कृष्णा सोबती हिंदी की महत्वपूर्ण और सम्मानित कथाकार हैं। उनके अब तक प्रकाशित उपन्यासों में मित्रो मरजानी (1967 ई.), डार से बिछुड़ी (1948 ई.), सूरजमुखी अँधेरे के (1972 ई.), जिंदगीनामा (1979 ई.), दिलो दानिश (1993 ई.), समय सरगम (2000 ई.) आदि शामिल हैं। उनकी एकमात्र कहानी संग्रह ‘बादलों के घेरे में’ 1980 ई. में प्रकाशित हुई जिसमें कुल 24 कहानियाँ संकलित हैं। यारों के यार, तिन पहाड़ उनकी दो कहानियों का संग्रह है जो 1968 ई. में प्रकाशित हुआ था। इसके अलावा उनकी दो कहानी- ऐ लड़की और नामपट्टिका भी प्रकाशित हुई है।
‘बादलों के घेरे में’ कहानी संग्रह में ही ‘सिक्का बदल गया है’ कहानी भी संकलित है, जो जुलाई, 1948 ई. में प्रकाशित हुई थी। सर्वप्रथम यह कहानी अज्ञेय ने ‘प्रतीक’ पत्रिका में प्रकाशित किया था। कृष्णा सोबती ने इस कहानी में 1947 ई. में हुए देश विभाजन की ऐतिहासिक और हृदयविदारक घटना को आधार बनाया है। कृष्णा सोबती की ‘सिक्का बदल गया’ भारत-पाक विभाजन के दर्द को बड़ी गहनता से उकेरने वाली कहानी है।
कहानी का सारांश
कृष्णा सोबती की कहानी ‘सिक्का बदल गया’ देश-विभाजन की पृष्ठभूमि में नाते-रिश्तों के यकायक बदल जाने और झूठे पड़ जाने की पीड़ा का संवेदनशील साक्ष्य है। एक लंबे अरसे से शाहनी का चनाब से गहरा संबंध रहा है। इसी के किनारे कभी वह दुल्हन बनकर उतरी थी और पिछले पचास वर्षों से इसी में नहाती रही है। इसके आस-पास बिखरी जमीन, कुएं और बड़ी-सी हवेली- सब शाहजी के हैं और वे सारे आसामी भी। आसामियों की पूरी आबादी मुसलमानों की है।
लेकिन पिछले दिनों जैसी हवा चली है उसने चीजों की शक्ल बहुत तेजी से बदल दी है। जिस शेरे को उसने उसकी माँ के मरने के बाद पाला-पोसा आज वही उसकी जान लेने को तैयार था। जिस शेरा को उसने पल-पोस कर बड़ा किया, वही ऊँची हवेली की अँधेरी कोठरी में पड़ी सोने-चाँदी की संदूकें लूट लेना चाहता है। लेकिन जब शेरे ने शाहनी की झुर्रियों पड़े मुँह की ओर देखा तो शाहनी धीरे से मुस्करा रही थी। शेरा विचलित हो गया- “आखिर शाहनी ने क्या बिगाड़ा है हमारा? शाहजी की बात शाहजी के साथ गई, वह शाहनी को जरूर बचाएगा। जब वह शाहनी को घर छोड़ आने को कहता है तो शाहनी बिना कुछ बोले उसके साथ चलने लगती है।
ट्रकों के आने की सूचना पर भी वह स्वयं कुछ बोल नहीं पाती- नवाब बीबी ही अपने विकृत कंठ से चीजों के इस तरह बदल जाने पर बुदबुदाती रहती है। आज तक कभी ऐसा नहीं हुआ, न सुना। शाहनी अकेली थी और बिना सहारे के उसे अपने पुरखों के घर को छोड़ना था, “शाहनी रो-रोकर नहीं, शान से निकलेगी इस पुरखों के घर से, मान से लाँघेगी यह देहरी, जिस पर एक दिन वह रानी बनकर आ खड़ी हुई थी। अपने लड़खड़ाते कदमों को संभालकर शाहनी ने दुपट्टे से आँखें पोंछी और ड्योढ़ी से बाहर हो गई।”
आसपास की औरतों की प्रतिक्रियाओं से ही शाहनी को स्थिति की संजीदगी का आभास होता है। बेजान-सी शाहनी की ओर देखकर बेगू सोच रहा है- “क्या गुजर रही है शाहनी पर! मगर क्या हो सकता है! सिक्का बदल गया है।” और इसके बाद ही शाहनी को वह सब छोड़ना होता है जो उसने इस लंबे अरसे में सहेजा था- हवेली और उसमें भरी ढेर-सी जरूरी-गैर जरूरी चीजें ही नहीं, नाते-रिश्ते और पड़ोसियों की माया-ममता भी। आस-पास घेर कर खड़ा वह छोटा-सा जनसमूह रो रहा है। सबके मन में जैसे एक ही बात है कि शाहनी के मन में जरा भी मैल नहीं है। हम शाहनी को नहीं रख सके। अपना घर-बार और गाँव छूट जाने पर भी शाहनी के मन में किसी के लिए कोई वैर-भाव नहीं था। बल्कि जिस शेरे के मन में शाहनी को मार डालने की बात आई थी, उस शेरा बढ़कर शाहनी के पांव छूता है, उसे भी उसने अपने काँपते हुए हाथों से आशीर्वाद दिया, “तुम्हें भाग लगे चन्ना।”
ट्रक के बढ़ते-बढ़ते वे लोग शाहनी से दिल छोटा न करने की इल्तजा करते हैं जिसमें उसकी बेबसी भी मिली है। यदि उनके बस में होता तो वे कुछ भी उठा न रखतें। लेकिन क्या करें- राज्य पलट गया है और सिक्का बदल गया है। रात में शाहनी कैंप में जमीन पर पड़ी आहत मन से सोचती है- राज्य पलट गया है सिक्का क्या बदलेगा? वह तो वहीं छोड़ आई।
कहानी के पात्र
शाहनी- कहानी की मुख्य पात्र है, जिसके इर्द-गिर्द कहानी घूमती है।
शाहजी- शाहनी के पति हैं जो दिवंगत हो चुके हैं।
शेरा- शाहनी का खास कारिंदा है। जो अपनी माँ जैना के मरने के बाद वह शाहनी के पास ही पलकर बड़ा हुआ।
हसैना- शेरे की पत्नी
दाऊद खां- थानेदार है। शाहनी ने इसकी मंगेतर को मुंह दिखाई में सोने के कनफूल दिये थे।
बेगू पटवारी, इस्माइल मसीत के मुल्ला, जैलदार, रसूली, नवाब बीबी आदि अन्य पात्र हैं।
कहानी के महत्वपूर्ण तथ्य
- यह प्रतीकात्मक कहानी है।
- हिन्दुस्तान और पाकिस्तान के विभाजन के दर्द का चित्रण
- विभाजन के समय लोगों के मन:स्थितियों में आये बदलाओं को दर्शाया गया है।
- यह कहानी टूटन, उथल-पुथल, निराशा और पीड़ा को व्यक्त करती है।
- यह मूल्यों के सिक्के बदल जाने और संबंधों को निरर्थक बना दिए जाने की कथा है।
- पलायन और विस्थापन का दर्द
- शाहनी को हुकूमत बदल जाने का दुःख नहीं है बल्कि मूल्यों के सिक्के बदल जाने और संबंधों को निरर्थक बना दिए जाने का दुःख है।
कहानी के प्रमुख कथन
शेरा- आज शाहनी क्या, कोई भी कुछ नहीं कर सकता। यह होके रहेगा क्यों न हो? हमारे ही भाई-बन्दों से सूद ले-लेकर शाहजी सोने की बोरियाँ तोला करते थे।
शेरा- ‘आंखिर शाहनी ने क्या बिगाड़ा है हमारा? शाहजी की बात शाहजी के साथ गयी, वह शाहनी को जरूर बचाएगा। लेकिन कल रात वाला मशवरा! वह कैसे मान गया था फिरोंज की बात!
नवाब बीबी- “शाहनी, आज तक कभी ऐसा न हुआ, न कभी सुना। गजब हो गया, अंधेर पड़ गया।”
बेगू- “शाहनी, रब्ब नू एही मंजूर सी।”
बेगू- ‘क्या गुंजर रही है शाहनी पर! मगर क्या हो सकता है! सिक्का बदल गया है…’
शाहनी- “दाऊद खां, इससे अच्छा वक्त देखने के लिए क्या मैं जिन्दा रहूंगी!”
इस्माइल- “शाहनी, कुछ कह जाओ। तुम्हारे मुंह से निकली असीस झूठ नहीं हो सकती!”
शाहनी- ‘राज पलट गया है…सिक्का क्या बदलेगा? वह तो मैं वहीं छोड़ आयी।…’
कहानी की समीक्षा
राजेंद्र यादव– “विभाजन का काल और अपना ठाठ-बाट सजाए शाहनी, सब कुछ संभालती और एकछत्र शासन करती हुई- दयालु, उदार और दबंग। लेकिन परिस्थिति की मजबूरी है कि उसे सब कुछ छोड़ना है। जीप में ‘बस, कुछ’ लेकर हिन्दुस्तान आना पड़ता है, मगर प्राण तो वहीं अटके हैं- मानो फिर से वहाँ लौटना हो। इस तकलीफदेह वास्तविकता को शाहनी स्वीकार नहीं कर पाती कि अब सिक्का बदल गया है। वह तो वहाँ के एक-एक तिनके में बिखरी और फैली है।”
“छूटते हुए घर, जमीन-जायदादें, खेत-खलिहान, संबंध-रिश्ते-सारा परिवेश जो अस्तित्व की साँस-साँस में रचा-बसा है। एक पूरी सामंती दुनिया, जहाँ औरत या तो केवल एक वस्तु है या वस्तुओं से ऐसी चिपकी है कि उन्हीं का एक हिस्सा हो गई है। लगता है पाशों और शाहनी जैसे कभी अपनी जमीन से उखड़ी ही नहीं, वे तो वहीं रहीं- सिर्फ उनकी आत्माएँ वहाँ से छूटकर भटकने- मैंडराने लगीं, वैसे जड़ से उलाड़ते ही वे अशरीरी हो गईं।”
“लगता ऐसा है जैसे शाहनी अपने परिवेश और जड़ों से टूटकर, शरीर छोड़कर निराकार, अनाक्रामक छायाओं के रूप में फिर से कहीं जीवन पाने के लिए व्याकुल हैं। लेकिन वह साँस लेती हैं अपनी सीमाओं में बंधे पुरुषों के हृदय की घड़कन बनकर। ये निहायत संस्कारी, संभ्रांत और शाइस्ता लोग उन्हें जीवन शरीर नहीं दे पाते…अनुभूतियों और स्मृतियों की झिझकती उँगलियों से सिर्फ एक दर्द की तरह उन्हें पकड़े रहने की कोशिश करते हैं।”
मधुरेश- ‘सिक्का बदल गया’ विभाजन की पृष्ठभूमि पर मानवीय सदाशयता को गहरी संवेदनशीलता से अंकित करती है।
फणीश सिंह- “सिक्का बदल गयाहै में शाहनी के लिए बँटवारे के कारण हुकूमत के बदल जाने से सिक्का के बदल जाने का कोई मतलब नहीं रह गया है। उसे मानवीय मूल्यों के सिक्के और संबंधों के बदल जाने का गहरा दुःख है।”
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महत्वपूर्ण प्रश्न
Ans. ‘सिक्का बदल गया’ कहानी की लेखिका कृष्णा सोबती हैं।
Ans. ‘सिक्का बदल गया’ कहानी का प्रकाशन वर्ष 1948 ई. है । यह कहानी अज्ञेय द्वारा संपादित ‘प्रतीक पत्रिका’ में प्रकाशित हुई थी।
Ans. कृष्णा सोबती की ‘सिक्का बदल गया’ भारत-पाक विभाजन के दर्द को बड़ी गहनता से उकेरने वाली कहानी है। इसमें विभाजन के फलस्वरूप उपजी मानसिक स्थितियों, रिश्तों में आये बदलाओं को चित्रित किया गया है।
Ans. सिक्का बदल गया कहानी में शेरा की पत्नी का नाम ‘हुसैना’ था।