रीतिमुक्त कवि
इस वर्ग में वे कवि आते हैं जो ‘रीति’ के बन्धन से पूर्णतः मुक्त हैं अर्थात इन्होने काव्यांग निरूपण करने वाले ग्रन्थों लक्षण ग्रन्थों की रचना नहीं की अपितु हृदय की स्वतन्त्र वृत्तियों के आधार पर काव्य रचना किया।
रीतिमुक्त धारा के कालक्रमानुसार प्रमुख कवि आलम, घनानंद, बोधा, ठाकुर और द्विजदेव हैं। द्विजदेव को रीतिबद्ध और रीतिमुक्त दोनों वर्गों में रखा जाता है। द्विजदेव को रीतिमुक्त काव्यधारा का अंतिम कवि भी माना जाता है। रीतिमुक्त काव्यधारा पर फारसी साहित्य का प्रभाव पड़ा है।
रीतिमुक्त काव्यधारा के प्रमुख कवि और उनकी कृतियाँ
रीतिमुक्त काव्यधारा के प्रमुख कवि और उनकी कृतियाँ निम्न हैं-
घनानंद | 1. सुजान सागर, 2. सुजानहित, 3. इश्कलता, 4. विरहलीला, 5. वियोगबेलि, 6. कृपाकांड निबंध, 7. रसकेलिवल्ली, 8. यमुनायश, 9. लोकसार, 10. प्रीतिपावस, 11. पदावली, 12. प्रकीर्णक छंद |
आलम | 1. आलमकेलि, 2. माधवानलकामकंदला, 3. सुदामा चरित, 4. स्याम सेनही |
ठाकुर | 1. ठाकुर ठसक, 2. ठाकुर शतक |
बोधा | 1. विरहवारीश, 2. इश्कनामा |
घनानंद
रीतिमुक्त कवियों में सर्वप्रधान कवि घनानंद हैं। इनका जन्म 1689 ई. बुलंदशहर में हुआ था और मृत्यु वृन्दावन में 1739 ई. में हुआ था। ये मूलतः श्रृंगारी कवि हैं। इनका सर्वाधिक लोकप्रिय ग्रंथ सुजानसागर है।
घनानंद दिल्ली के बादशाह मुहम्मदशाह रंगीले के आश्रय में रहे। यहाँ पर वे मीर मुंशी थे। ये सुजान नामक नर्तकी से प्रेम करते थे। घनानंद गाते अच्छा थे, एक दिन बादशाह ने गाना गाने के लिए कहा परंतु ये टाल-मटोल करने लगे, तब अन्य दरबारियों ने कहा की यदि इनकी प्रेमिका सुजान कहे तभी ये गायेंगे। सुजान के कहने पर इन्होंने उसकी तरफ मुह और बादशाह की तरफ पीठ करके गाया। गाना तो बादशाह रंगीले को पसंद आया परंतु इनकी बेअदबी पर नाराज़ होकर इन्हें शहर से बाहर चले जाने का फरमान सुना दिया। तब इन्होंने सुजान से भी साथ चलने को कहा तो उसने मना कर दिया। इस पर इन्हें वैराग्य उत्पन्न हो गया। विराग उत्पन्न होने के बाद घनानंद वृंदावन आकर निम्बार्क सम्प्रदाय में दीक्षित हो गए।
घनानंद की मृत्यु 1739 ई. में नादिरशाह के सैनिकों द्वारा वृन्दावन में कर दी गई। नादिरशाह के सैनिकों ने इनसे ‘जर, जर, जर’ (धन, धन, धन) कहा तो इन्होंने शब्द को उलट कर ‘रज, रज, रज’ कहकर 3 मुट्ठी धुल उनपर फेंक दिया, जिस पर नाराज होकर उनलोगों ने इनकी हत्या कर दी।
· घनानंद के गुरु का नाम वृंदावनदेव था।
· घनानंद की ‘विरहलीला’ ब्रजभाषा में है किन्तु फारसी के छंद में है।
· घनानंद की कविताओं का सर्वप्रथम प्रकाशन हरिश्चंद्र ने ‘सुंदरी तिलक’ नाम से किया था।
· ब्रजनाथ ने ‘घनानंद कविता’ नाम से इनके कविताओं का प्रकाशन किया था।
· विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने ‘घनआनंद-ग्रंथावली’ और ‘घनआनंद कवित्त’ का संपादन किया है।
· घनानंद के प्रिय प्रतीक बादल और चातक हैं।
· घनानन्द के संदर्भ में शुक्ल की निम्न पंक्तियाँ महत्वपूर्ण हैं-
1. इनकी सी विशुद्ध, सरस और शक्तिशालिनी ब्रजभाषा लिखने में और कोई समर्थ नहीं हुआ। विशुद्धता के साथ प्रौढ़ता और माधुर्य भी अपूर्व है।
2. “ये साक्षात रसमूर्ति और ब्रजभाषा काव्य के प्रधान स्तम्भों में हैं।”
3. प्रेम की पीर ही को लेकर इनकी वाणी का प्रादुर्भाव हुआ। प्रेममार्ग का ऐसा प्रवीण और धीर पथिक तथा जबाँदानी का ऐसा दावा रखने वाला ब्रजभाषा का दूसरा कवि नहीं हुआ।
4. प्रेम की अनिर्वचनीयता का आभास घनानंद ने विरोधाभासों के द्वारा दिया है।
5. घनानंद जी उन विरले कवियों में हैं जो भाषा की व्यंजकता बढ़ाते हैं। अपनी भावनाओं के अनूठे रूपरंग की व्यंजना के लिए भाषा का ऐसा बेधड़क प्रयोग करने वाला हिन्दी के पुराने कवियों में दूसरा नहीं हुआ। भाषा के लक्षण और व्यंजक बल की सीमा कहाँ तक है, इसकी पूरी परख इन्हीं को थी।
6. भाषा पर जैसा अचूक अधिकार घनानंद का था वैसा और किसी कवि का नहीं।
· रामधारी सिंह दिनकर ने लिखा है, ‘रीतिकाल की बौद्धिक विरहानभति, निष्प्राणतो और कंठा के वातावरण में घनानंद की पीड़ा की टीस सहसा ही हृदय को चीर देती। है और मनसहज ही मान लेता है कि दूसरों के लिए किराये पर आँसू बहाने वाली के बीच यह एक ऐसा कवि है जो सचमुच अपनी पीड़ा में ही रो रहा है।”
आलम
· आलम जाति के ब्राह्मण थे किन्तु शेख नाम की रंगरेजिन, जिससे वे प्रेम करते थे, से विवाह कर मुसलमान हो गए थे।
· आलम औरगजेब के दूसरे बेटे बहादुरशाह मुअज्जम के आश्रय में रहते थे।
· आलम का कविता काल सन् 1683 से 1703 तक माना जाता है।
· आलम के विषय में शुक्ल ने लिखा है-
1. ये प्रेमोन्मत्त कवि थे और अपनी तरंग के अनुसार रचना करते थे। इसी से इनकी रचनाओं में हृदय तत्व की प्रधानता है। ‘प्रेम की पीर’ या ‘इश्क का दर्द’ इनके एक-एक वाक्य में भरा पाया जाता है।
2. प्रेम की तन्मयता की दृष्टि से आलम की गणना ‘रसखान’ और ‘घनानन्द’ की कोटि में ही होनी चाहिए।
बोधा
· बोधा का जन्म 18 वीं शती में राजापुर (बाँदा, उ. प्र.) में हुआ था। बोधा का वास्तविक नाम बुद्धिसेन था। पन्ना नरेश खेत सिंह ने बुद्धिसेन का उपनाम बोधा दिया था।
· पन्ना के दरबार की सुभान (सुबहान) नाम की एक गणिका से बोधा प्रेम करते थे।
· विरहवारीश की रचना माधवनल कामंदला की प्रसिद्ध प्रेम कथा पर लिखी गई है।
· इश्कनामा का दूसरा नाम दंपति विलाप है।
ठाकुर
रामचन्द्र शुक्ल ने तीन ठाकुर की चर्चा की है-
1. असली वाले प्राचीन ठाकुर, 2. असनी वाले दूसरे ठाकुर और 3. ठाकुर बुंदेलखंडी
· रीतिकाल की रीतिमुक्त काव्यधारा से ठाकुर बुंदेलखंडी का सम्बन्ध है। इनका मूल नाम लाला ठाकुरदास था।
· ठाकुर का जन्म 1763 ई. में बुंदेलखंड (म. प्र.) में हुआ था और मृत्यु 1824 ई. में हुआ था।
· ठाकुर के आश्रयदाता जैतपुर नरेश राजा केसरी सिंह तथा उनके पुत्र राजा पारीछत थे।
· लाला भगवानदीन ने ठाकुर के समस्त रचनाओं को ‘ठाकुर-ठसक ग्रंथावली’ नाम से संपादित किया है।
रामचन्द्र शुक्ल ने ठाकुर के सम्बन्ध में लिखा है कि-
1. ठाकुर बहुत ही सच्ची उमंग के कवि थे। इनमें कृत्रिमता का लेश नहीं है। न तो कहीं व्यर्थ का शब्दाडम्बर है, न कल्पना की झूठी उड़ान और न अनुभूति के विरुद्ध भावों का उत्कर्ष।
2. ठाकुर प्रधानतः प्रेम निरूपक होने पर भी लोक व्यवहार के अनेकांगदर्शी कवि थे।
3. लोकोक्तियों का जैसा मधुर उपयोग ठाकुर ने किया है वैसा और किसी कवि ने नहीं।