साधारणीकरण सिद्धान्त | saadhaaraneekaran sidhant

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साधारणीकरण सिद्धान्त

साधारणीकरण की अवधारणा 

भट्ट नायक ने सर्वप्रथम ‘साधारणीकरण’ की अवधारणा प्रस्तुत की। इसीलिए उन्हें साधारणीकरण का प्रवर्तक माना जाता है। उनके अनुसार विभाव, अनुभाव और स्थायीभाव सभी का साधारणीकरण होता है। उनके अनुसार ‘साधारणीकरण’ विभावादि का होता है, जो भावकत्व का परिणाम है अर्थात भावकत्व ही ‘साधारणीकरण’ है। वहीं अभिनव गुप्त के अनुसार व्यंजना के विभावन व्यापार के द्वारा ‘साधारणीकरण’ होता है। उनके कथन का सार यह है कि, “साधारणीकरण द्वारा कवि निर्मित पात्र व्यक्ति-विशेष म रहकर सामान्य प्राणिमात्र बन जाते हैं, अर्थात वे किसी देश एवं काल की सीमा में बध्द न रहकर सार्वदेशिक एवं सार्वकालिक बन जाते हैं, और उनके इस स्थिति में उपस्थित हो जाने पर सहृदय भी अपने पूर्वग्रहों से विमुक्त हो जाता है।” पं. राज जगन्नाथ ने ‘दोष-दर्शन’ के आधार पर साधारणीकरण की प्रक्रिया का समाधान प्रस्तुत किया।

‘साधारणीकरण’ से संबंधित प्रमुख व्याख्याकार एवं उनके मत

आचार्यों ने साधारणीकरण को निम्न ढंग से प्रस्तुत किया है-

आचार्यसाधारणीकरण
भट्ट नायकविभावादि का साधारणीकरण होता है।
अभिनव गुप्तसहृदय का साधारणीकरण होता है।
विश्वनाथविभावादि का अपने पराये (आश्रय और सहृदय) की भावना से मुक्त होना साधारणीकरण है।
रामचन्द्र शुक्लआलम्बनत्व धर्म का साधारणीकरण होता है
श्याम सुंदर दाससहृदय के चित्त का साधारणीकरण होता है।
नगेन्द्रकवि की अनुभूति का साधारणीकरण होता है।
साधारणीकरण

आधुनिक काल में साधारणीकरण के संदर्भ में सर्वप्रथम चिंतन आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने किया। आधुनिक चिंतकों में श्यामसुन्दर दास, नगेन्द्र, नंददुलारे वाजपेयी तथा केशव प्रसाद मिश्र आदि ने भी साधारणीकरण की व्याख्या प्रस्तुत की है, जिनकी महत्वपूर्ण स्थापनाएं निम्न हैं-

  • रामचंद्र शुक्ल के अनुसार साधारणीकरण आलंबनत्व धर्म का होता है। वे सहृदय का आश्रय (आश्रयत्व) से तादात्म्य स्वीकार करते हैं और आलम्बन (आलंबनत्व) का साधारणीकरण।
  • श्यामसुंदर दास ने भावक या पाठक का साधारणीकरण माना है। उन्होंने साधारणीकरण की व्याख्या करने में ‘मधुमती’ भूमिका की परिकल्पना प्रस्तुत की। उनकी दृष्टि विषय की अपेक्षा विषयी की तरफ अधिक रही है।
  • नगेंद्र के मतानुसार साधारणीकरण कवि-भावना का होता है।
  • नगेंद्र के मतानुसार साधारणीकरण कवि की अनुभूति का होता है, न आश्रय (राम) और न ही आलम्बन (सीता) का। उन्हीं के शब्दों में, “जिसे हम आलम्बन कहते हैं वह वास्तव में कवि की अपनी अनुभूति का साधारणीकरण है।” उन्हीं के शब्दों में- “कवि वह होता है, जो अपनी अनुभूति का साधारणीकरण कर सके, दूसरे शब्दों में ‘जिसे लोक हृदय की पहचान हो।”
  • नंददुलारे वाजपेयी ने कवि तथा सहदय के बीच भावना के तादात्म्य को ही साधारणीकरण माना है।
  • केशव प्रसाद मिश्र ने सहृदय की चेतना का साधारणीकरण माना है।
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