परिंदे कहानी और निर्मल वर्मा का परिचय
निर्मल वर्मा को प्रायः स्मृति का कहानीकार माना गया है। 1956 ई. में परिदें कहानी का प्रकाशन होता है। इसी नाम से उनका कहानी संग्रह भी है जिसमें कुल 7 कहानियाँ हैं- अंधेर में, तीसरा गवाह, डायरी का खेल, माया का मर्म, पिक्चर पोस्टकार्ड, सितंबर की एक शाम और इस संग्रह की अंतिम कहानी परिंदे है।
कहानी-संग्रह- परिंदे (1959), जलती झाड़ी (1965), पिछली गर्मियों में (1968), बीच बहस में (1973): (छुट्टियों के बाद, वीकएंड, दो घर, बीच बहस में।), मेरी प्रिय कहानियाँ (1973): (दहलीज़, परिन्दे, अंधेरे में, डेढ़ इंच ऊपर, अन्तर, लन्दन की एक रात, जलती झाड़ी।), प्रतिनिधि कहानियाँ (1988), कव्वे और काला पानी (1983), सूखा तथा अन्य कहानियाँ (1995)।, ग्यारह लम्बी कहानियाँ: (परिन्दे, अँधेरे में, लन्दन की एक रात, पिछली गर्मियों में, बीच बहस में, दो घर, दूसरी दुनिया, सुबह की सैर, कव्वे और काला पानी, सूखा, बुख़ार।), दस प्रतिनिधि कहानियाँ।
परिंदे कहानी के प्रमुख पात्र
लतिका- इस कहानी की नायिका या केन्द्र बिन्दु यही है।
सुधा- होस्टल में शायद वह सबसे अधिक लोकप्रिय लड़की।
जूली- होस्टल की लड़की, जिसका प्रेमपत्र लतिका के हाँथ लग गया है।
करीमुद्दीन- होस्टल का नौकर, मिलिट्री में अर्दली रह चुका था।
डॉ. मुकर्जी- आधे बर्मी थे, कुछ लोगों का कहना था कि बर्मा से आते हुए रास्ते में उनकी पत्नी की मृत्यु हो गयी, लेकिन इस सम्बन्ध में निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता क्योंकि डाक्टर स्वयं कभी अपनी पत्नी की चर्चा नहीं करते।, इन्हे फिलासोफाइज करने की आदत थी।
मि. ह्यूबर्ट- संगीत शिक्षक, पियानो बहुत मन से बजाते हैं। लतिका से प्रेम करता है, भावुक याचना से भरा हुआ प्रेमपत्र भी लिख चुका था।
प्रिंसिपल मिस वुड- पोपला मुँह, आँखों के नीचे झूलती हुई माँस की थैलियाँ, ज़रा-ज़रा सी बात पर चिढ़ जाना, कर्कश आवाज में चीखना- सब उसे ‘ओल्डमेड’ कहकर पुकारते हैं।
गिरीश नेगी- कुमाऊँ रेजीमेंट में कैप्टन था जिससे लतिका प्रेम करती थी।
एल्मण्ड- फादर
परिंदे कहानी का सारांश
‘परिंदे’ निर्मल वर्मा की सशक्त कहानियों में से एक है। ‘परिन्दे’ कहानी-संग्रह की यह अंतिम कहानी है और इसका शीर्षक प्रतीकात्मक है, जिससे आधुनिक मानव की नियति को पकड़ने की कोशिश किया गया है। जहाँ सभी मनुष्य किसी-न-किसी के लिए प्रतीक्षित हैं। कहानी की नायिका लतिका इस कहानी का केन्द्र बिन्दु है। वह एक पहाड़ी स्कूल में वार्डन है। वह कुमाऊँ के कॉन्वेन्ट स्कूल में शिक्षिका भी है। मिस्टर ह्यूबर्ट, डॉ. मुकर्जी और मिस वुड आदि उसके साथ उस स्कूल में शिक्षक हैं। कहानी में उस समय का ज़िक्र है, जब सर्दी की छुट्टियाँ होने वाली हैं और होस्टल खाली होने का समय आ गया है। पिछले दो-तीन सालों से मिस लतिका होस्टल में ही रह रही हैं और डाक्टर मुकर्जी छुट्टियों में कहीं नहीं जाते, डाक्टर तो सर्दी-गर्मी में भी यहीं रहते हैं।
कहानी की नायिका लतिका कॉनवेन्ट के स्कूल के होस्टल के रंगीन वातावरण में अकेलेपन के संत्रास में जी रही है। कुछ वर्ष पूर्व उसके जीवन में ऐसा घटित हो चुका है जिसे वह चाहकर भी विस्मृति नहीं कर पा रही है। कुमाऊँ रेजिमेंट सेंसर के कैप्टन गिरीश नेगी से लतिका ने प्रेम किया था और युद्ध के कारण उन्हें कश्मीर जाना पड़ा। उसके बाद गिरीश नेगी लौट नहीं सके। प्लेन-दुर्घटना में गिरीश की मृत्यु हो चुकी है। पर अब भी लतिका उसे भूल नहीं पाती। वह मेजर गिरीश के साथ गुज़ारे दिनों की स्मृतियों को अपना साथी बना, कॉनवेन्ट स्कूल में नौकरी करते हुए दिन व्यतीत करती है।
मिस्टर ह्यूबर्ट ने एक बार लतिका को प्रेम पत्र लिखा था। लतिका को उसके इस बचकाना हरकत पर हँसी आयी थी, किन्तु भीतर-ही-भीतर प्रसन्नता भी हुई थी। ह्यूबर्ट का पत्र पढ़कर उसे क्रोध नहीं आया, आयी थी केवल ममता। लतिका को लगा था कि वह अभी इतनी उम्रवाली नहीं हो गई कि उसके लिए किसी को कुछ हो ही न सके। लेकिन फिर भी उसे नहीं लगता कि उसे वैसी ही अनुभूति अब किसी के लिए हो पाएगी। लतिका अपने बीते दिनों की दुःखद घड़ियों को भूलना चाहती है, लेकिन इस भूलने की प्रक्रिया में वे उन्हीं चीज़ों को और याद करती हैं, जिसे वे भूलना चाहती हैं। इस तथ्य को वह समझती भी है- “लतिका को लगा कि जो वह याद करती है, वही भूलना भी चाहती है, लेकिन सचमुच भूलने लगती है, तब उसे भय लगता है कि जैसे कोई उसकी किसी चीज को उसके हाथों से छीने लिये जा रहा है, ऐसा कुछ जो सदा के लिए खो जाएगा।”
डॉक्टर मुखर्जी ‘परिन्दे’ का सर्वाधिक जीवन्त पात्र है। लेकिन मानव नियति के वे भी लतिका की तरह शिकार हैं। पहाड़ी जीवन एवं प्रैक्टिस के बारे में मिस वुड से वह कहता है- “प्रैक्टिस बढ़ाने के लिए कहाँ-कहाँ भटकता फिरूँगा, मिस वुड। जहाँ रहो वहीं मरीज मिल जाते हैं। यहाँ आया कुछ दिनों के लिए- फिर मुद्त हो गई और टिका रहा। जब कभी जी ऊबेगा, कहीं चलता जाऊंगा। जड़ें कहीं नहीं जमतीं, तो पीछे भी कुछ नहीं छूट जाता। मुझे अपने बारे में कोई गलतफहमी नहीं है मिस वुड, मैं सुखी हूँ।” डॉक्टर मुखर्जी का एक दूसरा रूप भी है जब वे कहते हैं कि लतिका तो बच्ची है, मरनेवाले के साथ मरा थोड़े ही जाता है।
ह्यूबर्ट अपने हृदय की सम्पूर्ण भावनाओं के साथ लतिका को प्रेम करता है। लतिका के अचेतन मन में भी ह्यूवर्ट के प्रति सहानुभूति और आकर्षण है। कहानी में यह तथ्य बाहर भी आता है- “ह्यूबर्ट के स्वर में व्यथा की छाया लतिका से छिपी न रह सकी। बात को टालते हुए उसने कहा- आप तो नाहक चिन्ता करते हैं, मि. ह्यूबर्ट! आजकल मौसम बदल रहा है, अच्छे भले आदमी तक बीमार हो जाते हैं। ह्यूबर्ट का चेहरा प्रसन्नता से दमकने लगा। उसने लतिका को ध्यान से देखा।” कहानी में अपने परिवार से छूटा हुआ डॉक्टर भी अकेला है। वह कहानी के प्रेमी चरित्रों के बीच हल्का-हल्का संबन्ध-सूत्र बनकर ही मूल संवेदना के साथ जुड़ता है।
जिस दिन मि. ह्यूवर्ट लतिका से माफी मांगते हैं, उसी रात डॉक्टर मुखर्जी उसे अचेतनावस्था में मिलते हैं। मि. ह्यूवर्ट वेहोशी में यही बड़बड़ाते रहते हैं- “इन ए बैक लेन ऑफ द सिटी, देयर इज ए गर्ल हू लब्ज मी…. ह्यूवर्ट हिचकियों के वीच गुनगुना उठता था।” ‘परिन्दे’ टूटे हुए प्रेम के प्रतिक हैं।
मिस वुड प्रेंसिपल हैं अक्सर छुट्टियो में इनका रूम खाली रहता है। लतिका कभी-कभी इनके खाली कमरे में चोरी-चुपके सोने चली जाया करती थी क्योंकि मिस वुड का कमरा बिना आग के भी गर्म रहता था।
लतिका आखिरी चक्कर लगाने के लिए निकलती है, और अन्त में सोचकर कि शायद जूली का प्रथम परिचय ही हो, वह उसका खत उसके तकिये के नीचे रख आती है। जूली होस्टल की लड़की है जो किसी फौजी से प्रेम करती है और उसका पत्र लतिका को मिल जाता है।
परिंदे कहानी के प्रमुख कथन
डॉ. मुकर्जी- “मरने से पहले मैं एक दफा बर्मा जरूर जाऊँगा”
डाक्टर मुकर्जी- “सब लड़कियाँ एक-जैसी होती है- बेवकूफ और सेंटीमेंटल।”
डाक्टर मुकर्जी- ह्यूबर्ट, क्या तुमने कभी महसूस किया है कि एक अजनबी की हैसियत से परायी जमीन पर मर जाना काफ़ी खौफनाक बात है…!”
डाक्टर मुकर्जी- “कोई पीछे नहीं है, यह बात मुझमें एक अजीब किस्म की बेफिक्री पैदा कर देती है। लेकिन कुछ लोगों की मौत अन्त तक पहेली बनी रहती है, शायद वे ज़िन्दगी से बहुत उम्मीद लगाते थे। उसे ट्रैजिक भी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि आखिरी दम तक उन्हें मरने का एहसास नहीं होता।”
डॉक्टर मुखर्जी- “लतिका… वह तो बच्ची है, पागल! मरनेवाले के संग खुद थोड़े ही मरा जाता है।”
लतिका- फिर कुछ दिनों बाद विण्टर स्पोट्र्स के लिए अंग्रेज टूरिस्ट आते हैं। हर साल मैं उनसे परिचित होती हूँ, वापिस लौटते हुए वे हमेशा वादा करते हैं कि अगले साल भी आयेंगे, पर मैं जानती हूँ कि वे नहीं आयेंगे, वे भी जानते हैं कि वे नहीं आयेंगे, फिर भी हमारी दोस्ती में कोई अंतर नहीं पड़ता।
डाक्टर मुकर्जी- “जंगल की आग कभी देखी है, मिस वुड…एक अलमस्त नशे की तरह धीरे-धीरे फैलती जाती है।”
मिस वुड- “लेकिन डाक्टर, कुछ भी कह लो, अपने देश का सुख कहीं और नहीं मिलता। यहाँ तुम चाहे कितने वर्ष रह लो, अपने को हमेशा अजनबी ही पाओगे।”
– जंगल की खामोशी शायद कभी चुप नहीं रहती।
डाक्टर मुकर्जी- “शायद कुछ कहतीं, लेकिन बदकिस्मती से बीच में ही मुझे नींद आ गयी। मेरी जिन्दगी के कुछ खूबसूरत प्रेम-प्रसंग कम्बख्त इस नींद के कारण अधूरे रह गये हैं।”
लतिका- क्या वे सब भी प्रतीक्षा कर रहे हैं? वह, डाक्टर मुकर्जी, मि. ह्यूबर्ट, लेकिन कहाँ के लिए, हम कहाँ जायेंगे?
लतिका- “वैसे हम सबकी अपनी-अपनी जिद होती है, कोई छोड़ देता है, कोई आखिर तक उससे चिपका रहता है।”
डाक्टर मुकर्जी- “कभी-कभी मैं सोचता हूँ मिस लतिका, किसी चीज को न जानना यदि गलत है, तो जान-बूझकर न भूल पाना, हमेशा जोंक की तरह उससे चिपटे रहना, यह भी गलत है।”
लतिका- सबकुछ होने के बावजूद वह क्या चीज़ है जो हमें चलाये चलती है, हम रुकते हैं तो भी अपने रेले में वह हमें घसीट ले जाती है।
लतिका- “वह क्या किसी को भी चाह सकेगी, उस अनुभूति के संग, जो अब नहीं रही, जो छाया-सी उस पर मंडराती रहती है, न स्वयं मिटती है, न उसे मुक्ति दे पाती है।”
-‘मुझे लगा, पियानो का हर नोट चिरंतन खामोशी की अँधेरी खोह से निकलकर बाहर फैली नीली धुंध को काटता, तराशता हुआ एक भूला-सा अर्थ खींच लाता है। गिरता हुआ हर ‘पोज’ एक छोटी-सी मौत है, मानो घने छायादार वॄक्षों की काँपती छायाओं में कोई पगडंडी गुम हो गई हो…’
परिंदे कहानी की समीक्षा
परिंदे मूलतः प्रेम कहानी है, कहानी में प्रेम के प्रति जितना तीब्र सम्मोहन है उतना ही उस सम्मोहन से मुक्ति होने की अकुलाहट भी। ‘परिंदे’ कहानी में निर्मल की मनोवैज्ञानिक सूझ-बूझ भी काफी उभर कर सामने आई है। कहानी की नायिका लतिका अपने प्रेमी- कैप्टन नेगी की मृत्यु के बाद एक पहाड़ी स्कूल में अकेलेपन की जिंदगी गुजार रही है। अपने सहकर्मी डॉ. मुकर्जी के काफी प्रेरित करने पर भी वह दूसरा संबंध नहीं बना पाती, अपनी स्थिति से निकल नहीं पाती।
लतिका ही नहीं मि. ह्युबर्ट, मुकर्जी आदि सभी पात्रों की अपनी एक व्यक्तिगत परिस्थिति है, जिसका समाधान सभी चाहते हैं, लेकिन न ढूँढ़ पाने के कारण एब्सर्ड के शिकार हैं। सभी का जीवन एक ही प्रश्न का उत्तर खोज रहा है- ‘हम कहाँ जाएँगे?’ यही वह प्रश्न है जो कहानी के केंद्र में शुरू से अंत तक बना हुआ है और बिना किसी प्रत्यक्ष या ठोस समाधान के बना ही रह जाता है।
‘परिंदे’ कहानी में पात्रों को अपनी चेतना से भी जूझते हुए दिखाया तया है। सभी पात्र अपनी वास्तविक चेतना को परे हटाकर एक कृत्रिम चेतना या छद्म चेतना के सहारे अपना जीवन-यापन करते हैं और उनकी यह छद्म चेतना ही उन्हें बार-बार अपने अतीत से साक्षात्कार कराती है।
‘नयी कहानी’ की पहली कहानी संबंधी विवाद की शुरूआत नामवर सिंह ‘परिन्दे’ संग्रह की समीक्षा के द्वारा ही होती है। नामवर सिंह ने कहा कि, “परिन्दे निर्मल वर्मा की ही पहली कृति नहीं है बल्कि जिसे हम नयी कहानी कहना चाहते हैं उसकी भी पहली कृति है।”[1] नामवर सिंह आगे लिखते हैं कि “परिन्दे से यह शिकायत दूर हो जाती है कि हिन्दी कथा-साहित्य अभी पुराने सामाजिक संघर्ष के स्थूल धरातल पर ही ‘मार्कटाइप’ कर रहा है। समकालीनों में निर्मल वर्मा पहले कहानीकार है जिन्होंने इस दायरे को तोड़ा है- बल्कि छोड़ा है, और समाज के मनुष्य की बाह्य आंतरिक समस्या को उठाय है।”[2]
नामवर सिंह ने इस कहानी की लतिका की मुक्ति की आकांक्षा को, विश्व के मुक्ति प्रश्न से जोड़ते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि नामवर सिंह के अनुसार ‘परिन्दे’ कहानी एक नहीं कई दृष्टियों से नयी कहानी की पहली कहानी ठहरती है।
नामवर सिंह ‘परिन्दे’ से नयी कहानी की शुरूआत मानते हैं, और उसे नयी कहानी का पहली कृति इस आधार पर घोषित करते हैं कि यह कहानी ‘कालातीत’ एवं ‘कला दृष्टि’ से सम्पन्न है। “व्यक्ति चरित्र वही है, जीवन-स्थितियाँ भी रोज की जानी-पहचानी है, लेकिन निर्मल के हाथों वही स्थितियाँ इतिहास की विराट स्थिति बनकर खड़ी हो जाती हैं और उनके सम्मुख खड़ा व्यक्ति सहसा अपने को अकेला पाता है और उसकी जबान से निकला हुआ मामूली-सा वाक्य एक युगकारी प्रश्न बन जाता है।”[3]
लतिका द्वारा किया गया प्रश्न, क्या वे सब प्रतीक्षा कर रहे है? लेकिन कहाँ के लिए, हम कहाँ जायेंगे? पर “देखते-देखते प्रेम की एक कहानी मानव नियति की व्यापक कहानी बन जाती है और एक छोटा-सा वाक्य पूरी कहानी को दूरगामी अर्थवृत्तों से वलयित कर देता है। हम कहाँ जायेंगे? यह वाक्य सारी कहानी पर अर्थ गंभीर विषाद की तरह छाया रहता है। प्रसंगात् चेखव की कहानियों में बार-बार गूंजने वाला वह प्रश्न याद आ जाता है- हम क्या करें! वह प्रश्न जिसकी गूंज उन्नीसवीं सदी के सारे रुसी कथा-साहित्य और सामाजिक चिंतन में बार-बार सुनाई पड़ती है। जैसे सारा जमाना एक साथ पूछ रहा हो कि क्या करें?”[4]
यही नहीं आगें नामवर सिंह लिखते हैं कि, “स्वतंत्रता या मुक्ति का प्रश्न जो समकालीन विश्व-साहित्य का मुख्य प्रश्न बन चला है, निर्मल की कहानियाँ है प्रायः अलग-अलग कोण से उठाया गया है। एक तरफ से देखा जाये तो ‘परिन्दे’ की लतिका की समस्या स्वतंत्रता या मुक्ति की समस्या है। अतीत से मुक्ति, स्मृति से मुक्त, उस चीज से मुक्त जो हमें चलाए चलती है और अपने रेले में घसीट ले जाती है। इन कहानियों में प्राय: सभी व्यक्ति चरित्र अपने अतीत से मुक्त होने के लिए प्रयत्नशील है।”[5] यही नहीं आगे लिखते हैं कि निर्मल ने कहानी के माध्यम से मानव मुक्ति का प्रश्न उठाने के साथ-साथ हिन्दी कहानी को परिपाटी से मुक्ति का प्रयत्न किया है।
शिल्प के रूप में जो बात परिंदे के संदर्भ में नामवर को अच्छी लगती है वह है- “इन कहानियों को पढ़ते समय एक नये गद्य से परिचय होता है, अपने प्रयोजन के लिए बनाया हुआ लेखक का अपना गद्य। संभवतः कहानी का गद्य इतना संवेदनशील पहले तो कभी नहीं था। या तो भावोच्छवासित गद्य काव्य था या नितांत कामकाजी! परिन्दे को देखकर लगता है कि भाषा के क्षेत्र में जो काम इतने दिन में प्रयोगशील नयी कविता भी न कर सकी उसे अंतत: कहानी के गद्य ने कर दिखाया। छोटे-छोटे संवादों में उभरी हुई (पिक्चर पोस्ट कार्ड) कहानी इस गद्य के निखरे हुए आधुनिकतम रूप को प्रगट करती है।”[6]
“यह सही है कि निर्मल की कहानियाँ गहरा प्रभाव छोड़ जाती हैं। यहाँ तक तमाम कहानियाँ एक सा प्रभाव छोड़ती है और इस प्रभाव के आगे न चरित्र याद आते हैं न घटनाएँ। लेकिन सवाल यह है कि क्या इनकी याद रहना जरूरी है? पाठक के लिए जरूरी क्या है- प्रभाव या चरित्र? जिन कहानियों के चरित्र याद रह जाते हैं क्या वे भी ऐसा ही प्रभाव डालती है?”[7]
शिल्प के सन्दर्भ में नामवर जी यह भी कहते हैं कि, “निर्मल की कहानियों में प्रभाव की गहराई इसीलिए है कि उनके यहाँ चरित्र, वातावरण, कथानक आदि का कलात्मक रचाव है। निर्मल के मानव चरित्र प्राकृतिक वातावरण में किसी पौधे, फूल या बादल की तरह अंकित होते हैं गोया वे प्रकृति के अंग हैं।”[8]
आलोचक सुरेन्द्र चौधरी ने लिखा है कि, “परिन्दे संग्रह की कहानियों में ताजगी थी मगर यह ताजगी इस कारण नहीं थी कि निर्मल वर्मा ने इन कहानियों को अपने समय के इतिहास की उस विराट नियति को पहचान लिया था जो मनुष्य को अकेला करती है।”[9]
कई आलोचक मानते हैं कि निर्मल वर्मा ‘भारतीय’ संवेदना के कथाकार नहीं हैं। यानी उनकी कहानियों में भारतीय परिवेश, समस्या और वातावरण का अभाव है। रामदरश मिश्र ने लिखा है कि, “निर्मल की कहानियों की यह दुनिया हममें निश्चय ही अपने जाने-पहचाने भारतीय सामाजिक परिवेश का अहसास नहीं जगाती। गाँव या शहर के उस आदमी का साक्षात्कार नहीं होता जिसे हम अपने भीतर रोज जी रहे हैं।”[10]
संवेदना या भावना ही निर्मल की कहानी का साध्य है- तभी तो उनकी कहानियों में घटनाओं और पात्रों से महत्वपूर्ण स्थितियाँ होती हैं, वातावरण होता है।
वीरभारत तलवार का कहना है- “दूसरों से न जुड़ पाने, अकेले रह जाने- अलगावबोध की स्थिति को निर्मल ने अपनी कहानियों का मुख्य विषय बनाया है।”[11] उन्हीं के शब्दों में- “लतिका का अकेलापन उसकी स्थिति भर है, ऐसी समस्या नहीं जिससे वह पीड़ित दिखाई देती हो।”[12] डॉ. वीरभारत तलवार ने निर्मल वर्मा की कहानियों के बारे में आगे लिखा है कि, “निर्मल की कहानी में ब्यौरे नहीं होते बल्कि ब्यौरों में कहानी होती है।”[13]
परमानंद श्रीवस्तव का अभिमत है- “निर्मल वर्मा की यथार्थ संवेद्यता आत्मचेतना पर आधारित होने के कारण अधिक गहन और तीव्र है।”[14]
रामदरश मिश्र के शब्दों में- “परिन्दे’ प्रतीक हैं, उन टूटे हुए प्रेमियों के जो अपनी अपनी जगहों से टूटकर उस पहाड़ी स्थान पर एकत्र हो गये हैं। लतिका, डॉक्टर मुकर्जी, मिस्टर ह्यूबर्ट भी तो परिन्दे ही हैं किन्तु परिंदे तो एक ठहराव के बाद मैदान की ओर उड़ जायेंगे कितु वे तीनों कहाँ जायेंगे? वे तो उसी सुनसान पहाड़ी स्थान पर एक साथ होते हुए भी अलग-अलग रहने के लिए अभिशप्त हैं।”
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संदर्भ ग्रंथ:
- [1] कहानी: नयी कहानी- नामवर सिंह, पृष्ठ- 52
- [2] वही
- [3] वही
- [4] वही, पृष्ठ- 53
- [5] वही
- [6] वही, पृष्ठ- 49
- [7] वही
- [8] वही
- [9] हिंदी कहानी प्रक्रिया और पाठ- सुरेंद्र चौधरी
- [10] रामदरश मिश्र, हिंदी कहानी: अंतरंग पहचान, वाणी प्रकाशन, 2007, पृष्ठ- 150
- [11] वीरभारत तलवार, सामना, वाणी प्रकाशन, 2005, पृष्ठ- 164
- [12] वही, पृष्ठ- 174
- [13] वही, पृष्ठ- 148
- [14] परमानंद श्रीवास्तव, आज की कहानी, नई कहानी: संदर्भ और प्रकृति, संपादक- देवीशंकर अवस्थी, राजकमल प्रकाशन, 2008, पृष्ठ- 130