हिंदी साहित्येतिहास (hindi sahity ka itihas) लेखन प्रमुख रूप से 5 दृष्टियों/पद्धतियों को आधार बनाकर लिखा गया है जो निम्न हैं-
1. वर्णानुक्रम पद्धति
2. कालानुक्रम पद्धति
3. वैज्ञानिक पद्धति
4. विधेयवादी पद्धति
5. नारीवादी पद्धति
उपरोक्त पद्धतियों (itihas lekhan ki paddhati) का विस्तार से परिचय क्रमवार नीचे दिया जा रहा है-
1. वर्णानुक्रम पद्धति-
इतिहास लेखन की इस पद्धति में कवियों व लेखको का परिचय उनके नाम के वर्णानुक्रमानुसार किया जाता है, इसीलिए इसे ‘वर्णमाला’ पद्धति भी कहा जाता है। उदहारण के रूप में यदि कण्हपा, कबीर, केशवदास और कुंवर नारायण को लें, भले ही कालक्रम की दृष्टि से अलग-अलग युग (आदिकाल, भक्तिकाल, रीतिकाल और आधुनिक काल) के कवि हैं परंतु इनका विवेचन एकसाथ करना होगा, क्योंकि इन चारों कवियों के नाम ‘क’ वर्ण से शुरू होते हैं। गार्सा द तासी व शिवसिंह सेंगर ने अपने ग्रंथो में इसी पद्धति का प्रयोग किया है, यह साहित्य इतिहास लेखन की सर्वाधिक दोषपूर्ण व प्राचीन पद्धति है। इस प्रणाली पर आधारित ग्रंथो को ‘साहित्येतिहास’ (sahity ka itihas) की अपेक्षा ‘साहित्यकार कोश’ कहना ज्यादा उपयुक्त होगा। कोश ग्रंथो के लिए यह प्रणाली अधिक उपयुक्त मानी जाती है।
2. कालानुक्रम पद्धति-
कालानुक्रम पद्धति में कवियों एवं लेखकों का वर्णन या विश्लेषण कालक्रमानुसार किया जाता है। इस पद्धति में कवियों एवं लेखकों के जन्मतिथि को आधार बनाकर साहित्य के इतिहास में उनका क्रम निर्धारित किया जाता है। इसी पद्धति को आधार बनाकर जॉर्ज ग्रियर्सन ने ‘द मॉडर्न वर्नाक्यूलर लिटरेचर ऑफ हिंदुस्तान’ और मिश्र वंधुओं ने ‘मिश्रबंधु विनोद’ जैसे इतिहास ग्रंथ की रचना किया है। इस पद्धति पर या इसके आधार पर लिखे गए ग्रंथो को ‘साहित्येतिहास’ की अपेक्षा ‘कविवृत्त संग्रह’ कहना उपयुक्त होगा। क्योंकी साहित्येतिहास केवल लेखकों के जीवन-परिचय और उनकी रचनाओं के वर्णन तक सीमित नहीं होता बल्कि उसमें युगीन प्रवृत्तियों और परिस्थितियों का भी विश्लेषण होता है। हालाँकि नलिन विलोचन शर्मा का तर्क है की ‘जब तक कवियों की सूची तैयार न हो तब तक साहित्य का इतिहास नहीं लिखा जा सकता’।
3. वैज्ञानिक पद्धति-
वैज्ञानिक पद्धति का इतिहासकार प्रत्येक वस्तु में एक अनिवार्य और गतिशील विकास प्रक्रिया को देखती है। यह पद्धति कार्ल मार्क्स के ‘द्वंद्वात्मक भौतिकवाद’ पर आधारित है। मार्क्सवादी इतिहास दृष्टि जहाँ एक ओर समाज और साहित्य के संबंधों की व्यख्या करती है वहीं दूसरी ओर इतिहास से भी साहित्य के संबंध को व्याख्यायित करती है। इस पद्धति में इतिहासकार तटस्थ और निरपेक्ष होकर तथ्यों का संकलन करता है और क्रमबद्ध एवं व्यवस्थित कर विश्लेषण करता है। इसी पद्धति को आधार बनाकर डॉ. गणपति चंद्र गुप्त ने ‘हिंदी साहित्य का वैज्ञानिक इतिहास’ लिखा है। साहित्येतिहास (sahity ka itihas) लेखन की अपेक्षा कोड लेखन के लिए उपर्युक्त है।
4. विधेयवादी पद्धति (पॉजेटिसिज्म)-
विधेयवाद रोमैंटिसिज्म के विरोध में आया। विधेयवाद का अर्थ है संदेह के परे, अथार्त किसी भी विवाद के परे जो ज्ञान है। यह इतिहास दृष्टि व्यक्तिवाद को केंद्र में रखता है। विधेयवादी इतिहास दृष्टि समाज और साहित्य के संबंध को अनिवार्य कार्य-कारण संबंध के रूप में देखता है। इस पद्धति में साहित्येतिहास प्रवृतियों का अध्ययन युगीन परिस्थितियों के संदर्भ में किया जाता है। साहित्येतिहास लेखन में यह पद्धति सर्वाधिक उपर्युक्त सिद्ध हुई। इस विधि के जन्मदाता ‘तेन’ (Taine) माने जाते है, इन्होंने विधेयवादी इतिहास दृष्टि के लिए जाति, वातावरण और क्षण विशेष को महत्वपूर्ण माना है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपने इतिहास लेखन में इसी पद्धति का उपयोग किया है। इसी वजह से शुक्ल जी के इतिहास ग्रंथ को सच्चे अर्थो में हिदी साहित्य का प्रथम इतिहास ग्रंथ माना जाता है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार ‘प्रत्येक देश का साहित्य वहाँ की जनता की चितवृति का संचित प्रतिबिम्ब होता है। तब यह निश्चित है, की जनता की चितवृति के परिवर्तन के साथ–साथ साहित्य का परिवर्तन साहित्य इतिहास कहलाता है।’
5. नारीवादी पद्धति–
यूरोप में 1968 ई. के बाद यह आंदोलन के रूप में उभरा। इस आंदोलन में स्त्रियों के स्वर सुनाने की गुंजाइश निकाले जाने की दृष्टि से इतिहास लिखे जाने की बात की गई। नारीवादी पद्धति इतिहास की प्रगतिवादी अवधारणा पर प्रश्न लगाया। नारीवादी पद्धति को मानने वाले इतिहास लेखिकाओं ने his history की जगह her history की वकालत की। हिंदी साहित्य में सुमन राजे ने ‘हिंदी साहित्य का आधा इतिहास’ इसी दृष्टि को आधार बना कर लिखा है। अपने ग्रंथ में उन्होंने लिखा है की ‘अब तक का इतिहास पुरुषों का इतिहास है’।
इन पद्धतियों के अतिरिक्त साहित्येतिहास (sahity ka itihas) लेखन की कई और आधुनिक पद्धतियाँ हैं, जिनमें रूपवादी, संरचनावादी, उत्तरसंरचनावादी और उत्तरआधुनिकतावादी प्रमुख हैं। परंतु हिंदी साहित्य का इतिहास इन दृष्टियों को आधार बनाकर अभी तक नहीं लिखा गया है। पूंजीवाद के असंगतियों के बढ़ते जाने के साथ ही व्यक्तिवादी प्रवृत्तियां उभरी और फिर धीरे-धीरे साहित्य के इतिहास से संबंधित रूपवादी, संरचनावादी, उत्तरसंरचनावादी और उत्तरआधुनिकतावादी व्याख्याएं सामने आती गईं। साहित्येतिहासकारों ने संरचनावादी और उत्तरसंरचनावादी इतिहास दृष्टि को साहित्य की व्यख्या के लिए आवश्यक तो माना किंतु यह भी कहा की ये दृष्टियाँ उस संसार की उपेक्षा करती हैं जिसमें रचने वाला रचनाकार रहता है और रचनाकर्म करता है।
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