हिंदी के विविध रूप- उर्दू, रेख़्ता, दक्खिनी हिंदी और हिंदुस्तानी

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हिंदी, उर्दू और हिन्दुस्तानी का झगड़ा कई सौ बरस चलता रहा, लेकिन आज तक यह तय नहीं हो पाया की किसे राष्ट्र भाषा माना जाये। हिंदी वाले चाहते हैं की ऐसी विशुद्ध भाषा का प्रसार हो जिसमें संस्कृत तत्सम शब्दों की प्रचुरता हो, वहीं उर्दू वाले चाहते हैं की अरबी-फारसी शब्दावली प्रधान भाषा हो। इसी विवाद की वजह से हिंदी भाषा के कई रूप उभरे। भारत के इस भाषा के जितने नाम प्रचलित हैं ‘हिंदी’ उन सब में पुराना है। अमीर खुसरो के ‘खालिकबारी’ में सब जगह ‘हिंदी’ या ‘हिंदवी’ ही आया है, उसमें उर्दू, रेख्ता, दक्खिनी या हिंदुस्तानी आदि दूसरे नाम का जिक्र तक नहीं है। ‘खालिकबारी’ में 12 बार ‘हिंदी’ और 55 बार ‘हिंदवी’ शब्द का प्रयोग हुआ है। खड़ी बोली हिंदी के मुख्यत: चार रूप प्रचलित हैं- उर्दू, रेख्ता, दक्खिनी हिंदी और हिंदुस्तानी। इन पर हम क्रमवार विचार करेंगे।

1. उर्दू-

उर्दू शब्द का प्रयोग उस बोली के लिए होता है जो प्राय: मुसलमानों द्वारा बोली जाती है और फारसी लिपि में लिखी जाती है। उर्दू भाषा हिंदी के उस रूप से बनी है जिसमें लोग दिल्ली के आस-पास मुसलमानों के आने से पहले बातचीत किया करते थे। वस्तुत: उर्दू और हिंदी दोनों का जन्म खड़ी बोली से हुआ है तथा इन दोनों में संज्ञा शब्दों का ही प्रमुख अन्तर है। विद्वानों का मत है कि हिंदी और उर्दू ये दोनों भाषाएँ परस्पर बहने हैं। हिंदी और उर्दू भाषा का विकास एक दूसरे के समांतर हुआ है। तुर्की भाषा में उर्दू लश्कर (छावनी) को कहते हैं।

वस्तुत: उर्दू और हिंदी अलग-अलग भाषाएँ नहीं हैं, दोनों खड़ी बोली की शैली हैं। हिंदी में जहाँ संस्कृतनिष्ठ शब्दों की अधिकता रहती है वहीं उर्दू में अरबी-फारसी शब्दों की। हिंदी जहाँ देवनागरी लिपि में लिखी जाती है वहीं उर्दू फारसी लिपि में। प्रारम्भिक दौर में जहाँ उर्दू को हिन्दू और मुसलमान दोनों ही प्रयोग करते थे वहीं बाद में अंग्रेजों ने हिंदी को हिन्दुओं की बोली और उर्दू को मुसलमानों की बोली कह कर आपसी भाषागत् वैमनस्य के बीज बो दिया जिससे दोनों भाषाओं के बीच दूरियाँ बढ़ती गईं।

ग़ालिब के बहुत सारे शेर ऐसे हैं जिसमें सौ फीसदी खड़ी बोली के शब्द हैं। एक उदाहरण-

“ग़ालिब बुरा न मान, जो कोई बुरा कहे।

ऐसा भी कोई है कि सब अच्छा कहें जिसे।।”

फ़िलहाल अभी उर्दू भाषा के रूप में हिंदी से अलग स्वतंत्र पहचान बना ली है। “किसी देश और जाति में ऐसी भाषा न मिलेगी जिसमें लगभग दस हजार विदेशी शब्द ज्यों के त्यों खपा दिए जायँ और इस तरह एक ऐसी रची हुई भाषा बन उठे जिसके नख-शिख देखने वाले देखते ही रह जायँ।”[1] उर्दू की पहली पुस्तक मीर ‘अम्मन’ देहलवी की ‘बागोबहार’ (1801 ई.) को माना जाता है जिसकी रचना 18वीं शताब्दी में हुआ था। उर्दू के प्रमुख शायर और लेखक निम्नलिखित हैं- जौक, जफर, दाग, गालिब, साहिर लुधियानवी, कृष्ण चंद्र, राजिंदर सिंह बेदी, फिराक गोरखपुरी आदि।

2. रेख्ता-

‘रेख्ता’ का शाब्दिक अर्थ है- गिरी हुई। जैसे- संस्कृत भाषा को सरल करके प्राकृत भाषा बनी जिसका प्रयोग संस्कृत नाटकों में अशिक्षित, पात्रों विशेषत: सेवकों या दास-दासियों द्वारा किया जाता था, उसी प्रकार फारसी भाषा के शब्दों को सरल करके बोलचाल की जो भाषा बनी उसे रेख्ता कहा गया। कुछ विद्वान् रेख़्ता का अर्थ ‘बिखरा हुआ’ लेकिन ‘मिश्रित’ मानते हैं। डॉ. धीरेन्द्र वर्मा ने रेख्ता भाषा को उर्दू की एक शैली माना है।

जब दिल्‍ली-आगरा की दरबारी भाषा फारसी थी तब दक्षिण के मुसलमानी दरबारों में उर्दू का प्रयोग होने लगा था। इसी उर्दू में अरबी-फारसी के शब्दों का प्रयोग करके वाक्य रचना होने लगी, इस मिश्रित बोली को ही रेख्ता कहा गया। यह प्रारम्भ में हेय समझी जाती थी, बाद में शायरों के द्वारा इसका प्रयोग कविता में किया जाने लगा। गालिब का एक शेर है जिसमें उन्होंने स्वयं तथा मीर को रेख्ता का उस्ताद कहा है-

रेख्ते के तुम्हीं उस्ताद नहीं हो गालिब।

कहते हैं अगले जबाने में कोई मीर भी था।

अब्दुल कादिर ने रेख्ता को फारसी मिश्रित हिंदी माना है। रेख्ता असल में उर्दू पद्य की भाषा का नाम था। दरअसल ऐसी हिंदी जिसमें अरबी-फारसी शब्दों की बहुलता हो, रेख्ता भाषा कहलाती है। स्त्रियों द्वारा प्रयुक्त होने पर इसे रेख्ती भी कहा जाता है। ‘रेख्ता’ शब्द का प्रथम प्रयोग ‘सादी’ दक्खनी के कलाम में मिलता है।

3. दक्खिनी

दक्खिनी हिंदी मूलत: हिंदी का ही एक रुप है।[2] ‘दक्खिनी हिंदी’ को दक्खिनी के अन्य नाम ‘हिन्दवी’, ‘दकनी’, ‘दखनी’, ‘देहलवी’, ‘गूजरी’, ‘हिन्दुस्तानी’, ‘ज़बाने हिन्दुस्तानी’, ‘दक्खिनी उर्दू’, ‘मुसलमानी’ आदि भी कहा जाता है। जब मुहम्मद तुगलक ने सन्‌ 1327 ई. में दिल्ली से दौलताबाद (देवगिरि) अपनी राजधानी स्थानान्तरित की तो बहुत सारी हिंदी भाषी जनता भी उनके साथ दक्षिण में गई। निजाम के हैदराबाद में उत्तर भारत से आने वाले सैनिक, कर्मचारी, धर्म प्रचारक एवं व्यावसायिक भी हिंदी भाषी थे। इनका संपर्क दक्षिण भारतीय भाषाओं से हुआ और उनके संपर्क में एक नई भाषा बनी जो दक्खिनी हिंदी कहलाई।

क्योंकि उत्तर भारत से गए हुए मुस्लिम अमीर, सैनिक, पदाधिकारी तथा विद्वान, पूर्वी पंजाब (हरियाणा) दिल्ली और मेरठ की भाषा से ही परिचित थे, मराठी, तेलुगु आदि दक्खिनी भाषाओं से नहीं। वे दक्षिण प्रवेश के साथ अपनी इसी पूवीर्जित तथा अभ्यस्त भाषा को ही अपने साथ लेते गए थे।[3] दक्खिन में आने वाले मुसलमान विभिन्न बोलियों के क्षेत्रों से आए थे किन्तु उनमें बहुत बड़ी संख्या दिल्ली के आस-पास के लोगों की ही थी, इसलिए दक्खिन में इन लोगों की जो परिनिष्ठित और साहित्यिक बोली तैयार हुई उसमें सबसे अधिक योगदान दिल्ली के आस-पास की बोली का ही है।[4] इस प्रकार दक्खिनी हिंदी मूलत: वह कौरवी, हरियाणवी (हरियाणी) या हिन्दवी बोली थी जो दिल्ली के मुस्लिम सुल्तानों द्वारा की गई दक्षिण की विजय के साथ-साथ उस ओर प्राय: विक्रम की चौदहवीं शताब्दी के पूर्वार्द्धकाल से ही पहुंचने लग गयी थी।[5]

दिल्ली, पंजाब, उत्तर प्रदेश के लोग निजाम हैदराबाद के शासन क्षेत्र में गए और वहीं बस गये। उनकी बोली को दक्खिनी हिंदी कहा गया। वर्तमान समय में हैदराबादी हिंदी को दक्खिनी हिंदी कहा जाता है। मुसलमानों के साथ यह आगे चलकर यह कर्नाटक, आंध्र, तमिलनाडु, केरल, महाराष्ट्र, गुजरात आदि राज्यों में फैल गई। दक्षिण में जाने के बाद इस पर कुछ गुजराती-मराठी का भी प्रभाव पड़ा है।

महापंडित राहुल सांकृत्यायन के शब्दों में तो “खड़ी हिंदी के सर्वप्रथम कवि यही दक्खिनी के कवि थे।”[6] सुनीति कुमार चाटुज्र्या दक्खिनी साहित्य को उर्दू तथा हिंदी के खड़ी बोली से सम्बन्धित साहित्य का आदि रुप मानते हैं।[7] डॉ. विश्वनाथ प्रसाद का भी अभिमत है कि दक्खिनी हिंदी, हिंदी का अभिन्न अंग हैं।[8] जार्ज ग्रियर्सन इसे हिन्दुस्तानी का बिगड़ा रूप न मानकर उत्तर भारत की ‘साहित्यिक हिन्दुस्तानी’ को ही इसका बिगड़ा रूप मानते हैं। डॉ. चटर्जी इसे हिन्दुस्तानी नहीं, तो उसकी सहोदरा भाषा अवश्य मानते हैं। यथार्थ तो यह है कि दक्खिनी हिंदी के समाहार के बिना हिंदी भाषा का सर्वांगपूर्ण इतिहास नहीं रखा जा सकता है।[9] दक्खिनी हिंदी के प्रमुख अध्येता डॉ. श्रीराम शर्मा तो नव्य भारतीय आर्य भाषा के क्रमिक विकास को समझने के लिए भी दक्खिनी को ही आधार मानते हैं। उनके अनुसार हिंदी की जिन बोलियों पर सर्वप्रथम न.भा.आ. की विशेषताएं परिलक्षित हुईं, दक्खिनी उनमें अग्रगण्य है।[10] डॉ. भोलानाथ तिवारी के अनुसार भाषा वैज्ञानिक दृष्टि से, दक्खिनी मूलत: ‘प्राचीन खड़ीबोली’ है, जिसमें पंजाबी, हरियानी, ब्रज, मेवाती तथा अवधी के कुछ रूप भी हैं। इस प्रकार विद्वानों की मान्यताओं के आधार पर ‘दक्खिनी’ का हिंदी से मात्र सम्बन्ध ही नहीं है, अपितु हिंदी के क्रमिक विकास और उसके अन्नयन में भी इसका असंदिग्ध रुप से योगदान है।

‘दक्खिनी’ का विकास ईसा की 14वीं शती से 18वीं शती तक दक्खिन के बहमनी, क़ुतुब शाही और आदिल शाही आदि राज्यों के सुल्तानों के संरक्षण में हुआ था। इतना ही नहीं इस भाषा को इन राज्यों में राजभाषा का भी पद प्राप्त हुआ। इसमें गद्य- साहित्य भी पर्याप्त प्राचीन मिलता है। खड़ी बोली गद्य का प्राचीन प्रामाणिक ग्रंथ दक्खिनी में ही मिलता है। इस गद्य- ग्रंथ का नाम ‘मिराजुल आशिकीन’ है, जिसके लेखक ख्वाजा बन्दानवाज़ (1318- 1430) हैं।

इसके क्षेत्र प्रमुखत: दक्षिण भारत के बीजापुर, गोलकुण्डा, अहमदनगर आदि, बरार, मुम्बई तथा मध्य प्रदेश आदि हैं। दक्खिनी के साहित्यकारों में अब्दुल्ला, वजही, निजामी, गवासी, ग़ुलामअली तथा बेलूरी आदि प्रमुख हैं। इसकी वर्तमान उपबोलियों में मुख्य मैसूरे, गुलबर्गी, बीदरी, बीजापुरी, हैदराबादी आदि हैं।

4. हिन्दुस्तानी

हिन्दुस्तानी नामकरण यूरोपियों द्वारा संकुचित अर्थों में किया गया था। उनके अनुसार हिन्दुस्तानी हिंदी भाषा का वह रूप है, जिसमें विदेशी भाषाओं के शब्द अधिक हों। जॉन गिलक्रास्ट की देख-रेख में जब कलकत्ता में फोर्ट विलियम कॉलेज (1803 ई.) की स्थापना हुई तब इस नाम पर सरकारी मुहर लग गई।

हिन्दुस्तानी भी हिंदी भाषा का एक रूप है। वस्तुत: हिंदी-उर्दू मिश्रित भाषा को हिन्दुस्तानी कहा जाता है। यह आम बोल-चाल की भाषा है, जिसमें देश के अधिकांश लोग बात-चीत करते हैं। यही वह भाषा है जो बाजार, कारोबार, फिल्म, नाटक आदि में प्रयुक्त होती है।

हिंदी-मुस्लिम एकता को ध्यान रखते हुए कुछ नेताओं और साहित्यकारों ने स्वतंत्रता आन्दोलन के समय हिन्दुस्तानी भाषा की वकालत की। महात्मा गाँधी और पंडित जवाहर लाल नेहरू अपने भाषण आम जनता में देते समय हिन्दुस्तानी भाषा का प्रयोग करते थे। व्यावहारिक रूप में हिन्दुस्तानी भाषा उस भाषा को कहते हैं जिसमें न तो संस्कृत बहुल शब्दावली हो और न ही फारसी के कठिन शब्द हों। आम जनता में बोली-समझी जाने वाली ऐसी सरल हिंदी जिसमें उर्दू के चलते हुए शब्द भी बीच-बीच में पिरोये गए हों, हिन्दुस्तानी भाषा कही जाती है।

राष्ट्रभाषा प्रचार समिति के द्वारा साधारण बोलचाल की इस भाषा हिन्दुस्तानी के प्रचार-प्रसार का प्रयास जारी रहा, किन्तु जब इसमें जान-बूझकर ‘सीता माता’ जैसे शब्दों के स्थान पर ‘सीता बेगम’ जैसे उर्दू शब्दों की भरमार की गई तो हिन्दुओं एवं हिंदी समर्थकों ने इसका तीव्र विरोध किया। डॉ. श्यामसुन्दरदास के अनुसार ‘हिन्दुस्तानी में तत्सम शब्दों का प्रयोग कम से कम होता है।’

हिन्दुस्तानी नाम अंग्रेजों द्वारा दिया गया है। अंग्रेज अफसर जिस साधारण बोलचाल की भाषा का प्रयोग आम जनता से वार्तालाप हेतु करते थे उसी को हिन्दुस्तानी कहा गया। किस्से, गजलें, कहानियां, शायरी जो कुछ भी साधारण जनता के लिए लिखा गया- वह आम हिन्दुस्तानी जबान में ही था।


[1] उर्दू कविता पर बातचीत- फ़िराक गोरखपुरी, पृष्ठ- 3

[2] हिंदी भाषा- डॉ. भोलानाथ तिवारी, पृष्ठ- 234

[3] अली आदिलशाह का काव्य संग्र (प्रस्तावना)- डॉ. विश्वनाथ प्रसाद, पृष्ठ- 2

[4] दक्खिनी हिंदी का साहित्य- डॉ. श्रीराम शर्मा, पृष्ठ- 284

[5] हिंदी साहित्य का बृहत् इतिहास (चतुर्थ भाग)- परशुराम चतुर्वेदी, पृष्ठ- 367

[6] दक्खिनी हिंदी काव्यधारा (दो शब्द)- महापंडित राहुल सांकृत्यायन, पृष्ठ- 5

[7] दक्खिनी का पद्य और गद्य (अवतरणिका, सुनीतिकुमार चाटुज्र्या)- श्रीराम शर्मा, पृष्ठ- 6

[8] अली आदिल शाह संग्रह (प्रस्तावना)- डॉ. विश्वनाथ प्रसाद, प्रधान सम्पादक, पृष्ठ- 1

[9] फूलबन (हृदगत)- देवीसिंह चौहान, पृष्ठ- 38

[10] दक्खिनी हिंदी का साहित्य- डॉ. श्रीराम शर्मा, पृष्ठ- 38