हिंदी के प्रख्यात लेखकों में एक हैं, नाटककार और कथाकार मोहन राकेश। उनका ‘आधे-अधूरे’ नाम से लिखा गया नाटक भारत के नाट्य-क्षेत्र में ही नहीं, बल्कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी बेहद लोकप्रिय हुआ। ‘मलबे का मालिक’ कहानी भी उनकी लिखी गयी एक ऐसी ही लोकप्रिय कहानी है। यह कहानी 1956 ई. में प्रकाशित हुई थी, जो ‘नये बादल’ कहानी संग्रह में संकलित है। जिसकी चर्चा हम करने जा रहे हैं।
मलबे का मालिक कहानी का विषय
सामाजिक-संबंधों का सांप्रदायिक बिखराव और उससे पैदा होती भयावह अमानवीयता ‘मलबे का मालिक’ कहानी का विषय है। लेकिन साथ ही व्यापक अर्थों में ‘मलबे का मालिक’ नामक यह कहानी उस वैयक्तिक और सामाजिक त्रासदी को अपना विषय बनाती है, जो ‘समाज’ के होने के भरोसे के टूटने से जन्मी है। समाज लोगों की कोई ऐसी भीड़ नहीं, बल्कि वह तो संबंधों का एक ऐसा संजाल होता है जो आपसी भरोसे पर टिका करता है। इसी भरोसे से बंधकर आस-पास रहने वाले लोग एक सांझे आस-पड़ोस का निर्माण करते हैं। जहाँ हम सिर्फ पारिवारिक-रक्त-संबंधों को ही नहीं जीते, भरोसे पर आधारित इन सामाजिक संबंधों को भी जीते हैं। ‘मलबे का मालिक’ कहानी इसी सामाजिक-भरोसे के बिखर जाने को उद्घाटित करती है।
मलबे का मालिक कहानी के प्रमुख पात्र
- अब्दुल गनी- यह कहानी का मुख्य पात्र है जिसके सहारे कहानी आगे बढ़ती है। अब्दुल गनी लाहौर से अमृतसर अपना मकान देखने आता है।
- रक्खे पहलवान- यह अमृतसर का रहने वाला और गली का ‘दादा’ है। रक्खे पहलवान ने अब्दुल गनी के पुत्र चिरागदीन और उसकी पत्नी जुबैदा तथा इनकी दोनों लड़कियों किश्वर और सुल्ताना को मार कर नहर में फेंकवा दिया, ताकि उसके घर पर कब्जा किया जा सके।
- मनोरी- गनी मियाँ जब गाँव पहुंचता है तो मनोरी ही उसको मकान जो अब मलबे में तब्दील हो गया है, को दिखाने ले जाता है।
- मलबे का मालिक कहानी में कौआ, केचुआ और कुत्ता का वर्णन सांकेतिक अर्थ में हुआ है।
मलबे का मालिक कहानी का सारांश
कहानी की कथा शुरू होती है अब्दुल गनी नामक व्यक्ति से, जो सात वर्षों के बाद पाकिस्तान से भारत पर्यटकों के एक समूह के साथ आया है। हॉकी के एक मैच को देखने के लिए। लेकिन, यह मैच तो एक बहाना भर था, असल में वह आया है, अपने उस घर को एक बार फिर से देखने, जिसे वो देश के बंटवारे के समय हुए दंगों के डर से छोड़कर पाकिस्तान चला गया था।
अब्दुल गनी धीरे-धीरे अमृतसर के बांसा बाजार वाले मुहल्ले की तरफ बढ़ रहा है। वो देखता है कि इन सात-साढ़े सात सालों में ही यहाँ कितना कुछ बदल गया है। वह ‘अपने घर’ की तरफ जाने वाले रास्ते को भी भूल सा रहा है। जगह-जगह पर नई इमारतें बन गयी हैं। हालाँकि बीच-बीच में ऐसे भी मकान दिख जाते हैं, जो दंगों के दौरान जला कर खाक कर दिए गए थे। वह एक गली के मुहाने पर पहुंचकर भटका हुआ सा खड़ा हो जाता है। तभी उसे एक युवक दिखलायी पड़ता है, जिसे वो देखते ही पहचान जाता है। अब्दुल गनी उसे आवाज देता है, ‘मनोरी!’
यह मनोरी कभी अब्दुल गनी के परिवार का पड़ोसी था। मनोरी भी, अब्दुल गनी के बताने पर कि वे लोग भी पहले इसी गली में रहते थे और उसका बेटा चिराग उनके घर का दर्जी था, अब्दुल गनी को पहचान लेता है, और उससे उसका हाल-चाल पूछता है। मनोरी उससे आने का कारण पूछता है तो अब्दुल गनी कहता है कि ‘चिराग और उसके बीबी-बच्चे तो अब मुझे मिल नहीं सकते, मगर मैंने सोचा कि एक बार मकान की ही सूरत देख लूं!’ इतना बोलते-बोलते अब्दुल गनी की आँखों से आंसू निकल आये। मनोरी ने अब्दुल गनी की बांह अपने हांथों में ले ली और बोला चलो मैं आपको आपके घर ले चलता हूँ। जहाँ कभी अब्दुल गनी का नया बनवाया हुआ मकान हुआ करता था अब वहां टूटे-फूटे मकान का मलबा इक्कठा था। मनोरी ने उसी मलबे की तरफ इशारा करते हुए अब्दुल गनी से कहा, ‘वह था तुम्हारा मकान।’ अपने नये बने मकान को इस हालत में देखे जाने की कल्पना उसने नहीं की थी। उसकी मूंह से भी निकला, ‘मलबा?’ इसके बाद मनोरी ने बताया कि उसके मकान को उसी समय आग लगा दी गई थी।
लेकिन मनोरी ने अब्दुल गनी को ये नहीं बताया कि घर को आग लगाने से पहले उसके बेटे चिरागुद्दीन को घर से बाहर गली में बुलाकर रक्खे पहलवान ने अपने साथियों के साथ मिलकर मार डाला था। चिरागुद्दीन की बीबी और बेटियों की लाशें बाद में नहर के पानी में मिली थीं।
कहानीकार ने सामने पड़े अपने घर के मलबे को देखकर अब्दुल गनी की विचलित स्थिति का वर्णन करते हुआ लिखा, ‘गनी छड़ी के सहारे चलता हुआ किसी तरह मलबे के पास पहुँच गया। मलबे में अब मिट्टी ही मिट्टी थी जिसमें से जहाँ-तहाँ टूटी और जली हुई ईंटें बाहर झांक रही थीं। लोहे और लकड़ी का सामान उसमें से कब का निकला जा चुका था। केवल एक जले हुए दरवाजे का चौखट न जाने कैसे बचा रह गया था। पीछे की तरफ दो जली हुई अलमारियां थीं कालिख पर अब सफेदी की हल्की-हल्की तह उभर आई थी।… उसके घुटने जैसे जबाव दे गए और वह वहीं जले हुए चौखट को पकड़कर बैठ गया। क्षण-भर बाद उसका सिर भी चौखट से जा सटा और उसके मुंह से बिलखने की-सी आवाज निकली, हाय ओए चिरागदीन!’
इसी बीच गली के तमाम लोगों को मालूम पड़ गया था कि अब्दुल गनी पाकिस्तान से वापस अपने घर लौट आया है। लोग मन-ही-मन सोच रहे थे कि अब उसे सारी कहानी मालूम पड़ जाएगी और वो रक्खे पहलवान को नहीं छोड़ेगा। लेकिन ऐसा कुछ नहीं होता। क्योंकि मनोरी ने अब्दुल को यह घटना बताई ही नहीं। रक्खे पहलवान और उसका एक साथी वहीं थोड़ी दूरी पर स्थित एक कुएं के पास पीपल के नीचे बैठे हुए यह सब देख रहे हैं। लेकिन रक्खे पहलवान इसे जाहिर नहीं होने दे रहा है कि अब्दुल गनी को यहाँ देखकर उसको कोई फर्क पड़ा है। लेकिन उसका साथी चिंतित है कि कहीं अब्दुल गनी को सारी कहानी मालूम न पड़ जाये।
अब्दुल गनी अपने टूटे मकान और अपने बेटे चिरागदीन का मातम मनाकर वापस लौटने लगता है। मनोरी ने उसकी बांह अपने हाथ में पकड़ी हुई है। दोनों उसी कुएं के पास से गुजरते हैं, जहाँ रक्खे पहलवान बैठा हुआ था। अब्दुल गनी उसे एक नजर देखकर पहचान लेता है, और मुस्कराते चेहरे के साथ उसकी तरफ अपनी दोनों बाहें खोलकर बढ़ता है। रक्खे पहलवान का गला सूख जाता है। उसकी जुबान अटक जाती है। जिसके बेटे को उसने अपने साथियों के साथ मिलकर निर्ममता के साथ क़त्ल किया था, इस सच से अनजान है, उसी का बाप अब्दुल गनी अपने पड़ोसी रक्खे पहलवान से गले मिलने की कोशिश करता है। इस सवाल के साथ कि रक्खे ये सब क्या हो गया। तुम लोगों के रहते हुए भी मेरा बेटा अपने पूरे परिवार सहित क़त्ल कर दिया गया। यही वो कहानी का चरम है जहाँ दोनों के बीच ख़ामोशी छा जाती है। इसके बाद दो छोटी-छोटी बातें, जो पूरी कहानी में बड़ी अनुगूँज बनकर विस्तार ले लेती हैं, वो होती हैं। पहली, अब्दुल गनी अपने बेटे की मौत का मातम मनाकर, ये मानकर वापस पाकिस्तान चला जाता है, कि उसे घर में रहने की गलती नहीं करनी चाहिए थी। उसे मदद के लिए रक्खे पहलवान समेत अपने पड़ोसियों से मदद लेनी चाहिए थी। और दूसरी, जिस मकान को रक्खे पहलवान अभी तक पूरी दबंगई के साथ अपना बताता आया था, वो ऐसे निरर्थक मलबे में तब्दील हो गया, जहाँ समाज के वे कीड़े-मकौड़े और आवारा कुत्ते बसते हैं, जिनकी समाज में अपनी कोई कमाई हुई अर्थात अर्जित जगह नहीं हुआ करती। इस अहसास ने रक्खे पहलवान को उस ‘मकान’ से पूरी तरह अपरिचित बना दिया जिसे हड़पने के चक्कर में उनमें उसे एक निरर्थक मलबे में बदल दिया था।
मलबे का मालिक की मूल संवेदना
कहानी में जिस ‘मलबे’ का जिक्र किया गया है, वो मलबा किसी मकान के ढहने से नहीं बनता, बल्कि उस घर के ढहने से बना है, जो अपने आस-पड़ोस के साथ सामाजिक संबंधों और सामाजिक भरोसे से बंधा था। मोहन राकेश ने ‘मलबे का मालिक’ कहानी के माध्यम से कमजोर होती हमारी सामाजिकता और नागरिकता को उद्घाटित किया है। सांप्रदायिक सोच और उन्माद कैसे हमें हमारे ही सामाजिक परिवेश और माहौल में निरंतर कमजोर बासिन्दा बनाने का काम कर रही है, इसका एक सटीक रेखांकन इस कहानी में किया गया है। वस्तुत: खंडित सामाजिकता और कमजोर नागरिकता-बोध ‘मलबे का मालिक’ कहानी का मूल भाव और संवेदना है। कहानी का तात्कालिक सन्दर्भ विभाजन के दौर का भारत है, किन्तु साहित्य का प्रभाव क्योंकि किसी काल विशेष तक ही सीमित नहीं होता है, यह कहानी हमें हमारे आज के विभाजनकारी परिवेश और सामाजिक चिंता के साथ भी जोड़ने का काम करती है।
मलबे का मालिक का भाषा एवं शिल्प
कहानी की इस मूल संवेदना को उद्घाटित करने में पूर्णत: सक्षम भाषा और शिल्प है। ‘मलबे का मालिक’ कहानी की भाषा में जहाँ एक तरफ तत्कालीन हिंदी भाषा के देशज स्वरूप का आभास देखने को मिलता है, जिसकी उपस्थिति तत्कालीन हिंदी और पंजाब के क्षेत्र में थी। यही कारण है कि अब लगभग अप्रचलित हो चुके ‘चेहमेगोइयां’ जैसे शब्दों का प्रयोग भी ‘कानाफूसी’ के अर्थों में देखने को मिलते हैं। हिंदी, उर्दू और पंजाबियत को मुर्तित करने वाली भाषा ‘मलबे का मालिक’ कहानी की भाषा की उल्लेखनीय विशेषता है। किसी भी कहानी के शिल्प की रचना मूलत: उसमें रचे गए दृश्यों, प्रसंगों एवं विवरणों के माध्यम से गठित होती है। शिल्प कहानी का वो दृश्यमान आईना होता है जिसमें से कथाकार की सारी भाव-संवेदना और वांछनीय वैचारिक कथ्य संप्रेषित और संवेदित होता है। इस सन्दर्भ में ‘मलबे का मालिक’ कहानी का शिल्प अपने शीर्षक को न केवल प्रभावशाली ढंग से व्यक्त करता है, बल्कि एक विशिष्ट सांप्रदायिक परिप्रेक्ष्य में कमजोर और खंडित होती नागरिकता-सामाजिकता को पूरी सक्षमता के साथ मुर्तित भी करता है। यही शिल्प की सफलता का उदाहरण होता है।
आलोचकों के प्रमुख कथन
बच्चन सिंह-
“राकेश की ‘मलबे का मालिक’ में मलबा वहशीपन की चरम परिणति है- पागलपन और उन्माद का जीवंत प्रतीक। इसके रचाव में अपेक्षित सांकेतिकता और तनाव है। इसमें सामाजिकता से वैयक्तिकता की ओर, वाह्यता से आंतरिकता की ओर जो यात्रा की गई है उसमें वे भोक्ता भी हैं द्रष्टा भी।”[1]
‘मलबे का मालिक’ कहानी “भारत-विभाजन से उत्पन्न परिस्थितियों पर आधारित है। मलबा उन्माद और वहशीपन का प्रभावी प्रतीक है। अनेक स्मृति-बिम्बों में उसका तनाव त्रासद हो उठता है।”[2]
देवी शंकर अवस्थी–
‘मलबे का मालिक’ कहानी “कई-कई संबंधों और हालातों का प्रतीक है। मूल्य भंग और निर्माण के बीच की कहानी है… यह मलवा ही टूटते और टूटे मूल्यों की सारी कहानी सुना देता है। रखे पहलवान की ही तरह हमारा एक वर्ग आज भी इन टूटे मूल्यों के मलवे पर, उसे ही अपनी जागीर समझता हुआ, बैठा है जबकि वह मलवा न तो उसका है, न गनी का; वह तो इतिहास का हो चुका।”[3]
“कहानी ही क्यों, पूरा आधुनिक भाव-बोध पच्चीकारी के विरुद्ध है।… अगर ऐतिहासिक दृष्टि से देखा जाय तो कहानी में लगातार इस पच्चीकारी को तोड़ने की चेष्टा की गई है। उदाहरण के लिए मोहन राकेश को लिया जा सकता है। इसलिए की मोहन राकेश अंतिम महत्वपूर्ण पुराने पच्चीकार कहानीकार हैं और प्रारंभिक नये कहानीकारों में-से एक हैं। ‘मलबे का मालिक’ आदि कहानियाँ जहाँ कटी-छँटी पच्चीकारी की जड़ाऊ कहानियों के उदाहरण हैं वहीं ‘एक और जिंदगी’ में सारा शिल्प का जड़ाऊपन एक बड़ी सीमा तक विखर जाता है।”[4]
कुमार कृष्ण-
“मोहन राकेश की ‘मलबे का मालिक’ का संकेत युग सत्य को अभिव्यक्त करता है। ‘मलवा’ उन टूटती हुई मान्यताओं, मिथ्या रूढ़ियों की ओर संकेत करता है जिसे आज भी प्रगति के युग में व्यक्ति रक्खे पहलवान की तरह छोड़ नहीं पा रहे।”[5]
नरेंद्र मोहन-
‘मलबे का मालिक’ में संबंधों की पीड़ा, क्रूरता और करुणा एकबारगी साकार हो चुकी है।”[6]
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प्रमुख प्रश्न
‘मलबे का मालिक’ कहानी मोहन राकेश की रचना है। मोहन राकेश नई कहानी के प्रमुख लेखक हैं।
मोहन राकेश की कहानी मलबे का मालिक वर्ष 1956 में प्रकाशित हुई थी।
‘मलबे का मालिक’ कहानी का मुख्य पात्र अब्दुल गनी है जो भारत विभाजन के समय पाकिस्तान चला गया था।
अब्दुल गनी का पुत्र चिरागदीन कपड़ों की सिलाई का काम करता था।
भारत विभाजन के परिणाम स्वरूप जो लोग अमृतसर से लाहौर चले गए थे वे पूरे साढ़े सात साल के बाद लाहौर से अमृतसर आए थे। हॉकी का मैच देखने का तो बहाना ही था, उन्हें ज़्यादा चाव उन घरों और बाज़ारों को फिर से देखने का था, जो साढ़े सात साल पहले उनके लिए पराए हो गए थे. हर सड़क पर मुसलमानों की कोई न कोई टोली घूमती नज़र आ जाती थी।
इस कहानी में ‘मालबा’ देश विभाजन के परिणाम, उजड़े हुए जीवन और टूटते हुए मूल्यों का प्रतीक है। कहानी में मुख्य समस्या यह उठाया गया है कि रक्खे पहलवान की तरह हमारा एक वर्ग आज भी इन टूटते गिरते मूल्यों के मलबे के ढेर पर उसे अपनी जागीर समझ कर बैठा है। वास्तविकता यह है की यह मलबा न तो गनी मियाँ का है और न ही रक्खे पहलवान का। यह बीता हुआ कल का अवशेष है, जिसे उठाकर फेंक दिया जाना चाहिए।
डॉ. सत्य प्रकाश सिंह
ईमेल- satyaprakashsingh79@gmail.com
[1] आधुनिक हिंदी साहित्य का इतिहास- बच्चन सिंह, 2007, पृष्ठ- 363
[2] हिंदी साहित्य का दूसरा इतिहास- बच्चन सिंह, 2006, पृष्ठ- 492
[3] नई कहानी संदर्भ और प्रकृति- देवी शंकर अवस्थी, 2009, पृष्ठ- 192
[4] आलोचना का द्वंद- देवी शंकर अवस्थी, 2009, पृष्ठ- 41
[5] कहानी के नये प्रतिमान- कुमार कृष्ण, 2005, पृष्ठ- 30
[6] विभाजन की त्रासदी: भारतीय कथा दृष्टि- नरेंद्र मोहन, 2008, पृष्ठ- 76