर रही हूँ।
विशेष:
- स्तर-स्वर की सशक्त अभिव्यक्ति हमें विवेच्य काव्य-पंक्तियों में देखने को मिल रही है, जिसे इस कविता की उल्लेखनीय विशेषता कहा जा सकता है।
- विवेच्य काव्य-पंक्तियाँ नवजागरणकालीन आधुनिकता के प्रभाव को दर्शाती हैं।
- विवेच्य काव्य-पंक्तियों की भाषा सहज और संप्रेषणीय भाषा के आदर्श को प्रस्तुत करती हैं।
सखि वे मुझसे कह कर जाते कविता का सारांश
पति सिद्धार्थ द्वारा बिना बताये, रात्रि के गहन अंधकार में, यशोधरा और पुत्र राहुल को यूँ ही सोते छोड़, चुपचाप चले जाने का प्रसंग यशोधरा और उनकी सखि के बीच संवाद का विषय बना हुआ। संवाद की शैली ही इस कविता का रूप-विधान निर्मित करती है। सखि का प्रश्न कविता में मौजूद नहीं है, किन्तु यशोधरा का व्यक्त कथन, पृष्ठभूमि में मौजूद उस प्रश्न को ध्वनित करता है। इसीलिए उपरोक्त ‘काव्य-पंक्तियाँ सिद्धार्थ द्वारा चुने गए आकस्मिक-कार्य पर, यशोधरा के एकल बयान (स्टेटमेंट) का आभास देती हैं। यही कविता का कुल शिल्प-विधान है।
उपरोक्त काव्य पंक्तियाँ महात्मा बुद्ध के जीवन से संबद्ध उस प्रकरण का एक ‘स्त्री-पाठ’ निर्मित करने की चेष्टा करती हैं, जो अब तक अ-व्यक्त बना रहा। ऐसे में कहा जा सकता है कि हिंदी कविता को आधुनिकता का एक और मुखर स्वर इन पंक्तियों में हासिल होता है। नवजागरण का एक आयाम प्राचीन-आख्यानों के पुरुष केन्द्रित नायकत्व से मुक्त होने की प्रेरणा और प्रयास रहा है, जो आधुनिकता का निर्माण करता है। यह कविता भी उसी प्रेरणा और प्रयास का एक उदाहरण रही है। ‘महात्मा बुद्ध’ के महा-आख्यान में उनकी पत्नी के अव्यक्त-आख्यान को रचकर यह कविता प्राचीन-साहित्य के साथ एक आधुनिक-सम्बन्ध निर्मित करती है।
पत्नी और बच्चे को छोड़कर पति सिद्धार्थ के ‘जाने का निर्णय’ पीड़ादायक तो उतना ही रहता, किन्तु बिना बताये चले जाना; यही वह ‘मार्मिक-स्थल’ है जिसे चाहे-अनचाहे मैथलीशरण गुप्त ने इस कविता में शब्द ही नहीं, अर्थ की ऐसी संभावनाएं दे दी हैं, जो इसके ‘पति-पत्नी’ संबंध के ढांचे को लांघते हुए ‘स्त्री-पुरुष’ संबंध के आयाम में प्रवेश की सूचना दे सकती हैं। इन काव्य-पंक्तियों में यशोधरा की पीड़ा सिर्फ पत्नी के रूप में सीमित न रहकर उस व्यक्ति को महत्वहीन समझ लिए जाने की पीड़ा से भी संदर्भित हो गयी है, जिसे पत्नी के रूप में सिद्धार्थ ने स्वीकार किया था। अब यह सिर्फ एक पत्नी की वियोगजन्य पीड़ादायक ही नहीं, उससे अधिक है। पति और पत्नी का ‘स्ट्रेक्चर’ (ढांचा) इस कविता का मुख्य रूप है। अधिकांश कविता इसी ढांचे के भीतर जन्म लेती है। लेकिन यशोधरा के ह्रदय की पीड़ा, काव्य-पंक्तियों में वियोग से अधिक उस अस्वीकार से जुडी है, जो पत्नी के रूप में स्वीकार किये जाने के बावजूद उनका ‘सत्य’ बना है। एक व्यक्ति के तौर पर यशोधरा के लिए, उसे महत्वहीन समझे जाने के कटु अहसास ने, वियोगजन्य पीड़ा के दायरे से परे स्त्री की पीड़ा का आयाम ग्रहण कर लिया है। उपरोक्त कविता की इन पंक्तियों पर ध्यान दीजिये-
जायें, सिद्धि पावें वे सुख से, / दुखी न हों इस जन के दुख से, / उपालम्भ दूँ मैं किस मुख से? / आज अधिक वे भाते!
‘जायें’ क्रिया यहाँ बेहद अर्थवान है, लगता है मानो यशोधरा ने स्वयं को पति सिद्धार्थ के ‘निर्णय’ और ‘उद्देश्य’ दोनों से स्वयं को अलग कर लिया हो। वे जाये और जिस सिद्धि को प्राप्त करने के लिए उन्होंने उन्हें और बच्चे को छोड़ा था, उसे सुखी-सुखी पाएं, उनके दुःख से दुखी होने की आवश्यकता नहीं है। सखि को संभवत: लगा होगा कि क्या ये उलाहना है?
लेकिन उलाहना किस मुंह से? अर्थात किस ‘हैसियत’ से उलाहना दूँ? यह प्रश्नवाचक पंक्ति ‘दुखी न हों इस जन के दुख से’ पंक्ति से संदर्भित हो रही है। ऐसे में वियोगजन्य उपालंभ इसे नहीं कहा जा सकता। इसी सन्दर्भ में अब इन पंक्तियों पर विचार कीजिए,-
हुआ न यह भी भाग्य अभागा, / किसपर विफल गर्व अब जागा? / जिसने अपनाया था, त्यागा; / रहे स्मरण ही आते!
यशोधरा अपनी सखि को कहती हैं, उसे तो इतना भी अवसर नहीं दिया गया कि वह अपने पति के उस निर्णय में अपनी सहमति जताकर हिस्सेदारी जतला और बतला पाती। इतना भी भाग्यवान नहीं होने दिया उन्होंने। इसे अभागा नहीं तो क्या कहा जाये? ऐसे में उनके निर्णय, उनकी सिद्धि और उनके अर्जित गौरव पर मैं कैसे गर्व करूँ? क्या उन्होंने मुझे उनके ‘अर्जित गौरव’ पर गर्व करने का अवसर दिया है? असल में नहीं दिया।
ऐसे में वे जब भी वापस लौटें, (रहे स्मरण ही आते!) उन्हें ज्ञात रहे कि जिसे उन्होंने अपनाया था, उसे जाते समय वे त्याग गए थे। जिसे त्याग गए थे, उसका अब क्या गर्व और क्या ही भाग्य। यशोधरा को तो दोनों के अयोग्य (त्वेयाग और गौरव के अयोग्य) खुद ही कर गए थे। यशोधरा अपनी सखि को अपनी पीड़ा बतलाते हुए कहती है, वे जाते समय भूल गए कि हमीं स्वयं अपने पतियों को रण-भूमि भेजती हैं, ताकि क्षात्र-धर्म का पालन हो सके, फिर उन्होंने मुझे बाधा क्योंकर पाया?
अगर वे मुझे अपने निर्णय में शामिल करते तो मुझे उन पर गर्व ही न होता, बल्कि उनके प्रति मेरे स्नेह और प्रेम में और भी गहराई हासिल होती। मैं उनके निर्णय में शामिल रहते हुए स्वयं को और भी भाग्यशाली मान पाती। किन्तु इनसे उन्होंने मुझे वंचित कर दिया। वंचना का यह दुःख इस कविता के केंद्र में विद्यमान संभवत: इसी कारण दिखलाई पड़ता है।
‘सखि, वे मुझसे कहकर जाते’ कविता इस मायने में भी उल्लेखनीय कही जानी चाहिए कि यह कविता हिंदी कविता में ‘स्त्री-स्वरों’ की उसी भांति आरंभिक कविता है, जैसे भारतेंदु की ‘प्रात:समीरण’ कविता आधुनिक-राष्ट्रीय चेतना की, जो कृष्ण को भारत-नाथ की संज्ञा देने के साथ ही उन्हें ऐतिहासिक परिस्थिति से बांध देती है, और आस्था को राष्ट्रीयता की भंगिमा देती है। राष्ट्रीयता के संवेदन की आरंभिक कविता जैसे उसे कहा जा सकता है, वैसे ही इस कविता को स्त्री-स्वर की आरंभिक कविता कहा जाना चाहिए।
असल में, ‘सखि, वे मुझसे कहकर जाते’ कविता ‘पति-पत्नी’ संबंध ढांचे के भीतर उस ‘स्त्री-बोध’ की रचना करने का काम करती है, जिसकी अभिव्यक्ति बाद में स्त्री-विमर्श के माध्यम और रूप में आगे होनी थी। इस मायने में यह कविता अपना ऐतिहासिक महत्त्व रखती है। इस सन्दर्भ में एक अन्य बात का भी उल्लेख किया जाना अवश्यक प्रतीत होता है। ‘द्विवेदी-युग’ जिसके सर्वाधिक मुखर कवि मैथलीशरण गुप्त रहे हैं, असल में काव्य-विषयों और नूतन मार्मिक स्थलों की काव्यात्मक पहचान की दृष्टि से एक विलक्षण युग है।
इस युग के मूल प्रेरणा-स्रोत रहे महावीरप्रसाद द्विवेदी (जिनके नाम पर ही इस युग का नामकरण होता है) अपना एक निबंध लिखते हैं, जिसका शीर्षक वे देते हैं ‘उर्मिला विषयक उदासीनता’। इस निबंध में वे लक्ष्मण के त्याग और अपने भाई के प्रति समर्पण की कवियों द्वारा की गयी प्रशंसा को रेखांकित करते हुए ही, उन्हीं कवियों द्वारा लक्ष्मण की पत्नी उर्मिला के प्रति अपनाई गयी उदासीनता को आधुनिक हिंदी कविता के लिए न केवल बतौर नूतन-विषय अपितु नए ‘मार्मिक स्थल के रूप में प्रस्तुत करते हैं। चम्पू काव्य यशोधरा का विचार भी असल में यहीं से उत्पन्न कहा जा सकता है।
डॉ. सत्यप्रकाश सिंह
‘सखि वे मुझसे कहकर जाते’ यशोधरा का कथन है।
सखि वे मुझे कहकर जाते मैथलीशरण गुप्त की कविता है।
यशोधरा के माध्यम से गुप्त जी जहां एक तरफ नवजागरण को गंभीरता से स्त्री प्रश्नों से जोड़ते हैं वहीं इतिहास और अतीत के पुरुष केंद्रित संस्थापन को दमित और छोड़ दिए गए स्वरों विशेषकर स्त्री स्वरों को उभारने की चेष्टा करते हैं। यशोधरा आधुनिक कविता में अपने इसी प्रयास और चेष्टा के कारण अप्रतिम महत्व रखता है।