समाज के लिये धर्म की आवश्यकता है या नहीं? इस प्रश्न पर कुछ अपने विचार प्रकट करना ही आज इस लेख का उद्देश्य है। प्राचीन और नवीन अथवा पूर्व और पश्चिम इन दोनों के संघर्ष से यह प्रश्न उत्पन्न हुआ है। पूर्वी सभ्यता सदा से धर्म की पक्षपातिनी रही है और उसने धर्म को समाज में सबसे ऊंचा स्थान दिया है। पश्चिमी सभ्यता इस समय चाहे उसकी विरोधिनी न हो, पर उससे उदासीन अवश्य है और कम-से-कम समाज की उन्नति के लिये वह उसे आवश्यक नहीं समझती। उसकी सम्मति में बिना धर्म का आश्रय लिये भी नैतिक बल के सहारे मनुष्य अपनी वैयक्तिक और सामाजिक उन्नति कर सकते हैं।
यद्यपि पहले पश्चिम भी धर्म का ऐसा ही अनन्य भक्त था जैसा कि इस समय भारतवर्ष। पर मध्यकाल में कई शताब्दी तक वहाँ धर्म के कारण बड़ी अशांति मची रही। धर्ममद से उन्मत्त होकर समाज ने बड़े-बड़े विद्वानों और संशोधकों के साथ वह सलूक किया जो लुटेरे मालदारों के साथ करते हैं। 50 वर्ष तक लगातार जारी रहने वाला यूरोप का धर्मयुद्ध प्रसिद्ध ही है। इस्लाम ने जो सलूक ईसाइयों के साथ किया उसको जाने दीजिए, क्योंकि वह एक भिन्न धर्म था। ईसाई धर्म की ही दो शाखाओं ने, जिसका नाम कैथलिक और प्रोटेस्टेन्ट है, एक-दूसरे के साथ जैसे-जैसे अत्याचार और अमानुषिक बर्ताव किये हैं, उन पर अब तक यूरोप का इतिहास रुधिर के आँसू बहा रहा है। इसलिये अब इस सभ्यता और उन्नति के युग में पश्चिम निवासियों को यदि धर्म पर वह श्रद्धा नहीं है जो उनके पूर्वजों की थी तो वह सकारण है। यद्यपि पूर्वापेक्षा अब उनके धर्म का भी बहुत कुछ संस्कार हो गया है और शिक्षा की उन्नति के साथ-साथ, जिसमें यूरोप और अमेरिका ने सबसे अधिक भाग लिया है, उनके धर्म में भी सहिष्णुता, स्वतन्त्रता और उदारता की मात्रा बढ़ गई है, तथापि धर्मवाद के परिणामस्वरूप जो कड़वे फल उनको चखने पड़े हैं, उन्होंने उनको धर्म की सीमा नियत कर देने के लिये बाधित किया, तदनुसार उन्होंने धर्म की अबाध सत्ता से अपने समाज को मुक्त कर दिया। अब वहाँ यही नहीं कि समाज की शासन सत्ता में धर्म कुछ विक्षेप नहीं डाल सकता, किन्तु व्यक्ति स्वातन्त्र्य और सामाजिक प्रबंध में भी कुछ हस्तक्षेप नहीं कर सकता और बहुत-सी बातों के समान धर्म भी एक व्यक्तिगत बात मानी जाती है, जिसका जी चाहे, किसी धर्म को माने, न चाहे न माने। मानने से कोई विशेष स्वत्व पैदा नहीं होते, न मानने से कोई हानि नहीं होती।
यह तो रही पश्चिम की धार्मिक अवस्था, अब रहा पूर्व। यद्यपि पूर्व में सर्वत्र ही धर्म का प्राधान्य है तथापि भारतवर्ष में तो उसका एकाधिपत्य राज्य है। यद्यपि वहाँ की शासन सत्ता पश्चिमी लोगों के हाथ में होने से अब उसमें वह हस्तक्षेप नहीं कर सकता, तथापि भारतीय समाजों में और उनकी विविध शाखाओं में उसका अप्रतिबन्ध अधिकार है। हम जन्म से लेकर मृत्युपर्यन्त चाहे किसी दशा में रहें, कुछ करें, धार्मिक बन्धन से मुक्त नहीं हो सकते।
हमको केवल अपने पूजा-पाठ या संस्कारों में ही धर्म की आवश्यकता नहीं, किन्तु हमारा काम चाहे वह सामाजिक हो या व्यक्तिगत, धर्म के बंधन से जकड़ा हुआ है। यहाँ तक कि हमारा खाना-पीना, जाना-आना, सोना, जागना और देना-लेना इत्यादि सभी बातों में धर्म छाप लगी हुई है। हम हिन्दू होकर सब कुछ छोड़ सकते हैं पर धर्म को किसी अवस्था में नहीं छोड़ सकते। हमारे पूर्वज धर्म को ही अपना जीवनसर्वस्व मानते थे और यही उपदेश शास्त्रों में वे हमको भी कर गये हैं। मनु लिखता है-
धर्मएव हतो हन्ति धर्मोरक्षति रक्षित:।
तस्माद्धर्मो न हन्तव्यो मानोधर्मो हतोऽवधीत्।।
प्राचीन आर्य लोग धर्म को केवल परलोक का ही साधन नहीं मानते थे, किन्तु इस लोक का बड़े-से-बड़ा सुख भी धर्म के बिना उनकी दृष्टि में हेय था। त्रिवर्ग में जिसका सम्बन्ध संसार से है, धर्म ही सबसे पहला और मुख्य माना गया है। कणाद तो अपने वैशेषिक दर्शन में अभ्युदय की नींव भी धर्म पर रखता है। यथा-
यतोऽभ्युदय नि:श्रेयससिद्धिः सधर्म:।
अतएव हम अपने शास्त्रों को मानते हुए और पूर्वजों पर श्रद्धा रखते हुए किसी दशा में धर्म की उपेक्षा नहीं कर सकते।
पश्चिम की शिक्षा का प्रभाव जिन लोगों पर पड़ा है, वे चाहे हमारे स्वदेशी बान्धव ही क्यों न हों, हमको भी यह सलाह देते हैं कि हम भी यदि इस जातीय उन्नति की दौड़ में भाग लेना चाहते हैं तो धर्म की कोई ऐसी सीमा नियत कर दें, जिससे आगे यह अपने पैर न फैला सके। उनका यह कथन है कि जब तक हमारे हर एक काम में धर्म का पचड़ा लगा हुआ है, हम समय की गति के साथ नहीं चल सकते और न अपना कोई जातीय आदर्श बना सकते हैं। जो लोग हमको यह सलाह देते हैं, हम उनके सद्भाव में कोई सन्देह नहीं कर सकते और यह भी हम मानते हैं कि देशहित की प्रेरणा से ही वे यह सलाह हमको देते हैं। पर हाँ, यह हम अवश्य कहेंगे कि वर्तमान धार्मिक अवस्था के विकृत स्वरूप को देखकर और हमारे धर्म के वास्तविक तत्व पर गम्भीर दृष्टि न डालकर ही यह सम्मति दी जाती है। यदि धर्म को उनके वास्तविक रूप में देखा जाय तो वह कदापि उपेक्षणीय नहीं हो सकता। यद्यपि विदेशियों के संसर्ग से या हमारे दौर्भाग्य से यहाँ भी धर्म का विधेय वह नहीं रहा, जो प्राचीन काल में था। हमें यह कहने में कुछ भी संकोच नहीं है कि सभ्यता के आदि गुरु आर्यों का धर्म मतवाद से सर्वथा पृथक है।
इस मतवाद को धर्म समझने का यूरोप में यह परिणाम हुआ कि वह राजनैतिक और सामाजिक क्षेत्र से ही अलग नहीं किया गया, किन्तु मानसिक और नैतिक उच्चभावों की रीति के लिये भी अनावश्यक समझा गया। उसका सम्बन्ध केवल उपासनालयों से रह गया और वह भी रविवार के दिन घंटे-दो घंटे के लिये। बहुत से स्वतन्त्रता देवी के उपासक तो इससे भी मुक्त हो गये। हम उनकी बुद्धिमत्ता की प्रशंसा करते हैं, यदि वे ऐसा न करते और हमारी तरह से अपनी विचारशक्ति को कल्पना शक्ति के अधीन कर देते तो आज उनके देश में विद्या और बुद्धि का विकास, कला-कौशल की यह उन्नति और उद्योग तथा व्यवसाय का यह प्रभाव देखने में न आता। यदि हमारे धर्म की भी ऐसी ही अवस्था हो और वह वास्तव में मतवाद का प्रवर्तक हो, तब तो हमको भी कृतज्ञता के साथ उनकी यह सलाह मान लेनी चाहिए और यदि ऐसा नहीं है तो हमें धर्म का वास्तविक तत्व उन्हें समझाना चाहिए।
हम यहाँ पर कह देना चाहते हैं कि मत या सम्प्रदाय के अर्थ में धर्म शब्द का प्रयोग करना भी हमने अधिकतर विदेशियों ही से सीखा है, जब विदेशी भाषाओं के ‘मज़हब’, ‘रिलीजन’ शब्द यहाँ प्रचलित हुए, तब भूल से या स्पर्धा से हम उनके स्थान में ‘धर्म’ शब्द का प्रयोग करने लगे। परन्तु हमारे प्राचीन ग्रन्थों में, जो विदेशियों के आने के पूर्व रचे गये थे, कहीं पर भी ‘धर्म’ शब्द मत, विश्वास या सम्प्रदाय के अर्थ में प्रयुक्त नहीं हुआ, प्रत्युत उनमें सर्वत्र स्वभाव और कर्तव्य इन दो ही अर्थों में इसका प्रयोग पाया जाता है। प्रत्येक पदार्थ में उसकी जो सत्ता है, जिसको ‘स्वभाव’ भी कहते हैं, वही उसका धर्म है। जैसे वृक्ष का धर्म ‘जड़ता’ और पशु का धर्म ‘पशुता’ कहलाती है, ऐसे ही मनुष्य का ‘धर्म’ मनुष्यता है। वह मनुष्यता किस वस्तु पर अवलम्बित है। इसमें किसी का मतभेद नहीं हो सकता कि मनुष्यता का आधार बुद्धि है। बुद्धि की दो शाखाएं हैं, एक कल्पना शक्ति, दूसरी विचारशक्ति। कल्पना शक्ति सन्देहात्मक और विचारशक्ति निर्णयात्मक। बिना सन्देह के किसी बात का निर्णय नहीं हो सकता। अतएव अपनी कल्पना शक्ति से सन्देह उठाकर पुन: विचारशक्ति से उसका निर्णय करने में जो समर्थ है, वही मनुष्य है। संसार में सिवाय असभ्य और वन्य लोगों के और कौन ऐसा मनुष्य होगा, जिसको ऐसे धर्म की आवश्यकता न होगी, जो उसको मनुष्य बनाता है।
यह तो हुआ सामान्य धर्म, अब रहा विशेष धर्म, इसी का दूसरा नाम कर्त्तव्य भी है। मनुष्य चाहे किसी दशा में हो, उसका कुछ-न-कुछ कर्त्तव्य होता है। यदि राजा राजधर्म का, प्रजा प्रजाधर्म का, स्वामी प्रभुधर्म का, सेवक सेवाधर्म का, पिता पितृधर्म का, पुत्र पुत्रधर्म का, पति पतिधर्म का, स्त्री स्त्रीधर्म का, गृहस्थ गृहस्थधर्म का और यति यतिधर्म का साधन न करें तो फिर संसार में कोई मर्यादा रहे, न व्यवस्था। संसार में शान्ति और व्यवस्था तभी रह सकती है, जब प्रत्येक मनुष्य कर्त्तव्य के अनुरोध से अपने-अपने धर्म का पालन करें। अतएव इसमें कुछ भी अत्युक्ति नहीं कि धर्म ही संसार की प्रतिष्ठा का कारण है। धर्म के इसी महत्व को लक्ष्य में रखकर ‘तैत्तिरीयारण्यक’ में यह कहा गया है-
धर्मो विश्वस्य जगत: प्रतिष्ठा, लोके धर्मिष्ठं प्रजा उपसर्पन्ति
धर्मेण पापमपतुदन्ति धर्मे सर्व प्रतिष्ठितम्।।
अब हम कुछ प्रमाण भी जिनमें ‘धर्म’ शब्द प्रस्तुत अर्थ में प्रयुक्त हुआ है, उद्धृत करते हैं। ‘महाभारत’ में धर्म का निर्वचन इस प्रकार किया गया है-
धारणाद्धर्ममित्याहु धर्मेण विधृता: प्रजा:।
य:स्याद्धारणसंयुक्त: सधर्म इति निश्चय:॥
धात्वर्थ में भी इसी की पुष्टि होती है, क्योंकि ‘धृ’ धातु धारण के अर्थ में है।
यो ध्रियते दधाति वा सद्धर्मः।
जो धारण किया हुआ प्रत्येक पदार्थ को धारण करता है, वह धर्म है। अग्नि में यदि उसका धर्म तेज न रहे फिर कोई उसे ‘अग्नि’ नहीं कहता, ऐसे ही मनुष्य यदि अपने धर्म को त्याग दे तो फिर केवल आकृति और बनावट उसकी मनुष्यता की रक्षा नहीं कर सकती। उपनिषदों में, जहाँ धर्मंचर, ‘धर्मानप्रमदितव्यम्’ इत्यादि वाक्य आते हैं, वहाँ भी इससे कर्तव्य या सदाचार का ही ग्रहण होता है। मनु ने धर्म के धृत्यादि जो दस लक्षण बतलाये हैं और जिनको धारण करके एक नास्तिक भी धर्मात्मा बन सकता है, उनमें मतवाद का गन्ध तक नहीं है। गीता में भी-
श्रेयान् स्वधर्मो विगुण: परधर्मात्स्वनुष्ठिनात्।
इत्यादि वाक्यों में ‘धर्म’ शब्द कर्त्तव्य का ही सूचक है, क्योंकि मनुष्य के लिये प्रत्येक दशा में अपने कर्तव्य का पालन करना ही सर्वोपरि धर्म है, अपने कर्त्तव्य से उदासीन होकर दूसरों का अनुकरण करना, चाहे वे अपने से श्रेष्ठ भी हों, अनधिकार चर्चा है। जब मनुष्य के आचार या कर्तव्य का नाम धर्म है, तब यदि हमारे पूजनीय पूर्वजों ने उसकी मनुष्य की प्रत्येक दशा से (चाहे वह आत्मिक हो या सामाजिक या वैयक्तिक) सम्बन्ध किया तो इससे उनका यह अभिप्राय कदापि नहीं हो सकता था कि उन्होंने हमको मतवाद के जाल में फंसाने के लिये धर्म की टट्टी खड़ी की। उन्होंने तो हमारे मनुष्यत्व की रक्षा के लिये ही प्रत्येक कार्य में इसका आयोजन किया था।
अब प्रश्न यह होता है कि जब धर्म मत से पृथक् है तो फिर मतवाद में या भ्रमात्मक विश्वासों में उसका पर्यवसान क्योंकर हुआ? इसका कारण चाहे कुछ हो, पर इसमें सन्देह नहीं कि हमारे दौर्भाग्य से इस समय हमारी धार्मिक अवस्था वह नहीं है, जो उपनिषदों और दर्शनों के समय थी। उस समय सैद्धान्तिक भेद भी हमारे धर्म को कुछ हानि नहीं पहुँचा सकता था, पर आजकल आंशिक भेद को भी हमारा कोमल धर्म सहन नहीं कर सकता। उस समय हिन्दू धर्म इतना उदार था कि वह बौद्ध और जैन जैसे निरीश्वरवादी मतों को भी अपने क्रोड़ में स्थान दे सकता था, पर आजकल का हिन्दू धर्म साकारवादी और निराकारवादियों को मिलकर नहीं रहने देता। पहले का हिन्दू धर्म सदाचारी को धर्मात्मा और ज्ञानी को मोक्ष का अधिकारी (चाहे वह कोई हो) मानता था, पर आजकल का हिन्दू धर्म अपने लक्ष्य से ही च्युत होकर या तो मतमतान्तर के शुष्कवाद विवाद में या पुरानी लकीर को पीटने में अपनी शक्ति का दुरुपयोग कर रहा है। संसार के और समस्त विषयों में हम विचारशक्ति का उपयोग कर सकते हैं, पर केवल धर्म ही एक ऐसा सुरक्षित विषय है कि जिसमें आँखें बन्द करके दूसरों के पीछे चलना चाहिए। यदि इसकी कोई सीमा नियत होती, तब भी गनीमत थी, पर अब इस दशा में जबकि इसकी अबाध सत्ता है, कोई भी विषय हमारे लिये ऐसा नहीं रह जाता, जिसमें हम स्वच्छंद विचरण कर सकें। धर्म के नाम से अब तक हमारे समाज में जैसे-जैसे अनर्थ और अत्याचार हो रहे हैं, उनके कारण हमारे करोड़ों भाई और बहन मनुष्य होते हुए पशु-जीवन व्यतीत कर रहे हैं। इस बीसवीं सदी में जबकि अन्य देशवासी राष्ट्र ही नहीं किन्तु राष्ट्रसंघ और साम्राज्य की स्थापना कर रहे हैं, भारतवर्ष यदि समाज संगठन के भी अयोग्य है तो उसका कारण भ्रमात्मक संस्कार ही हैं।
हम मानते हैं कि जैसा धर्म का दुरुपयोग आजकल भारतवर्ष में हो रहा है, और ऐसा कहीं देखने में न आवेगा। परन्तु अब प्रश्न यह है कि धर्म का प्रयोग अन्यथा किया जा रहा है, क्या इसलिये हम धर्म को ही छोड़ दें? यदि कोई मनुष्य अपनी मूर्खता से अग्नि में हाथ जला लेता है तो क्या उसे यह उपदेश करना ठीक होगा कि वह अग्नि से कभी कोई काम न ले या कि उसे अग्नि से काम लेने की तरकीब सिखाना ठीक होगा। इसका उत्तर प्रत्येक बुद्धिमान मनुष्य यही देगा कि दूसरी बात ही होनी चाहिए।
यद्यपि आधुनिक शिक्षा और समय के प्रभाव से आजकल धार्मिक क्षेत्र में भी असन्तोष और हलचल मची हुई है और प्रत्येक धर्म के अग्रणी और शिक्षित पुरुष यह अनुभव करने लगे हैं कि अब बीसवीं शताब्दी की जनता को इस प्रकाश के युग में केवल धर्म के नाम से रूढ़ि का दास नहीं बनाया जा सकता और न इस बढ़ते हुए हेतुवाद के प्रवाह को ही रोका जा सकता है। तथापि वे-
न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्म संगिनाम्।
इस नीति का अनुसरण करते हुए धर्म के विषय में स्पष्टवादिता से काम नहीं ले सकते। इतना ही नहीं, बहुत से शिक्षित ऐसे भी मिलेंगे जो अपने समाज को प्रसत्र करने के लिये या उसका विश्वासभाजन बनने के लिये उसके भ्रमात्मक विश्वासों पर तर्क और विज्ञान की कलई चढ़ाने लगते हैं। जिस देश में नैतिक बल की यह दुर्दशा हो और जहाँ मान के भूखे शिक्षित लोग अशिक्षितों से मानभिक्षा की याचना करें, वहाँ यदि धर्म का ऐसा दुरुपयोग हो रहा है तो इसमें आश्चर्य ही क्या है? परन्तु प्रश्न ये है, जब तक धर्म के सूर्य में अन्धविश्वास का यह ग्रहण लगा हुआ है, क्या हम अपने उद्देश्य और लक्ष्य को प्राप्त कर सकते हैं? हमारे देश के नेता राजनैतिक स्वतंत्रता के लिये तो फड़फड़ा रहे हैं, पर यह धार्मिक परतन्त्रता जो हमें खुली हवा में साँस भी नहीं लेने देती, उनकी दृष्टि में जरा भी नहीं खटकती। क्या इसीलिये कि यह फाँसी हमने अपने आप लगाई है, इसकी मौत मीठी है?
हमारा वक्तव्य केवल यह है कि यदि धर्म हमारे स्वभाव या कर्तव्य का बोधक है, जैसा कि हम अपना अभिप्राय प्रकट कर चुके हैं, तब तो वह हमसे और हम उससे किसी दशा में भी पृथक् नहीं हो सकते। क्योंकि प्रत्येक पदार्थ की सत्ता उसके धर्म पर अवलम्बित होती है और ऐसे धर्म की आवश्यकता न केवल समाज को है, किन्तु प्रत्येक व्यक्ति को है। जहाँ राष्ट्र या समाज अपने उस स्वाभाविक धर्म का पालन करें, वहाँ कोई व्यक्ति भी उसकी उपेक्षा न करे। इस दशा से धर्म की व्यापकता या अबाध सत्ता किसी को अवांछनीय नहीं हो सकती और यदि यह हमारा भ्रम है और वास्तव में धर्म का अभिधेय जैसा कि आजकल माना जा रहा है, मतमतान्तर के काल्पनिक सिद्धान्त और भ्रमात्मक विश्वास हैं तो हम नि:संकोच अपने देशवासियों से यह प्रार्थना करेंगे कि जिस प्रकार पश्चिमवासियों ने धर्म की सीमा नियत करके अपने सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक और औद्योगिक क्षेत्रों से उसका प्रतिबंध हटा दिया है, ऐसा ही हमको भी करना चाहिए, अन्यथा ये भ्रमात्मक विश्वास अपने साथ हमको भी ले डूबेंगे- आप डूबन्ते बामना ले डूबे जजमान।
प्रतिभा: जून, 1920 ई.