नागार्जुन प्रगतिशील काव्यधारा के कवि हैं। नयी कविता के समांतर चलने वाली जो काव्यधारा है, उसके कवि हैं। इनके यहाँ सबसे ज्यादा वैविध्य और काव्य संवेदना के विविध रूप मिलते हैं। नागार्जुन बहु भाषा के कवि हैं। मैथिली, संस्कृत, हिंदी आदि भाषाओं की जो काव्य परम्पराएँ हैं, वह उनके अंदर विद्यमान है। नागार्जुन बहुत सारी विचारधाराओं से प्रभावित हैं, कहीं-कहीं आक्रांत भी।
‘अकाल और उसके बाद’ कविता वर्ष 1952 में प्रकाशित हुई थी। शीर्षक से ही स्पष्ट है कि इस कविता का संबंध अकाल और उसके बाद की परिस्थियों से है। जैसे-जैसे स्थितियाँ बदलती हैं कविता का अकार भी बदलता जाता है। आठ पंक्तियों की यह कविता देखने में भले ही छोटी और सरल है किन्तु भावबोध और गहरी सवेंदना को अपने में समेटे हुए है।
अकाल और उसके बाद कविता की व्याख्या
पहला चित्र-
“कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास
कई दिनों तक कानी कुतिया सोई उनके पास
कई दिनों तक लगी भीत पर छिपकलियों की गश्त
कई दिनों तक चूहों की भी हालत रही शिकस्त।”
पहली चार पंक्तियों में मनुष्य समाज का नाम नहीं आया है। यानी मनुष्य के इतर जो संसार है उस पर यह कविता केंद्रित है। इसमें छिपकली, शिकस्त खाया हुआ चूहा और कानी कुतिया भी है। इस कविता में काव्य संवेदना का क्रमश: विकास हुआ है। जीव धारी से परे जो समाज है वह भी आया है। निर्जीव के साथ ऐसा बर्ताव किया है जैसे सजीव हों। काव्य संवेदना का ऐसा प्रभाव इस कविता में है। कवि ने मानवीय संवेदनाओं को चक्की और चूल्हे में भर कर देखा है। यह नागार्जुन के काव्य संवेदना का वैशिष्ट्य है।
चूल्हे का रोना तथा चक्की की उदासी अकाल पीड़ित मानवों के प्रति संवेदना को व्यक्त करता है। चूल्हे की सार्थकता जलने में और चक्की की चलने में है। चूल्हे का रोना दरिद्रता और कुछ न होने का भी प्रतीक है। ‘कानी कुतिया’ कहना कुतिये की विशिष्टता को ध्वनित करना है। मालिक को छोड़कर कानी कुतिया जाने को तैयार नहीं है, उसी के साथ सो रही है। इसे आप वफ़ादारी कहिये या एकनिष्ठता का भाव कहिए, दोनों भाव व्यंजित हो रहा। वह भोजन की तलाश में कहीं और नहीं जा रही, मालिक के प्रति गहरी संवेदना की अभिव्यक्ति है।
छिपकलियाँ दीवाल पर गश्त करना बंद कर दी हैं, यह गतिशीलता का गश्त करना है। अन्न का उत्पादन न होने के कारण तेल के अभाव में घर में दिया नहीं जल रहा है। प्रकाश के अभाव में कीट-पतंगे नहीं आते हैं, इसलिए छिपकलियाँ भी आना बंद कर दी हैं। जमाखोर चूहों की भी हालत पतली हो चली है, उन्हें भी भोजन नहीं मिल रहा है। उनका अनाज-संग्रह खत्म हो गया है और उनकी हालत शिकस्त हो गई है।
‘कई दिनों तक’ से लगता है समय की अवधि है और इसका बारम्बार प्रयोग व्यवस्था की अकाल के प्रति गहरी उदासीनता को व्यक्त करता है। कवि कहना चाहता है कि यह अकाल व्यवस्था प्रायोजित है।
दूसरा चित्र-
“दाने आए घर के अंदर कई दिनों के बाद
धुआँ उठा आँगन से ऊपर कई दिनों के बाद
चमक उठी घर भर की आँखें कई दिनों के बाद
कौए ने खुजलाई पाँखें कई दिनों के बाद।”
‘दाना’ लघुता का द्योतक है। अन्न की अल्पता को सूचित करने वाले दाने कई दिनों बाद घर में आये हैं। धुआं का उठना संपन्नता का सूचक है, जीवन और ऊष्मा का लक्षण है। जो भी लोग घर में है (बताया जा चुका है) सब की आँखें चमक उठी हैं। कौआ का पंख खुजलाना उसके स्वभाव को दर्शाता है, जो वह खाने के बाद किया करता था। लेकिन लम्बे अकाल के बाद यह पहला मौका आया है जब कौए को भोजन की आश जगी है।
पहले चित्र में उत्साह हीनता की स्थिति है, मर्मस्पर्शी और हृदय-विदारक भी है। लेकिन दूसरा चित्र उत्सव के समान है, आशा भरी है, सघन जिजीविषा का चित्र है। यहाँ आकर चित्र पूरी तरह बदल जाते हैं।
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यह कविता वर्णात्मक नहीं है। यह नपे-तुले शब्दों में अकाल को चित्रित करता है। तत्सम शब्दों का प्रयोग भी कहीं नहीं किया गया है। इसमें मानवीय अलंकार का सुंदर प्रयोग किया गया है। सामाजिक सम्प्रति का बोध इस कविता में है। बिम्बों तथा प्रतीकों के माध्यम से कवि आकाल की भयावहता को संपूर्णता के साथ पाठकों के सामने उपस्थित कर देता है। मनुष्य की जो बुनियादी जरूरते हैं, वह प्रेमचंद के यहाँ दिखाई देता है या कहीं-कहीं नागार्जुन दिखाते हैं। जैसे- भूख आदि।
बेहतरीन व्याख्या.. बहुत बहुत धन्यवाद आपका 🙏
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