विद्यापति के ग्रंथ एवं उपाधियाँ | कीर्तिलता | कीर्तिपताका | पदावली

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विद्यापति का जीवन परिचय और रचनाएँ

विद्यापति

विद्यापति का समय 1350-1460 ई० माना जाता है। विद्यापति दरभंगा जिले (बिहार) के ‘विपसी’ नामक गाँव के निवासी थे। विद्यापति के गुरु का नाम पण्डित हरि मिश्र था और पिता का नाम गणपति ठाकुर था जो संस्कृत के उच्चकोटि के विद्वान और राजाश्रित कवि थे। वे तिरहुत (मिथिला) के राजा शिवसिंह और कीर्ति सिंह के राजदरबारी कवि थे। विद्यापति शैव सम्प्रदाय के कवि थे तथा उनकी पदावली में भक्ति एवं श्रृंगार का समन्वय दिखाई पड़ता है। हिन्दी में विद्यापति को ही कृष्ण गीति परम्परा का प्रवर्तक माना जाता है। विद्यापति पदावली में वय सन्धि के मधुर चित्र भी उपलब्ध होते हैं। इसके साथ ही सद्यः स्नाता रमणी के उत्तेजक चित्र, अभिसार को मनोरम वर्णन भी उनकी पदावली में दिखाई देता है। विद्यापति भक्त थे अथवा श्रृंगारी इस पर विवाद है। परंतु अधिकांश विद्वान् उन्हें श्रृंगारी कवि ही मानते हैं।

विद्यापति को श्रृंगारी कवि मानने वाले विद्वान

आनंद प्रकाश दीक्षित, हर प्रसाद शास्त्री, रामचन्द्र शुक्ल, सुभद्रा झा, रामकुमार वर्मा, रामवृक्ष बेनीपुरी, शिव प्रसाद सिंह, प्रेमचंद, बाबू राम सक्सेना, शिव नंदन ठाकुर, विनय कुमार

विद्यापति को वैष्णवभक्त कवि मानने वाले विद्वान

बाबू ब्रजनन्दन सहाय, श्यामसुन्दर दास, हजारीप्रसाद द्विवेदी

विद्यापति को रहस्यवादी कवि मानने वाले विद्वान

जार्ज ग्रियर्सन, नागेन्द्र नाथ गुप्त, जनार्दन मिश्र

विद्यापति की उपाधियाँ

विद्यापति को मैथिल कोकिल, अभिनव जयदेव, कवि कण्ठाहार, कवि शेखर, नव कवि, खेलन कवि, कवि रंजन, पंचानन, दशावधान आदि नामों एवं उपाधियों से विभूषित किया गया है।

विद्यापति द्वारा रचित ग्रंथ (vidyapati ki rachnye)

अवहट्ट- कीर्तिलता, कीर्तिपताका, पुरुष परीक्षा, लिखनावली, विभागसार

मैथिली- पदावली, गोरक्ष विजय (नाटक)

संस्कृत- शैव सर्वस्वसार, भूपरिक्रमा, मणिमंजरी, पुरुष परीक्षा, लिखनावली, दुर्गाभक्त तरंगिणी, गंगावाक्यावली, दान-वाक्यावली, विभागसार

‘कीर्तिलता’ में कीर्ति सिंह और ‘कीर्तिपताका’ में शिव सिंह की वीरता और उदारता का चित्रण है।

‘कीर्तिलता’ और ‘कीर्तिपताका’ वीर रस प्रधान काव्य हैं।

‘कीर्तिलता’ और ‘कीर्तिपताका’ में गद्य का प्रयोग भी हुआ है।

‘कीर्तिलता’  कीरचना उन्होंने भृंग-भृंगी संवाद के रूप में किया है।कृति का आरंभ भी इसी संवाद से होता है।

‘कीर्तिलता’ की भाषा को विद्यापति ने स्वयं अवहट्ट (देसिल बअना) कहा है।

‘कीर्तिलता’ में जौनपुर नगर का यथार्थपरक वर्णन मिलता है। साथ में गोमती नदी का भी सुंदर चित्रण किया है।

विद्यापति की पदावली का उपजीव्य ग्रंथ जयदेव कृत ‘गीत गोविन्द’ है।

‘विद्यापति पदावली’ का संपादन रामवृक्ष बेनीपुरी जी ने किया है।

मैथिली भाषा में रचित पदावली गेय है तथा उसमें गीतकाव्य के सभी तत्व- संगीतात्मकता, वैयक्तिकता, आलंकारिकता, कोमलकान्त मधुर पदावली आदि विद्यमान है।

गोरक्ष विजय का गद्य भाग संस्कृत में है तथा पद्य भाग मैथिल में है।

विद्यापति के बारे में विभिन्न विद्वानों का मत

बच्चन सिंह ने विद्यापति को अपरूप का कवि मानते हुए उन्हें हिंदी का ‘जातीय कवि’ कहा है।

हर प्रसाद शास्त्री ने इन्हें ‘पंचदेवोपासक’  स्वीकार किया है।

विद्यापति को सर्वप्रथम ग्रियर्सन नें रहस्यवादी कहा।

निराला’ ने पदावली के श्रृंगारिक पदों की मादकता को ‘नागिन की लहर’ कहा है।

हजारी प्रसाद द्विवेदी ने इन्हें ‘श्रृंगार रस के सिद्ध वाक् कवि’ कहा है। और राधा के संदर्भ में लिखा है की, “जहाँ चंडीदास के पदों में राधा के अत्यंत कोमल एवं सुकुमार ह्रदय का परिचय मिलता है, वहीं विद्यापति की राधा अधिक विलासवती एवं विदग्ध है।”

रामचंद्र शुक्ल ने लिखा है, “विद्यापति के पद अधिकतर श्रृंगार के ही हैं जिनमें नायिका और नायक राधा-कृष्ण हैं। आध्यात्मिक रंग के चश्मे आजकल बहुत सस्ते हो गये हैं, उन्हें चढ़ाकर जैसे कुछ लोगों नें ‘गीत गोविन्द’ को आध्यात्मिक संकेत बताया है वैसे ही विद्यापति के इन पदों को भी।”

बाबा नागार्जुन ने लिखा है, “विद्यापति ने केवल विरह-श्रृंगार वाली सरल पदावलियाँ ही नहीं, उन्होंने संस्कृत के माध्यम से दसियों नीतिग्रंथ और शिक्षाग्रन्थ भी तैयार किये थे। एक राजा पड़ोसी देश के राजा को किस प्रकार पत्र लिखेगा, एक सेनापति एक एक अधिकार-प्राप्त युवराज को किस तरह अपनी बातें सूचित करेगा, दासों के लिए मुक्तिपत्र किस प्रकार लिखे जायेंगे- इस प्रकार के व्यवहारिक पत्र-लेखन के दर्जनों नमूने विद्यापति अपनी पुस्तक ‘लिखनावली’ में हमें दे गये हैं। कुत्ता-बिल्ली, कबूतर-गीदड़ जैसे जन्तुओं को पात्र नहीं बनाकर विद्यापति ने राजकुमारों की नीति-शिक्षा के लिए समकालीन ऐतिहासिक-सामाजिक पात्रों के आधार पर नीति-शिक्षा की पुस्तक तैयार की थी। यह पुस्तक ‘पुरुष-परीक्षा’ पाश्चात्य विद्वानों को बेहद पसन्द आयी थी।”

जनश्रुति के अनुसार विद्यापति के पदों को गाते-गाते चैतन्य महाप्रभु भावविभोर होकर मूर्छित हो जाते थे।

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