प्लेटो का काव्य सिद्धान्त
साहित्यशास्त्र के अंतर्गत प्लेटो का परिचय, प्रमुख ग्रंथ, प्लेटो का काव्य दर्शन, प्लेटो का अनुकरण सिद्धान्त, कला के संदर्भ में प्लेटो का मत आदि पर विस्तार से विचार किया गया है। पाश्चात्य काव्यशास्त्र की व्यवस्थित परम्परा की शुरुआत ही प्लेटो से होती है, इसलिए प्लेटो का काव्य सिद्धान्त काफी महत्वपूर्ण हैं।
प्लेटो का परिचय
प्लेटो का जन्म 428 ई. पू. में हुआ था, परंतु जन्म स्थान एथेंस या एजीना को लेकर मतभेद है। इसका मूल नाम अरिस्तोक्लीस और अरबी-फारसी में अफलातून नाम प्रसिद्ध है। प्लेटो सुकरात के शिष्य थे, उनके विचारों और तर्क-पद्धति से गहरे प्रभावित भी। 20 वर्ष की अवस्था में सुकरात के अकादमी में आकर 8 वर्ष तक शिक्षा ग्रहण की।
प्लेटो ने 387 ई. पू. (एथेंस) में एक अकादमी स्थापित किया था, गुरुकुल की तरह जिसमें अपने चेलों को पढ़ाता था। एक तरह से यह बौद्धिक केंद्र था। जो राजा बनने के काबिल होते थे वे वहाँ जाते थे। इस अकादमी का उद्देश्य दार्शनिक और वैज्ञानिक अनुसंधान का विकास और बढ़ावा देना था। यहाँ सभी विषयों की शिक्षा दी जाती थी परंतु गणित एवं ज्यामिति को प्रमुखता प्राप्त थी। अकादमी के प्रवेश द्वार पर ही लिखा था कि ‘ज्यामिति से अनभिज्ञ कोई व्यक्ति यहाँ प्रवेश न करे। प्लेटो ने यहीं पर अपने सुप्रसिद्ध संवाद (Apologia) और आलेख (Epistles) लिखा। अपने जीवन के अंतिम 40 वर्षों तक यहीं पर अध्ययन-अध्यापन करते रहे। 347 ई. पू. में उनकी मृत्यु हुई।
प्लेटो आत्मवादी या प्रत्ययवादी दार्शनिक था, प्रत्यय जगत को ही वह यथार्थ मानता था। इसके दर्शन के प्रमुख विषय निम्नलिखित हैं-
- प्रत्यय सिद्वान्त
- आदर्श राज्य
- आत्मा की अमरत्व सिद्धि
- सृष्टि शास्त्र
- ज्ञान मीमांसा
प्लेटो के प्रमुख ग्रंथ
रिपब्लिक (पोलिटिया, गणतंत्र), दि स्टेट्समेंट, दि लॉज (नोमोइ), सिम्पोजियम और इयोन आदि प्लेटो के प्रमुख ग्रंथ हैं। प्लेटो के कुल 36 ग्रंथ का जिक्र मिलता है जिनमें 23 संवाद और 13 आलेख पत्र हैं। रिपब्लिक ग्रंथ राजनितिक चिंतन और आदर्श राज्य का एक महत्वपूर्ण दस्तावेज है। यह कविता और नाटकीय शैली में लिखी गई है। प्लेटो ने रिपब्लिक में लिखा है कि, ‘दासता मृत्यु से भी भयावह है।’
प्लेटो ने काव्यशास्त्र पर कोई अलग से ग्रंथ नहीं लिखा है, राज्यशास्त्र पर विचार करते हुए ही उन्होंने प्राय: कवि, कलाकार और उनकी कलाओं पर अपने विचार प्रगट किया है। कलाओं के संबंध में उनके विचार ‘इयोन’ और ‘दि रिपब्लिक’ ग्रंथ में मिलते हैं। इयोन नामक संवाद में काव्य सृजन प्रक्रिया या काव्य हेतु की चर्चा की है, जिसमें ईश्वरीय उन्माद (दैवीय प्रेरणा) को काव्य हेतु माना है। यह ग्रंथ मूलतः नाट्यशास्त्र से संबंधित है। प्लेटो का काव्य सिद्धान्त सबंधी मत इन्हीं ग्रंथों बिखरा हुआ है।
भारतीय दर्शन और प्लेटो
प्लेटो कहते हैं कि कवियों और लेखकों को मेरे रिपब्लिक में जगह नहीं है क्योंकि ये यथार्थ से तेहरे दूरी पर हैं। इसने कहा कि अपने राज्य से सभी कवियों को निकाल दिया जाए, ये जनता को गुमराह करते हैं। प्लेटो कहता है कि मनुष्य का काम क्या है? सत्य को जानना या प्रभावित होना? जाहिर है सच्चाई को जानना। प्लेटो के सम्पूर्ण चिंतन का मुख्य उद्देश्य आदर्श राज्य का निर्माण था।
कई लोगों ने कहा कि हिंदू दर्शन का प्रभाव है, फिर कुछ लोगों ने कहा है कि ये यहाँ प्रक्षिप्त है। सत्यम, शिवम, सुंदरम की अवधारणा केवल प्लेटो में पाई जाती है। प्लेटो कहता है कि लेखक या कवि यथार्थ और कला में भ्रम पैदा करता है। इसलिए वह यह बात कही।
प्लेटो एक संवाद की विधा का विकास किया। जिस प्रकार महाकाव्य, गद्यकाव्य विधा थी उसी तरह इसका विकास उसने किया। प्लेटो जिस तरह डायलॉग्स को रखा है उसमें वह सीधे नहीं आता, उसमें व्यक्ति आता है।
जो विद्वान् प्लेटों को भारतीय दर्शन से प्रभावित मानते हैं, वे कहते हैं कि भारतीय दर्शन के उपनिषद में भी डॉयलॉग्स है और वहाँ से प्लेटो प्रभावित है। जो विरोधी हैं, वे कहते हैं कि दोनों की डायलॉग्स में अंतर है। प्लेटो डायलॉग्स में खुद नहीं है केवल दिखा रहा है कि कुछ लोगों का मानना है।
कुछ लोग कहते हैं क्या इतने बड़े संवाद दूसरे के मुंह से कहलवाया जा सकता है? प्लेटो अपना संवाद दूसरे चरित्रों के माध्यम से कहलाता है, जो व्यवहारिक में संभव नहीं है कि इतने बड़े-बड़े संवाद दूसरे कहें।
कला और संगीत के संदर्भ में प्लेटो का मत
प्लेटो ने यूनानी शब्द ‘मिमेसिस’ (Mimesis) अर्थात ‘अनुकरण’ का प्रयोग अपकर्षी (Derogatory) के अर्थ में किया है, उसके अनुसार अनुकरण में मिथ्यात्व रहता है, जो हेय है। कला की अनुकरण मूलकता की उद्भावना का श्रेय प्लेटो को दिया जाता है। वास्तव में, प्लेटो नें अनुकरण में मिथ्यात्व का आरोप लगाकर कलागत सृजनशीलता की अवहेलना की, कला की अनुकरण मूलकता सिद्धान्त का यह प्रमुख दोष है। कला के मूल्य के संदर्भ में प्लेटो का दृष्टिकोण उपयोगितावादी और नैतिकतावादी था।
वह संगीत, चित्रकला और साहित्य तीनों पर विचार करता है। कहता है कि जब आप संगीत सुनते हैं तब क्या होता है? जब आप होमर को पढ़ते हैं तो क्या होता है? ग्रीक ट्रेजडी देखते हैं तो ग्रीक युद्ध के बारे में पता चलता है। प्लेटो संगीत को बढ़ा महत्व देते हैं। उनके अनुसार संगीत मानसिक शक्ति प्रदान करता है। उसने संगीत के संदर्भ में लिखा है, ‘परंतु मनोरंजन का अर्थ हर किसी का मनोरंजन नहीं, सर्वोत्कृष्ट संगीत वह है जो सर्वोच्च शिक्षित व्यक्तियों को प्रशन्नता प्रदान करे और विशेषत: उस एक व्यक्ति को जो शिक्षा तथा गुणों में सर्वप्रमुख है।’ ठीक यही राय वह काव्य या साहित्य के बारे में भी रखता था।
प्लेटो कहता है कि कलाएं एक हैं, इसका विभाजन बकवास है कि एक गंभीर साहित्य कला है और दूसरा अगम्भीर। प्लेटो का विचार था कि अच्छाई और बुराई का संबंध अच्छे चरित्रों और उनके उचित कार्यों से होता है। अच्छी रचना वह है जिसमें सच्चाई के साथ चरित्र का वर्णन होता है। सुकरात का भी यही राय है- कला का काम ‘सत्य का साक्षात्कार’ होना चाहिए। “ऐसा जीवन जिसका परीक्षण न किया जा सके वह जीने योग्य नहीं है।”
प्लेटो के लिए प्रविधि का होना जरूरी है, उसे वह ज्यादा महत्व देता है। प्लेटो ने काव्य को कला का ही रूप माना है। उसके अनुसार वस्तु संबंधी 3 कलायें होती हैं- एक वस्तु का उपयोग करने की कला, दूसरी उसके आविष्कार या निर्माण की कला और तीसरी उसके अनुकरण की कला। अनुकृत कला सत्य से तिगुनी दूरी पर होती है, वास्तविक सत्य निर्माता की कल्पना में होता है, वस्तु निर्मित होने के बाद सत्य से दुगनी दूरी पर हो जाती है।
प्लेटो कविता और कला में वस्तु के साथ-साथ उसके रूप (फॉर्म) को भी महत्वपूर्ण मानता है। देरिदा कहता कहता है कि, जहाँ से यथार्थ पहली बार दिग्भ्रमित हुआ था वहाँ से मैं पकड़ना चाहता हूँ। यही बात प्लेटो भी कहना चाहता है।
काव्य-सृजन का दैवीय प्रेरणा सिद्धान्त
प्लेटो का काव्य सिद्धान्त का प्रमुख भाग दैवी प्रेरणा या ईश्वरीय उन्माद भी है। प्लेटो पूर्व युग में काव्य-रचना की प्रेरणा ईश्वरी माना जाता था। कवि सामान्य मनुष्यों से अलग कुछ विशिष्ट दैवी शक्ति संपन्न होता है। होमर जैसे महाकवि को यह दैवी प्रेरणा प्राप्त थी। प्लेटो पूर्व काल की यह मान्यता प्लेटो और अरस्तु दोनों के द्वारा स्वीकार की गई थी। प्लेटो के अनुसार महत्वपूर्ण घटनाओं के पीछे दैवी प्रेरणा काम करती है। कवि और कलाकार इसी दैवी प्रेरणा से वशीभूत होकर काव्य-रचना और कला का सृष्टि करता है।
प्लेटो के अनुसार काव्य रचना के पीछे कलात्मक प्रेरणा न होकर दैवी प्रेरणा (ईश्वरीय उन्माद) होती है। उसके लिए कवि संप्रेषण का माध्यम भर है, क्योंकि वह दैवी शक्तियों से अभिभूत मन: स्थिति में वह उन्हीं की वाणी का उच्चारण करता है। ईश्वर इन कवियों का उपयोग सिद्ध पुरुषों या धार्मिक उपदेशकों की तरह कर्ता है, जैसे वे उसके दूत हों। इस तरह वह काव्य को मानव-कृति की जगह ईश्वरीय कृतित्व मानता है। प्लेटो का काव्य दर्शन में दैवी प्रेरणा का सिद्धान्त काफी लोकप्रिय रहा, इसकी सबसे बड़ी सीमा यह थी की उसने कवियों के महत्व को नकार दिया हो।
प्लेटो का अनुकरण सिद्धान्त
प्लेटो का काव्य सिद्धान्त का सबसे महत्वपूर्ण उसका अनुकरण का सिद्धान्त है। प्लेटो के लिए अनुकरण वह प्रक्रिया है जो वस्तुओं को उनके यथार्थ रूप में नहीं अपितु आदर्श रूप में प्रस्तुत करती है। उसके अनुसार वस्तु के 3 रूप होते हैं- आदर्श, वास्तविक और अनुकृति। वह अनुकरण के दो पक्ष मानता है- पहला वह तत्व जिसका अनुकरण किया जाता है और दूसरा अनुकरण का स्वरूप। यदि अनुकरण का तत्त्व मंगलकारी है तो उसे पूर्ण एवं उत्तम मानता है परंतु यदि अमंगलकारी है तो अपूर्ण एवं अधूरा मानता है।
एक दार्शनिक के रूप में प्लेटो आदर्शवादी था। चूँकि कलाकार किसी ना किसी वस्तु का चित्रण करता है, इसलिए उसके द्वारा चित्रित वस्तु गोचर वस्तु का अनुकरण है। प्लेटो के अनुसार कवि या कलाकार जिसका चित्रण करता है, उसे उसका वास्तविक पूर्ण ज्ञान हो, यह जरूरी नहीं है। जैसे जब वह योद्धाओं, शस्त्रास्त्रों, डाक्टर, योगी और साधु पुरुषों का चित्रण अपनी रचना में करता है, वह उन विद्याओं और गुणों को धारण करता हो या परांगत हो, जरूरी नहीं है। वे वास्तविक ज्ञान नहीं रखते अपितु उनसे प्रभावित होते हैं। इसलिए उसका चित्रण काल्पनिक और वाह्यारूपात्मक है।
यदि उन्हें वास्तविक ज्ञान होता तथा उनके कार्यों को वह स्वंय कर सकता तो कवि उसका वाह्य चित्रण नहीं करता अपितु उन कर्मों को स्वयं करता और उन गुणों को प्रदर्शित करता, वह महान कवि की जगह महान व्यक्ति बनता।
प्लेटो के प्रत्यय सिद्धांत के अनुसार, ‘प्रत्यय या विचार (idia) ही चरम सत्य है, वह शाश्वत और अखंड है तथा ईश्वर उसका सर्जक (Creator) है। इसके अनुसार यह वस्तु जगत प्रत्यय जगत का अनुकरण है तथा कला जगत वस्तु जगत का, इस प्रकार कला जगत अनुकरण का अनुकरण है।
प्लेटो द्वारा प्रस्तुत पलंग का उदाहरण प्रसिद्ध है, जिसे उसने अनुकरण सिद्धान्त को स्पष्ट करने के लिए दिया। उसके अनुसार ईश्वर ने मात्र एक पलंग का आदर्श रूप (आइडिया) बनाया। जिसका आदर्श रूप एक से अधिक नहीं हो सकता। ईश्वर द्वारा बनाया गया यह आदर्श रूप सत्य है। बढ़ई जब कोई विशिष्ट पलंग बनाता है, तब वह ईश्वर द्वारा आदर्श रूप में निर्मित पलंग का अनुकरण करता है। उसके बाद चित्रकार जब बढ़ई द्वारा निर्मित पलंग को देखकर उसका चित्र अंकित करता है, तब वह बढ़ई के पलंग का अंकुरण करता है। इस प्रकार चित्रकार द्वारा चित्रित पलंग अनुकरण का अनुकरण है। यही स्थित कवि की है। अत: कवि तथा कलाकार की रचना सत्य से तिगुनी दूरी पर है। इसलिए उसका महत्त्व दार्शनिक सत्य से कम है।
प्लेटो का अनुकरण सिद्धान्त के अनुसार अनुकृति एक नाटक या क्रीड़ा है। नाटक में अभिनेता वास्तविक चरित्र का अनुकरण नहीं करता, क्योंकि उसने उसे कभी देखा ही नहीं। वह तो नाटककार के कल्पना से निर्मित चरित्र का अनुकरण करता है, जिसे नाटककार स्वंय कभी नहीं देखा। इस प्रकार अनुकरणात्मक कलायें, सत्य और वास्तविकता से परे होती हैं, उनका गंभीर महत्व नहीं है।
प्लेटो के अनुकरण सिद्धांत का सार निम्नलिखित है-
- ईश्वर द्वारा रचित प्रत्यय-जगत ही सत्य है।
- वस्तु जगत प्रत्यय जगत की अनुकृति या छाया होने के कारण मिथ्या या असत्य है।
- कला जगत वस्तु जगत की छाया या अनुकृति होने के कारण और भी मिथ्या है क्योंकि वह अनुकृति की अनुकृति है।
इसीलिए प्लेटो कहता है कि आदर्श गणतंत्र में कवियों का कोई स्थान नहीं है, उसमें दार्शनिकों और विचारकों को स्थान मिलना चाहिए, गणितज्ञों को सम्मान मिलना चाहिए और संगीतज्ञों का आदर होना चाहिए, जबकि प्लेटो स्वयं भी एक कवि था। प्लेटो का काव्य दर्शन का प्रमुख अंग उसका अनुकरण सिद्धान्त ही है।
प्लेटो के काव्य संबंधी मत
प्लेटो के अनुसार काव्य का प्रभाव अशुभ होता है। काव्य वासनाओं को जागृत करके पाठकों और श्रोताओं के विवेक को कुंठित कर देता है। यही नहीं उसमें देवताओं का जो चित्रण किया जाता है, वह असत्य और अनुचित होता है। होमर के महाकाव्यों में (इलियड और ओडिसी) में देवताओं को क्रूर, लोभी, ईष्यालु और प्रतिरोधी भी दिखाया गया है। इसी प्रकार वीरों का चरित्र भी उदात्त और प्रेरक न चित्रित करके दुर्बल और दोषपूर्ण चित्रित है। ऐसे में महाकाव्यों की उपादेयता क्या हो सकती है?
प्लेटो के अनुसार कविता शोक, दुःख, क्रोध की वासनाओं को उभारती एवं उत्तेजित करती है, न की उसका शमन। वह मधुर शब्दावली और लयात्मक भाषा के माध्यम से मनुष्यों को उद्दंड, असंयत, कामी, क्रोधी और झगड़ालू बनाती है, जो सभी राज्य व्यवस्था के लिए हानिकारक है। उसके अनुसार कवि का वर्णन सत्य की जगह काल्पनिक, अतिरंजित, भावुक और अज्ञानजन्य होता है जो समाज को गलत दिशा में ले जाता है।
प्लेटो उन कविताओं को महत्व देता है जो आनंद प्रदान करने के साथ-साथ लोगों में संयम, सद्भाव, नैतिकता और सदाचार का संचार करें। कहने का तात्पर्य कविता का उद्देश्य लोगों की आत्मा में संयम और न्यायप्रियता, कर्त्तव्य-निष्ठा एवं सद्भावना के संस्कार डालना तथा अन्याय, असंयम, दुराचार और अपराध की प्रवृत्तियों को दूर करने वाला होना चाहिए।
प्लेटो ने काव्य का विरोध चार दृष्टियों से किया है-
- नैतिक- चूँकि काव्य अनुकरण का अनुकरण है इसलिए इसका आधार असत्य पर आधारित है। प्लेटो मानते हैं कि काव्य में नैतिक बोध धारण करने की क्षमता नहीं होती।
- भावात्मक- चूँकि काव्य में चित्रित पात्र अवास्तविक होते हैं, परंतु पाठक उन्हें वास्तविक मानकर उनके जैसे आचरण करने लगते हैं। जैसे- स्त्री पात्र करने वाला व्यवहारिक जीवन में भी स्त्रैण हो जाता है।
- बौद्धिकता- प्लेटो के अनुसार कवियों को सत्य का बोध नहीं होता है। उनके काव्य में मूर्त्त जगत का कोई बौद्धिक या तार्किक आधार नहीं होता है।
- शुद्ध उपयोगितावादी- काव्य का समाज और नागरिकों के चरित्र निर्माण में कोई प्रत्यक्ष भूमिका नहीं होती, इसलिए वह अनुपयोगी है।
प्लेटो ने काव्य के तीन प्रमुख भेद स्वीकार किया है-
- अनुकरणात्मक- प्रहसन और दु:खांतक (नाटक)
- वर्णात्मक- डिथिरैंब (प्रगीत)
- मिश्र- महाकाव्य
वह प्रगीत के तीन अंग मानता है- शब्द, माधुर्य तथा लय
त्रासदी के संबंध में प्लेटो के विचार
‘प्लेटो को केवल बौद्धिक आनंद स्वीकार था, ऐन्द्रिय आनंद नहीं। अंत: काव्यजन्य आनंद जिसका संबंध एंद्रियों से है, उसे मान्य न था।’ त्रासदी के संबंध में प्लेटो का मत था कि, ‘ट्रैजेडी का कवि हमारे विवेक को नष्ट कर हमारी वासनाओं को जागृत करता है, उसका पोषण करता है और उन्हें पुष्ट करता है।’ वह साहित्य में आनंद को प्रमुख तत्व नहीं मानता था, उसके लिए बुद्धि का आनंद ही एकमात्र ग्राह्य आनंद था जिसमें ऐन्द्रियता का कालुष्य न हो।
दुःखांत नाटकों में कलह, हत्या, विलाप आदि तथा नाटकों में विद्रुपता, अभद्रता, मसखरापन आदि देखने-सुनने में दृष्टा-श्रोता के मन में निष्कृष्ट भाव उत्पन्न होता है। कोई व्यक्ति दुःखांतक और सुखांतक दोनों में अभिनय और सफलता प्राप्त करे, यह संभव नहीं; क्योंकि दोनों में सर्वथा भिन्न प्रकार के अभिनय अपेक्षित हैं। किसी व्यक्ति की प्राकृतिक विशेषता किसी एक ही प्रकार के अभिनय के अनुकूल ही हो सकती है।
प्लेटो का काव्य सिद्धान्त की भले ही सीमाएं हों लेकिन उसने काव्य सबंधी जो परम्परा प्रारंभ की वह काफी आगे बढ़ी, इसीलिए पश्चात काव्यशास्त्र में प्लेटो का काव्य दर्शन की महत्वपूर्ण भूमिका है।
संदर्भ ग्रंथ
- भारतीय तथा पाश्चात्य काव्यशास्त्र- डाँ. सत्यदेव चौधरी,डाँ. शन्तिस्वरूप गुप्त,अशोक प्रकाशन, दिल्ली
- पाश्चात्य काव्यशास्त्र- भगीरथ मिश्र,विश्वविद्यालय प्रकाशन,वाराणसी
- भारतीय एवं पाश्चात्य काव्यशास्त्र की रूपरेखा- रामचंद्र तिवारी,लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद
- पाश्चात्य काव्यशास्त्र- देवेन्द्रनाथ शर्मा, मयूर पेपरबैक्स प्रकाशक, दिल्ली