रस का स्वरूप और प्रमुख अंग | ras ka swaroop

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रस का स्वरूप और प्रमुख अंग

रस का स्वरूप (भारतीय दृष्टि)

आचार्य विश्वनाथ के अनुसार रस का स्वरूप (ras ka Swaroop) निम्नलिखित है-

1. रस अखंड है।

2. रस स्वप्रकाश है।

3. रस आनंदमय है।

4. रस चिन्मय है।

5. रस ब्रह्मास्वादसहोदर है।§  रस लोकोत्तरचमत्कारप्राण है।

6. रस बेदांतरसस्पर्शशून्य है।

7. रस अपने आकार से अभिन्न रूप में अस्वादित किया जाता है।

रस का स्वरूप (पाश्चात्य दृष्टि)

1. काव्यानंद ऐन्द्रीय है।
2. काव्यानंद अध्यात्मिक है।
3. काव्यानंद कल्पना-विषयक आनंद है।
4. काव्यानंद सहजानुभूति आनंद है।
5. काव्यानंद अनिर्वचनीय एवं विलक्षण आनंद है।

रस के अंग

रस के 4 अंग हैं- 1. विभाव, 2. अनुभाव, 3. संचारी भाव और  4. स्थायी भाव

1. विभाव- के 2 भेद हैं-

i- आलम्बन, ii- उद्दीपन

2. अनुभाव- के 4 भेद हैं-

i- कायिक (आंगिक), ii- सात्विक (मानसिक), iii- वाचिक, iv- आहार्या

भरत मुनि ने अनुभाव के तीन भेद किया है- आंगिक, सात्त्विक, वाचिक

भानुदत्त के अनुसार अनुभाव चार प्रकार के हैं –  कायिक, मानसिक, आहार्य एवं सात्त्विक

ii- सात्विक अनुभाव के 8 भेद हैं- 

क. स्तंभ, ख. स्वेद, ग. रोमांच, घ. स्वरभंग, ङ. कम्प, च. वैवर्ण्य, छ. अश्रु, ज. प्रलय

3. संचारी भाव के 33 भेद हैं-

1. निर्वेद, 2. ग्लानि, 3. शंका, 4. असूया, 5. मद, 6. श्रम, 7. आलस्य, 8. दैन्य, 9. चिन्ता, 10. मोह, 11. स्मृति, 12. धृति, 13. ब्रीड़ा (लज्जा), 14. चपलता, 15. हर्ष, 16. आवेग, 17. जड़ता, 18. गर्व, 19. विषाद, 20. औत्सुक्य, 21. निद्रा, 22. अपस्मार, 23. स्वप्न, 24. विवोध, 25. अवमर्ष, 26. अवहित्था, 27. उग्रता, 28. मति, 29. व्याधि, 30. उन्माद, 31. मरण, 32. त्रास, 33. वितर्क

4. स्थायी भाव- के 9 भेद हैं-

क. रति, ख. हास्, ग. शोक, घ. क्रोध, ङ. उत्साह, च. भय, छ. जुगुप्सा, ज. निर्वेद, झ. विस्मय

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रस के प्रमुख अंगों की परिभाषा

भाव- 

भरतमुनि के अनुसार, “वागङ्गसत्वोपेतान्काव्यार्थान्भावयन्तीति भावा इति।।” अथार्त जो वाणी, अग तथा सत्त्व से युक्त काव्याथों को आस्वादन के योग्य बनाये, उन्हें भाव कहते हैं। भरतमुनि ने भावों की संख्या 49 माना है, जिसमें 33 संचारी भाव, 8 स्थायी भाव एवं 8 सात्विक भाव हैं। आचार्य भोज ने इस मत की स्थापना की रस से ही भावों की उत्पत्ति होती है।

विभाव- 

जिस विषय के द्वारा भाव मन में जागते और विकसित होते हैं, वह विभाव कहलाता है। ‘सामाजिक के हृदय में स्थित स्थायी भावों को आस्वादन के योग्य बनाने वाले कारणों को विभाव कहते हैं।’ विभाव 2 प्रकार के होते हैं- आलम्बन एवं उद्दीपन विभाव

आलम्बन विभाव- 

जिसके कारण किसी व्यक्ति के हृदय में स्थायी भाव जाग्रत होता है, उसे आलम्बन विभाव कहते हैं। जैसे शकुंतला को देखकर दुष्यंत के हृदय में रति नामक स्थायी भाव जाग्रत हुआ तो यहाँ पर दुष्यंत आश्रय है, शकुंतला आलम्बन है।आलम्बन विभाव के दो भेद हैं- आलम्बन और आश्रय।

उद्दीपन विभाव- 

जो विभाव आलम्बन विभाव में सहायक की भूमिका निभाते हैं, उन्हें उद्दीपन विभाव कहलाते हैं। उद्दीपन विभाव में वाह्य वातावरण और आलम्बन की चेष्टाएं ही प्रमुख तत्व हैं। जैसे- आलम्बन विभाव में शकुंतला की चेष्टाएं तो दुष्यंत के हृदय में रति भाव जाग्रत करेंगी परंतु उपवन, एकांत, चांदनी रात और नदी का किनारा आदि वाह्य वातावरण, उद्दीपन भाव को जागृत करेगा।

अनुभाव- 

“रत्यादि स्थायिभावों को प्रकाशित करने वाली आश्रय की बाह्य चेष्टाएँ अनुभाव कहलाती हैं।” जिन कार्यों से भाव का अनुभव होता है, अनुभाव कहलाता है। ‘आलम्बन’ की चेष्टाएं उद्दीपन विभाव के अंतर्गत आती, जबकि ‘आश्रय’ की चेष्टाएं अनुभाव के अंतर्गत मानी जाती हैं। दरअसल अनुभाव, भावों के पश्चात उत्पन्न होता है और भाव का बोध कराता है-

“अनुभावो भाव बोधक:” , जैसे- विरह व्याकुल नायक द्वारा सिसकियाँ भरना, अपने बाल नोचना आदि।
जैसे की उपर बताया जा चुका की अनुभाव के 4 भेद होते हैं-

i- कायिक (आंगिक)- शरीर की चेष्टाओं द्वारा प्रगट होते हैं।

ii- सात्विक (मानसिक)- जिन चेष्टाओं पर हमारा वश नहीं होता, वे सात्विक अनुभाव के अंतर्गत आती हैं।

iii- वाचिक- वाणी द्वारा प्रगट होते हैं।

iv- आहार्या- वेश-भूषा द्वारा प्रगट होते हैं।

संचारीभाव (व्यभिचारी भाव)- 

जो भाव स्थायीभाव की पुष्टि के लिए तत्पर रहते हैं, वे भाव संचारी कहलाते हैं। दूसरी बात यह की ये सभी रसों में संचरण करते हैं। भरतमुनि ने संचारी भाव को ‘व्यभिचार भाव’ कहा है। जैसे की उपर बताया जा चुका की संचारी भावों की संख्या 33 होती हैं।

स्थायी भाव-  

“सहृदय के अंत:करण में जो मनोंविकर वासना के रूप में सदा विद्यमान रहते हैं तथा जिन्हें अन्य कोई भी अविरुद्ध अथवा विरुद्ध भाव दबा नहीं सकता, उन्हें स्थायी भाव कहते हैं।” उपर आपने देखा स्थायी भावों की संख्या 09 होती है।

आश्रय- 

जिसके हृदय में रति आदि स्थायी भाव जागते हैं, आश्रय कहलाता है। 

रसाभास- 

जब अनुचित और असंगत रूप से रस का प्रयोग किया जाता है, तो उसे रसाभास कहते हैं। जैसे- नायक नायिका के एक पक्षीय प्रेम दिखाना।

भावाभास- 

जब भावों का अनौचित्य-रूप में वर्णन हो या उनका अनुचित प्रवर्तन हो, तो उसे भावाभास कहते हैं।

भावशांति- 

जब एक भाव, किसी दूसरे विरुद्ध भाव के उदित हो जाने पर शांत हो जाय और उसकी समाप्ति भी चमत्कारी प्रतीत हो तो वहाँ भावशांति होता है।

भावोदय- 

एक भाव की शांति होने पर जब अन्य भाव के उदय होने में चमत्कार दिखाई पड़े तो उसे भावोदय कहते हैं।

भाव शबलता- 

एक के बाद अन्य अनेक भावों का जब एक साथ उदय होता है तो उसे भाव शबलता कहते हैं।

भावक- 

भारतोय काव्यशास्त्र में भावक से अभिप्राय सहदय या आलोचक से है।

आचार्य भोज ने स्थायी तथा व्यभिचारी भावों के पारस्परिक भेद को अमान्य सिद्ध कर यह घोषित किया कि सामान्यत: सभी भाव स्थायी या व्यभिचारी हो सकते हैं।

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