कोश की परिभाषा और प्रकार | शब्दकोश

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कोश की परिभाषा और प्रकार

इस पोस्ट में कोश किसे कहते हैं, कोश की परिभाषा क्या है, कोश निर्माण की प्रक्रिया क्या है, कोश के कितने प्रकार हैं, एकभाषिक कोश- हिंदी-हिंदी या अंग्रेजी-अंग्रेजी, द्विभाषिक कोश- हिंदी-अंग्रेजी या अंग्रेजी-हिंदी, उच्चारण कोश, पर्यायकोश, समांतर कोश, मुहावरा-लोकोक्ति कोश पर विस्तार से विचार किया जायेगा। आइए सबसे पहले कोश क्या है? पर विचार करते हैं-


‘कोश’ शब्द का प्रयोग लम्बे अरसे से होता रहा है, भारतीय ज्ञान परम्परा में भी कोई नया शब्द नहीं है। इसके लिए संस्कृत साहित्य में ‘कोश’ और ‘कोष’ दो वर्तनियाँ प्रचलित थीं, जिनका प्रयोग कटोरा, पीपा, बाल्टी, बादल, म्यान, संदूक, ढक्कन, खोल आदि के अर्थ में होता था। कहने का तात्पर्य यह की कोश उन वस्तुओं के लिए प्रयुक्त हुआ, जिनमें कुछ संग्रह किया जा सके। है।


संस्कृत में शब्दकोष के लिए निघण्टु, नाममाला, माला शब्दार्णव, अभिधान आदि शब्द प्रचलित रहे हैं। हिंदी भाषा में भी ‘कोश’ और ‘कोष’ शब्द ‘शब्दकोष’ तथा ‘खजाना’ के अर्थ में प्रयुक्त होते थे। परंतु 20वीं शताब्दी के मध्य तक आते-आते ‘कोश’ शब्द का प्रयोग ‘शब्दकोश’ के लिए और ‘कोष’ का प्रयोग ‘खजाना’ के लिए रूढ़ हो गया है। अमरसिंह के प्रसिद्ध ‘अमरकोष’ का मूलनाम ‘नाम लिगानुशासन’ था जिसे बहुत बाद में ‘अमरकोष’ कहा जाने लगा जब ‘कोश’ का प्रयोग आज के अर्थ में रूढ़ हो गया। अंग्रेजी भाषा में कोश के लिए ‘डिक्शनरी’ शब्द प्रयुक्त होता है, जिसकी उत्पत्ति लैटिन का deccre शब्द से हुआ है। लैटिन में इसका अर्थ होता है- कहना या बोलना। इस प्रकार अंग्रेजी में कहे या बोले गए शब्दों के संग्रह को डिक्शनरी कहा गया।


शब्दकोश की अनेक परिभाषाएं दी गई हैं, जिनमें कुछ प्रचलित परिभाषाएं निम्नलिखित हैं-


एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका के अनुसार-
‘कोश’ एक ऐसी पुस्तक है, जिसमें किसी भाषा के शब्द और उनके अर्थ या तो उसी भाषा में या किसी दूसरी भाषा में, सामान्यतया वर्णानुक्रम से दिए रहते हैं। प्रायः शब्दों के उच्चारण, उनकी व्युत्पत्ति और प्रयोग का विवरण भी उसमें रहता है।


ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी के अनुसार-
कोश वह पुस्तक है, जिसमें सामान्यतया वर्णानुक्रम से किसी भाषा के शब्दों अथवा विशेष या फिर लेखक आदि के संबंध में अध्ययन होता है।

हिंदी शब्द सागर के अनुसार-
कोश वह ग्रंथ है, जिसमें अर्थ एवं पर्याय सहित शब्द इकट्ठे किए गए हों।


मानक हिंदी कोश के अनुसार-
कोश वह ग्रंथ है जिसमें विशेष क्रम से शब्द दिए हों और उनके आगे अर्थ दिए हों।


डॉ. भोलानाथ तिवारीके अनुसार-कोश ऐसे संदर्भ ग्रंथ को कहते हैं जिसमें भाषा विशेष के शब्दादि का संग्रह हो या संग्रह के साथ उनके उसी या दूसरी या दोनों भाषाओं के अर्थ, पर्याय, प्रयोग या विलोम हों या विशिष्ट अथवा विभिन्न विषयों की प्रविष्टियों की व्याख्या, नामों (स्थान, व्यक्ति आदि) का परिचय या कथनों आदि का संकलन क्रमबद्ध रूप में हो।


उपर्युक्त परिभाषाओं के अनुसार कोश वह संदर्भ ग्रंथ है जिसमें भाषा विशेष के प्रायः सभी अथवा उद्देश्यानुसार वे सब सूचनाएँ मिल जाएँ, जिनकी हमें जरूरत पड़ती है। जैसे शब्दों का अर्थ, अनुक्रम, उच्चारण, उद्धरण-सूक्ति, व्याकरणिक कोटि, व्युत्पत्ति, पर्याय, विलोम आदि दिया गया हो या विषयानुसार शब्द तथा कथन आदि का संकलन किया गया हो।

कोश में शब्दों का वर्णानुक्रम

किसी कोश में सामान्यतः शब्दों को उसी क्रम रखा जाता है, जिस क्रम में उस भाषा में वर्णमाला के वर्ण आते हैं। इस प्रकार किसी भी कोश में प्रविष्टियों को देखने के लिए निम्नलिखित जानकारियाँ आवश्यक होती हैं- वर्णक्रम, अनुनासिकता और अनुस्वार, स्वरों की मात्राएँ एवं संयुक्त व्यंजनों का स्थान।

(क) वर्णक्रम

कोशों में वर्णानुक्रम को सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण माना जाता है क्योंकि शब्द कोशों को सामान्यतः वर्णानुक्रम में ही निर्मित किया जाता है। इसे हम हिंदी शब्दकोश के माध्यम से समझने का प्रयास करते हैं। हिंदी शब्दकोशों में स्वर ‘अ’ से आरम्भ होने वाले शब्दों को सबसे पहले रखा जाता है फिर उसके बाद क्रमशः आ, इ, उ,….क ख ग… क्ष, त्र, ज्ञ से शुरू होने वाले शब्दों को रखा जाता है। शब्दों के शुरुआती वर्ण के अतिरिक्त शब्दों में शामिल दूसरे, तीसरे वर्णों के क्रम को भी ध्यान में रखा जाता है। जैसे अंक के बाद क्रमशः अंकक, अंककरण, अंककार, अंकखरी, अंकगणित, अंकगत, अंकट, अंकटा, अंकती, अंकड़ी, अंकतन्त्र, अंकन आदि शब्द आते हैं। इनमें तीसरे स्थान पर आने वाले वर्ण क्रमशः क, का, ख, ग, ट, टा, ती, तं, न हिंदी वर्ण माला में भी इसी क्रम में आते हैं। जिस तरह दूसरे स्थान के वर्ण की बारी पूरी हो जाने के बाद तीसरे वर्ण का क्रम लागू होता है, उसी प्रकार आगे क्रमशः चौथे, पाँचवें, आदि स्थानों के वर्णों का क्रम भी चलता है।

(ख) अनुस्वार और अनुनासिक

कोशों में वर्णक्रम में बिंदु और चंद्रबिंदु का भी विशेष महत्व है। जिन्हें क्रमशः अनुस्वार और अनुनासिक कहा जाता है। अनुस्वार-अनुनासिक ध्वानियों से युक्त शब्दों को शुरूआती वर्णो के क्रम में सबसे पहले रखा जाता है। जैसे- अंक, आँख, कंगन, टंकण, तंग, पँख आदि शब्दों का क्रमशः अ, आ, क, च, ट, प, ह वर्णों से आरम्भ होने वाले शब्दों के सबसे पहले रखा जाता है।

ग) स्वरों की मात्राएँ

शब्द कोशों में शब्दों को वर्णानुक्रम में रखने के लिए, उनमें आने वाले स्वरों की मात्राओं को भी क्रम में रखा जाता है। अनुस्वार के बाद स्वर की ग्यारह मात्राओं आ (ा), ई (ि), ऊ (ू) आदि के क्रम को भी ध्यान में रखा जाता है। शब्दकोशों में स्वरों के इसी क्रम का निर्वाह किया जाता है।

(घ) संयुक्त व्यंजन

हिंदी वर्णमाला में क्ष, त्र, ज्ञ तथा श्र चार संयुक्त व्यंजन हैं। इन व्यंजनों का निर्माण दो वर्णों के मेल से हुआ है। जैसे- क्ष > क् + ष, त्र > त् + र, ज्ञ > ज् + ञ तथा श्र > श् + र। इस संयोग या मेल में पहला वर्ण आधा है, इसलिए इसके नीचे हलन्त (्) लगा है। शब्दकोश में क्ष, त्र ज्ञ और श्र से शुरू होने वाले शब्दों को क्रमशः क, त, ज और श वर्णमाला के साथ रखा जाता है। चूंकि इनका आरम्भिक वर्ण आधा या हलन्त (क्‌ + ष) होता है, इसलिए वर्णानुक्रम में ‘औ’ स्वर मात्राओं के बाद रखा जाता है। जैसे ‘क्ष’ से आरम्भ होने वाले शब्द कौक्ष, कौम आदि के बाद आते हैं। साथ ही ‘क्ष’ से शुरू होने वाले शब्दों के पहले क्‍य, क्र, क्व से बने शब्द रखे जाते हैं, क्योंकि ‘क्ष’ का दूसरा वर्ण ‘ष’ (क्‌ + ष) वर्णमाला में य, र, ल, व, श के बाद आता है। इसी तरह शेष संयुक्त व्यंजनों- त्र, ज्ञ और श्र से बने शब्दों को भी रखा जाता है।

कोश के प्रकार

कोशों का सर्वस्वीकृत वर्गीकरण अभी तक नहीं हो पाया है क्योंकि कोशों के अनेक प्रकार हैं और उन्हें अनेक आधारों- उद्देश्य, भाषा, प्रविष्टि, काल, अर्थ, प्रविष्टि क्रम, विशिष्ट आदि दृष्टिकोण के आधार पर वर्गीकृत किया जाता है।कोश के निर्माण में एक से अधिक आधारों का उपयोग भी किया जाता है। जैसे- एक ही कोश में प्रतिशब्द, पर्याय, विलोम, व्याख्या, व्युत्पत्ति, उच्चारण आदि दिए जा सकते हैं। वर्तमान समय में इसी आधार पर अधिकतर कोशों का निर्माण हो रहा है।
कोश विभाजन के जो मत प्रचलित हैं, उसमें मूलतः तीन भेद किए गये हैं- व्यक्तिकोश, पुस्तककोश ओर भाषाकोश।


क) व्यक्तिकोश- जब किसी एक व्यक्ति के साहित्य में प्रयुक्त शब्दों को आधार बनाकर कोश निर्माण किया जाता है तो वह कोश व्यक्तिकोश कहलाता है। जैसे- शेक्सपीयर, तुलसीदास, जयशंकर प्रसाद और महादेवी वर्मा आदि के कोश।


ख) पुस्तककोश- पुस्तककोश उस कोश को कहते हैं जिसमें किसी एक ग्रंथ के प्रयुक्त शब्दों को आधार बनाकर कोश निर्माण किया जाता है। जैसे- रामचरितमानस, साकेत, अँधेरे में आदि के कोश।


ग) भाषाकोश- भाषाकोश एक भाषा का हो सकते है और एक से अधिक भाषाओं के भी। एक भाषा वाले कोश को एकभाषिक कोश कहते हैं, जैसे- हिंदी-हिंदी या अंग्रेजी-अंग्रेजी शब्द कोश। इसी तरह द्विभाषिक कोश होता है जिसमें दो भाषाएं होती हैं, जैसे- हिंदी-अंग्रेजी या अंग्रेजी-हिंदी शब्द कोश।
भाषा कोश भी मुख्यता तीन प्रकार का होता है- वर्णनात्मक, ऐतिहासिक और तुलनात्मक।


a) वर्णनात्मक कोश- वर्णात्मक कोश में किसी भाषा के एक निश्चित कालखण्ड को आधार बनाकर कोश का निर्माण किया जाता है। इस प्रकार के कोश में जिन शब्दों के एक से अधिक अर्थ होते हैं उन अर्थों को प्रयोगाधिक्य के आधार पर एक क्रम में रखा जाता है। इस कोश में उस अर्थ को सबसे पहले दिया जाता है जिसका प्रयोग सबसे अधिक होता है। हिंदी में नागरी प्रचारिणी सभा का ‘हिंदी शब्दसागर’ वर्णनात्मक कोश का उदाहरण है।


b) ऐतिहासिक कोश- ऐतिहासिक कोश में किसी भाषा या बोली के सभी कालों में प्रयुक्त शब्दों को शामिल किया जाता है। इसमें शब्दों का क्रम प्रयोगकाल के आधार पर निश्चित किया जाता है। शब्दों के जो अर्थ सबसे पहले प्रयुक्त हुए हैं, वे सबसे पहले रखे जाते हैं और बाद में विकसित अर्थ क्रमशः बाद में। संस्कृत का मोनियर विलियम्स कोश, अंग्रेजी की ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी आदि ऐतिहासिक कोश के उदाहरण हैं।


c) तुलनात्मक कोश- तुलनात्मक कोश में दो या दो से अधिक भाषाओं का प्रयोग होता है। यह कोश दो प्रकार का होता है- एक स्रोतभाषा के शब्दों की लक्ष्यभाषा या भाषाओं में व्याख्या की जाती है। दूसरे में सिर्फ प्रतिशब्द रखे जाते हैं। कामिल बुल्के का ‘अंग्रेजी-हिंदी कोश’, केन्द्रीय हिंदी निदेशालय से प्रकाशित ‘हिंदी-अंग्रेजी पारिभाषिक कोश’ ऐसे ही कोशों के उदाहरण हैं।

कुछ विद्वान कोश को मात्र दो भागों में विभाजित करने के पक्ष में हैं- शब्दकोश तथा अन्य कोश। फिर शब्दकोश को पुस्तककोश, साहित्यकार कोश, भाषा कोश, बोली कोश आदि भागों में विभाजित करते हैं। भाषा को भी एकभाषी और बहुभाषी रूप में विभाजन करते हैं। पुनः एकभाषी कोश के अन्तर्गत तुलनात्मक, व्युत्पत्ति, पर्याय, विलोम, उच्चारण आदि के आधार पर अनेक भेद किए गए हैं। वहीं अन्य कोश के अन्तर्गत विश्वकोश, पारिभाषिक कोश, उद्धरण या सूक्ति कोश, मुहावरा-लोकोक्ति कोश, नाम कोश आदि को रखते हैं।
कोश के इन भेदों में से कुछ भेदों का विस्तृत वर्णन नीचे दिया जा रहा है-

A. एकभाषी कोश

एकभाषी अथवा एकभाषिक कोश में स्रोत भाषा और लक्ष्य भाषा समान होते हैं। जिस भाषा में प्रविष्टि दी जाती है, शब्दार्थ-व्याख्या आदि भी उसी भाषा में दिया जाता है, जैसे- हिंदी-हिंदी, अंग्रेज़ी-अंग्रेजी, उर्दू-उर्दू आदि। एकभाषिक कोश अनेक प्रकार के हो सकते हैं, जैसे- शब्द कोश, उपसर्ग कोश, प्रत्यय कोश, धातु कोश, मुहावरा कोश, पर्याय कोश, विलोम कोश, अंतर्कथा कोश, विषय कोश आदि।


प्रविष्टियों की दृष्टि से एकभाषा कोश की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं-
1. एकभाषिक में द्विभाषिक कोश की तुलना में अधिक प्रविष्टियाँ होती हैं। द्विभाषिक कोश में मात्र वे प्रविष्टियाँ आती हैं, जिनकी आवश्यकता भाषा सीखने या अनुवाद में पड़ती है। गहन एवं सूक्ष्म अर्थ वाली प्रविष्टियाँ एकभाषिक कोश में ही आवश्यक होती हैं।


2. द्विभाषिक कोश की एककालिकता की तुलना में एकभाषिक कोश एककालिक भी हो सकता है और ऐतिहासिक भी।


3. एकभाषिक कोश में मुहावरे लोकोक्तियाँ, शब्दबंध आदि अधिकाधिक मात्रा में दिए जा सकते हैं।

4. एकभाषिक कोश में अप्रचलित तथा अल्पप्रचलित शब्दों को भी समेटने का प्रयास किया जाता है।

5. जहाँ द्विभाषिक कोश में केवल मानक अर्थ दिए जाते हैं, वहीं एकभाषिक कोश में सभी क्षेत्रीय अर्थ भी भी दिये जाते हैं।


6. द्विभाषिक कोश में अधिकाधिक शब्दों का उच्चारण देने का प्रयास किया जाता है जबकि एकभाषिक कोश में इनका उल्लेख सिर्फ ऐसे शब्दों के साथ किया जाता है, जिनका उच्चारण सामान्य से कुछ भिन्न हो।


7. एकभाषिक कोशों में प्रायः व्युत्पत्ति भी दी जाती है।


8. एकभाषिक कोश में प्रायः शब्दों के प्रयोग नहीं दिए जाते।


9. एकभाषिक कोश में एक शब्द से बनने वाले सभी शब्दों तथा रूपों को देने की आवश्यकता प्रायः नहीं होती है।


प्रमुख एकभाषिक हिंदी-हिंदी कोश निम्नलिखित हैं-

हिंदी-हिंदी एकभाषिक कोश की परम्परा उन्नीसवीं सदी में प्रारम्भ होती है। इस प्रकार का पहला प्रयास ‘आदम’ के द्वारा 1829 ई. में ‘हिंदवी भाषा का कोश’ किया जाता है। इसके बाद हिंदी-हिंदी में बहुत सारे तैयार होते हैं जिनमें से कुछ प्रमुख कोश निम्नलिखित हैं- हिंदी शब्द सागर (ग्यारह खण्ड, 1965-1975)- सं. श्यामसुन्दर दास आदि, मानक हिंदी कोश (पाँच भाग, 1962, 1962, 1963, 1961, 1965)- सं. रामचन्द्र वर्मा, प्रामाणिक हिंदी कोश (1949)- रामचन्द्र वर्मा, बनारस, भारतीय हिंदी कोश (1956)- दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, मद्रास आदि उल्लेख्य हैं।

B. द्विभाषी कोश

द्विभाषी अथवा द्विभाषिक कोश दरअसल दो भाषाओं का कोश होता है। इसमें स्रोत भाषा (source language) की कोशीय इकाइयों की लक्ष्य भाषा (target language) में समानार्थी इकाइयाँ दी जाती हैं। जैसे- हिंदी-अंग्रेज़ी कोश, अंग्रेजी-हिंदी कोश, हिंदी-उर्दू कोश, जापानी-हिंदी कोश, हिंदी-रूसी कोश आदि।
द्विभाषी कोश की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-


1. इन कोशों की प्रविष्टियों में स्रोत भाषा की लिपि का ही प्रयोग किया जाता है। इसलिए प्रविष्टियों का क्रम स्रोत भाषा (source language) की वर्णमाला के अनुसार होता है। हिंदी-अंग्रेज़ी कोश में यह क्रम नागरी लिपि की वर्णमाला के अनुसार होता है तो वहीं अंग्रेज़ी-हिंदी कोश में रोमन लिपि की वर्णमाला के अनुसार।


2. कभी-कभी प्रविष्टियों के लिए लक्ष्य भाषा की लिपि और उसके वर्णानुक्रम का भी प्रयोग लक्ष्य भाषा में अधिक गति रखने के लिए किया जाता है। जैसे- उन्नीसवीं सदी के कई हिंदुस्तानी-अंग्रेज़ी कोशों में हिंदुस्तानी की प्रविष्टियाँ रोमन लिपि में दी गई हैं।


3. कभी-कभी प्रविष्टियों और उसके समानार्थी के लिए स्रोत भाषा अथवा लक्ष्य भाषा के स्थान पर तीसरी भाषा का प्रयोग किया जाता है। प्रायः ऐसा तब होता है जब स्रोत तथा लक्ष्य भाषा की तुलना में तीसरी भाषा का प्रयोग अधिक हो। यह पद्धति प्रायः पारिभाषिक कोशों में अधिक प्रयुक्त होती है तथा इसमें प्रविष्ट शब्दों के मात्र समानार्थी दिए जाते हैं, उनकी व्याख्या नहीं होती।


4. द्विभाषिक कोश में प्रायः उच्चारण भी दिया जाता है, जो लक्ष्यभाषा या कभी-कभी स्रोत भाषा में भी होता है। उच्चारण अधिकतर प्रविष्टि के साथ अथवा अंत में दिये जाते हैं।


5. द्विभाषिक कोश में प्रायः व्युत्पत्ति नहीं दी जाती, यद्यपि किसी-किसी कोश में इसका प्रयोग भी किया गया है। जैसे- अंग्रेजी-हिंदी कोश (हिंदी साहित्य सम्मेलन)।


6. द्विभाषिक कोश में व्याकरण- संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण आदि के साथ लिंग, वचन, क्रिया आदि भी दिए जाते हैं। जैसे- कामिल बुल्के के अंग्रेज़ी-हिंदी कोश में प्रत्येक हिंदी शब्द के लिंग का भी संकेत किया गया है।


7. अर्थ की दृष्टि से लक्ष्य भाषा में स्रोत भाषा के समानार्थक शब्द दिए जाते हैं। समानार्थक न मिलने की स्थिति को कोशकार निम्नलिखित पद्धतियों का प्रयोग करते हैं- शब्द की व्याख्या करना, मूल शब्द को ही लक्ष्य भाषा की लिपि में प्रस्तुत करना, लक्ष्यभाषा में नया शब्द बनाना तथा एकाधिक पद्धतियों का उपयोग करना; जैसे- मूल शब्द देकर उसकी व्याख्या करना।


हिंदी भाषा से संबद्ध प्रमुख द्विभाषी कोश निम्नलिखित हैं-

खालिक बारी (हिंदी-फारसी)- अमीर खुसरो, हिंदी-रूसी कोश (1953)- बेस्क्रोनी, हिंदी-फ्रांसीसी शब्द कोश (1991)- फ्रेंद्रीका बोशे, हिंदी-जर्मन कोश- फैरलाग आदि, हिंदी-कोरियाई शब्द कोश (1995)- ली जंग हो, जापानी-हिंदी शब्द कोश (1993)- सत्यभूषण वर्मा, उर्दू-हिंदी शब्दकोश (1959)- मुहम्मद मुस्तफा खाँ, ‘मद्दाह’, हिंदी बँगला कोश (1915)- ईश्वरी प्रसाद शर्मा, हिंदी-तमिल कोश (1959)- दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, हिंदी-कन्नड़ कोश (1939)- भ. व. जम्बुनाथन, हिंदुस्तानी भाषा का कोश (1704)- फ्रांसिस्कस एम. तुरोनेसिस, लैटिन-हिंदुस्तानी कोश (1743)- जॉन जोशुआ केटेलर, ए डिक्शनरी ऑफ हिंदुस्तानी लैंग्वेज (1773)- जॉन फर्ग्युसन, डिक्शनरी: हिंदुस्तानी एण्ड इंग्लिश (1790)- हेनरी हैरिस, हिंदी डिक्शनरी (1829)- आदम, डिक्शनरी, हिंदी एण्ड इंग्लिश (1847)- डब्ल्यू. येट्स, अंग्रेज़ी-हिंदी शब्दकोश- कामिल बुल्के, बृहत अंग्रेजी-हिंदी शब्दकोश- हरदेव बाहरी आदि।

C. उच्चारण कोश

‘उच्चारण’ किसी भी कोश का महत्त्वपूर्ण अंग है। प्रायः सभी स्तरीय वर्णनात्मक, तुलनात्मक, ऐतिहासिक कोशों में उच्चारण भी दिया जाता है। यह (उच्चारण) कभी-कभी प्रविष्टि के साथ दिया जाता है और कभी प्रविष्टि के अंत में। कामिल बुल्के के अंग्रेज़ी-हिंदी कोश, चतुर्वेदी-तिवारी के व्यावहारिक हिंदी-अंग्रेजी कोश तथा अंग्रेजी के वैब्स्टर, चैम्बर्स, ऑक्सफोर्ड आदि कोशों में उच्चारण भी दिए गए हैं। परंतु इन्हें पूर्णरूपेण उच्चारण कोश नहीं कहा जा सकता क्योंकि इनमें मानक उच्चारण तो दिया गया है, लेकिन उससे संबद्ध बारीकियां इनमें नहीं आ पाई हैं। वहीं उच्चारण कोश में शब्द के प्रचलित एकाधिक उच्चारण दिए जाते हैं किन्तु अधिक प्रचलित या मानक उच्चारण को जरूर संकेतित किया जाता है। उच्चारण कोश में शब्दों के स्वर-व्यंजनों का सही उच्चारण, अक्षरों का विभाजन, बलाघात, क्षेत्रीय एवं समाज स्तरीय उच्चारणों को भी अंकित किया जाता है।


उच्चारण कोश के महत्व को रेखांकित करते हुए कृष्ण कुमार भार्गव ने लिखा है, ‘उर्दू के शब्दों में नुक्ता कितना महत्त्वपूर्ण होता है। यह इन दो शब्दों- जलील और ज़लील से स्पष्ट हो जाता है। इन दोनों के उच्चारण और अर्थ एक-दूसरे के विपरीत हैं। जलील एक संभ्रांत और योग्य व्यक्ति को कहते हैं जबकि ज़लील एक खराब व्यक्ति होता है।’ उच्चारण कोशों में स्वरों-व्यंजनों का सही उच्चारण, आक्षरिक विभाजन, बलाघात तथा उच्चारण पर क्षेत्रीय प्रभाव को भी अंकित किया जाना जरूरी होता है। वहीं सामान्य कोशों में यह सब दिया जाना न तो संभव और न ही व्यवहारिक।


उच्चारण कोश के संदर्भ में दो बात महत्वपूर्ण है, पहला इसमें अर्थ वहीं दिए जाते हैं, जहाँ उच्चारण भेद से शब्द के अर्थ में कोई अंतर हो। और दूसरा इन कोशों में व्याकरण-संकेत भी प्रायः नहीं होते।उच्चारण कोश की दृष्टि से डैनियल जोन्स का उच्चारण कोश सर्वाधिक प्रसिद्ध है। वहीं हिंदी में भोलानाथ तिवारी का ‘हिंदी उच्चारण कोश’ (1985) और कृष्णकुमार भार्गव का ‘विश्व उच्चारण कोश’ (1997) महत्वपूर्ण उच्चारण कोश हैं।

D. पर्यायकोश

पर्यायकोश में स्रोत भाषा के शब्द के पर्याय रूप में प्रचलित शब्दों को लक्ष्य भाषा में प्रस्तुत किया जाता है। इसमें स्रोत भाषा की लिपि के वर्णानुक्रम में शब्दों को प्रस्तुत कर उनके पर्याय प्रस्तुत किए जाते हैं।


हिंदी के प्रमुख पर्यायकोश निम्नलिखित हैं-

डिंगल नाम माला (1561)- हरराज, प्रकाशनाममाला (1697)- मियाँ नूर, नाम प्रकाश (1713)- भिखारीदास, व्यावहारिक पर्याय कोश- चतुर्वेदी एवं गाबा, बृहत हिंदी पर्यायवाची कोश- गोविन्द चातक आदि।

E. समांतर कोश

समांतर कोश शब्द अंग्रेजी के थिसारस (Thesaurus) का लिप्यंतरण है, जिसका अर्थ खजाना, कोशागार, गोदाम आदि है। ऑक्सफोर्ड डिक्शनी के अनुसार- किसी भाषा विशेष में निहित शब्दों के आशय एवं संकल्पनाओं को विषयानुरूप वर्गीकृत एवं व्यवस्थित क्रम में प्रस्तुत करना थिसारस कहलाता है।

थिसारस शब्द का प्रथम प्रयोग पीटर माई रॉजेट ने अपने ‘रोजट्स थिसारस ऑफ इंग्लिश वर्ड्स ऐंड फ़ैज़ेज़ (1852) में किया है। डॉ. भोलानाथ तिवारी के ‘बृहद् पर्यायवाची कोश’ में भी थिसारस के अनुसार विषयानुक्रम अपनाया गया है। 1996 ई. में प्रकाशित अरविंद कुमार का हिंदी थिसारस ‘समांतर कोश’ (दो खण्ड) एक महत्त्वपूर्ण समांतर कोश है।


समांतर कोश में भी प्रविष्ट शब्द के पर्याय प्रस्तुत किए जाते हैं, लेकिन समांतर कोश पर्याय कोश नहीं है। अरविंद कुमार के अनुसार, ‘पर्यायवाची कोशों में किसी एक स्थान पर केवल एक ही धारणा के लिए पर्याय होते हैं, जबकि थिसारस (समांतर कोश) में किसी विषय से संबद्ध और विपरीत भावों के शब्दों को भी उनके निकट ही रखा जाता है। उदाहरण के तौर पर, पर्यायवाची कोश में अकारादि क्रम के कारण ब्रह्मा, विष्णु और महेश के शब्द एक-दूसरे से बहुत दूर होंगे, जबकि थिसारस में वे आस-पास ही होंगे और उनके निकट ही राक्षसों आदि के बाद भी मिल जाएंगे। इसका लाभ यह होता है कि यदि कहने वाले को अपने विषय के संदर्भ में कोई बिल्कुल सीधा शब्द न मिल रहा हो तो वह घुमा-फिराकर, या विपरीत के नकार द्वारा भी, अपनी बात दूसरों तक पहुंचा सकता है। कई बार उसे अपनी बात कहने के लिए बिल्कुल नई तरह के भाव भी मिल सकते हैं।’

F. मुहावरा-लोकोक्ति कोश

मुहावरे और लोकोक्तियों को सामान्य शब्दकोशों में गिना जाता है। हिंदी में स्वतंत्र रूप से मुहावरा कोश की परम्परा बीसवीं सदी से देखने को मिलती है, जबकि लोकोक्ति कोश बहुत पहले से मिलते हैं। हिंदी में मुहावरा व लोकोक्ति कोश अलग-अलग और संयुक्त रूप से भी देखने को मिलते हैं। इन कोशों में प्रविष्टियाँ लिपि के वर्णानुक्रम से की जाती हैं। इन कोशों में मुहावरों और लोकोक्तिओं के अर्थ देकर विस्तार से स्पष्ट करने के लिए वाक्य प्रयोग भी दिए जाते हैं।


कुछ प्रमुख मुहावरा एवं लोकोक्ति कोश निम्नलिखित हैं- हिंदी मुहावरे (1923)- रामदहिन मिश्र, हिंदी मुहावरा कोश (1951)- भोलानाथ तिवारी, मसलानामा (लोकोक्ति कोश)- जायसी, A Dictionary of Hindustani Proverbs (1884)- फैलन, हिंदी-मराठी लोकोक्ति कोश (1950)- गणेश रघुनाथ वैशंपायन, बृहत् हिंदी लोकोक्ति कोश- भोलानाथ तिवारी, लोकोक्तियाँ और मुहावरे (1932)- बहादुर चन्द्र, साहित्यक मुहावरा-लोकोक्ति कोश- हरिवंश राय शर्मा आदि।


संदर्भ-

1. हिंदी भाषा विकास एवं व्यावहारिक प्रयोजन- मुकेश अग्रवाल

2. हिंदी भाषा ‘क’, sol, du- मनीराम यादव

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