रस-सम्प्रदाय (ras siddhant)
यद्यपि भारतीय काव्यशास्त्र में रस सिद्धांत सबसे प्राचीन है परंतु इसे व्यापक प्रतिष्ठा बाद में मिली, यही वजह है की सबसे प्राचीन अलंकार सिद्धांत को माना जाने लगा। भरतमुनि (200 ई. पू.) को रस सम्प्रदाय का प्रवर्तक माना जाता है। उन्होंने ही रस का सबसे पहले निरूपण ‘नाट्यशास्त्र’ में किया, इसीलिए उन्हें रस निरूपण का प्रथम व्याख्याता एवं उनके ग्रंथ ‘नाट्यशास्त्र’ को रस निरूपण का प्रथम ग्रंथ माना जाता है। उन्होंने अपने ग्रंथ के छठे अध्याय में रस सूत्र तथा सातवें में विभाव, अनुभाव और संचारी भाव तथा स्थायीभाव की व्याख्या किया है।
भरतमुनि के रस सूत्र के अनुसार, “विभावानुभावव्यभिचारि संयोगाद्रसनिष्पत्तिः।” अथार्त विभाव, अनुभाव और व्यभिचारी भावों (स्थायीभाव) के संयोग से रस निष्पति होती है। ‘निष्पत्ति’ शब्द का प्रथम प्रयोग भरत मुनि ने रस सूत्र में किया। शंकुक के अनुसार भरतमुनि के रस-सूत्र में आये ‘संयोग’ शब्द का अर्थ अनुमान है।
भरतमुनि ने रस को आस्वाद प्रदान करने वाला तत्व मानते हैं- ‘आस्वाद्यत्वात्’। भरतमुनि के अनुसार, “जिस प्रकार नाना प्रकार के व्यंजनों, औषधिओं एवं द्रव्य प्रदार्थों के मिश्रण से भोज्य रस की निष्पत्ति होती हैं, उसी प्रकार नाना प्रकार के भावों के संयोग से स्थायी भाव भी नाट्य रस को प्राप्ति हो जाते हैं।”
भरतमुनि के रस विवेचन का सार
1. रस आस्वाद्य होता है, आस्वाद नहीं।
2. रस अनुभूति का विषय है, वह अपने में कोई अनुभूति नहीं है।
3. रस विषयगत होता है, विषयीगत नहीं। भरत विषयगत रूप में रस की व्यख्या भी करते हैं।
4. स्थाई भाव, विभावादि के संयोग से रस रूप में परिणत होता है।
5. रस का मूल आधार यही स्थायी भाव है जो रस तो नहीं है परंतु विभावादि के संयोग से रस के रूप में बदल जाता है।
6. नायक (अभिनेता) का स्थायी भाव ही रस के रूप में बदलता है।
अन्य आचार्यों द्वारा दी गई रस की परिभाषा
भरतमुनि | “विभावानुभावव्यभिचारि संयोगाद्रसनिष्पत्तिः।” |
दण्डी | “वाक्यस्य, ग्राम्यता योनिर्माधुर्ये दर्शतो रस:।” |
धनन्जय | “विभावैरनुभावैश्च सात्विकैर्घ्य भिचारिभिः।आनीयमानः स्वाद्यत्व स्थायी भावो रस: स्मृतः॥” |
अभिनवगुप्त | “सर्वथा रसनात्मक वीतविघ्न प्रतीतिग्राह्यो भाव एवं रसः।” |
मम्मट | “व्यक्तः स तैर्विभावाद्यौः स्थायी भावो रसः स्मृतः।” |
पं. राज जगन्नाथ | “अस्त्यत्रापि रस वै सः रस होवायं लब्ध्वानन्दी भवति।” |
विश्वनाथ | “वाक्य रसात्मक काव्यम्।” |
विश्वनाथ | “विभावेनानुभावेन व्यक्तः संचारिणी तथा।रसतामेति रत्यादिः स्थायी भावः सचेतसाम्।।” |
विश्वनाथ | सत्वोद्रेकादखण्डस्वप्रकाशानन्दचिन्मयः।वेद्यान्तर स्पर्शशून्यो ब्रह्मास्वाद सहोदरः।।लोकोत्तरचमत्कारप्राणः कैश्चित्प्रमातृभिः।स्वाकारवदभिन्नत्वेनायमास्वाद्यते रसः॥” |
वामन | “दीप्त रसत्वं कांति:।” |
भोजराज | “रसा:हि सुखदुःखरूपा।” |
क्षेमेन्द्र | “औचित्यं रससिद्धस्य स्थिरं काव्यस्य जीवितम्।” |
रामचंद्र-गुणचंद्र | “सुखदुःखात्मको रस: ।” |
प्रमुख रस, स्थायीभाव, वर्ण एवं देवता
‘नाट्यशास्त्र’ में भरतमुनि ने रसों की संख्या आठ मानी है- श्रृंगार, हास्य, करुण, रौद्र, वीर, भयानक, वीभत्स, अद्भुत। दण्डी ने भी आठ रसों का उल्लेख किया है।
भरतमुनि ने वीर रस के तीन भेद माना है- युद्धवीर, दानवीर एवं धर्मवीर
प्रतिष्ठापक | रस | स्थायी भाव | वर्ण (रंग) | देवता |
---|---|---|---|---|
भरतमुनि | श्रृंगार | रति | श्याम | कामदेव/विष्णु |
भरतमुनि | हास्य | हास | श्वेत | शिवगण/प्रमथ |
भरतमुनि | करुण | शोक | कपोत | यम |
भरतमुनि | रौद्र | क्रोध | लाल / रक्त | रूद्र |
भरतमुनि | वीर | उत्साह | गौर / हेम | महेंद्र |
भरतमुनि | भयानक | भय | कृष्ण | काल |
भरतमुनि | वीभत्स | जुगुप्सा | नील | महाकाल |
भरतमुनि | अद्भुत | विस्मय या आश्चर्य | पीत | गंधर्व/ ब्रम्हा |
उद्भट | शांत | निर्वेद | धवल | श्री नारायण |
विश्वनाथ | वात्सल्य | वत्सलता | पद्मगर्भ सदृश | लोक मातायें |
रूपगोस्वामी | भक्ति | ईश्वर विषयक रति | – | – |
रुद्रट | प्रेयान | स्नेह | – | – |
रति के 3 भेद हैं- दाम्पत्य रति, वात्सल्य रति और भक्ति सम्बन्धी रति, इन्ही से क्रमशः श्रृंगार, वात्सल्य और भक्ति रस का निष्पत्ति हुआ है।
मम्मट ने शांत रस का स्थायीभाव निर्वेद को मानकर रसों की संख्या 9 कर दी।
अभिनव गुप्त के अनुसार रसों को संख्या नौ है। इन्होंने शांत रस का स्थायीभाव तन्मयता या तन्मयवाद को माना है।
विश्वनाथ ने ‘रति या वत्सल’ को स्थायीभाव मानकर ‘वात्सल्य’ नामक 10वें रस का प्रतिपादन किया। इन्होंने ही सर्वप्रथम रस को काव्य की आत्मा घोषित किया और रस के स्वरूप पर सविस्तार रूप से प्रकाश डाला। विश्वनाथ के अनुसार, जब मन में तमोगुण और रजोगुण दब जाते हैं और सत्त्वगुण का उद्रेक और प्राबल्य होता है, तभी रस की अनुभूति होती है।
रूपगोस्वामी ने ‘देव विषयक’ रति को स्थायीभाव मानकर ‘भक्ति रस’ नामक 11वें रस का प्रतिपादन किया। उन्होंने पाँच प्रकार की भक्ति के आधार पर पाँच प्रकार के रसों की कल्पना की और उन्हें शांत, दास्य (प्रीति), सख्य (प्रेयस), वात्सल्य एवं माधुर्य कहा है।
भोज ने प्रेयस, शांत, उदात्त एवं उद्धत नामक चार नवीन रसों की उद्भावना (कल्पना) कर रसों की संख्या 12 कर दी, जिनके स्थायी भाव क्रमशः स्नेह, धृति, तत्त्वाभिनिवेशिनी मति एवं गर्व हैं। उन्होंने शांत रस के पूर्व स्वीकृत स्थायी भाव शम को धृति का ही एक रूप माना है। आचार्य भोज ने वाङमय को तीन भागों (वक्रोक्ति, रसोक्ति एवं स्वभावोक्ति) में विभक्त कर रसोक्ति को साहित्य का सर्वोत्कृष्ट रूप माना है।
‘नाट्य दर्पण’ ग्रंथ रामचंद्र-गुणचंद्र की सम्मिलित कृति है, जिसमें लौल्य, स्नेह, व्यसन, सुख तथा दुःख नामक नवीन रसों की कल्पना की गयी है तथा क्षुत, तृष्णा, मैत्री, मुदिता, श्रद्धा, दया, उपेक्षा, रति, संतोष, क्षमा, मार्दव, आर्जव और दाक्षिण्य नामक नवीन संचारियों का वर्णन किया गया।
भानुदत्त ने, जिनका 2 रसशास्त्रीय ग्रंथ- ‘रसमंजरी’ और ‘रस तरंगिनी’ है, ‘मायारस’ नामक एक नवीन रस, ‘जृम्भा’ नामक नवीन सात्विक भाव एवं ‘छल’ नामक नवीन संचारी का वर्णन किया है।
भरतमुनि के अनुसार नाटक का मुख्य ध्येय रस निष्पत्ति है। उन्होंने “सैद्राच्च करुणो रसः” कहकर करुण रस की उत्पत्ति रौद्र रस से मानी है।
अलंकारवादी आचार्यभामह ने रस को ‘अलंकार्य’ न मानकर ‘अलंकार’ माना है। उन्होंने विभाव को ही रस माना है।
अलंकारवादी आचार्यरुद्रट ने रस को अलंकार की दासता से मुक्त कर उसे स्वतंत्र अस्तित्व प्रदान किया। ये पहले आचार्य हुए जो रीतिओं और वृतिओं के रासनुकूल प्रयोग पर बाल दिया। इन्होने शांत रस का स्थायी भाव ‘सम्यक ज्ञान’ को माना है।
श्रृंगार रस को ‘रसराज’ कहा जाता है। इसके अंतर्गत रुद्रट ने नायक-नायिका भेद का निरूपण कर रस विवेचन को नई दिशा दिया। उन्होंने इसके दो भेद किए हैं-
1. संयोग (संभोग) श्रृंगार, 2. वियोग (विप्रलम्भ) श्रृंगार।
रस सिद्धांत के सम्बंध में अभिनव भरत ‘तन्मयतावाद’ के प्रतिष्ठापक हैं।
रस को ध्वनि के साथ युक्त करने का श्रेय आनंदवर्द्धन हैं। उन्होंने काव्य की आत्मा ध्वनि स्वीकार कर ध्वनि का प्राण रस (रसध्वनि) को माना। उन्होंने श्रृंगार और शांत रसो को प्रमुखता दी। इन्होने ‘महाभारत’ में शांत रस को ही मुख्य रस माना है।
रुद्रभट्ट ने वृत्तियों को ‘रसावस्थानसूचक’ कहा है।
850 ई० से 1050 ई० के काल को रस-विवेचन का स्वर्णिम युग माना जाता है।
रस सूत्र के व्यख्याता आचार्य, उनके सिद्धान्त और दार्शनिक मत
रस के चार प्रमुख व्याख्याकार हैं- भट्ट लोल्लट, भट्ट शंकुक, भट्ट नायक और अभिनवगुप्त, जिन्होंने रस सिद्धान्त पर व्यापक रूप से अपना मत रखा है। भरत के सूत्र का सर्वप्रथम व्यख्याता भट्ट लोल्लट हैं।
आचार्य | दर्शन | संयोग / सम्बन्ध | निष्पत्ति | सिद्धान्त | रस की अवस्थिति |
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भट्ट लोल्लट | मीमांसा | उत्पाद्य-उत्पादक | उत्पत्ति | उत्पत्तिवाद(आरोपवाद) | अनुकार्य (राम) में |
भट्ट शंकुक | न्याय | अनुमाप्य-अनुमापक | अनुमिति | अनुमितिवाद | अनुकर्ता (नट) में |
भट्ट नायक | सांख्य | भोज्य-भोजक | भुक्ति | भुक्ति (भोगवाद) | प्रेक्षक (दर्शक) में |
अभिनवगुप्त | शैव | व्यंग्य-व्यंजक | अभिव्यक्ति | अभिव्यक्ति वाद | सामाजिक (सहृदय) में |
भटलोल्लट ने रस का भोक्ता वास्तविक रामादि एवं नट को माना है, रस की स्थिति मूल पात्रों में को माना है।
शंकुक ने रस-विवेचन में ‘चित्र तुरंग न्याय’ की संकल्पना की, इससे सामाजिक नट में रस की अवस्थिति मान कर रस का अनुमान करते हैं।
भट्टनायक ने सर्वप्रथम रस को ब्रह्मानन्द सहोदर माना।
भट्टनायक ने सर्वप्रथम दर्शक (सामाजिक) की महत्ता को स्वीकार किया
भट्टनायक ने काव्य की तीन क्रियाएँ (व्यापार, शक्तियाँ) माना हैं-
1. अभिधा- काव्यार्थ की प्रतीति, 2. भावकत्व- साधारणीकरण, 3. भोजकत्व- रस का भोग
अभिनवगुप्त ने रस की सर्वांगीण वैज्ञानिक व्याख्या किया। उनके अनुसार स्थायी भाव सहदय या सामाजिक के हृदय में वासनारूप से (संस्कार के रूप में) पहले से ही (अव्यक्त रूप में) विद्यमान रहते है।
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