(i) वाल्मीकि
महर्षि वाल्मीकि को ब्रह्मा ने आदि कवि कहकर संबोधित किया है- ‘आद्य: कविरसि’[1]। वाल्मीकि की सबसे बड़ी विशेषता यह है की उन्होंने संस्कृत की काव्य परंपरा की धारा को नयी दिशा दी। अब तक जो काव्य धर्म और उपासना तक सीमित था उसे उन्होंने जन-जीवन की तरफ मोड़ दिया।
वाल्मीकि के संबंध में एक श्रुति यह है कि उन्होंने तमसा नदी के तट पर व्याघ द्वारा घायल एक नर क्रौंच पक्षी को देखा और उनके मुख से यह श्लोक निकल पड़ा-
‘मा निषाद प्रतिष्ठा त्वमगम: शाश्वती: समा:।
यत् क्रौंचमिथुनादेकमवधी: काममोहितम्॥’
मान्यता यह है की यही वह घटना है जो वाल्मीकि को काव्य लिखने की ओर प्रेरित किया।
वाल्मीकि की रचनाएँ
आदिकवि वाल्मीकि ने रामायण महाकाव्य की रचना राम के जीवनचरित को आधार बनाकर किया है। इस महाकाव्य में 24000 श्लोक हैं। यह ग्रंथ सात कांडों- बालकांड, अयोध्याकांड, अरण्यकांड, किष्किंधाकांड, सुंदरकांड, युद्धकांड तथा उत्तरकांड में विभाजित है।
कई पाश्चात्य समीक्षक मूल रामायण में केवल कांड 2 से 6 तक को ही मानते हैं। उनके विचार से बालकांड और उत्तर कांड मूल ग्रंथ में बाद में जोड़े गए।
मैक्डोनल, काशीप्रसाद जायसवाल और जयचंद्र विद्यालंकार ने रामायण का रचनाकाल 500 ई.पू. और कीथ ने 400 ई.पू. माना है।
वाल्मीकि की शैली वैदर्भी शैली है। वाल्मीकि रामायण में सभी रस विद्यमान हैं परंतु करुण, शृंगार और वीर रस की प्रधानता है। इनका प्रिय छ्ंद अनुष्टुप है। उपमा, उत्प्रेक्षा आदि अलंकारों का प्रयोग वाल्मीकि ने रामायण में किया है।
रामायण पर आश्रित प्रमुख ग्रंथ
रामायण कालांतर में अनेक ग्रंथों की रचना में उपजीव्य ग्रंथ बना, जैसे-
- काव्य ग्रंथ
कालिदास का रघुवंश, प्रवरसेन का सेतुबंध, कुमारदास का जानकी-हरण, क्षेमेन्द्र का रामायण मंजरी आदि।
- नाटक ग्रंथ
भास का प्रतिभा नाटक, भवभूति का महावीर चरित और उत्तर राम चरित, राजशेखर का बाल रामायण, जयदेव का प्रसन्नराघव आदि।
- चंपू काव्य
भोज का रामायण चंपू, वेंकटाध्वरि का उत्तर चंपू आदि।
(ii) व्यास
व्यास द्वारा रचित महाभारत का प्राचीन नाम ‘जय काव्य’ या ‘भारत काव्य’ था। पाश्चात्य विद्वानों के अनुसार महाभारत की रचना किसी एक व्यक्ति ने नहीं की। यह मूल रूप से ‘जयकाव्य’ था। जो दूसरे चरण में भारतकाव्य’ और तीसरे चरण में ‘महाभारत’ हो गया।
महाभारत में श्लोकों की संख्या 1 लाख टीके है। यह ग्रंथ 18 पर्वों में विभाजित है। वाल्मीकि के रामायण की तरह महाभारत ग्रंथ भी अनेक साहित्यिक ग्रंथो का उपजीव्य बना।
(iii) महाकवि भास
इनका समय 450 ई.पू. (चतुर्थ शताब्दी) स्वीकार किया जाता है। भास कालिदास से पूर्ववर्ती हैं। उन्होंने अपने नाटक ‘मालविकाग्निमित्रम्’ की प्रस्तावना में भास का नाम बहुत आदर पूर्वक लिया है- ‘प्रथितयशसां भाससौमिल्ल:’। जयदेव ने उन्हे ‘कविता कामिनी का हास’ कहा है। बाणभट्ट ने भी भास के नाटकों की विशेषताओं का उल्लेख अपने ‘हर्षचरित’ में किया है।
भास की रचनाएँ
भास के कुल 13 नाटक प्राप्त होते हैं।संस्कृत में सर्वप्रथम एकांकी नाटक लिखने का श्रेय भास को ही है। भास के नाटकों में पाँच एकांकी नाटक हैं।भास का प्रथम नाटक ‘स्वप्नवासवादत्ता’ और अंतिम नाटक ‘चारुदत्त’ है।
नाटक-
- स्वप्नवासवदत्तम् (6 अंक)
- प्रतिज्ञ यौगंधनारायण (4 अंक)
- पंचरात्रम् (3 अंक)
- बालचरितम् (5 अंक)
- प्रतिमानाटकम् (7 अंक)
- अभिषेक नाटकम् (6 अंक)
- अविमारक (6 अंक)
- चारुदत्त (4 अंक)
एकांकी
- ऊरुभंगम्
- दूतवाक्यम्
- दूत-घटोत्कच
- कर्णभार
- मध्यम व्यायोग
भास के नाटकों का परिचय-
1. स्वप्नवासवदत्तम्
स्वप्नवासवदत्तम् में 6 अंक हैं। मंत्री यौगंधरायण का ‘वासवदत्ता अग्नि में जलकर मर गई’ इस प्रवाद को फैलाकर उदयन का पद्यावती से विवाह कराने का वर्णन है। अर्थात उदयन एवं वासवदत्ता के विछोह तथा पुनर्मिलन का वर्णन है। यह भास का सर्वश्रेष्ठ नाटक है।
2. प्रतिज्ञा यौगंधनारायण
प्रतिज्ञा यौगंधनारायण में 4 अंक हैं। इसमें उदयन के वासवदत्ता से प्रेम और विवाह के साथ ही यौगंधनारायण की प्रतिज्ञा और राजा उदयन को राजा प्रद्योत से छुड़ाने का वर्णन है।
3. पंचरात्रम्
पंचरात्रम् में तीन अंक हैं। यह महाभारत कथा मूलक नाटक है। यज्ञ की समाप्ति पर द्रोण द्वारा दुर्योधन से पांडवों का राज्य वापस दिलाने की भिक्षा माँगी जाती है। दुर्योधन ने कहा कि पाँच दिन में पांडव मिल जाते हैं तो मैं उनका राज्य वापस कर दूँगा। दुर्योधन द्वारा पाँच दिनों में पांडवों की खोज करने का वर्णन है। द्रोण के प्रयत्न स्वरूप पांडव मिल भी जाते हैं।
4. बालचरितम्
यह 5 अंकों का नाटक है। बालचरित भी महाभारत कथा मूलक नाटक है। इसमें श्री कृष्ण के जन्म से लेकर मथुरा गमन / मृत्यु तक की कथा वर्णित है।
5. प्रतिमानाटकम्
प्रतिमानाटकम् में 7 अंक हैं। यह रामायण कथामूलक नाटक है। इसमें रामायण की राम वन गमन से अयोध्या आगमन तक की कथा संक्षेप में वर्णित है। भास का यह सबसे बड़ा नाटक है।
6. अभिषेक नाटकम्
अभिषेक नाटक में 6 अंक है। यह रामायण कथामूलक नाटक है। रामायण के किष्किन्धाकांड से युद्धकांड तक की सारी कथा संक्षेप में वर्णित है। अंत में रावण वध के पश्चात् राम के राज्याभिषेक का वर्णन है।
7. अविमारक
अविमारक नाटक में 6 अंक हैं। यह भास का कल्पनामूलक नाटक है। इसमें राज कुमार अविमारक का राजा कुंतिभोज की पुत्री कुरंगी के साथ प्रणय-विवाह का वर्णन है।
8. चारुदत्त (4 अंक)
चारुदत्त में 4 अंक हैं। यह भी कल्पनामूलक नाटक है। इसमें निर्धन किन्तु उदार मना ब्राह्मण चारुदत्त और वसंतसेना नाम की वेश्या के प्रणय का वर्णन हैं। इसमें भरत वाक्य नहीं है और कथा अधूरी है। भास की मृत्यु के कारण यह नाटक पूरा नहीं हो सका।
संभवत: भास की मृत्यु के कारण यह नाटक अपूर्ण रहा। ऐसा माना जाता है कि इसी नाटक के आधार पर शूद्रक ने अपना ‘मृच्छकटिकम्’ नाटक लिखा है और भास की कथा को पूर्ण किया है।
9. ऊरुभंगम्
भास रचित ऊरुभंगम् महाभारत कथा मूलक एकांकी नाटक है। इसमें भीम द्वारा दुर्योधन की जंघा तोड़ने (जंघा भंग) का वर्णन है।
10. दूतवाक्यम्
दूतवाक्यम् भास की शांत रस प्रधान एकांकी है। यह भी महाभारत कथा मूलक एकांकी नाटक है। इसमें युद्ध से पहले श्रीकृष्ण का पांडवों की तरफ से दूत बनकर संधि प्रस्ताव लेकर दुर्योधन के पास जाने और विफल होकर वापस आने का वर्णन है।
11. दूत-घटोत्कच
दूत-घटोत्कच भी महाभारत कथा मूलक एकांकी नाटक है। इसमें अभिमन्यु की मृत्यु के बाद श्रीकृष्ण का घटोत्कच को दूत बनाकर धृष्टराष्ट्र के पास भेजना तथा दुर्योधन द्वारा उनके अपमान का वर्णन है।
12. कर्णभार
कर्णभार भी महाभारत कथा मूलक एकांकी नाटक है। इसमें कर्ण द्वारा ब्राह्मण वेशधारी इंद्र को अपने कवच और कुंडल दान में देने की कथा का वर्णन है।
13. मध्यम व्यायोग
मध्यम व्यायोग में भीम द्वारा घटोत्कच से एक ब्राह्मण पुत्र की रक्षा करने का वर्णन है। यह भी एकांकी नाटक है।
भास के दो नाटक स्वप्नवासवदत्तम व प्रतिज्ञा-यौगन्धरायण ऐतिहासिक घटना पर आधारित हैं। भास ने अपने नाटकों में ‘पताका-स्थानक’ (नाटकीय व्यंग्य) का सुन्दर समन्वय किया है।
भास की शैली वैदर्भी है। उनकी शैली में शैली के तीनों गुण विद्यमान हैं- प्रसाद, माधुर्य और ओज। भास की शैली पर वाल्मीकीय रामायण का विशेष प्रभाव पड़ा है।
भास के नाटकों में मुख्यतया श्रृंगार और वीर रस प्रमुख है। उन्होने अपने नाटकों में 24 छ्ंदों का प्रयोग किया है। इनमें मुख्य छ्ंद है- अनुष्टुप, मालिनी, वसंततिलका, पुष्पिताग्रा, शार्दूल-विक्रीडित, वंशस्थ, उपजाति।
(iv) कालिदास
कालिदास के जीवन वृत्त के विषय में कोई प्रामाणिक सामग्री उपलब्ध नहीं है। अंत: साक्ष्य के आधार पर थोड़ी-बहुत जानकारी उनके जीवन के संबंध में मिलती है। कालिदास के जन्म समय को लेकर विभिन्न विद्वानों के अलग-अलग मत हैं-
- कीथ महोदय के अनुसार कालिदास चंद्रगुप्त विक्रमादित्य के सभा पंडित थे और इनका समय 375 ई.-413 ई. है।
- प्रो. मैक्समूलर के अनुसार कालिदास का जन्म छठी शताब्दी में हुआ था।
- फर्ग्युसन के अनुसार भी कालिदास का जन्म छठी शताब्दी में हुआ था।
- भारतीय विद्वानों के अनुसार कालिदास विक्रमादित्य के राजसभा के कवि थे और इनका जन्म 57 ई.पू. में हुआ था।
- ज्योतिविदारण के अनुसार कालिदास विक्रमादित्य के नवरत्नों में से एक थे।
मेघदूत के आधार पर यह ज्ञात होता है कि ये उज्जैन के निवासी थे। कालिदास शैव थे। किवदन्ती है कि कालिदास बाल्यकाल में अत्यन्त मूर्ख थे।
कालिदास का प्रिय अलंकार उपमा है। इसलिए कहा गया ‘उपमा कालिदासस्य’। कालिदास ‘वैदर्भी रीति’ के सर्वश्रेष्ठ कवि हैं। इन्हें दीपशिखा की उपाधि दी गई थी।
कालिदास की प्रशंसा में बाणभट्ट ने लिखा है-
निर्गतासु न वा कस्य कालिदासस्य सूक्तिषु।
प्रीतिर्मधुर संद्रासु मंजरीष्विव जायते॥
कालिदास की रचनाएँ
कालिदास की 7 रचनाएँ प्रसिद्ध हैं। काल क्रम की दृष्टि से कालिदास की रचनाएँ-
- ऋतुसंहारम् (6 सर्ग)
- कुमारसंभवम् (17 सर्ग)
- मालविकाग्निमित्रम् (5 अंक)
- विक्रमोर्वशीयम् (5 अंक)
- मेघदूतम् (2 भाग)
- रघुवंशम् (19 सर्ग)
- अभिज्ञानशाकुंतलम् (7 अंक)
कालिदास के ग्रंथों का विवरण
महाकाव्य | गीत काव्य | नाटक |
1. कुमारसंभवम् | 1. ऋतुसंहारम् | 1. मालविकाग्निमित्रम् |
2. रघुवंशम् | 2. मेघदूतम् | 2. विक्रमोर्वशीयम् |
3. अभिज्ञानशाकुंतलम् |
कालिदास कृत लघुत्र्यी के ग्रंथ
कुमारसंभवम्, रघुवंशम् और मेघदूतम्
कालिदास कृत महाकाव्यों का परिचय
1. कुमार संभवम्
कुमार संभवम् में 17 सर्ग हैं। यह कालिदास का प्रथम महाकाव्य है। इस महाकाव्य में हिमालय की पुत्री पार्वती द्वारा घोर तपस्या के फलस्वरूप वर रूप में शिव को प्राप्त करने, शिव पार्वती विवाह, उनसे कार्तिकेय का जन्म तथा कार्तिकेय द्वारा तारकासुर का वध का वर्णन है।
टीकाकार मल्लिनाथ ने कालिदास कृत ‘कुमारसम्भवम्’ के 8 सर्गों पर संजीवनी लिखी है।
2. रघुवंशम् (19 सर्ग)
रघुवंशम् कालिदास का दूसरा महाकाव्य है और इसमें 19 सर्ग हैं। इसमें मनु से लेकर कामुक अग्निवर्ण तक के सूर्यवंशीय 31 राजाओं के जीवन का वर्णन है। इसमें राम के जीवन का विशद् एवं विस्तृत वर्णन है। इस महाकाव्य में 1569 श्लोक हैं। इसका नायक रघु और राम कथा 10वें से 15वें सर्ग तक है।
कालिदास कृत गीतकाव्यों का परिचय
कालिदास संस्कृत गीतकाव्य परंपरा के प्रथम कवि माने जाते हैं। ऋतुसंहार और मेघदूत इनके दो गीतकाव्य हैं।
1. ऋतुसंहारम्
ऋतुसंहार कालिदास की सर्वप्रथम रचना और प्रथम गीतिकाव्य है। इसमें छः सर्गों तथा 197 श्लोकों में छः ऋतुओं का वर्णन गीत शैली में है। इनका क्रम इस प्रकार है-
ग्रीष्म -> वर्षा ऋतु -> शरद ऋतु -> हेमंत -> शिशिर -> वसंत ऋतु।
2. मेघदूतम्
मेघदूत की कथा दो भागों- पूर्वमेघ और उत्तरमेघ में विभक्त है। 121 श्लोकों में यह एक कल्पना प्रधान ग्रंथ है। इसका उपजीव्य ग्रंथ वाल्मीकि रामायण है। इस ग्रंथ का प्रमुख विषय है- अलकापुरी निवासी यक्ष का अपनी वियुक्ता प्रिया यक्षिणी को रामगिरि पर्वत के आश्रम से मेघों द्वारा संदेश भेजने का वर्णन है। इस ग्रंथ में कालिदास का सबसे प्रिय छंद मन्दाक्रान्ता का प्रयोग हुआ है।
मेघदूतम् का जर्मन भाषा में पद्यानुवाद जोहन वोल्फगांग फोन गोथे ने वर्ष 1791 में किया था।
कालिदास कृत नाटकों का परिचय
1. मालविकाग्निमित्रम्
यह कालिदास का प्रथम नाटक है। इस नाटक में 5 अंक तथा 96 श्लोक है। इसमें मालविका और अग्नि मित्र की प्रणय कथा और विवाह का वर्णन है।
2. विक्रमोर्वशीयम्
65 श्लोकों में वर्णित यह कालिदास का दूसरा नाटक है। इसमें 5 अंकों का त्रोटक नाटक है। इसमें राजा पुरुरवा (विक्रम) और उर्वशी नामक अप्सरा की प्रणय कथा वर्णित हैं। जहाँ पूर्वा का अर्थ मेघ और उर्वशी का का अर्थ विद्युत है।
3. अभिज्ञानशाकुंतलम्
यह कालिदास का सर्वश्रेष्ठ नाटक और अंतिम रचना है। इसमें 7 अंकों में दुष्यंत तथा शकुंतला के प्रेम, वियोग तथा पुनर्मिलन का वर्णन है। इसका उपजीव्य महाभारत का आदिपर्व है।
अभिज्ञान शकुंतलम् नाटक में साधारण गद्य के लिए शौरसेनी प्राकृत एवं पद्य के लिए महाराष्ट्री प्राकृत का प्रयोग और 24 छ्ंदों का प्रयोग हुआ है।
सर्वप्रथम ‘सर विलियम जोंस’ ने 1789 में कालिदास के अभिज्ञान शाकुंतलम का अनुवाद अंग्रेजी में किया।
अभिज्ञानशाकुंतलम् नाटक की महत्वपूर्ण सूक्तियाँ
- अर्थो हि कन्या परकीय एव
- नखलु धीमताम् कश्चिद् विषयोनाम्
- वामाकुल साधय:
- गुणवते कन्यका प्रतिपादनीय
- अवेहि तनयां ब्रह्मत्रन्निगर्भा शमीमिव
- न तादृशा आकृति विशेषा गुण विरोधनो भवंति
- गुवर्पि विरहदु: खमाशाबंध: साहयति
(v) भवभूति
भवभूति दक्षिण भारत में पद्मपुर के निवासी थे। इनका गोत्र कश्यप था। इनका मूलनाम ‘श्रीकंठ’ या ‘भट्ट श्रीकंठ’ था। कवि गोष्ठी में ‘उम्बेक’ नाम से जाने जाते थे, लेकिन इनके ‘साsम्बा पुचातु भवभूति-पवित्र-मूर्ति:’ के आधार पर ‘भवभूति’ नाम प्रसिद्ध हो गया। भवभूति के पिता का नाम ‘नीलकंठ’ और माता का नाम ‘जतुकर्णी’ (जातु कर्णी) था।
भवभूति का समय 8वीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध माना जाता है। भवभूति संस्कृत-साहित्य के उच्चकोटि के नाटककार और कवि हैं। कालिदास के बाद भवभूति ही सर्वश्रेष्ठ नाटककार हैं।
भवभूति ‘पदवाक्य प्रमाणज्ञ:’ कहे जाते थे। करुण के रस राजत्व का प्रतिष्ठापक भवभूति हैं और वे रस के सर्वश्रेष्ठ कवि भी हैं। उन्होने ‘एको रस: करुण एव’ कह कर करुण रस को रसराज घोषित किया।
संस्कृत साहित्य में कालिदास के बाद भवभूति का ही नाम उत्कृष्ट नाटककार के रूप में लिया जाता हैं। उनके तीन नाटकों- मालतीमाधव, महावीर चरित और उत्तरराम चरित में उत्तररामचरित ही सर्वश्रेष्ठ नाटक माना जाता हैं। इसमें भवभूति अपने आपको ‘परिणतप्रज्ञ’ कहते हैं।
भवभूति का भाषा पर पूर्ण अधिकार है। भवभूति अपने आपको ‘वश्यवाक्’ कहते हैं। इनकी रचनाओं में प्रसाद, माधुर्य और ओज तीनों गुणों का समान रूप से सम्मिश्रण मिलता है। कालिदास ने अपने नाटकों में विदूषक को स्थान दिया है, किन्तु भवभूति ने उसका परित्याग किया है।
भवभूति की रचनाएँ
भवभूति के तीन नाटक हैं। रचना-क्रम की दृष्टि से इनका क्रम है-
- मालतीमाधवम् (10 अंक, श्रृंगाररस प्रधान)
- महावीरचरितम् (7 अंक, वीररस प्रधान)
- उत्तररामचरितम् (7 अंक, करुणरस प्रधान)
भवभूति कृत नाटकों का परिचय
1. मालतीमाधवम्
मालतीमाधव नाटक में 10 अंक हैं। यह भवभूति का प्रथम नाटक है और इसमें श्रृंगार रस प्रमुख है। यह नाटक गौड़ी रीति में लिखा गया है। इसमें गद्य और पद्य दोनों में पांडित्य-प्रदर्शन का प्रयत्न किया गया है। मालतीमाधवम् नाटक में मालती और माधव तथा मकरन्द और मदयन्तिका के प्रणय और परिणय की कथा का वर्णन है।
2. महावीरचरितम्
महावीरचरितम् नाटक में 7 अंक हैं। यह भवभूति का दूसरा नाटक है। इसमें वीर रस प्रमुख है, अतः ओज गुण प्रधान है। इसमें राम कथा के अनुकूल अनुष्टप छ्ंदों का अधिक प्रयोग हुआ है। इसका उपजीव्य ग्रंथ रामायण है। इसमें राम के विवाह से लेकर राम-राज्याभिषेक तक रामायण की कथा वर्णित है।
मालतीमाधवम् नाटक में भवभूति ने अपना वंश परिचय संक्षेप में दिया है जबकि महावीरचरितम् नाटक में विस्तृत परिचय दिया है।
3. उत्तररामचरितम्
इसमें कुल सात अंक हैं। उत्तररामचरितम् इसका उपजीव्य ग्रंथ वाल्मीकि रामायण के उत्तरकांड है। इसमें सीता-परित्याग, राम-विलाप, लव-कुश-प्राप्ति और राम के द्वारा निर्दोष सीता के स्वीकार किए जाने का वर्णन है।
उत्तररामचरित भवभूति का अंतिम और सर्वोत्कृष्ट नाटक है। यह करुण रस प्रधान नाटक है। इसी ग्रंथ द्वारा करुण के रस राजत्व की प्रतिष्ठापना हुई। भवभूति ने ‘उत्तररामचरित’ में केवल शौरसेनी प्राकृत का प्रयोग किया है। तीनों नाटकों में भवभूति अपने आपको पदवाक्य प्रमाणज्ञ’ कहा है।
भवभूति ने ‘उत्तररामचरित’ में करुणरस को ही रस माना है। तृतीय अंक का प्रारम्भ ‘करुणो रस:’ से होता है और इसकी समाप्ति ‘एको रस: करुण एव’ से होती है।
भवभूति गौड़ी रीति के सर्वश्रेष्ठ कवि हैं। उन्होंने मालतीमाधव और महावीर चरित में गौड़ी रीति को अपनाया है। वहीं ‘उत्तरराम चरित’ में गौड़ी और वैदर्भी रीति का मणि-कांचन-संयोग है।
उत्तररामचरितम् के सातों अंकों के नाम
- चित्रदर्शन
- पंचवटी
- छाया
- कौशल्या
- प्रत्याभिज्ञान
- कुमार विक्रम
- कुमार प्रत्याभिज्ञान
- सम्मेलन
उत्तररामचरितम् की महत्वपूर्ण सूक्तियाँ
- एको रस: करुण एव निमित्त भेदाद्।
- त्वं जीवितं त्वमसि में हृदयं द्वितीयं।
- पुटपाक प्रतीकाशो रामस्य करुणो रस:।
- द्रव इव हृदयस्य प्रसवोद् भेद भोग्य।
- अयि कठोर: यश: किल ते प्रिय।
(vi) भारवि
भारवि का जन्म छठी शताब्दी (560 ई. के आस-पास) हुआ था। इनका वास्तविक नाम दामोदर तथा भारवि उनकी उपाधि थी। और उपनाम ‘आतपत्र भारवि’ था। दंडी कृत ‘अवन्तिसुन्दरीकथा’ के अनुसार इनके पिता का नाम ‘श्रीधर’ था, वहीं कुछ विद्वान ‘नारायण स्वामी’ मानते हैं। इनकी माता का नाम ‘सुशीला’ था। ‘अवन्तिसुन्दरीकथा’ के अनुसार भारवि दंडी के प्रपितामह थे। भारवि की पत्नी का नाम ‘रसिकवती’ या ‘रसिका’ था। भारवि ‘शैव’ थे। प्राय: सभी विद्वान भारवि को दाक्षिणात्य मानते हैं। ‘अवन्तिसुन्दरीकथा’ के अनुसार भारवि पुलकेशिन् द्वितीय के अनुज विण्णुवर्धन के सभा पंडित थे।
किवंदन्ती के अनुसार भारवि का अति प्रिय श्लोक था-
‘सहसा विदधीत न क्रियाम्’ ये अपने शयन कक्ष में इसे लगा रखे थे। किसी समय पत्नी की आवश्यकता पूर्ति के लिए उसे एक वणिक से कुछ ऋण लेना पड़ा और धरोहर के रूप में उसने ‘सहसा विदधीत न क्रियाम्’ शलोक रख लिया।
प्रसिद्ध टीकाकार मल्लिनाथ ने भारवि की रचना की उपमा नारियल के फल (नारिकेल फल) से दी है। जो ऊपर से कठोर किन्तु अन्दर कोमल और सरस होता है-
नारिकेल फलसम्मितं वाचो भाखे: सपदि यद् विभज्यते।
स्वादयन्तु रसगर्भनिर्भर सारमस्य रसिका यथेप्सितम्॥
भारवि संस्कृत साहित्य में ‘अलंकृत शैली’ और ‘विचित्रमार्ग’ के जन्मदाता हैं तथा अर्थ गौरव के लिए प्रसिद्ध हैं- भारवेsर्थगौरवम्।
भारवि की रचनाएँ
भारवि रचित एक ही कृति- किरातार्जुनीयम् महाकाव्य मिलता है।
किरातार्जुनीयम्
यह बृहत्रयी का प्रथम ग्रंथ है। इस महाकाव्य में कुल 18 सर्ग और 1040 श्लोक हैं। किरातार्जुनीयम् महाकाव्य का उपजीव्य ग्रंथ महाभारत का वनपर्व है। इसमें कौरवों पर विजय-प्राप्ति के लिए अर्जुन का हिमालय पर्वत पर जाकर तपस्या करने, किरात-वेषधारी शिव से युद्ध और प्रसन्न शिव से पाशुपत अस्त्र की प्राप्ति का वर्णन है। जाहिर है कि इसका काव्य नायक अर्जुन है।
किरातार्जुनीयम् ग्रंथ का प्रधान रस- वीर रस है परंतु रीति वैदर्भी है। ग्रंथ के आरम्भ में ‘श्री’ शब्द तथा सर्गान्त लक्ष्मी शब्द से होता है। ‘लक्ष्मी’ शब्द का प्रयोग उसकी प्रमुख विशेषता है। किरातार्जुनीय के प्रथम तीन सर्ग विशेष कठिन है इसलिए उन्हें ‘पाषाण त्रय’ (तीन पत्थर) कहा जाता है।
संस्कृत साहित्य में भारवि रीति काल के जन्मदाता हैं। भारवि का प्रिय छ्ंद ‘वंशस्थ’ और प्रयुक्त मुख्य छ्ंद 13 हैं।
किरातार्जुनीयम् की महत्वपूर्ण सूक्तियाँ
- विचित्र रूपा खलु चित्तवृतय:।
- पराभवअप्यत्सव एवं मानिनाम्।
- प्रवतिसारा: खलु माद्यशां गिर:।
- निराश्रया: हंट:हतो मनस्विता।
- हितं मनोहरि च वचं दुर्लभं।
- गुणा नु रोधेन बिना न सक्रिया।
- पियाणि दंडेन स धर्मविप्लवम्।
- निहन्ति दंडेन स धर्मविप्लवम्।
(vii) दंडी
इनका जन्म समय ई. की छठी शताब्दी से लेकर नवीं शताब्दी के मध्य विद्वानों ने स्वीकार किया है। दंडी के विषय में जो कुछ जीवन-चरित-संबंधी सामग्री प्राप्त होती है उसका एकमात्र आधार ‘अवन्तिसुन्दरी कथा’ है। उसके अनुसार दंडी किरातार्जुनीयम् महाकाव्य के रचयिता भारवि के पपौत्र थे। दंडी के पिता का नाम ‘वीरदत्त’ और माता का नाम ‘गौरी’ था।
दंडी का पद लालित्य सर्व प्रसिद्ध है- ‘दंडिन: पदलालित्यम्’। आचार्य दंडी परिष्कृत गद्य-शैली के जन्मदाता हैं। दंडी वैदर्भी शैली के कवि और अलंकारवादी आचार्य हैं। दंडी आदर्शवादी न होकर यथार्थवादी और व्यवहारवादी हैं।
दंडी की रचनाएँ
- दशकुमारचरितम्
- काव्यादर्शम्
- अवन्तिसुंदरीकथा
- छ्ंदोविचित
- कला परिच्छेद
- द्विसंधानकाव्य
- मृच्छकटिक
दंडी कृत रचनाओं का परिचय
1. दशकुमारचरितम्
दशकुमारचरितम् एक काव्य शास्त्रीय ग्रंथ है। इसमें 8 उच्छ्वास हैं जिनमें दश राजकुमारों का कौतूहल पूर्ण तथा रोमांचक वर्णन है। इसके तीन भाग हैं- पूर्वपीठिका, दशकुमारचरितम् और उत्तरपीठिका। इस ग्रंथ के मूल भाग में केवल आठ राजकुमारों का वर्णन, आठ उच्छवासों में किया गया है। अन्य दो राजकुमारों का वर्णन पूर्वपीठिका में जोड़कर ‘दशकुमारचरितम्’ पूरा किया गया। इस ग्रंथ का कथानक कल्पना प्रसूत है। इस ग्रंथ पर गुणाढ्य की वृहत्कथा का प्रभाव है।
2. काव्यादर्शम्
यह अलंकार शास्त्र (काव्यशास्त्रीय) की रचना है जिसमें चार परिच्छेद हैं।
3. अवन्तिसुंदरीकथा
इसमें दंडी ने अपने जीवन चरित का संक्षेप में वर्णन किया है। इसकी रचना दंडी ने कांची में की थी।
(viii) माघ
माघ का जन्म स्थान गुजरात के श्रीमाल नगर है। इनका जन्म छठी-सातवीं शताब्दी का अंतिम चरण अर्थात् 675 ईं. के आस-पास माना जाता है। इनके पिता का नाम ‘दत्तक’ और माता का नाम ब्राह्मी’ था।
अर्थगौरव और पद-लालित्य इन तीनों गुणों की प्रचुरता के कारण ‘माघे सन्तित्रयो गुणा:’ उक्ति कवि वृन्द में बहुश्रुत है-
‘उपमा कालिदासस्य, भारवे अर्थ गौरवम्।
दण्डिनापदलालित्यम्, माघे सन्तित्रयो गुणा:॥’
माघ की विशेषता यह है कि इन्होंने तीनों गुणों का मणिकांचन संयोग प्रस्तुत किया है। इसमें प्रसाद, माधुर्य और ओज गुणों का संतुलित सामंजस्य है।
रसिक सहृदयों का कथन है कि-
‘मेघे माघे गतं वय:।’
कवि माघ ने सूर्योदय और चन्द्रास्त को देखकर महाकाय हाथी के दोनों ओर लटकते हुए दो विशाल घंटों की कल्पना कवि ने की है। इस कल्पना की उत्कृष्ठता के आधार पर माघ का नाम ही ‘घण्टामाघ’ पड़ गया।
माघ की रचनाएँ
माघ कृत एक मात्र ग्रंथ ‘शिशुपालवधम्’ मिलता है।
शिशुपालवधम्
‘शिशुपालवधम्’ महाकाव्य माघ की प्रसिद्धि का मूलाधार है तथा संस्कृत महाकाव्य बृहत्रयी का द्वितीय रत्न माना जाता है। इस महाकाव्य में 20 सर्ग एवं 1650 पद हैं। माघ ने अपने महाकाव्य में 40 छ्ंदों का प्रयोग किया है। ‘शिशुपालवधम्’ का उपजीव्य ग्रंथ महाभारत का ‘सभापर्व’ है अर्थात कथानक ‘सभापर्व’ से ली गई है।
इस महाकाव्य का रस वीर और नायक कृष्ण हैं। ‘श्री’ शब्द से ग्रंथ का सर्गारंभ और सर्गान्त होता है। इसमें देवर्षि नारद द्वारा शिशुपाल के पूर्व जन्मों का विवरण देते हुए उसके अत्याचारों का उल्लेख श्री कृष्ण से उसके संहार की प्रार्थना, युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में श्री कृष्ण का इन्द्रप्रस्थ पहुँचना, शिशुपाल का अभद्र व्यवहार और क्रुद्ध श्री कृष्ण द्वारा उसका वध वर्णित है।
माघ ने शिशुपाल वध के प्रथम 9 सर्गों में अपने अक्षय शब्दकोश का पूर्ण प्रदर्शन किया है।
शिशुपालवधम् की महत्वपूर्ण सूक्तियाँ
- पूर्वरंग प्रसंगाय नाटकी यस्य वस्तुना:
- परिभाषेव गरीयसी यदाज्ञा
- भवन्तिनापुण्यकृतां मनीषिण:
- न यन्तियन्तुं समभावि भानुना
- सुपात विक्षेप निराकुलात्मना
- किस्मस्ति कार्य गुरु योगिनामापि
(ix) श्री हर्ष
श्री हर्ष का जन्म विद्वानों ने 12वीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध स्वीकार किया है। इनके पिता का नाम ‘श्री हीर’ और माता का नाम ‘मामल्ल देवी’ था। श्रुति के अनुसार ये मम्मट के मामा थे। श्री हर्ष कन्नौज के राजा विजय चंद्र और उनके पुत्र जयचंद (जयंतचंद्र) के सभा पंडित थे। सम्मान स्वरूप जयचंद्र इन्हें दो पान और सिंहासन देते थे।
श्री हर्ष शैव थे। इन्होंने स्वयं को अमृतरूपी चंद्रमा कहा है। इन पर वक्रोक्ति संप्रदाय का अधिक प्रभाव प्रतीत होता है।
श्री हर्ष की रचनाएँ
नैषधीयचरितम्
‘नैषधीयचरितम्’ 22 सर्गों का महाकाव्य है जिसमें 2830 श्लोक हैं। यह वृहत्रयी का तीसरा रत्न है, इसे वृहत्रयी का सर्वोत्कृष्ट रत्न माना जाता है। इसमें महाभारत के नलोपाख्यान के आधार पर कवि ने नल-दपदंती के प्रणय से लेकर परिणय (विवाह) तक की कथा का वर्णन किया है। नल-दमयन्ती की दिनचर्या देवस्तुति, चन्द्रोदय, सूर्योदय आदि का वर्णन, नल-दमयन्ती का विलास वर्णन।
‘नैषधीय चरित’ में श्रृंगार अंगीरस और वैदर्भी रीति की प्रधानता है। इसमें 19 छ्ंदो का प्रयोग हुआ है। नैषध को विद्वानों के लिए ‘औषध’ या ‘रसायन’ माना गया है- ‘नैषधं विद्वदौषधम्’।
‘नैषधीय चरित’ के सर्गान्त श्लोंको में श्री हर्ष की निम्नलिखित रचनाओं का उल्लेख है-
- स्थैर्यविचार प्रकरण– इसमें दर्शन शैली में क्षणिक-वाद का निराकरण किया गया है।
- श्री विजय प्रशस्ति- राजा विजयचंद्र की प्रशंसा में यह ग्रंथ लिखा गया है।
- खंडन खंड खाद्य– इस ग्रंथ में न्याय के सिद्धांतों का खंडन हुआ है।
- गोडोर्वीशकुलप्रशस्ति / गौड़देशीय– यह ग्रंथ गौड़देशीय राजा की प्रशस्ति है।
- अर्णव वर्णनम्- समुद्र वर्णन पर आधारित यह एक लघु काव्य है।
- छिंद प्रशस्ति / छ्ंद प्रशस्ति– यह एक प्रशस्ति काव्य है।
- शिवशक्ति सिद्धि– इस ग्रंथ में तंत्र शस्त्र के सिद्धांतों का निरूपण हुआ है।
- नवसाहसांक चरितम्- यह एक चंपू काव्य है। इस ग्रंथ में भोजराज के पिता सिंधुराज की यशोगाथा है।
(x) राजशेखर
राजशेखर महाराष्ट्र के यायावर क्षत्रिय वंश में उत्पन्न हुए थे। इनके पिता का नाम अमात्य ‘दर्दुक’ या दुहिक् तथा माता का नाम ‘शीलवती’ था। राजशेखर की पत्नी का नाम ‘अवन्ति सुंदरी’ था।
राजशेखर शैव थे। राजशेखर कन्नौज के प्रतिहार राजा निर्भयराज (महेंद्रपाल) और उनके पुत्र महीपाल के आश्रित कवि थे। इनका समय 10वीं शताब्दी का प्रथम चरण 900 ई. के आस-पास का है।
राजशेखर की शैली गौड़ी है। राजशेखर कालिदास, हर्ष और भवशभूति से प्रभावित हैं।
राजशेखर की रचनाएँ
राजशेखर के 5 ग्रंथ मिलते हैं जिसमें 4 नाटक हैं-
- काव्य मीमांसा
- बाल रामायण (10 अंक)
- बाल भारत या प्रचंड महाभारत (2 अंक)
- विद्धशाल भंजिका (4 अंक)
- कपूर मंजरी (4 अंक)
राजशेखर कृत रचनाओं का परिचय
1. काव्य मीमांसा
राजशेखर की अंतिम तथा सुप्रसिद्ध काव्य शास्त्रीय रचना ‘काव्यमीमांसा’ है। उनका यह ग्रंथ कवि शिक्षापरक ग्रंथों का प्रवर्तक है जिसमें 18 अधिकरण हैं।
2. बाल रामायण
यह 10 अंको का एक महानाटक है। इसमें राम कथा वर्णित है तथा रावण को एक प्रेमी के रूप में चित्रित किया गया है और उसके प्रति सहानुभूति प्रदर्शित की गई है। बाल रामायण का प्रत्येक अंक एक नाटिका के बराबर है। इसमें 741 पद्य है।
3. बाल भारत (प्रचण्ड पाण्डव)
यह अधूरी कृति है इसके केवल 2 अंक प्राप्त होते हैं। इसमें द्रौपदी-स्वयंवर और द्रौपदी-चीर हरण की घटनाएँ वर्णित हैं।
4. विद्धशाल भंजिका
यह शास्त्रीय दृष्टि से 4 अंक की एक नाटिका है। इसमें राजकीय प्रणय-क्रीडा वर्णित है।
5. कर्पूर मंजरी
यह चार अंकों का ‘सट्टक’ नामक रूपक है। सट्टक की भाषा प्राकृत होती है। इसका कथानक राजपरिवार की प्रणय-क्रीडा से संबद्ध है। यह नाटक राजशेखर की प्रसिद्धि का आधार है।
राजशेखर के दो नाटक और माने जाते हैं- हरविलास और दूसरे का नाम अज्ञात है।
(xi) बाण भट्ट
बाण भट्ट सम्राट हर्ष के सभा-पंडित थे। बाण ‘पांचाली’ रीति के लेखक हैं।
बाण भट्ट की रचनाएँ
बाण भट्ट के मुख्य रूप से दो ग्रंथ उपलब्ध होते हैं-
- हर्ष चरित
- कादम्बरी
बाण भट्ट कृत रचनाओं का परिचय
1. हर्ष चरित
हर्ष चारित महाकवि बाण की प्रथम एवं अपूर्ण कृति है। इसमें 8 उच्छवास हैं। प्रथम उच्छवास में हर्ष ने अपने वंश का वर्णन किया है। और आगे के 6 उच्छवासों में हर्ष के पूर्वजों का वर्णन करते हुए हर्ष के जन्म से लेकर राज्यश्री के मिलने तक का वर्णन किया गया है।
2. कादम्बरी
यह बाण की प्रौढ़ और अंतिम कृति है। इसमें एक काल्पनिक कथा वर्णित है। यह गद्य काव्य का ‘कथा’ भेद है। इसमें चन्द्रापीड और वैशम्पायन के तीन जन्मों का वर्णन किया गया है।
(xii) शूद्रक
शूद्रक का वास्तविक नाम शिमुक (सिमुक) था। शूद्रक वैदर्भी रीति के कवि हैं। शूद्रक की एकमात्र रचना ‘मृच्छकटिकम्’ मिलती है।
शूद्रक कृत मृच्छकटिकम् नाटक का परिचय
इस नाटक में 10 अंक हैं। यह रूपक का एक भेद ‘प्रकरण’ है। इसमें एक निर्धन ब्राह्मण चारुदत्त का वसंत सेना नामक गणिका (वेश्या) से प्रेम का वर्णन है।
(xiii) विशाख दत्त
विशाखदत्त लक्ष्मण सेन के दरबारी कवि थे। विशाख दत्त की प्रमुख कृति मुद्राराक्षस और देवीचंद्रगुप्तम है। यह संस्कृत का ऐतिहासिक नाटक है। इसकी रचना चौथी शताब्दी में हुई थी। नाटक की प्रस्तावना से पता चलता है कि विशाखदत्त का दूसरा नाम विशाखदेव, पिता का नाम महाराज पृथु और पितामह का नाम सामंत बटेश्वरदत्त था। कुछ विद्वान उन्हें महाराज भास्कर दत्त का पुत्र मानते हैं।
(xiv) हर्ष
हर्ष ने 590 से 647 ईस्वी तक शासन किया था। हर्ष के 3 नाटक हैं-
- प्रियदर्शिका (4 अंक, नाटिका): राजा उदयन और राजकुमारी प्रियदर्शिका की कहानी वर्णित है।
- रत्नावली (4 अंक, नाटिका)
- नागानंद (5 अंक, नाटक)
(xv) जयदेव
जयदेव का समय बारहवीं शताब्दी का है और ये लक्ष्मणसेन के दरबारी-कवि थे। इनका एक मात्र मुख्य ग्रंथ- गीत गोविंद है।
(xvi) सोमेश्वर
कीर्ति कौमुदी के लेखक सोमेश्वर है, यह संस्कृत का प्राचीन ग्रंथ है। इस काव्य से चालुक्यवंशीय इतिहास के विषय में जानकारी मिलती है। सोमेश्वर धारवंश दरबार के कवि थे। मालवा की राजधानी उज्जैन / धरा नगरी थी।
(xvii) कल्हण
कल्हण कश्मीरी इतिहासकार तथा विश्वविख्यात ग्रंथ राजतरंगिनी (1148-50 ई.) के रचयिता थे। लोहार वंश के राजा हर्ष ने संस्कृत के महाकवि कल्हण को आश्रय दिया था। राजतरंगिणी का अर्थ है- राजाओं की तरंगिणी। इसकी मुख्य विषय वस्तु कश्मीर का इतिहास है। इसकी रचना महाभारत की शैली के आधार पर की गई है। इसमें कुल आठ तरंग एवं 8000 श्लोक हैं। कश्मीर के सुल्तान जैनुल आब्दीन (1473 ई.) के शासनकाल में मुल्ला नादेरी ने कल्हण की राजतरंगिणी का फारसी अनुवाद किया था।
(xviii) अश्वघोष
अश्वघोष राजा कनिष्क के दरबारी कवि थे। अश्वघोष द्वारा लिखित सबसे प्राचीन नाटक शरिपुत्र प्रकरण है। बुद्धचरित और सौन्दरनंद इनके दो महाकाव्य हैं।
(xix) सुबन्धु
सुबन्धु के बारे में ठीक-ठीक पता नहीं चलता है किन्तु कुछ विद्वानों का मानना है कि सुबन्धु गुप्त सम्राट कुमारगुप्त प्रथम (414-455) और स्कन्दगुप्त (455-467) के दरबार में थे। इनकी रचना का नाम ‘वासवदत्ता’ है। यह एक अलंकारिक संस्कृत नाटक (आख्यायिका) है जो गौड़ी शैली में लिखी गई है। इसकी प्रमुख पात्र वासवदत्ता नामक राजकुमारी है जो पाटलिपुत्र के राजा शृंगार-शेखर की पुत्री है।
सुबन्धु ने अपने काव्य के बारे में लिखा है कि- ‘प्रत्यक्षरश्लेषमयप्रबन्धविन्यासवैदग्ध्यनिधिः।’ अर्थात प्रत्येक अक्षर में श्लेष होने के कारण वैदग्ध्य प्रतिभा की निधि है।
संस्कृत साहित्य के प्रमुख त्रयीसंग्रह
लघुत्रयी– रघुवंशमहाकाव्यम्, कुमारसंभवम्, मेघदूतम्।
वृहदत्रयी– किरातार्जुनीयम्, शिशुपालवधम्, नैषधीयचरितम्।
गद्यवृहदत्रयी– कादंबरी, दशकुमारचरितम्, वासदत्ता।
पाषाणत्रयी– किरातार्जुनीयम् का प्रथम सर्ग, किरातार्जुनीयम् द्वितीय सर्ग, किरातार्जुनीयम् का तृतीय सर्ग
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संदर्भ:
[1] उत्तररामचरित- कपिल देव द्विवेदी, वाक्य सं. 24
आपके द्वारा दी गई जानकारी बहुत ही महत्व पूण एवं उपयोगी हैं।
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