‘जूही की कली’ कवित्त छंद में रची गयी एक प्रणय कविता है। इस कविता को 1916 ई. में ‘सरस्वती’ पत्रिका के संपादक महावीर प्रसाद द्विवेदी ने वापस लौटा दी थी। यह कविता सर्वप्रथम ‘मतवाला’ के 18वें अंक में प्रकाशित हुई थी और विशेष बात यह है कि पहली बार निराला उपनाम के साथ यह कविता प्रकाशित हुई थी। इसे पहले ‘अनामिका’ (1923) में और फिर गंगा पुस्तक माला के सौवें पुष्प के रूप में प्रकाशित ‘परिमल’ (1929) में इसे संग्रहीत किया गया है।
जुही की कली में प्रकृति-प्रिया जुही के संग पवन-पुरुष का संसर्ग चित्रित किया गया है। यह चित्रण, द्विवेदी युग में उस समय वस्तुगठन से रूप सज्जा तक इस कदर नया था कि खड़ी बोली कविता के तत्कालीन परिसर में मानो भूचाल-सा आ गया था। इस कविता का प्रकाशन काव्य के क्षितिज पर एक नये सूर्य के अवतरण की घटना थी जिसने अपना नाम सुर्जकुमार तेवारी से बदलकर सूर्यकान्त त्रिपाठी कर लिया था।
नये बनते हुए राष्ट्र के गठन के लिहाज से सोचिए या आजादी के बढ़ते जा रहे आंदोलन की तरफ से देखें या एक नयी जातीय भाषा को उसका रूपाकार देने की कोशिशों की तरफ से देखिए- निराला की कविताएँ एक नये भावबोध के साथ उपस्थित होती हैं, जहाँ कवि अपनी आँख से दुनिया देखने से अर्जित आत्मविश्वास की बदौलत अपने मध्यकालीन वैष्णववादी संस्कार-विचार से लगातार उलझता चला गया है। अपनी आँख से दुनिया देखने का यह काम आधुनिक भाव बोध की तरफ से आया। तब आधुनिकता की थीसिस स्पष्ट रूप में सामने नहीं थी लेकिन कवि निराला ने कविता में जो थीसिस दी है, उसमें प्रकृति, प्रेम, संस्कृति, संघर्ष को नया अर्थ प्राप्त हुआ है। यह आधुनिकता थी।
जुही की कली एक प्रेम कविता है। निराला के प्रेम गीतों को समझने के लिए हमें यह देखना होगा कि प्रकृति को, जीवन को, स्त्री-पुरुष संबंध को, सृष्टि क्रम को निराला किस तरह समझते हैं। कविता के पाठ और व्याख्या में आगे बढ़ने से पहले यहाँ हम दो बातों की ओर आपका ध्यान आकर्षित करना चाहते हैं।
एक यह कि निराला के काव्य संसार में अंधकार की व्याप्ति का एक विशेष अर्थ है। दूसरी बात यह कि मुक्ति का प्रश्न केवल भाषा, जाति व राष्ट्र के साथ ही नहीं है, वह प्रेम के साथ भी है, प्रणय के मामले में भी है। प्रेम की तृप्ति, तोष को समझने के लिए निराला के यहाँ उस अंधकार की शिनाख्त करनी चाहिए जो समूची प्रकृति की आत्मा में धरती से आसमान तक भर गया है। इस अंधकार से मुक्ति का रास्ता, दी गई कविता में स्त्री-पुरूष समागम के खेल से होकर जाता है। यह याद रखने की बात है कि निराला के लेखे, स्त्री साक्षात् प्रकृति है, रूप से बढ़कर रस की, गंध की स्रोतस्विनी है। स्त्री, निराला के दार्शनिक मन में कहीं माया के अपरूप की तरह भी है। चैतन्य की सतह पर वे स्त्री-पुरुष का भेद नहीं मानते।
जुही की कली कविता
विजन-वन-वल्लरी पर
सोती थी सुहाग-भरी—स्नेह-स्वप्न-मग्न—
अमल-कोमल-तनु तरुणी—जुही की कली,
दृग बन्द किये, शिथिल, —पत्रांक में,
वासन्ती निशा थी;
विरह-विधुर-प्रिया-संग छोड़
किसी दूर देश में था पवन
जिसे कहते हैं मलयानिल।
आयी याद बिछुड़न से मिलन की वह मधुर बात,
आयी याद चाँदनी की धुली हुई आधी रात,
आयी याद कान्ता की कमनीय गात,
फिर क्या? पवन
उपवन-सर-सरित गहन-गिरि-कानन
कुंज-लता-पुंजों को पार कर
पहुँचा जहाँ उसने की केलि
कली-खिली-साथ।
सोती थी,
जाने कहो कैसे प्रिय-आगमन वह?
नायक ने चूमे कपोल,
डोल उठी वल्लरी की लड़ी जैसे हिंडोल।
इस पर भी जागी नहीं,
चूक-क्षमा माँगी नहीं,
निद्रालस बंकिम विशाल नेत्र मूँदे रही—
किंवा मतवाली थी यौवन की मदिरा पिये,
कौन कहे?
निर्दय उस नायक ने
निपट निठुराई की
कि झोंकों की झड़ियों से
सुन्दर सुकुमार देह सारी झकझोर डाली,
मसल दिये गोरे कपोल गोल;
चौंक पड़ी युवती—
चकित चितवन निज चारों ओर फेर,
हेर प्यारे को सेज-पास,
नम्र मुख हँसी—खिली,
खेल रंग, प्यारे संग।
जुही की कली कविता की व्याख्या
अब यहाँ से देखिए कि सोती हुई जुही से पवन की झकझोर डालने वाली मुलाकात का क्या मतलब है। कविता यहाँ से शुरू होती है कि कोमलांगी तरुणी जुही निविड़ वन के एकांत में वल्लरी के पत्रों की गोद में आँख मूँदकर सोयी हुई है। वल्लरी माने वह जो लपेट कर बढ़ता है। वसन्त की रात थी। उसका प्रिय मलय पवन, अपनी प्रिया से दूर, किसी दूर देश में था कि उसे प्रिय मिलन की मधुर बात और चाँदनी की धुली हुई आधी रात और प्रियतमा की देह का कमनीय कम्पन याद हो आया। फिर क्या था, वह हड़बड़ तड़बड़ चल भागा। जंगल, पहाड़, सर, सरिता, नदी, कुंज पार करता वह वहीं पहुँच गया जहाँ संग खिली कली सो रही थी। वल्लरी ने हिंडोल की तरह झूमकर स्वागत किया, पूछा कि अचानक इस आगमन का प्रयोजन? नायक ने कपोल चूम लिये, लेकिन जुही की कली सोई ही रही। न जागी, न कोई क्षमायाचना किया, नींद में डूबे हुए सुन्दर नेत्रों को बन्द किये रही। मानो यौवन के मद में डूबी हुई है। नायक निर्दयी ठहरा। निष्ठुरता करते हुए उसने अपने झोकों की झाड़ियों से जुही की सुकुमार देह को झकझोर डाला, उसके कपोल मसल दिये तो युवती चौंक पड़ी। उसने चारों ओर देखा और सेज पर प्रिय को पाकर हँस पड़ी, खिल उठी। खेल रंग, प्यारे संग।
इस कविता की संस्कृतनिष्ठ सामासिक पदावली में जो कहा गया है, वह संक्षेप में यही है। हमने यहाँ विद्यार्थियों की सुविधा का ध्यान रखते हुए थोड़ा सरल तरीके से बताने की कोशिश की है। ध्यान दीजिए, निराला कह रहे हैं, ‘कली खिली साथ’। यह जो निर्दयता है, यह जो निष्ठुरता है, इस पर गौर करने की जरूरत है। इसी को कहते हैं कि अगर इरादा नेक हो तो कोई भी बात कही जा सकती है। यह जो झकझोर है, इस झकझोर को चित्रित करने का साहस उल्लेखनीय है। मसल डालने की अफनाहट ख्याल में ही अधिक रहती है, ज़मीनी स्थितियाँ वास्तव में वैसी सुप्त नहीं होतीं, जैसा जुही को दिखाया गया है। यह सुप्ति न मात्र सोने के अर्थ में है, न यह किसी स्त्री मात्र की बात है। विशेष बात यह है कि यहाँ सुप्ति में सांस्कृतिक शयन भी शामिल है।
थोड़ी देर के लिए इसे ऐसे सोचिए कि कवि तिमिर ग्रस्त अपनी ही वैचारिक चेतना को, अपने ही सांस्कृतिक बोध को झकझोर रहा है तो? एक झकझोर गोरख पाण्डेय के यहाँ भी है: जनता की आवै पलटनिया, हिलेले झकझोर दुनिया।
इस कविता में एक कथा है। उस कथा में एक खेल है, खेल में एक रंग है, रंग में एक गंध है, गंध में एक रस है, रस में भी आदिरस है। कहना पड़ेगा कि इस कविता में जैसी अकुंठ कामातुरता प्रकट की गई है, वह संस्कृत, बांग्ला और व्रजी की परम्परा में कोई नयी बात न थी लेकिन खड़ी बोली हिंदी के लिए यह एक नयी चीज़ थी।
निराला की बिम्ब योजना पर बात रखने से पहले हम यह कहना चाहते हैं कि निराला की कविता में स्त्री और प्रकृति जिस तौर पर एकमएक होकर अभिव्यक्ति पाते हैं, वहाँ तृप्ति-मुक्ति का आशय है कि वहाँ ‘जागो’ की एक परिघटना घटित होती है। जागो का सम्बन्ध अंधकार से है। इस पर हम विस्तार से अगले वीडियो में आएँगे। उदाहरण के लिए ‘जागो फिर एक बार’ का यह अंश देखिए तो आपको लगेगा कि यह तो जुही की ही बात कही जा रही है-
“आँखें अलियों सी
किस मधु की गलियों में फँसी
बन्द कर पाँखें
पी रही हैं मधु मौन
या सोई कमल कोरकों में
बन्द हो रहा गुंजार
जागो फिर एक बार।”
प्रिय, प्रकृति, प्रेम निराला की कविता में जब एक ही आशन पर समाधिस्थ हो उठते हैं तो उसके पीछे तृप्ति, मुक्ति और जागो की प्रेरणा काम कर रही होती है। यह बहुवस्तुस्पर्शिनी काव्य प्रतिभा (रामचंद्र शुक्ल) की उपलब्धि है। चाहे कल्पनाशीलता की नजर से देखिए या प्रतीक योजना की तरफ से अथवा छंद विधान की दृष्टि से, निराला ने छायावादी काव्य के तमाम उपकरणों का जैसा ज्ञानात्मक विनियोग अपनी कविता में किया है, वहाँ एक ही झंकार में सुर और राग की कई लहरें एक साथ उठती हैं। इसीलिए समूचा काव्य अपने संष्लिष्ट रूप में सामने आता है।
रामविलास शर्मा ने अपनी आलोचना में इस तरह की कविताओं को निराला के अवैध प्रेम संबंधों से उपजी हुई टाइप की दिखाया है। वे निराला के निकट रहे थे, लेकिन निराला के काव्य बोध को देखने में जैसी गैरजिम्मेदारी उन्होंने दिखाई है वह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है। निराला की प्रेम कविताओं को समझने का एक सराहनीय प्रयास दूधनाथ सिंह की ओर से किया गया है लेकिन उनकी अपनी वैयक्तिक क्षुद्रता है जिससे वे बाहर नहीं निकल पाते। हमारा कहना है कि निराला की काव्य प्रतिभा को और उनकी उपलब्धियों को ठीक ठीक देखने समझने की जरूरत है जिसका आगे चलकर और विकास हुआ। कविता में जो कहा जा रहा है, उसे समझने के लिए हिंदी आलोचना को वैचारिक अपडेट चाहिए। यह काम इस अंधकार की आलोचना विकसित करने के रास्ते से होगा। काम मुश्किल नहीं है।
समझने की ख़ास बात यह है कि यहाँ कविता हो रही है, यहाँ संभोग नहीं हो रहा। निराला की दूसरी बहुत सी कविताओं में भी ऐसा है। बहुत जगह तो संभोग के क्षणों को विस्तार से चित्रित किया गया है। हिंदी के लोग चूँकि हर जगह कहानी तलाश करने के भूखे होते हैं इसलिए फौरन स्टोरी तलाश करने लग जाते हैं। उन्हें जैसे बात, विषय से मतलब ही नहीं रहता। संसर्ग का चित्र देखते ही जो लोग मनई चीन्हने के चक्कर तक चले जाते हैं, वे भ्रष्ट चेतना के लोग हैं। उनका एस्थेटिक सेंस करप्ट है। वे काव्य चित्र को, उसमें कहीं जा रही बात को न समझते हैं, न समझ सकते हैं। इस संकट से सावधान रहने की जरूरत है। जुही की कली को जो लोग मनोहरा देवी से जोड़ते हैं या जोड़ना चाहते हैं, उनकी समझ में जुही की कली कभी नहीं आ सकती। यह समस्या, आप ध्यान दीजिए कि ठीक उसी ‘चित्रप्रियता’ के कारण उत्पन्न हुई है जिसकी ओर परिमल की भूमिका में निराला ने इशारा किया है। कहने का मतलब, विद्यार्थी को खुद अपनी आँख से स्थितियों और संदर्भों को देखना होगा, तभी वह ठीक ठीक समझ पाएगा कि कविता में कहना क्या था; कि कवि ने क्या कहा है और उसको अब तक समझा किस रूप में गया है। निराला की काव्यात्मक उपलब्धियों को समझने के लिए हिंदी के आम विद्यार्थी को दृष्टि विकास चाहिए, उसकी आलोचनात्मक चेतना को परिष्कार चाहिए। इसके लिए वैष्णववाद के फैलाये सांस्कृतिक अंधकार की, वैचारिक भ्रष्टाचार की हक़ीक़त समझना होगा। यह काम हिंदी के विद्यार्थी के लिए, अपने होश में आने की तरह है।
इन कविताओं की व्याख्या भी पढ़ सकते हैं-
बाँधो न नाव इस ठाँव, बंधु! | अकाल और उसके बाद | यह दीप अकेला | गीत-फरोश
प्रश्नोत्तरी
‘जुही की कली’ छायावादी कवि सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ की कविता है। यह उनकी पहली कविता है।
निराला की ‘जूही की कली’ कविता सर्वप्रथम 1923 ई. में ‘अनामिका’ काव्य संग्रह और फिर 1929 ई. में ‘परिमल’ संग्रह में प्रकाशित हुई थी। हलाँकि इस कविता का रचनाकाल 1916 ई. की है।
इस कविता का नायक मलय प्रदेश का वासी ‘अनिल’ है। अनिल, वायु या पवन का पर्यायवाची है। कविता में यह कोई व्यक्ति नहीं है, एक चरित्र है। यहाँ नायक में निराला की छवि देखने से कविता का अर्थ संकुचित होता है। इसलिए नायक को पवन, पुरुष या निराला में देखने के बजाय उसके कामातुर किरदार में, उस खेल में, उस रंग में देखना चाहिए जिसमें दोनों साथ खिलते हैं।
निराला हिंदी को जातीय भाषा बनाए जाने के लिए उस समय जो आंदोलन चल रहा था उसके केवल हिमायती ही नहीं थे बल्कि सक्रीय कार्यकर्त्ता थे। इस कविता की भाषा स्पष्ट रूप से तत्सम शब्दों से भरी, अरबी-फारसी के पदों से दूर जिस हिंदी के लिए आंदोलन चला, इस कविता की भाषा वाही हिंदी है. अंतर ऐसे समझिए की यह प्रेमचंद की जबान नहीं है।
अपने प्रेमी पवन को सामने देखकर जुही की कली हर्ष से उल्लासित हो उठती है, इसलिए वह नम्र मुख से हँसने लगती है।