रस की परिभाषा, भेद और उदाहरण | ras ki paribhasha

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‘रसस्यतेऽसौ इति रसः’ के रूप में रस शब्द की व्युत्पत्ति हुई है, अर्थात् जो चखा जाय या जिसका आस्वादन किया जाय ‘अथवा’ जिससे आनन्द की प्राप्ति हो, वही रस है। आचार्यों ने भी रस को काव्य की आत्मा कहा है।

रस क्या है

भारतीय काव्यशास्त्र में रस की धारणा को सर्वाधिक प्रतिष्ठा प्राप्त है। संसार का कोई भी ऐसा काव्य सिद्धांत नहीं है जो किसी-न-किसी रूप में काव्य के आनंद को स्वीकार न करता हो। काव्य पढ़ने या नाटक देखने से जो विशेष प्रकार का आनंद प्राप्त होता है उसे रस कहा गया है। काव्य का रस साधारण जीवन में प्राप्त होने वाले आनंद से भिन्न माना गया है, लेकिन वह इतना भिन्न नहीं होता कि जीवन से कटी हुई कोई बिल्कुल निराली चीज हो। जीवन और काव्य के अनुभव और आनंद की भिन्नता को समझ लेना चाहिए। काव्य की अनुभूति और आनंद व्यक्तिगत सकीर्णता से मुक्त होता है। इसी अर्थ में वह भिन्न होता है।


उदाहरण के लिए यदि हमें या हमारे किसी संबंधी को सुख-दुख होता है तो हम सुखी-दुखी होते हैं। लेकिन जब हम मनुष्य मात्र के सुख-दुख से सुखी-दुखी होते हैं तब वह अनुभव व्यक्तिगत संकीर्णता से मुक्त होता है। ऐसे अनुभव और इस संकीर्णता से मुक्त अनुभव को रामचंद्र शुक्ल ने हृदय की मुक्तावस्था कहा है। हृदय की यह मुक्तावस्था रस दशा है। इसे प्राप्त करने की साधना भावयोग है। जिस प्रकार योग से चित्त का संस्कार होता है उसी प्रकार काव्य से भाव का। इस भावयोग में स्थायी भाव के साथ विभाव, अनुभाव और संचारीभावों का योग होता है।[1]

संस्कृत काव्यशास्त्र में इसी को रस कहा गया है। इस प्रक्रिया के कारण जीवन का व्यक्तिगत अनुभव और आनंद मनुष्य मात्र का अनुभव और आनंद बन जाता है। इससे स्पष्ट हुआ कि काव्य का अनुभव और आनंद जीवन के अनुभव और आनंद से मूलतः भिन्न नहीं है। काव्य की विशेष प्रक्रिया के कारण उसमें कुछ भिन्नता आ जाती है।

रस के अंग

रस स्थायी भाव, विभाव, अनुभाव और संचारी भावों के संयोग से निर्मित या अभिव्यक्त होता है। इन्हीं को रस के चार अंग या अवयव कहते हैं।

रस के अंग

(i) स्थायी भाव

‘स्थायी भाव’ के संबंध में इस बात को ध्यान में रखना जरूरी है कि उसका निरूपण रस की दृष्टि से किया गया है। इसलिए ‘स्थायीभाव’ रस निरूपण में एक शास्त्रीय श्रेणी है। उसे जीवन का स्थायी भाव नहीं मानना चाहिए। रस सिद्धांत में ‘स्थायी भाव’ का मतलब ‘प्रधान’ भाव है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने स्थायी भाव की परिभाषा इस प्रकार की है “प्रधान (प्रचलित प्रयोग के अनुसार स्थायी) भाव वही कहा जा सकता है जो रस की अवस्था तक पहुँचे।”[2]

तात्पर्य यह है कि अनुभाव और संचारी भाव रस दशा तक नहीं पहुँचते हैं। अनुभाव व संचारी किसी-न-किसी भाव को पुष्ट करते हैं और वही भाव पूर्ण रस दशा को प्राप्त करता है। रति, शोक, उत्साह आदि भाव जीवन में प्रधान या मुख्य होते हैं वे ही रस की अवस्था को प्राप्त करते हैं। शास्त्र में संचारी भावों की संख्या 33 बताई गई है किन्तु स्थायी भाव 8, 9, 10 या 11 ही माने गए हैं। अर्थात् 8, 9, 10 या 11 भाव अपनी प्रधानता के कारण स्थायी भाव माने जाते हैं अपने स्थायित्व (Permanance) के कारण नहीं।

भरत के अनुसार ‘स्थायी भाव’ ये हैं- 1. रति (स्त्री और पुरुष का प्रेमद), 2. हास, 3. शोक, 4. क्रोध, 5. उत्साह, 6. भय, 7. जुगुप्सा (घृणा), 8. विस्मय (आश्चर्य)। भरत ने बाद में  9. शम या निर्वेद (वैराग्य या शांति) को भी नवम ‘स्थायी भाव’ माना। बाद के आचार्यों ने 10. भक्ति और 11. वत्सल (अपने से छोटों के लिए प्रेम) को भी ‘स्थायी भाव’ मान लिया। इनका भी स्थायी भाव रति ही है। जब रति बालक के प्रति होती है तो ‘वात्सल्य’ और जब भगवान् के प्रति होती है तो ‘भक्ति’ रस की निष्पत्ति होती है। इन्हीं स्थायी भावों का विकास रस रूप में होता है। इसलिए रस की संख्या भी स्थायी भावों की संख्या के अनुसार होती है।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने ‘भाव’ का जहाँ ‘स्थायित्व’ हो, उसे ही ‘स्थायी भाव’ माना है।[3] भाव का स्थायित्व वहीं होता है, जहाँ 1. आस्वाद्यत्व, 2. उत्कटत्व, 3. सर्वजनसुलभत्व, 4. पुरुषार्थोपयोगिता और 5. औचित्य आदि विषय की अनुकूलता हो। इन पाँच आधारों पर प्रथम नौ भाव ही स्थायी भाव हो सकते हैं। काव्यकल्पद्रुम के अनुसार, ‘जो भाव चिरकाल तक चित्त में स्थिर रहता है, जिसे विरुद्ध या अवरुद्ध भाव दबा नहीं सकते और जो विभावादि से संबद्ध होने पर रसरूप में व्यक्त होता है, उस आनंद के मूलभूत भाव को ‘स्थाई भाव कहते हैं।’[4]

(ii) विभाव

जिसके कारण सहृदय को रस प्राप्त होता है, वह विभाव कहलाता है। “विभाव से अभिप्राय उन वस्तुओं और विषयों के वर्णन से है जिनके प्रति किसी प्रकार का भाव या संवेदना होती है।”[5] अर्थात् भाव के जो कारण होते हैं उन्हें विभाव कहते हैं।

विभाव दो प्रकार के होते हैं- आलंबन और उद्दीपन।

(A) आलंबन विभाव

भाव जिन वस्तुओं या विषयों पर आलंबित होकर उत्पन्न होते हैं उन्हें आलंबन विभाव कहते हैं। जैसे नायक-नायिका। आलंबन के भी दो भेद हैं- आश्रय और विषय।

(क) आश्रय

जिस व्यक्ति के मन में रति आदि भाव उत्पन्न होते हैं उसे आश्रय कहते हैं।

(ख) विषय

जिस वस्तु या व्यक्ति के लिए आश्रय के मन में भाव उत्पन्न होते हैं, उसे विषय कहते हैं।

उदाहरण के लिए यदि राम के मन में सीता के प्रति रति का भाव जागृत होता है तो राम आश्रय होंगे और सीता विषय। उसी प्रकार यदि सीता के मन में राम के प्रति रति भाव उत्पन्न हो तो सीता आश्रय और राम विषय होंगे।

(B) उद्दीपन विभाव

आश्रय के मन में भाव को उद्दीप्त करने वाले विषय की बाहरी चेष्टाओं और वाह्य वातावरण को उद्दीपन विभाव कहते हैं।

जैसे दुष्यंत शिकार खेलता हुआ कण्व के आश्रम में जा निकलता है। वहाँ शकुन्तला को वह देखता है। शकुन्तला को देख कर दुष्यन्त के मन में आकर्षण या रति भाव उत्पन्न होता है। उस समय शकुन्तला की शारीरिक चेष्टाएँ दुष्यन्त के मन में रति भाव को और अधिक तीव्र करती हैं। इस प्रकार शकुन्तला की शारीरिक चेष्टाओं को उद्दीपन विभाव कहा जायेगा। वन प्रदेश का एकान्त वातावरण आदि दुष्यन्त के रति भाव को और अधिक तीव्र करने में सहायक होगा। अतः उद्दीपन विभाव विषय की शारीरिक चेष्टा और अनुकूल वातावरण को कहते हैं।

(iii) अनुभाव

‘अनु’ उपसर्ग का अर्थ है- बाद में या पीछे। स्थायी भाव के उत्पन्न होने पर उसके बाद जो भाव उत्पन्न होते हैं उन्हें अनुभाव कहा जाता है। ‘आलंबन और उद्दीपन विभावों के करण उत्पन्न भावों को बाहर प्रकाशित करने वाले कार्य ‘अनुभाव’ कहलाते हैं।’[6] स्थायी भाव के जागरित होने पर आश्रय की बाह्य चेष्टाओं को अनुभाव कहते हैं, जैसे भय उत्पन्न होने पर हक्का-बक्का हो जाना, रोंगटे खड़े होना, काँपना, पसीने से तर हो जाना आदि।

यहाँ यह ध्यान देने की बात है कि बिना किसी भावोद्रेक के केवल भौतिक परिस्थिति के कारण यदि ये चेष्टाएँ दिखलायी पड़ती हैं तो उन्हें अनुभाव नहीं कहेंगे, जैसे जाड़े के कारण काँपना, गर्मी से पसीना निकलना आदि।

जहाँ विषय की बाहरी चेष्टाओं को उद्दीपन कहा जाता है वहाँ आश्रय के शरीर विकारों को अनुभाव कहते हैं। यानी अनुभाव हमेशा आश्रय से सम्बन्धित होते हैं। अनुभावों को भी रस सिद्धांत में निश्चित कर दिया गया है। स्तम्भ, स्वेद, रोमांच, स्वरभंग, कम्प, विवर्णता, अश्रु और प्रलाप- ये आठ अनुभाव माने जाते हैं।

जैसे शकुन्तला के प्रति रतिभाव के कारण दुष्यंत के शरीर में रोमांच, कम्प आदि चेष्टाएँ उत्पन्न होती हैं तो उन्हें अनुभाव कहा जाएगा।

अनुभाव के चार भेद हैं- कायिक, मानसिक, वाचिक और आहार्य।

(iv) व्यभिचारी या संचारी भाव

मन के चंचल विकारों को संचारी भाव कहते हैं। संचारी भाव भी आश्रय के मन में उत्पन्न होते हैं। संचारी भावों को व्यभिचारी भाव भी कहा जाता है। इसका पहला कारण यह है कि एक ही संचारी भाव कई रसों के साथ हो सकता है। दूसरा कारण यह है कि वह पानी के बुलबुले की तरह उठता और शांत होता रहता है। इसके विपरीत स्थायी भाव आदि से अंत तक बना रहता है और एक रस का एक ही स्थायी भाव होता है।

उदाहरण के लिए शकुन्तला के प्रति रति भाव के कारण शकुन्तला को देख कर दुष्यंत के मन में मोह, हर्ष, आवेग आदि जो भाव उत्पन्न होंगे, उन्हें संचारी भाव कहेंगे।

संचारी भावों की संख्या 33 है, जैसे- निर्वेद, चिंता, मोह, स्मृति, धैर्य, लज्जा, चपलता, आवेग, हर्ष, ग्लानि, शंका, निंद्रा, आलस्य, असूया, गर्व, विषाद, उत्सुकता, उग्रता, मति, त्रास, वितर्क, मद, दीनता आदि।

रस के स्थायी भाव तथा संचारी भावों के परस्पर संबंध को इस प्रकार प्रदर्शित किया जा सकता है-      

रसस्थायी भावसंचारी भाव
श्रृंगाररतिस्मृति, चिंता, हर्ष, मोह आदि।
हास्यहासहर्ष, निद्रा, आलस्य, चपलता आदि।
करुणशोकग्लानि, शंका, चिंता, दीनता, मोह आदि।
रौद्रक्रोधउग्रता, शंका, स्मृति आदि।
वीरउत्साहआवेग, हर्ष, गर्व आदि।
भयानकभयत्रास, ग्लानि, शंका, चिंता आदि।
वीभत्सजुगुप्सादीनता, निर्वेर्द, ग्लानि आदि।
अद्भुतविस्मयहर्ष, स्मृति, आवेग, शंका आदि।
शान्तनिर्वेदहर्ष, धृति, स्मृति आदि।
वात्सल्यवात्सल्यचिंता, शंका, हर्ष, धृति, स्मृति आदि।
स्थाई भाव और संचारी भावों का संबंध

इसे भी देखें-


रस निष्पत्ति और रसानुभूति का स्वरूप

अब तक रस के विभिन्न अवयवों के बारे में चर्चा हुई है। लेकिन यह जानकारी तो प्रारंभिक है। ये सभी अवयव जब एक-दूसरे के संबंध में गुँथ जाते हैं तो उस गुंथाव को रस प्रक्रिया कहते हैं। यानी रस तभी उत्पन्न होता है जब ये अवयव विशेष प्रक्रिया में सक्रिय हो उठते हैं। इसी प्रक्रिया को भरत का यह प्रसिद्ध सूत्र व्यक्त करता है-

‘विभावानुभाव व्यभिचारीसंयोगाद् रस निष्पत्तिः’[7]

अर्थात् विभाव, अनुभाव, व्यभिचारी के संयोग से रस की निष्पत्ति होती है। विभाव-अनुभाव आदि के योग से जो रस निष्पन्न होता है वह न तो विभाव ही है, न अनुभाव ही है, न संचारी-भाव ही है, न स्थायी भाव ही है, न इन सबका योगफल ही है और न इनके बिना रह ही सकता है। रस इन सब वस्तुओं से भिन्न है और फिर भी इन्हीं से निष्पन्न हुआ है। जो बात इस प्रसंग में विशेष रूप से लक्ष्य करने की है, वह यह है कि रस व्यंग्य होता है, वाच्य नहीं और रस निर्वैयक्तिक होता है। रस के व्यंग्य होने का तात्पर्य है कि उसका कथन नहीं किया जा सकता, वह लावण्य या कांति की भाँति प्रतीयमान होता है। रस के निर्वैयक्तिक होने का अर्थ है कि वह व्यक्ति की संकीर्ण सीमाओं से परे होता है।[8]

रस के भेद

आचार्य अभिनवगुप्त और मम्मट ने ‘स्थायी भाव’ के आधार पर नौ रस ही माने हैं, बाद में दो रस और जोड़ दिए गए जिससे रसों की संख्या 11 हो गई है, जो निम्नलिखित हैं- श्रृंगार, हास्य, करुण, रौद्र, वीर, भयानक, वीभत्स, अद्भुत, शान्त, वत्सल, भक्ति।

(i) श्रृंगार रस

श्रृंगार रस का आधार स्त्री-पुरुष का आकर्षण है जिसे शास्त्रीय भाषा में रति स्थायी भाव कहते हैं। जब विभाव, अनुभाव और संचारी के संयोग से रति भाव में आस्वाद की योग्यता उत्पन्न हो जाती है, उसे श्रृंगार रस कहते हैं।

श्रृंगार रस को अधिक व्यापक और गहरा माना जाता है। क्योंकि यह भाव सृष्टि में सबसे अधिक व्यापक है, इसीलिए इसे ‘रसराज’ भी कहा जाता है। इसमें दुखद और सुखद दोनों प्रकार की अनुभूतियाँ होती हैं। इसी आधार पर इसके दो भेद किए गए हैं- संयोग श्रृंगार और वियोग श्रृंगार।

श्रृंगार का स्थायी भाव रति है। इसके विभावों में आश्रय और आलंबन के अंतर्गत नायक-नायिका अथवा प्रेमी-प्रेमिका आते हैं जिनमें परस्पर प्रेम हो। उद्दीपन विभाव के अंतर्गत संयोग अवस्था में- रमणीय वातावरण, उपवन, चाँदनी रात, समीर, शरद, वसंत आदि ऋतु, एकांत स्थल, सखा, सखी तथा दूती तथा वियोग अवस्था में- सूनी सेज, वर्षा, कोयल की कूक, पपीहे की पुकार आदि होते हैं। अनुभाव के अंतर्गत संयोग अवस्था में- मधुर अलाप, अवलोकन, स्पर्श, आलिंगन, कटाक्ष, रोमांच तथा वियोग अवस्था में- अश्रु, वैवणर्य आदि आते हैं। समस्त संचारी भावों का प्रयोग होता है परंतु संयोग श्रृंगार में आलस्य, उग्रता, जुगुप्सा तथा मरण नहीं आते।

(A) संयोग श्रृंगार

जब कविता में नायक-नायिका के दर्शन, वार्तालाप, स्पर्श अथवा संयोग या मिलन का वर्णन किया जाता है तब संयोग श्रृंगार होता है।

उदाहरण-

‘लता ओट तब सखिन्ह लखाए।

स्यामल गौर किसोर सुहाए।

देखि रूप लोचन ललचाने।

हरषे जनु निज निधि पहिचाने।।’

यहाँ रतिभाव की आश्रय सीता हैं। आलम्बन राम हैं। उद्दीपन लता, मण्डप आदि हैं। राम का मोहक रूप तथा लोचनों का ललचाना और अपलक दृष्टि से देखना आदि अनुभाव हैं। अभिलाषा, हर्ष आदि संचारी हैं। इन सबके संयोग से रति भाव रस रूप में अनुभव होता है।

(B) विप्रलंभ श्रृंगार

विप्रलंभ वियोग को कहते हैं। वियोग की अवस्था में जब नायक-नायिका के प्रेम का वर्णन हो तो उसे वियोग या विप्रलंभ श्रृंगार कहते हैं।

उदाहरण के लिए मैथिलीशरण गुप्त की रचना, साकेत में उर्मिला वियोगावस्था में अपने संयोग के क्षणों को स्मरण करती है-

निसिदिन बरसत नैन हमारे।

सदा रहत पावस रितु हम पै जब तें स्याम सिधारे।

दृग अंजन लागत नहिं कबहूं उर कपोल भये कारे।

कंचुक नहिं सूखत सुन सजनी उर बिच बहत पनारे।

यहाँ कृष्ण आलंबन हैं। गोपियाँ आश्रय हैं। वर्षा उद्दीपन विभाव है। गोपियों का रुदन, उच्छ्वास आदि अनुभाव हैं। आवेग, चिंता, विषाद आदि संचारी भाव हैं। इन सबके संयोग से विप्रलंभ श्रृंगार की निष्पत्ति हुई है।

विप्रलंभ श्रृंगार तीन प्रकार का होता है- (क) पूर्वराग, (ख) मान और (ग) प्रवास

“प्रेमी-प्रेमिका की वास्तविक भेंट से पूर्व चित्र-दर्शन अथवा गुण-श्रवण से उत्पन्न प्रेम पूर्वराग कहलाता है। नायिका का रूठना मान के अंतर्गत आता है। मिल्न के उपरांत विदेश-गमन को प्रवास कहते हैं। इसके अतिरिक्त नायक-नायिका का मिलन यदि सदा के लिए असंभव हो जाए, तो उसे ‘करुण विप्रलंभ’ कहते हैं।”[9]

(ii) हास्य रस

हास्य के विभाव अर्थात् नायक-नायिका में जब कुछ विकृत चेष्टाओं का चित्रण या अनौचित्य आचरण का आभास पा लिया जाता है तो उससे हास स्थायी भाव जागृत हो जाता है। इस रस में यह ध्यान रखने की बात है कि अनौचित्य चित्त को प्रसन्न करने वाला होना चाहिए। हास्य रस के छ: भेद माने जाते हैं- स्मित, हसित, विहसित, अवहसित. अपहसित और अतिहसित अथवा अट्टहास।

हास्य रस का स्थायी भाव ‘हास’ है इसका आश्रय दर्शक होता है। हँसी या उपहास का पात्र या वस्तुएं, विलक्षण आकृति के प्राणी, विकृत वचन वाले मनुष्य इसके आलंबन विभाव तथा हँसा देने वाली चेष्टाएँ, अनोखी वेश-भूषा तथा वचन उद्दीपन विभाव बनाती हैं। अनुभाव के अंतर्गत आश्रय की हँसी, आँखों का मीचना, मुख का फैल जाना आदि तथा संचारी भाव के अंतर्गत हर्ष, चपलता और उत्सुकता आदि आते हैं।

उदाहरण से यह बात अधिक स्पष्ट होगी-

विन्ध्य के वासी, उदासी, तपोव्रतधारी महा बिनु नारि दुखारे।

गौतम तीय तरी ‘तुलसी’, सो कथा सुनि भे मुनिवृंद सुखारे।।

हवैहैं सिला सब चंद्रमुखी परसे पद मंजुल कंज तिहारे।

कीन्हीं भली रघुनायक जू, करुना करि कानन को पगु धारे।।

रामचंद्र जी के वनागमन पर विन्ध्य पर्वत के वन प्रदेश में तपस्या करने वाले तपस्वी बड़े प्रसन्न होते हैं। लेकिन उनकी प्रसन्नता का कारण राम का दर्शन पाना नहीं है बल्कि यह है कि राम के कोमल चरणों के स्पर्श से शिलाएँ सुंदर स्त्रियाँ बन जायेंगी। वे तपस्या तो वैराग्य के लिए कर रहे हैं लेकिन स्त्रियों के बिना बड़े दुखी हैं। इस प्रकार उनके व्यक्तित्व में असंगति का प्रवेश हो जाता है जो सहृदय के चित्त को प्रसन्न करता है।

यहाँ रामचंद्र आलंबन विभाव हैं और गौतमनारी (अहल्या) का उद्धार उद्दीपन है। मुनि लोगों का कथा सुनना अनुभाव है और हर्ष, उत्सुकता, चंचलता आदि संचारी भाव। इन सबके संयोग से हास्य रस की उत्पत्ति हुई है। किन्तु हास्य रस में असंगति और व्यंग्य की मात्रा इतनी अधिक न होनी चाहिए कि उससे दुःख या चोट पहुँचे।

(iii) वीर रस

जीवन और समाज में वीर कार्यों का महत्त्व बहुत अधिक होता है। इसलिए काव्य में भी वीर रस को बहुत मान्यता मिली हुई है। उत्साह स्थायीभाव जब विभावों, अनुभावों और संचारी भावों में पुष्ट होकर आस्वाद्य हो जाता है तब वीर रस उत्पन्न होता है।

वीर रस का स्थाई भाव उत्साह है, आलंबन शत्रु होता है। शत्रु, याचक तथा दयनीय व्यक्ति आदि इसके आलंबन विभाव होते हैं। शत्रु की चेष्टाएँ, सेना, रण-वाद्य, युद्ध का कोलाहल तथा याचक के वचन आदि उद्दीपन। बाँहों का फड़कना, मुँह लाल होना, उत्साहपूर्ण वाणी, पराक्रम का कथन और आक्रमण आदि अनुभाव इसके साथ रहते हैं तथा रोमांच, हर्ष, गर्व और उत्सुकता आदि संचारी भाव।

उदाहरण-

‘हे सारथे! हैं द्रोण क्या, देवेन्द्र भी आ कर अड़ें,

है खेल क्षत्रिय बालकों का व्यूह भेदन कर लड़ें।

मैं सत्य कहता हूँ सखे! सुकुमार मत जानो मुझे,

यमराज से भी युद्ध को प्रस्तुत सदा मानो मुझे।’

-मैथिलीशरण गुप्त (जयद्रथ वध)

इस कविता में द्रोणाचार्य द्वारा रचित चक्रव्यूह को भेदने के लिए अभिमन्यु अत्यंत उत्साहपूर्वक प्रस्तुत है। इसलिए अभिमन्यु आश्रय है। द्रोण आदि अन्य क्षत्रिय वीर आलंबन हैं। अभिमन्यु का कथन अनुभाव है। उसकी उत्सुकता और उग्रता संचारी भाव हैं। इन सबसे अभिमन्यु का उत्साह परिपुष्ट और आस्वाद्य होकर वीर रस में परिणत होता है।

उत्साह जीवन के कई क्षेत्रों में व्यक्त होता है। शास्त्रकारों ने ऐसे चार क्षेत्रों का उल्लेख किया है- युद्ध, धर्म, दया और दान। अतः इन चारों क्षेत्रों को लक्ष्य कर जब उत्साह का भाव जागृत और परिपुष्ट होता है तब वीर रस उत्पन्न होता है।

(iv) करुण रस

इष्ट वस्तु की हानि, अनिष्ट वस्तु का लाभ, प्रेम पात्र का चिर वियोग, अर्थ-हानि आदि से जहाँ शोक-भाव की परिपुष्टि होती है वहाँ करुण रस होता है।

करुण रस का महत्त्व कई कारणों से है। पहली बात कि दुख या शोक की संवेदना बड़ी गहरी और तीव्र होती है। दूसरी बात कि यह जीवन में सहानुभूति का भाव विस्तृत करता है। तीसरी और अधिक महत्त्वपूर्ण बात कि मनुष्य को भोग भाव से साधनाभाव की ओर प्रेरित करता है।[10]

‘करुणा का समावेश विप्रलम्भ श्रृंगार में भी होता है। दोनों में अंतर यह है कि वियोग श्रृंगार में प्रेमी-प्रेमिका के सदा को दूर रहने पर भी मिलने की संभावना बनी रहती है, जबकि करुण में मृत्यु होने से मिलने की आशा नष्ट हो जाती है।’[11]

करुण रस का स्थाई भाव शोक है, आश्रय शोक करने वाला होता है। मृत संबंधी या बंधू, दीन व्यक्ति आदि आलंबन और दाह कर्म, मृत से संबंधित वस्तुएँ (घर, वस्तु, आभूषण आदि), स्मृतियाँ आदि उद्दीपन होता है। रुदन, स्तंभ, रोना या प्रलाप करना, मूर्छित होकर गिर पड़ना, आहें भरना, दैव या भाग्य की निंदा करना आदि अनुभाव होते हैं और ग्लानि, मोह, चिंता, विषाद, उन्माद तथा जड़ता आदि संचारी भाव।

उदाहरण

अभिमन्यु की मृत्यु हो जाने के बाद उसकी पत्नी उत्तरा के दुख का वर्णन मैथिलीशरण गुप्त ने इस प्रकार किया है-

अभी तो मुकुट बँधा था माथ

हुए कल ही हल्दी के हाथ

खुले भी न थे लाज के बोल

खिले भी न चुंबन शून्य कपोल

हाय चूक गया संसार

बना सिंदूर अंगार।

कवि सुमित्रानंदन पंत की इन पंक्तियों में सुखमय संसार के अचानक नष्ट हो जाने से जन्मी निराशा की अभिव्यक्त हुई है। किसी नववधू का प्रियतम विवाह के बाद पहले ही दिन दिवंगत हो गया है। यहाँ पर नववधू आश्रय है। उसका दिवंगत पति विषय है। नायिका का दुख में मौन रह जाना अनुभाव है। विषाद, चिंता, लज्जा, आदि संचारी भाव हैं। इन सबसे शोक का भाव परिपुष्ट या प्रगाढ़ होकर करुण रस के रूप में व्यंजित हुआ है।

(v) रौद्र रस

विरोधी पक्ष द्वारा किसी मनुष्य, देश, समाज या धर्म का अपकार अथवा अपमान करने से उसके प्रतिशोध में जो क्रोध का भाव पैदा होता है वही रौद्र रस के रूप में अभिव्यक्त होता है।

रौद्र रस का स्थायी भाव क्रोध है, आश्रय क्रोध करने वाला होता है। अपना शत्रु, अत्याचारी, अशिष्ट व्यक्ति, दुराचारी, कपटी, देशद्रोही, खलनायक आदि इसमें आलंबन विभाव होते हैं तथा व्यक्ति के कार्य, अपराध, चेष्टाएँ, गर्वोक्तियाँ या छल आदि उद्दीपन। त्यौरी चढ़ाना, आँखे लाल होना, ओंठ चबाना या काटना, दाँत पीसना, अस्त्र-शस्त्र उठाना या चमकाना, डींग मारना, आवेग, कंप आदि इसमें अनुभाव होते हैं, क्रूरता, गर्व, उग्रता, चपलता, मद, अमर्ष आदि संचारी भाव।

उदाहरण-

श्रीकृष्ण के सुन वचन अर्जुन क्षोभ से जलने लगे।

सब शील अपना भूल कर करतल युगल मलने लगे।।

संसार देखे अब हमारे शत्रु रण में मृत पड़े।

करते हुए यह घोषणा वे हो गए उठ कर खड़े।।

-मैथिलीशरण गुप्त

इस छंद में अभिमन्यु का वध हो जाने के बाद कौरवों की प्रसन्नता अर्जुन के क्रोध-भाव का आलंबन है। कृष्ण के वचन, आश्रय रूप अर्जुन के क्रोध-भाव के उद्दीपन हैं। अर्जुन की घोषणा अनुभाव है और आवेग, उग्रता, अमर्ष, गर्व आदि संचारी हैं।

(vi) भयानक रस

भयानक वस्तु के देखने या सुनने से जब हृदय में वर्तमान भय परिपुष्ट होता है तब भयानक रस होता है।

भयानक रस का स्थाई भाव भय है, आश्रय भयभीत व्यक्ति होता है। भयानक वस्तु, व्यक्ति या जानवर आदि इसमें आलंबन विभाव होते हैं तथा भयंकर दृश्य, चेष्टाएँ, लपटें, डरावना स्वर, सन्नाटा आदि उद्दीपन। काँपना, पसीना आना, पलायन, मूर्च्छा, भौंचक्का होना, घिग्घी बंधना आदि अनुभाव तथा दीनता, चिंता, त्रास, संभ्रम, आवेश, मृत्यु आदि संचारी भाव इसके साथ रहते हैं।

उदाहरण-

एक ओर अजगरहिं लखि एक ओर मृगराय।

विकल बटोही बीच ही, पर्यो मूरछा खाय।।

यहाँ एक यात्री भय की दो परिस्थितियों के बीच पड़ गया है। एक ओर अजगर और दूसरी ओर सिंह है। यात्री भय के मारे मूछित हो जाता है। यहाँ यात्री आश्रय है, अजगर और सिंह आलंबन हैं। अजगर और सिंह की भयंकर आकृति और उनकी चेष्टाएँ उद्दीपन हैं। यात्री का काँपना, पसीना आना और मूर्छा अनुभाव हैं। इस प्रकार भयानक रस की व्यंजना हुई है।

(vii) वीभत्स रस

परिस्थिति के अनुरोध से काव्य में इस रस का भी प्रयोग हुआ है। बहुत-से लोग इसे सहृदय के अनुकूल नहीं भी मानते हैं। फिर भी जीवन में जुगुप्सा जनक या घृणा उत्पन्न करने वाली परिस्थितियाँ तथा वस्तुएँ कम नहीं हैं। इस कारण घृणा का भाव जब विभाव, अनुभाव और संचारी के संयोग से पुष्ट हो जाता है तब वीभत्स रस उत्पन्न होता है।

‘घृणा उत्पन्न करने वाले अमांगलिक, अश्लील या गंदे दृश्यों अथवा वस्तुओं के चित्रण से वीभत्स रस उत्पन्न होता है।’[12]

वीभत्स रस का स्थायी भाव जुगुप्सा या घृणा है, आश्रय वह होता है जिसमें घृणा का भाव जगे। घृणास्पद व्यक्ति या वस्तुएँ, शव इसमें आलंबन तथा दुर्गंधमय मांस, रक्त, अस्थि आदि उद्दीपन होते हैं। नाक सिकोड़ना, मुँह फेर लेना, थूकना, आँख मीचना, झिझकना, दूर हटना आदि अनुभाव तथा ग्लानि, आवेग, व्याधि, मूर्छा आदि संचारी भाव होते हैं।

उदाहरण-

सिर पर बैठ्यो काग आँख दोउ खात निकारत।

खींचत जीभहिं स्यार अतिहि आनंद उर धारत।

गीद्ध जाँधि को खोदि-खोदि के मांस उपारत।।

स्वान आंगुरिन काटि-काटि के खात विदारत।।

यह श्मशान घाट का चित्र है। राजा हरिश्चंद्र इस दृश्य को देख रहे हैं। इसलिए हरिश्चंद्र आश्रय हैं। मुर्दे, मांस और श्मशान का दृश्य आलंबन हैं। गीध, स्यार, कुत्ते आदि द्वारा मांस का नोचना और खाना उद्दीपन है। राजा का इनके बारे में सोचना अनुभाव है और मोह, ग्लानि आदि संचारी हैं। इन सबसे राजा के मन में उठने वाला है। घृणा का भाव स्थायी है। इस प्रकार यहाँ वीभत्स रस की व्यंजना हुई

(viii) अदभुत रस

चकित कर देने वाले दृश्यों या प्रसंगों के चित्रण से अद्भुत रस उत्पन्न होता है। आश्चर्यजनक वस्तुओं को देखने सुनने से विस्मय भाव जागृत होता है। वही रस चक्र में पड़ कर अद्भुत रस में परिणत होता है।

अदभुत रस का स्थायी भाव विस्मय या आश्चर्य है, आश्रय वह होता है जिसमें आश्चर्य जगे। अलौकिक वस्तु, चकित कर देने वाले व्यक्ति या दृश्य इसमें आलंबन और उनकी चेष्टाएँ अथवा वर्णन, आश्चर्यजनक वस्तुओं का दर्शन आदि उद्दीपन होते हैं। स्तंभित रह जाना, रोमांचित होना, आँखे फैलाना, दांतों तले उँगली दबाना, गद्गद होना, आँसू आना आदि अनुभाव और हर्ष, आवेग, भ्रांति, वितर्क. उत्सुकता आदि संचारी भाव इसके साथ रहते हैं।

उदाहरण-

अखिल भुवन चर-अचर सब,

हरि मुख में लखि मातु।

चकित भई गद्गद् वचन,

विकसित दृग पुलकातु।।

-काव्य कल्पद्रुम

यहाँ यशोदा कृष्ण के मुख में चर-अचर समस्त भुवन को देख कर चकित हो जाती हैं। उनका वचन गद्गद् हो जाता है, आँखें फैल जाती हैं।

इस प्रकार यहाँ यशोदा आश्रय हैं, कृष्ण-मुख आलंबन है। मुख के भीतर का दृश्य उद्दीपन है। आँखों का फैलना, गद्गद् वचन अनुभाव हैं और दैन्य, भय आदि संचारी हैं। इसमें आश्चर्य का भाव पुष्ट होकर अद्भुत रस में परिणत हुआ है।

(ix) शांत रस

मन में संयम, शांति या वैराग्य को जाग्रत करने वाले प्रसंगों के चित्रण में शांत रस होता है। ‘शम या निर्वेद नामक स्थायी भाव का उत्कर्ष होने पर शांत रस की प्रतीति होती है। शम का अर्थ शांत हो जाना और निर्वेद का अर्थ वेदना रहित होना है। ऐसी स्थिति में मनोविकार शांत हो जाते हैं। इसी कारण नाटक में शांत रस की स्थिति नहीं मानी गई है।’[13]

शांत रस का स्थायी भाव शम या निर्वेद (वैराग्य) है, आश्रय विरक्त व्यक्ति होता है। संसार की असारता का ज्ञान, परमात्मा का चिंतन या तत्व-ज्ञान इसका आलंबन और शांत या एकांत स्थान, आश्रम, तीर्थ स्थान, शास्त्रों का अनुशीलन एवं श्रवण, सत्संग आदि उद्दीपन होता है। रोमांच या गद्गद होना, एकांतप्रियता, अलौकिक प्रसन्नता, अश्रु-विसर्जन आदि अनुभाव तथा हर्ष, निर्वेद, स्मरण आदि संचारी भाव होते हैं।

उदाहरण-

सुत बनितादि जानि स्वारथ रत न करु नेह सबही ते।

अंतहि तोहि तजेंगे पामर! तूं न तजै अबही ते।।

अब नाथहि अनुराग जाग जड़, त्यागु दुरासा जीते।

बुझै न काम, अगिनि ‘तुलसी’ कहुँ विषय भोग बहु घी ते।।

-तुलसी (विनय पत्रिका)

इस पद्य में तुलसी ने सांसारिक मनुष्यों को संबोधित किया है। पुत्र, स्त्री आदि के संबंध स्वार्थजनित होते हैं। इनका मोह छोड़ देना उचित है। काम की आग विषय भोग से नहीं बुझती। इसलिए अरे मूर्ख! यह दुराशा छोड़ कर परमात्मा के प्रति अनुराग पैदा करो।

यहाँ संबोधित मनुष्य आश्रय है। सुत, बनिता आदि आलंबन हैं। इन्हें छोड़ने को कहना अनुभाव है। धृति, मति, विमर्श आदि संचारी हैं। इस प्रकार निर्वेद स्थायी भाव शांत रस में परिणत होता है।

(x) वात्सल्य रस

प्राचीन आचार्यों ने वात्सल्य रस को स्वीकार नहीं किया है। उन्होंने ‘स्नेह’, ‘भक्ति’, ‘वात्सल्य’ को रति का विशेष रूप माना है। किंतु अनेक आचार्यों ने वात्सल्य को रस माना है।

जहाँ पुत्र / संतान आदि अपने से छोटे के प्रति स्नेह या माता-पिता का वात्सल्य स्थायी भाव विभावों आदि के द्वारा अभिव्यक्त हो वहाँ वात्सल्य रस होता है। इसके दो अंग हैं- संयोग वात्सल्य और वियोग वात्सल्य।

वात्सल्य रस का स्थायी भाव वात्सल्य है। पुत्र, शिशु, शिष्य आदि इसके आलंबन विभाव तथा उनकी चेष्टाएँ उद्दीपन विभाव होती हैं। शिशु को गोंद में लेना, दुलारना आदि अनुभाव और हर्ष, शंका, स्मृति, आवेग आदि संचारी भाव होते हैं।

उदाहरण-

कबहुँ ससि माँगत आरि करें कबहूँ प्रतिबिंब निहारि डरैं।

कबहुँ करताल बजाइ के नाचत मातु सबै मन मोद भरैं।।

कबहुँ रिसिआई करें हठि के पुनि लेत सोई जेहि लागि अरैं।

अवधेश के बालक चारि सदा तुलसी मन मंदिर में विहरैं।।

-तुलसी (कवितावली)

यहाँ माता आश्रय हैं, चारों बालक आलंबन हैं, उनकी क्रीड़ाएँ उद्दीपन हैं। माताओं के मन में मोह भरना अनुभाव है। हर्ष, गर्व आदि संचारी हैं। इन सबके योग से इस पद्य में वात्सल्य रस की व्यंजना हुई है।

(xi) भक्ति रस

देव विषयक रति या राम, कृष्ण आदि के प्रति उज्ज्वल अनुराग को भक्ति के नाम से पुकारा जाता है। आचार्य मम्मट ने सर्वप्रथम ‘काव्य-प्रकाश’ में भगवद्-विषयक रति को स्वतंत्र भाव की संज्ञा दी। भक्ति रस का स्थायी भाव ‘भक्ति’ या ‘भगवद्-विषयक रति’ को माना गया है।

उदाहरण-

राम जपु, राम जपु, राम जपु, वावरे।

घोर भव नीर निधि, नाम निज नाव रे।।

रसों में पारस्परिक संबंध

किसी भी काव्य में एक साथ कई रस हो सकते हैं। इनमें से एक मुख्य रस होता है, दूसरे रस गौण होते हैं। परंतु जो रस परस्पर अनुकूल हो, वही एक साथ रचना में आते है।

श्रृंगार और वत्सल रस भी परस्पर अनुकूल हैं। वत्सल और हास्य रस भी एक साथ रह सकते हैं। वीर रस के साथ अद्भुत और रौद्र रस अनुकूल रहते हैं तो अद्भुत और रौद्र रसों के साथ वीर, श्रृंगार और अद्भुत भी परस्पर अनुकूल हैं।

कुछ रसों का आपस में विरोध है। प्रतिकूल रसों को एक साथ रचना में आने से रस दोष उत्पन्न होता है। श्रृंगार का करुण, वीर, रौद्र और भयानक के साथ। हास्य का भयानक और करुण के साथ। करुण का हास्य और श्रृंगार के साथ। वीर का भयानक और शांत के साथ। वीभत्स का श्रृंगार के साथ। शांत का वीर, रौद्र, श्रृंगार, हास्य और भयानक के साथ नहीं आते।[14]

रस और पुरुषार्थ का संबंध

भारतीय परंपरा में मानव जीवन के चार पुरुषार्थ माने गए हैं- धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष। काव्यशास्त्र के आचार्यों ने रस का अनिवार्य संबंध पुरुषार्थ से माना है। श्रृंगार और हास्य से काम पुरुषार्थ की, वीर रस और रौद्र रस से धर्म पुरुषार्थ की, भयानक और वीभत्स रसों से अर्थ पुरुषार्थ की तथा शांत रस से मोक्ष पुरुषार्थ की सिद्धि होती है।[15]


[1] साहित्य का स्वरूप-नित्यानंद तिवारी, पृष्ठ- 35

[2] साहित्य का स्वरूप-नित्यानंद तिवारी, पृष्ठ- 36

[3] रसमीमांसा- रामचंद्र शुक्ल, पृष्ठ- 172

[4] काव्यकल्पद्रुम, पृष्ठ- 152

[5] साहित्य का स्वरूप-नित्यानंद तिवारी, पृष्ठ- 36

[6] साहित्यदर्पण- विश्वनाथ

[7] भरत- नाट्यशास्त्र, अ. 6

[8] साहित्य का स्वरूप-नित्यानंद तिवारी, पृष्ठ- 39

[9] रस छंद अलंकार- विश्वम्भर मानव, पृष्ठ- 14

[10] साहित्य का स्वरूप-नित्यानंद तिवारी, पृष्ठ- 42

[11] रस छंद अलंकार- विश्वम्भर मानव, पृष्ठ- 15

[12] रस छंद अलंकार- राजेंद्र कुमार पांडेय, पृष्ठ- 14

[13] साहित्य का स्वरूप-नित्यानंद तिवारी, पृष्ठ- 45

[14] रस छंद अलंकार- विश्वम्भर मानव, पृष्ठ- 16

[15] रस छंद अलंकार- राजेंद्र कुमार पांडेय, पृष्ठ- 18

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