मूल रस | सुखात्मक और दुखात्मक रस | विरोधी रस

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मूल, विरोधी, सुखात्मक और दुखात्मक रस

रसों की प्रधानता

भरत मुनि ने ‘नाट्यशास्त्र’ में सर्वप्रथम रसों की प्रधानता-अप्रधानता पर विचार किया। उनकी दृष्टि में 4 मुख्य रस और 4 व्युत्पन्न रस हैं। इन्हीं मूल रसों से ही व्युत्पन्न रस निकले हैं।

मूल रसव्युत्पन्न रस
श्रृंगार रसहास्य
रौद्रकरुण रस
वीरअद्भुत
वीभत्सभयानक

मूल रस के संदर्भ में आचार्यों की अलग-अलग राय है-

भवभूतिकरुण रस“एको रस: करुणा एव।”
भोजश्रृंगार रस“श्रृंगारमेव रसनाद् रसमामनाम:।”
नारायण पंडितअद्भुत रस“तच्चमत्कार-सारत्वे सर्वत्राप्यभूतो रसः।”
विश्वनाथअद्भुत रससर्वप्रथम विश्वनाथ के प्रपितामह नारायण पंडित ने अद्भुत रस को मूल रस माना था, विश्वनाथ ने उन्हीं का मत उधृत किया है।
रूप गोस्वामीमधुर रस
अभिनव गुप्तशान्त रस“स्वं स्वं निमित्तमासाद्य शांताद्वाव: प्रवर्तते।”
मधुसूदन सरस्वती एवं रूप गोस्वामीभक्ति रस
केशवदासश्रृंगार रससबको केसवदास कहिं नायक है सिंगार।
मूल रस के संदर्भ में आचार्यों के मत

भोज ने रस का मूल अहंकार को माना है, उनके अनुसार अहंकार ही विभाव तथा भावों के द्वारा आनंद के रूप में परिणत होकर रसत्व ग्रहण करता है और वह अहंकार अन्य कुछ नहीं श्रृंगार ही है। भोजराज ने रस, अंहकार, अभिमान और श्रृंगार को पर्यायवाची शब्द माना है।-“रसोअभिमानोअहंकार: श्रृंगार इति गीयते।”- सरस्वतीकंठाभरण

भरत- “संसार में जो भी पवित्र, विशुद्ध, उज्ज्वल और दशर्नीय है, उसकी उपमा श्रृंगार रस से दी जाती है।”

रुद्रट- “श्रृंगार रस जैसी रस्यता को अन्य कोई रस उत्पन्न नहीं कर सकता। इस रस में ही आबाल-वृद्धि सभी मानव ओतप्रोत हैं। इस रस के समावेश के बिना काव्य हीन कोटि का है। अंत: इसके निरूपण में कवि के लिए विशेष प्रयत्न अपेक्षित है।”

आनंदवर्द्धन- “श्रृंगार ही सर्वाधिक मधुर और परम आह्लादक रस है।”

अभिनवगुप्त- “श्रृंगार रस सर्वाधिक कमनीय है- यह तथ्य अनुभव-सिद्ध है, अंत: यह सर्वप्रधान है।”

हेमचंद, विद्याधर और रामचंद्र-गुणचंद्र आदि- “काम सब प्राणियों में सुलभ तत्व है तथा उन्हें अत्यन्त परिचित रहता है, अत: सबको मनोहर प्रतीत होता है।”

विश्वनाथ के अनुसार रस का स्थायीभाव शोक और प्रमुख तत्व इष्ट का नाश और अनिष्ट की प्राप्ति है- “इष्टनाशादनिष्टाप्ते: करुणाख्यो रसो भवेत्।”- साहित्यदर्पण

विश्वनाथ ने रस का मूल चमत्कार को मानकर अद्भुत रस का प्राधान्य माना है।

वैष्णव आचार्यों ने भक्ति रस को प्रधान रस माना है।

मधुसूदन सरस्वती और रूप गोस्वामी के अनुसार भक्ति-रस मधुरा भक्ति रस है, वास्तविक रस है, रसराज है, अन्य सभी रस उसी से निसृत हुए है।

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प्रमुख सुखात्मक और दुखात्मक रस

रामचंद्र-गुणचंद्र के अनुसार कुछ रस सुखात्मक होते हैं और कुछ दुखात्मक-

1. सुखात्मक रस- श्रृंगार, वीर, हास्य, अद्भुत, शांत

2. दुखात्मक रस- करुण, रौद्र, भयानक, वीभत्स

अभिनव गुप्त ने केवल शांत रस को सुखात्मक माना है।

कई आचार्य करुण, भयानक रसों को दु:खात्मक नहीं मानते बल्कि उन्हें भी सुखात्मक मानते हैं।

रसों की संख्या

रसों की संख्या पर आचार्यों में काफी मतभेद है, परंतु अधिकतर 9 रस मानते हैं-

भरत मुनि ने रसों की संख्या 8 मानी है।

दंडी ने भी 8 रसों का उल्लेख किया है।

उद्भट ने 9 रसों का उल्लेख किया है।

रुद्रट ने प्रेयान् रस की अभिवृद्धि करके रसों की संख्या 10 कर दी।

आनंदवर्धन ने 9 रस माना है।

धनंजय ने काव्य के लिए 9 रस स्वीकार करते हैं, परंतु नाटक में शांत रस की स्वीकृति नहीं की।

अभिनवगुप्त ने भी 9 रस माना है।

भोज ने नाटकों के नायकों के आधार पर 4 रसों की परिगणना की है-

1) धीरललित : प्रेयान् रस, 2) धीरप्रशांत : शांत रस, 3) धीरोदात्त : उदात्त रस, 4) धीरोद्वत : उद्वत रस

रामचंद्र-गुणचंद्र ने 9 रसों को माना है।

विश्वनाथ ने वत्सल रस को स्वीकार करके रसों की संख्या 10 माना है।

मित्र और विरोधी रस

मित्र और विरोधी रस के सम्बन्ध में सर्वप्रथम आनंदवर्धन ने विशद चर्चा की और बाद में उनके अनुकरण पर मम्मट ने।

परस्पर मित्र रस

मित्र रसों के एक-साथ वर्णन से कोई व्याघात नहीं होता, काव्यास्वाद-प्राप्ति में किसी प्रकार की वाधा नहीं पड़ती। प्रमुख परस्पर मित्र रस निम्न हैं-§  श्रृंगार और हास्य§  श्रृंगार और अद्भुत§  करुण और शांत§  करुण, भयानक और बीभत्स

परस्पर विरोधी रस

श्रृंगारकरुण, रौद्र, वीर, भयानक, वीभत्स, शांत
वीरशांत
हास्यकरुण, भयानक
करुणश्रृंगार, हास्य
रौद्रहास्य, भयानक
भयानकश्रृंगार, हास्य, रौद्र, वीर, शांत
शांतश्रृंगार, रौद्र, भयानक, हास्य
वीभत्सश्रृंगार
विरोधी रस
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