यह दीप अकेला कविता- अज्ञेय
अज्ञेय का मूल नाम सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन है। इनका जन्म 7 मार्च 1911 ई. को कुशीनगर, देवरिया, उत्तर प्रदेश में हुआ था। अज्ञेय ने अमूमन साहित्य की सभी विधाओं- कविता, कहानी, उपन्यास, निबंध, नाटक, यात्रा वृत्तांत, संस्मरण आदि में प्रचुर मात्रा में लेखन कार्य किया लेकिन मुख्य पहचान कवि रूप में ही रहा। अज्ञेय को उनको कविता संग्रह ‘आँगन के पार द्वार’ पर साहित्य अकादमी पुरस्कार और ‘कितनी नावों में कितनी बार’ संग्रह पर भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार से भी सम्मानित किया जा चुका है।
उनकी प्रमुख काव्य-कृतियाँ हैं- इत्यलम्, भग्नदूत, चिंता, हरी घास पर क्षणभर, इंद्रधनु रौंदे हुए ये, कलगी बाजरे की, आँगन के पार द्वार, कितनी नावों में कितनी बार, नदी की बाँक पर छाया, पहले मैं सन्नाटा बुनता हूँ, आदि हैं। अज्ञेय की संपूर्ण कविताओं का संकलन ‘सदानीरा’ नाम से दो भागों में प्रकाशित हुआ है।
‘यह दीप अकेला’ की रचना-काल 18 अक्टूबर, 1953 ई. है। यह कविता उनके काव्य-संग्रह ‘बावरा अहेरी’ में संग्रहित है। अज्ञेय प्रयोगवादी काव्यधारा और नयी कविता के कवि रहे हैं इसलिए उनके ऊपर यह आरोप भी लगता रहा कि वे व्यक्तिवादी कवि हैं, यह कविता इन बनी-बनाई धारणाओं को तोड़ती है।
यह दीप अकेला कविता
यह दीप अकेला स्नेह भरा
है गर्व भरा मदमाता पर
इसको भी पंक्ति को दे दो
यह जन है : गाता गीत जिन्हें फिर और कौन गायेगा
पनडुब्बा : ये मोती सच्चे फिर कौन कृति लायेगा?
यह समिधा : ऐसी आग हठीला बिरला सुलगायेगा
यह अद्वितीय : यह मेरा : यह मैं स्वयं विसर्जित :
यह दीप अकेला स्नेह भरा
है गर्व भरा मदमाता पर
इस को भी पंक्ति दे दो
यह मधु है : स्वयं काल की मौना का युगसंचय
यह गोरसः जीवन-कामधेनु का अमृत-पूत पय
यह अंकुर : फोड़ धरा को रवि को तकता निर्भय
यह प्रकृत, स्वयम्भू, ब्रह्म, अयुतः
इस को भी शक्ति को दे दो
यह दीप अकेला स्नेह भरा
है गर्व भरा मदमाता पर
इस को भी पंक्ति दे दो
यह वह विश्वास, नहीं जो अपनी लघुता में भी काँपा,
वह पीड़ा, जिसकी गहराई को स्वयं उसी ने नापा,
कुत्सा, अपमान, अवज्ञा के धुँधुआते कड़वे तम में
यह सदा-द्रवित, चिर-जागरूक, अनुरक्त-नेत्र,
उल्लम्ब-बाहु, यह चिर-अखंड अपनापा
जिज्ञासु, प्रबुद्ध, सदा श्रद्धामय
इस को भक्ति को दे दो
यह दीप अकेला स्नेह भरा
है गर्व भरा मदमाता पर
इस को भी पंक्ति दे दो
यह दीप अकेला कविता की व्याख्या
आधुनिक हिंदी कविता में अज्ञेय जितने महत्वपूर्ण कवि हैं, उससे कहीं ज्यादा वे विवादस्पद कवि भी हैं। उनकी कविताओं को लेकर विवाद का मूल बिंदु जो ‘विषय’ बने, उनमें एक विषय था; व्यक्ति और समाज का प्रश्न। अज्ञेय ‘व्यक्ति’ को महत्त्व देने वाले रचनाकार थे, तो उनके ‘आलोचक’ समाज को ही मुख्य मानकर चलने वाली धारा के अगुवा थे। जिस कविता पर यहाँ हमें बात करनी है, ‘यह दीप अकेला’ वो इस विवाद को लेकर बेहद ही चर्चित कविता रही है। व्यक्ति और समाज का संबंध क्या है? इस प्रश्न पर प्रयोगवाद और नई कविता के दौर में बहुत सारी बहसें हुईं हैं, उन बहसों में यह कविता अज्ञेय का पक्ष सामने रखती है।
यह तो स्पष्ट ही है कि कविता में प्रयुक्त ‘दीप’ द्विअर्थी है। वह अंधकार के विरुद्ध प्रकाश की रचना का प्रतीक भी है और मनुष्य का भी। दीप प्राकृतिक अंधकार के विरुद्ध सभ्यता की रचना है तो मनुष्य सामाजिक अंधकार के विरुद्ध संस्कृति की रचना। मनुष्य का प्रकाश है मनुष्यता, जो पशुता और पैशाचिकता के अंधकार के विरुद्ध समाज की सांस्कृतिक रचना है। प्रकाश दीप होने की प्राथमिक शर्त है और मनुष्यता मनुष्य होने की। मनुष्यता का धागा ही समाज को दीपमाला बनाता है, मनुष्यता से प्रकाशित मनुष्यों को आपस में पिरोकर यही धागा समाज को दीपमाला सरीखा बना देता है। ठीक वैसे ही जैसे प्रकाश के धागे में पिरोये हुए दीप, दीपों की माला बना देते हैं। अज्ञेय की दृष्टि में मनुष्यता ही व्यक्ति और समाज के संबंध का असल बिंदु है।
अज्ञेय के आलोचकों का मत था कि वे व्यक्ति की ‘विशिष्टता’ को ही मुख्य मानते हैं और समाज को उससे कम महत्त्व देते हैं। जैसे इसी कविता में ‘दीप’ अकेला है। लेकिन समाज तो सामूहिकता का नाम है। असल में, ‘दीप’ संख्या में एक है, यानी अकेला है। सामूहिकता से अलगाव के अर्थ में अकेला नहीं बल्कि समूह में संख्या के अर्थ में एक-अकेला। तो दीप अकेला है, जो स्नेह से भरा हुआ है। स्नेह का अर्थ प्रकाशित करने की क्षमता। एक अकेला दीप प्रकाश से भरा हुआ है। प्रकाशित करने की उसकी क्षमता ही उसका गर्व है। इस गर्व की मादकता ही दीप का मद है, नशा है। ऐसे ही दीप मिलकर दीपमाला बनाते हैं। इन्हीं दीपों से दीपमालाएं बनती हैं। दीपमालाएं बगैर दीपों के संभव नहीं। इस कविता की मूल भावभूमि यहीं हैं। इसी उदाहरण को अज्ञेय व्यक्ति और समाज के संबंध पर भी लागू करते हैं। समाज को मनुष्यता के गर्व से भरे मनुष्य ही निर्मित करते हैं। जैसे, दीपमालाएं प्रकाश के स्नेह में मदमाते दीप ही बनाते हैं।
‘अज्ञेय’ की इस कविता को इसी भूमिका के साथ समझने की जरुरत है। मनुष्यता के प्रकाश से प्रकाशित मनुष्य ही सामाजिक अंधकार के विरुद्ध समाज की रचना कर सकता है, इससे रहित ‘मनुष्य’ नहीं। ठीक वैसे ही जैसे प्रकाश से भरा दीपक ही दीपमाला बना सकता है, बुझा हुआ दीप नहीं। बुझा हुआ दीपक तो अंधकार का हिस्सा है। मनुष्यता के स्तर पर मरा हुआ मनुष्य सामाजिक अंधकार का ही अंग होता है। इसीलिए ‘यह दीप अकेला’ कविता व्यक्ति के मानवीय-व्यक्तित्व की महिमा की कविता है, सिर्फ व्यक्ति की महिमा की कविता नहीं। व्यक्तित्व-हीन मनुष्य बुझा हुआ दीपक है। समाज सजग-व्यक्तित्व की निर्मिति है।
जब तक व्यक्ति और समाज को परस्पर दो इकाईयां मानकर चला जाता रहेगा, तब तक न तो व्यक्ति पर सलीके से बात हो सकती है और न ही समाज पर। अज्ञेय की यह कविता इस दृष्टि से बेहद जरुरी और अनिवार्य कविता है, कि वो व्यक्ति और समाज की पारस्परिकता को ‘आदर्श’ नहीं, मूल्य मानकर चलने पर बल देती है। आदर्श पालन की प्रेरणा पैदा करते हैं तो मूल्य अर्जन की। मनुष्यता को मनुष्य अर्जित करता है, प्राप्त नहीं।
समाज लक्ष्य है और व्यक्ति उसका आधार। व्यक्ति साधन भी है और सम्भावना भी वही है, जो निपट अंधेरों में, संकटों में, प्रकाश और उम्मीदों के गीत रचता और गाता है। वही है जो उन मोतियों का संधान करता है जो समाज में मूल्यवान निधियों की तरह बिखर जाते हैं। वो व्यक्ति का व्यक्तित्व ही है, जो स्वयं को मनुष्यता के संघर्ष की सामग्री बनाकर, समाज में उस अग्नि-कुंड को प्रज्वलित करता है, जो उसे मनुष्यता के प्रति आस्थाओं और समर्पण की पवित्रतम आकांक्षाओं से भरता है। यही व्यक्तित्व है जो व्यक्ति को अद्वितीयता प्रदान करता है। कवि इस कविता में स्वयं को इसी व्यक्तित्व रूप में अर्जित करते हुए, समाज में स्वयं को विसर्जित कर देना चाहता है।
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व्यक्ति के इस अर्जित व्यक्तित्व को कवि मधु कहता है, ऐसा मधु जो काल के कोष में मनुष्य के सर्जक हाथों से संचित होता रहा। जीवन रुपी कामधेनु के अमृत तुल्य दुग्ध से बना गोरस है, व्यक्ति का व्यक्तित्व। वो उस अंकुर की तरह है जो सख्त धरा को फोड़कर निकलता है और सूर्य से निर्भय हो आँखें मिलाता है। ये बनावटी नहीं होता, इसे सामानों की तरह गढ़ा नहीं जा सकता। उसे तो अर्जित ही करना होता है। इसी कारण वो अपने में शक्तिशाली है, ब्रह्म है, अनूठा और संपूर्ण है। यही है जो समाज की शक्ति को अर्पित किया जा सकता है। अर्पण की योग्यता इसी व्यक्तित्व में है। छिछला, बनावटी और खोखला व्यक्तित्व समाज को शक्ति नहीं, क्षुद्रता देता है।
मनुष्यता के प्रति सजग यही व्यक्ति है जो विश्वास की शक्ति रखता है, जिसे डिगा पाना विराट, शक्तिशाली और सत्ताधीशों के लिए भी संभव नहीं। कवि कहता है कि यही है वो मानवीय पीड़ा की निश्छलता से भरा व्यक्तित्व, जिसनें मनुष्य और मनुष्य के भेदों को पार करके सिर्फ मनुष्यता के उदबोधनों को गहराईयाँ दीं हैं। जिसने अपमान सहे, निन्दाएं झेलीं, जो अलग-थलग अवंछितों सा छोड़ा जाता रहा। किन्तु जिसके ह्रदय ने द्रवित होना नहीं त्यागा, जिसने जीवित रहते मृत्यु का आचरण नहीं अपनाया। जिसके नेत्र असत्य के विरुद्ध आक्रोशित रहे। यही है जो सदा मनुष्यता का मानक रहा। जिसमें जिज्ञासा है, प्रबुद्धता है और है श्रद्धा। समाज के प्रति भक्ति को अर्पित होने की योग्यता यही व्यक्ति रखता है।
-सत्यप्रकाश सिंह