गीत-फरोश कविता की व्याख्या और प्रमुख तथ्य

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गीत-फरोश: भवानीप्रसाद मिश्र

भवानी प्रसाद मिश्र नई कविता के दौर के कवि हैं। दूसरे सप्तक (1951 ई.) में शामिल भवानी एक गांधीवादी कवि माने जाते हैं। ‘गीत फरोश’ कविता सर्वप्रथम अज्ञेय द्वारा संपादित ‘दूसरे सप्तक’ (1951 ई.) में प्रकाशित हुई थी। ‘दुसरे सप्तक’ के प्रकाशन से पहले उनका कोई संग्रह प्रकशित नहीं हुआ था। ‘दूसरा सप्तक’ में मिश्रजी की निम्नलिखित ग्यारह कविताएँ हैं- 1. कमल के फूल, 2. सतपुड़ा के जंगल, 3. सन्नाटा, 4. बूंद टपकी एक नभ से, 5. मंगल वर्षा, 6. टूटने का सुख, 7. प्रलय, 8. असाधारण, 9. स्नेह शपथ, 10. गीत फरोश, 11. वाणी की दीनता।


पहला संग्रह ‘गीत फरोश’ नाम से 1956 ई. में प्रकाशित होता है जिसमें 1930 से 1945 की कविताएँ संग्रहित हैं। ‘गीत फरोश’ इस संग्रह की प्रतिनिधि कविता है जिसके नाम से इस काव्य संग्रह का नाम रखा गया है। इस संकलन की यह सर्वश्रेष्ठ एवं बहुचर्चित कविता भी है। शिल्प विधान की दृष्टि से यह गीत बड़े ही अनोखे ढंग से, नाटकीयता सतर्कता, सम्बोधन शैली, आँचलिकता आदि विशेषताएँ लिये हुए है।

उनके कुल सोलह काव्य-संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं, जिनमें एक खण्ड काव्य भी है- 1. गीत-फरोश (1956), 2. चकित है दुःख (1968), 3. अंधेरी कविताएँ (1968), 4. गांधी – पंचशती (1969), 5. बुनी हुयी रस्सी (1971), 6. खुशबू के शिलालेख (1973), 7. व्यक्तिगत (1974), 8. परिवर्तन जिये (1976), 9. अनाम तुम आते हो (1976), 10. इदं न मम् (1977), 11. त्रिकाल सन्ध्या (1978), 12. कालजयी (खण्डकाव्य) (1978), 13. शरीर कविता फसलें और फूल (1980), 14. मानसरोवर दिन (1981), 15. सम्प्रति (1982), 16. नीली रेखा तक (1984)।

गीत-फ़रोश की रचना प्रक्रिया

गीत-फ़रोश गीत के रूप में लिखा गया है जिसमें एक नया प्रवाह और नया भाव-बोध देखा जा सकता है। आत्म स्वीकृति और पूंजीवाद ने कैसे हर चीज को बिकाऊ कर दिया है। इसी बात को इस गीत में व्यंजित किया गया है। यह कविता कविकर्म के प्रति समाज और स्वयं कवि के बदलते हुए दृष्टिकोण को उजागर करती है। व्यंग्य के साथ-साथ इसमें वस्तु स्थिति का मार्मिक निरूपण भी है। ‘गीत-फरोश’ कविता में कवि ने अपने फ़िल्मी दुनिया में बिताये समय को याद कर कवि के गीतों का विक्रेता बन जाने की विडम्बना को मार्मिकता के साथ कविता में ढाला है।

गीत-फरोश कविता की पृष्ठभूमि के विषय में कवि ने स्वयं कहा है कि- “गीत-फरोश शीर्षक हँसाने वाली कविता मैंने बड़ी तकलीफ में लिखी थी। मैं पैसे को कोई महत्व नहीं देता लेकिन पैसा बीच-बीच में अपना महत्त्व स्वयं प्रतिष्ठित करा लेता है। मुझे अपनी बहन की शादी करनी थी। पैसा मेरे पास था नहीं तो मैंने कलकत्ते में बन रही फिल्म के लिए गीत लिखे। गीत अच्छे लिखे गए। लेकिन मुझे इस बात का दुख था कि मैंने पैसे लेकर गीत लिखे।

मैं कुछ लिखूं इसका पैसा मिल जाए, यह अलग बात है, लेकिन कोई मुझसे कहे कि इतने पैसे देता तुम गीत लिख दो। यह स्थिति मुझे बहुत नापसंद। क्योंकि मैं ऐसा मानता हूँ कि आदमी की जो साधना का विषय है वह उसकी जीविका का विषय नहीं होना चाहिए। फिर कविता तो अपनी इच्छा से लिखी जाने वाली चीज है। इस तकलीफ देह पृष्ठभूमि में लिखी गई गीत-फरोश।”[1]

दुसरे सप्तक की भूमिका में उन्होंने लिखा है कि, “मैंने अपनी कविता में प्रायः वही लिखा है जो मेरी ठीक पकड़ में आ गया है। दूर से कौड़ी लाने की महत्वाकांक्षा भी मैंने कभी नहीं की।”

गीत-फरोश कविता

जी हाँ हुजूर, मैं गीत बेचता हूँ,

मैं तरह-तरह के गीत बेचता हूँ,

मैं किसिम-किसिम के गीत बेचता हूँ!

जी, माल देखिए, दाम बताऊँगा,

बेकाम नहीं है, काम बताऊँगा,

कुछ गीत लिखे हैं मस्ती में मैंने,

कुछ गीत लिखे हैं पस्ती में मैंने,

यह गीत, सख्त सरदर्द भुलाएगा,

यह गीत पिया को पास बुलाएगा!

जी, पहले कुछ दिन शर्म लगी मुझको;

पर बाद-बाद में अक्ल जगी मुझको,

जी, लोगों ने तो बेच दिये ईमान,

जी, आप न हों सुन कर ज्यादा हैरान –

मैं सोच-समझकर आखिर

अपने गीत बेचता हूँ,

जी हाँ हुजूर, मैं गीत बेचता हूँ,

मैं तरह-तरह के गीत बेचता हूँ,

मैं किसिम-किसिम के गीत बेचता हूँ!

यह गीत सुबह का है, गाकर देखें,

यह गीत गजब का है, ढाकर देखे,

यह गीत जरा सूने में लिक्खा था,

यह गीत वहाँ पूने में लिक्खा था,

यह गीत पहाड़ी पर चढ़ जाता है,

यह गीत बढ़ाए से बढ़ जाता है!

यह गीत भूख और प्यास भगाता है,

जी, यह मसान में भूख जगाता है,

यह गीत भुवाली की है हवा हुजूर,

यह गीत तपेदिक की है दवा हुजूर,

जी, और गीत भी हैं, दिखलाता हूँ,

जी, सुनना चाहें आप तो गाता हूँ!

जी, छंद और बे-छंद पसंद करें,

जी, अमर गीत और ये जो तुरत मरें!

ना, बुरा मानने की इसमें क्या बात,

मैं पास रखे हूँ कलम और दावात

इनमें से भाएँ नहीं, नए लिख दूँ,

मैं नए पुराने सभी तरह के

गीत बेचता हूँ,

जी हाँ, हुजूर, मैं गीत बेचता हूँ,

मैं तरह-तरह के गीत बेचता हूँ,

मैं किसिम-किसिम के गीत बेचता हूँ!

जी गीत जनम का लिखूँ, मरण का लिखूँ,

जी, गीत जीत का लिखूँ, शरण का लिखूँ,

यह गीत रेशमी है, यह खादी का,

यह गीत पित्त का है, यह बादी का!

कुछ और डिजायन भी हैं, यह इल्मी,

यह लीजे चलती चीज नई, फिल्मी,

यह सोच-सोच कर मर जाने का गीत!

यह दुकान से घर जाने का गीत!

जी नहीं दिल्लगी की इस में क्या बात,

मैं लिखता ही तो रहता हूँ दिन-रात,

तो तरह-तरह के बन जाते हैं गीत,

जी रूठ-रुठ कर मन जाते है गीत,

जी बहुत ढेर लग गया हटाता हूँ,

गाहक की मर्जी, अच्छा, जाता हूँ,

मैं बिलकुल अंतिम और दिखाता हूँ,

या भीतर जा कर पूछ आइए, आप,

है गीत बेचना वैसे बिलकुल पाप

क्या करूँ मगर लाचार हार कर

गीत बेचता हूँ।

जी हाँ हुजूर, मैं गीत बेचता हूँ,

मैं तरह-तरह के गीत बेचता हूँ,

मैं किसिम-किसिम के गीत बेचता हूँ!

गीत-फरोश कविता की व्याख्या

‘दूसरे सप्तक’ की प्रायः सभी कविताओं में मिश्र जी की ‘गीत-फरोश’ कविता अत्यन्त चर्चित रही है। अधरों की मुस्कान के साथ-साथ कवि सूक्ष्म व्यंग्य युक्त भाषा में फेरी वाले की भाँति पुकार लगाकर ‘किसिम-किसिम’ के गीत बेचता है। वह दिन-रात लिखता है। क्योंकि उसकी कलम दूसरों की पसन्द पर टिकी हुई है।

लेखक कहता है कि वह आज इस स्थिति में पहुँच गया है कि उसे पहले परिश्रम श्रद्धय गीतों को बेचना पड़ रहा है। एक लेखक उन परिस्थितियों में है कि उसे अपनी जीविका के लिए अपनी कलम को बेचना पड़ता है। यह पूंजीवाद का वह दौर है जो सभी को उपभोक्तावादी बना दिया है जहाँ हर चीज बिकाऊ है। कविता इस आत्म स्वीकरोक्ति से प्रारंभ होती है की मैं अपने गीतों को बेच रहा हूँ जो वैविध्यपूर्ण हैं। कवि कहता है कि पहले गीत देख लीजिये, उसके बाद मैं आपको मैं दाम भी बता दूंगा। लेखक कहता है मेरे पास हर तरह के गीत है। कोई भी गीत ले वह निरर्थक न होगा। हर एक में कुछ अर्थ जरूर होगा। आगे कवि कहता है की ये गीत मैंने मौज मस्ती और पस्ती दोनों ही स्थितियों में लिखे हैं। मेरे गीत गमों को हरने वाले, पिया को पास बुलाने वाले है।

यह गीत लेखक की रचना है इसलिए उसे इसे बेचने में शर्म आती है परंतु अब वह उसके महत्व को समझ चुका है। उसे याद आता है कि लोग तो अपना ईमान तक बेच दे रहे मैं सिर्फ गीत बेच रहा हूँ। इसीलिए लेखक कहता है कि मैंने बहुत सोच समझकर अपने गीत बेचने का निर्णय लिया है। लेखक ने इन पंक्तियों में बाजारीकरण के बढ़ते दुष्प्रभावों को रेखांकित करता है। इस कविता में जीवन की विडम्बना पर कवि का करुण आक्रोश बड़े ही गहरे स्तर पर उभरा है। जहाँ ईमान बिकता है, वहाँ भला गीतकार अपने गीत क्यों न बेंचे? तीव्र व्यंग्यात्मकता के साथ कवि की विवशता का एक करुण स्पर्श इस कविता की अपनी मौलिक विशेषता है।

जिस तरह से कोई बिक्रेता अपने सामान की विशेषता बता बता के अपना सामान बेचता है उसी तरह लेखक अपने गीत की विशेषता बता रहा है कि सुबह का गीत है शाम का गीत है। सुख का गीत है दुख का गीत है। यह गीत भूख बढ़ता भी और भूख खत्म भी करता है। ये दवा का भी काम करता है ये दुआ का भी काम करता है। मेरे पास गीत की भरमार है न आया हो पसंद तो और दिखता हूँ। इन पंक्तिओं में कवि का व्यंग्यात्मक स्वर झलकता है।

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कवि एक अनुभवी व निपुण व्यवसायी लहजे में अपने ग्राहकों को संबोधित करते हुए कहता है कि, यदि ये गीत पसंद न आ रहे हों तो मेरे पास और भी गीत हैं जिन्हें मैं दिखला सकता हूँ। यदि आप सुनना चाहें तो मैं इन्हें गा भी सकता हूँ। इनमें छंद और बिना छंद वाले हर प्रकार के गीत पसंद किए जाने लायक हैं। इनमें ऐसे गीत भी हैं जो अमर या कभी न मिटने वाले हैं और ऐसे गीत भी हैं जिनका प्रभाव तुरंत समाप्त हो जाता है। यदि ये गीत पसंद न आ रहे हों तो इसमें बुरा मानने जैसी कोई बात नहीं है, मेरे पास तो कलम और दवात भी है, यदि ये गीत अच्छे नहीं लगे हैं तो अभी नए गीत लिख देता हूँ। और यदि नये गीत नहीं चाहिए तो मैं पुराने गीतों को भी लिख सकता हूँ। मैं तो नए और पुराने सभी तरह के गीत लिखता और बेचता हूँ। इन पंक्तियों में कवि जीवन की विषम परिस्थितियों का मार्मिक चित्र उकेरता है जिसमें उसे किसी भी तरह से अपना सौदा बेचना ही है।

मेरे गीतों में जन्म का गीत, मरण का गीत, जीत का गीत, शरण का गीत, बीमारी का गीत, दवा का गीत। रेशमी गीत, डिजाइन गीत, फ़िल्मी गीत, श्रम का गीत, नायिका का गीत, प्रिय वियोग का गीत सब दिखलाता हूँ। न पसंद आया उठकर मत जाइए मैं दिल लगी नहीं कर रहा। जरा बैठिए अंतिम दिखलाता हूँ। जिस तरह फेरीवाला येनकेन प्रकारेण अपना सौदा बेचना चाहता है वैसे भवानी जी अपने गीत बेच रहे हैं। ऐसा वे अपनी मर्जी से नहीं बल्कि वे उस स्थिति को बयां कर रहे है जिसमें वे गीत बेचने पर मजबूर हुए। इन पंक्तियों के माध्यम से भवानी प्रसाद न केवल विषम आर्थिक व्यवस्था का चित्रण करते है बल्कि लेखक के प्रति पसरी उदासीनता को भी उद्घाटित करते है। ऐसा कहा जाता है जीवन के एक दौर में भवानी को अपने गीत फिल्मों में बेचने पड़े। उसी से उपजी पीड़ा की यह गीत ईमानदार अभिव्यक्ति है।

-डॉ. अनिरुद्ध कुमार यादव


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