आदिकालीनरासो साहित्य
में रासो-काव्य ग्रन्थों का महत्वपूर्ण स्थान है । ये रासो ग्रन्थ जैन कवियों के ‘रस-काव्य’ से भिन्न है क्योंकि ये ग्रन्थ वीर रस प्रधान हैं और इनकी रचना चारण कवियों ने की है। यहाँ हम इस काव्य (raso kavya) परम्परा के प्रमुख बातों एवं ग्रंथो को प्रस्तुत कर रहे हैं ।
रासो शब्द की व्युत्पत्ति के संबंध में विभिन्न विद्वानों के मत-
विद्वान | रासो शब्द की व्युत्पत्ति |
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गार्सा-द-तासी | ‘राजसूय’ शब्द से |
नरोत्तम स्वामी | राजस्थानी भाषा के ‘रसिक’ शब्द से रसिक > रासक > रासो |
रामचन्द्र शुक्ल | ‘रसायन’ शब्द से |
हजारी प्रसाद द्विवेदी | संस्कृत के नाट्य उपरूपक ‘रासक’ शब्द से रासक > रासअ > रासा > रासो |
माता प्रसाद गुप्त एवं दशरथ शर्मा | ‘रासक’ शब्द से |
नंददुलारे वाजपेयी | ‘रास’ शब्द से |
कविराज श्यामलदास तथा काशी प्रसाद जायसवाल | ‘रहस्य’ शब्द से |
हरप्रसाद शास्त्री | ‘राजयश’ शब्द से |
रामचन्द्र शुक्ल ने रासो शब्द की व्युत्पत्ति ‘रसायन’ शब्द से मानने के समर्थन में वीसलदेव रासो की एक पंक्ति को में प्रस्तुत किया है-
“बारह सौ बहोत्तरां मझरि, जेठ बदी नवमी बुधवारि ।
नाल्ह रसायण आरंभई शारदा तूठी ब्रहम कुमारि ।।”
हजारी प्रसाद द्विवेदी का मत सबसे तर्कसंगत एवं सर्वमान्य है । उन्होंने लिखा की ‘रासक’ एक ‘छंद’ भी है और ‘काव्य भेद’ भी । वीरगाथाओं में चारण कवियों ने ‘रासक’ शब्द का प्रयोग चरित काव्यों के लिए किया है । साथ ही अपभ्रंश में 29 मात्राओं का एक छंद प्रचलित रहा, जिसे ‘रास’ या ‘रासा’ कहते थे । रासक छंद प्रधान रचनाओं को रास काव्य कहा जाता था । बाद में रास काव्य उन रचनाओं के लिए प्रयोग होने लगा जिसमे किसी भी गेय छंद का प्रयोग किया गया हो । प्रारंभ में ‘रास’ छंद केवल प्रेमपरक रचनाओं के सन्दर्भ में प्रयुक्त होता था, बाद में वीर रस प्रधान रचनाएँ भी इसी छंद में लिखी जाने लगीं ।
प्रमुख रासो कवि और उनकी रचनाएँ-
रचयिता | काव्य ग्रंथ | रचनाकाल |
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1. शार्ङ्गधर | हम्मीर रासो(अपभ्रंस) | 1357 ई. |
2. दलपति विजय | खुमाण रासो(राजस्थानी) | 1729 ई. |
3. जगनिक | परमाल रासो | सं. 1230 |
4. चंदरबरदाई | पृथ्वीराज रासो(डिंगल-पिंगल) | 1343 ई. |
5. नल्ह सिंह | विजयपाल रासो | 16वीं शती |
6. नरपति नाल्ह | बीसलदेव रासो(अपभ्रंश) | 1212 ई. |
7. अज्ञात | मुंज रासो | – |
रासो ग्रंथों के संदर्भ में महत्वपूर्ण बातें-
- रासो शब्द की व्युत्पत्ति ‘रासक’ से हुई है जो एक गेय छंद है।
- अधिकतर रासो ग्रंथ अप्रमाणिक हैं।
- आदिकालीन रासो-काव्यों के प्रमुख छंद- छप्पय, तोटक, तोमर, पद्वरि, नाराच थे। (आदिकालीन हिंदी साहित्य का सबसे लोकप्रिय छंद ‘दोहा’ था)
- ‘डिंगल शैली’ का प्रयोग ‘वीर रस’ की रचनाओं में होता था।
- ‘पिंगल शैली’ का प्रयोग कोमल भों की अभिव्यंजना के लिए होता था।
गेय रासो काव्य- बीसलदेव रासो, परमाल रासो
प्रमुख रासो ग्रंथ
(i) दलपति विजय- खुमाण रासो
- खुमाण रासो काव्य 5000 छंदों में रचित है ।
- खुमाण रासो का नायक मेवाड़ का राजा खुमान द्वितीय है ।
- रामचंद्र शुक्ल ने इसे 9वीं शताब्दी में रचित माना है । जबकि 17वीं शताब्दी के चितौड़गढ़ नरेश राजसिंह के राजाओं तक का वर्णन मिलता है
(ii) जगनिक- परमाल रासो या आल्हाखंड
- ‘आल्हा खंड’ परमाल रासो से विकसित हुआ माना जाता है।
- परमाल रासो में ही ‘आल्हा-उदल’ नामक दो वीर सरदारों की वीरतापूर्ण लड़ाईओं का वर्णन मिलता है।
- ‘आल्हा खंड’ का सर्वप्रथम प्रकाशन 1865 ई. में फर्रुखाबाद के तत्कालीन जिलाधीश ‘चाल्स एलियट’ ने करवाया था।
- ‘आल्हा खंड’ का अंग्रेजी अनुवाद ‘वाटरफील्ड’ ने किया था।
- ‘आल्हा खंड’ लोकगीत के रूप में बैसवाड़ा, पूर्वांचल, बुन्देलखण्ड में गाया जाता है।
- आल्हा गीत बरसात ऋतु में गाया जाने वाला लोकगीत है।
- रामचंद्र शुक्ल- “ जगनिक के काव्य का आज कहीं पता नहीं है पर, उसके आधार पर प्रचलित गीत, हिंदी भाषा-भाषी प्रान्तों के गाँव-गाँव सुनाई पड़ते हैं। यह गूंज मात्र है मूल शब्द नहीं ।”
- हजारी प्रसाद द्विवेदी- “जगनिक के मूल काव्य का क्या रूप था, यह कहना कठिन हो गया है । अनुमानत: इस संग्रह का वीरत्वपूर्ण स्वर तो सुरक्षित है, लेकिन भाषा और कथानकों में बहुत अधिक परिवर्तन हो गया है ।इसलिए चंदबरदाई के पृथ्वीराज रासो की तरह इस ग्रंथ को भी अर्द्धप्रामाणिक कह सकते हैं।
- वीर भावना का जितना प्रौढ़ रूप इस ग्रंथ में मिलता है, वैसा अन्यत्र दुर्लभ है।
- परमाल रासो के नायक आल्हा का विवाह ‘सोनवा’ से और उदल का ‘विवाह’ फुलवा’ से हुआ था।
(iii) शार्ङ्गधर- हम्मीर रासो
- रामचंद्र शुक्ल हम्मीर रासो से अपभ्रंश की रचनाओं की परम्परा का अंत मानते हैं।
- हम्मीर रासो के कुछ छंद ‘प्राकृत-पैंगलम् में मिलते हैं।
- राहुल सांकृत्यायन ने इसे ‘जज्जल’ रचित माना है।
- हम्मीर रासो में राजा हम्मीर और अलाउद्दीन के युद्धों का वर्णन है।
(iv) नल्ह सिंह- विजयपाल रासो
- मिश्र बंधुओं के अनुसार इसका रचनाकाल 14वीं शती है। (सर्वमान्य 16वीं शती)
- अपभ्रंश भाषा में रचित है।
(v) नरपति नाल्ह- बीसल देव रासो
- बीसलदेव रासो एक विरह गीत काव्य है।
- बीसलदेव रासो मुक्तक परम्परा का प्रतिनिधि गेय काव्य है।
- बीसलदेव रासो का प्रमुख रस श्रृंगार है।
- हिंदी का प्रथम बारहमासा वर्णन बीसलदेव रासो में मिलता है, जिसका प्रारंभ ‘कार्तिक मास’ से होता है।
- बीसलदेव रासो में छन्द वैविध्य के साथ-साथ विभिन्न राग-रागनियों (विशेषत: राग केदार) का प्रयोग भी मिलता है।
- इसमें मेघदूत एवं संदेश रासक की परम्परा भी विद्यमान है।
- बीसलदेव रासो पर जिनदत्त सूरि के उपदेश रसायन का भी प्रभाव दिखाई देता है।
- बीसलदेव रासो में 125 छन्दों का प्रयोग हुआ है।
- इस ग्रंथ का मूल संदेश यह है कि कोई स्त्री लाख गुणवती हो, यदि वह पति से कोई बात बिना सोचे-समझे करती है तो सबकुछ बिगड़ सकता है। इसीलिए इस ग्रंथ को श्रृंगारपरक होते हुए भी नीतिपरक माना जाता है।
- रामचंद्र शुक्ल ने ‘वीसलदेव रासो’ को वीरगीत के रूप में सबसे पुरानी पुस्तक माना है।
- बीसलदेव रासो की नायिका ‘राजमती’ (भोज परमार की पुत्री) है।
- बीसलदेव रासो को चार भागों में विभक्त किया गया है-
- प्रथम खंड- अजमेर के राजा विग्रहराज (बीसलदेव) का भोज परमार की पुत्री राजमती के विवाह को दिखाया गया है।
- द्वितीय खंड- रानी के व्यंग से रुष्ट राजा के उड़ीसा चले जाने की कथा है।
- तृतीय खंड- रानी के विरह वृतांत
- चतुर्थ खंड- दोनों के मिलन
बीसलदेव रासो के रचनाकाल पर विभिन्न विद्वानों का मत
रामचंद्र शुक्ल | सं. 1212 |
हजारी प्रसाद द्विवेदी | सं. 1212 |
रामकुमार वर्मा | सं. 1058 |
मिश्रबंधु | सं. 1220 |
मोतीलाल मनेरिया | सं. 1545 – 1560 |
गौरीशंकर हीराचन्द्र ओझा | सं. 1030 – 1056 |
सर्वमान्य मत | 1212 ई. |
(vi) चंदरबरदाई– पृथ्वीराज रासो
- सूरदास ने साहित्य लहरी में स्वयं को चंदरबरदाई का वंशज बताया है।
- पृथ्वीराज रासो श्रृंगार एवं वीररस प्रधान ग्रंथ है।3. चंदरबरदाई ‘छप्पय’ छंद के विशेषज्ञ थे।
- पृथ्वीराज रासो में 69 सर्ग (समय) हैं।5. ‘पृथ्वीराज रासो’ के सर्ग या अध्याय को ‘समय’ कहा जाता है।
- ‘पृथ्वीराज रासो’ का प्रथम समय- ‘आदि समय’ है । ‘कनउज्जसमय’ में जयचंद्र एवं पृथ्वीराज के बीच युद्ध का वर्णन है। पद्मावतीसमय एवं कैमास वध अन्य उल्लेखनीय समय हैं।
- इसे हिंदी का प्रथम महाकाव्य माना जाता है।
- ‘पृथ्वीराज रासो’ का काव्य रूप- प्रबंधकाव्य (महाकाव्य) है।
- जनश्रुति है की ‘चंदरवरदायी’ और उनके आश्रयदाता ‘पृथ्वीराज चौहान’ का जन्म एवं मरण एक ही दिन हुआ था।
- चंदरवरदायी कृत ‘पृथ्वीराज रासो’ को उनके पुत्र ‘जल्हन’ ने पूरा किया था।
- ‘पृथ्वीराज रासो’ में पृथ्वीराज चौहान और जयचंद्र के युद्ध का वर्णन ‘कन-उज्ज-समय’ अध्याय (समय) में मिलता है।
- ‘पृथ्वीराज रासो’ की कथा कित्ती कथा के रूप में संवादात्मक शैली में चलती है।
- ‘पृथ्वीराज रासो’ के प्रथम विदेशी उद्वारकर्ता ‘कर्नल जेम्स टाड’ हैं।
पृथ्वीराज रासो के संदर्भ में विभिन्न विद्वानों के मत-
- रामचंद्र शुक्ल ने हिंदी का प्रथम महाकवि ‘चंदरवरदायी’ को और उनके ग्रंथ ‘पृथ्वीराज रासो’ को प्रथम महाकाव्य माना है।
- बच्चन सिंह ने ‘पृथ्वीराज रासो’ कोराजनीति की महाकाव्यात्मक त्रासदी माना है।
- बच्चन सिंह- “समग्र महाकाव्य के भीतर से पृथ्वीराज की त्रासदी के साथ एक सामाजिक-राजनितिक त्रासदी भी उभरती है जो जितना पृथ्वीराज की है उससे कहीं अधिक राष्ट्र की है “
- हजारी प्रसाद द्विवेदी ‘पृथ्वीराज रासो’ को शुक-शुकी संवाद के रूप में रचित मानते हैं।
- नागेन्द्र ने पृथ्वीराज रासो में 68 प्रकार के छन्दों का प्रयोग माना है।
- नामवर सिंह- वस्तुतः हिंदी में चंद को छंदों का राजा कहा जा सकता है। भाव भंगिमा के साथ-साथ दना-दन भाषा नये-नये छंदों की गति धारण करते हुए चलती है।
पृथ्वीराज रासो को प्रामाणिक मानाने वाले विद्वान
1. श्यामसुंदर दास, 2. मिश्रबंधु, 3. कर्नल टाड, 4. राधाकृष्ण दास, 5. मोतीलाल मनेरिया, 6. मोहनलाल विष्णुलाल पांड्या, 7. कुंवर कन्हैयाजू
पृथ्वीराज रासो को अप्रामाणिक मानाने वाले विद्वान
1. रामचंद्र शुक्ल, 2. बूलर, 3. रामकुमार वर्मा, 4. गौरीशंकर हीराचंद्र ओझा, 5. मुंशी देवी प्रसाद, 6. कविराजा मुरारीदान, 7. कविराजा श्यामदास
- सर्वप्रथम बूलर ने 1875 ई. में ‘पृथ्वीराज विजय’ ग्रंथ के आधार पर ‘पृथ्वीराज रासो’ को अप्रामाणिक घोषित किया।
- पृथ्वीराज विजय’ ग्रंथ को पृथ्वीराज की राजसभा के कश्मीरी कवि ‘जयानक’ ने संस्कृत भाषा में लिखा है ।
पृथ्वीराज रासो को अर्द्ध प्रामाणिक मानाने वाले विद्वान
1. सुनीति कुमार चटर्जी, 2. हजारी प्रसाद द्विवेदी, 3. दशरथ शर्मा, 4. मुनि जिनविजय, 5. विपिन बिहारी चतुर्वेदी, 6. अगरचंद्र नाहटा
पृथ्वीराज रासो को मुक्तक काव्य मानाने वाले विद्वान
नरोत्तम स्वामीनरोत्तम स्वामी का मत था कि ‘चंद’ ने पृथ्वीराज के दरबार में रहकर मुक्तक रूप में ‘रासो’ की रचना की ।
पृथ्वीराज रासो के चार संस्करण
पृथ्वीराज रासो के चार संस्करण प्रसिद्ध हैं-
1. वृहत्तर रूपांतरण | 16306 छंद, 69 समय, काशी नागरी सभा द्वारा प्रकाशित |
2. माध्यम रूपांतरण | 7000 छंद, अबोहर एवं बीकानेर में हस्तलिखित प्रति सुरक्षित है |
3. लघु रूपांतरण | 3500 छंद, 19 समय, बीकानेर में प्रतियाँ सुरक्षित हैं |
4. लघुत्तम रूपांतरण | 1300 छंद, दशरथ शर्मा इसी को मूल रासो मानते हैं |
- सबसे बड़ा संस्करण ‘नागरी प्रचारिणी सभा, काशी से प्रकाशित है, जिसमें 16306 छंद तथा 69 समय है।
- माता प्रसाद गुप्त ने पृथ्वीराज रासो के चार पाठ निर्धारित किए हैं।
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