होली वसंत ऋतु में मनाया जाने वाला भारतीय लोगों का महत्वपूर्ण त्यौहार है। रंगो की वजह से इसका लोकहर्षक रूप दिखाई देता है। यदि हिंदी कविता और होली की बात करें तो होली का प्रभाव आदिकाल से लेकर समकालीन कविता तक दिखाई देता है। हिंदी के अधिकतर कवियों ने हिंदी पर कुछ न कुछ लिखा है।
होली से संबंधित हिंदी साहित्य की कविताओं की सूची
1. मीराबाई
- फागुन के दिन चार होली खेल मना रे;
- होरी खेलत हैं गिरधारी
2. रसखान
- मोहन हो-हो, हो-हो होरी
3. अछूतानंदजी ‘हरिहर’
- सतगुरु-ज्ञान होरी
- होरी खेलौ अछूतौ भाई
4. पद्माकर
- आई खेलि होरी, कहूँ नवल किसोरी भोरी
5. घनानंद
- मोसों होरी खेलन आयो;
- होरी के मदमाते आए
6. भारतेंदु हरिश्चंद्र
- होली;
- गले मुझको लगा लो ए दिलदार होली में;
- बसंत होली;
- गले मुझको लगा लो ए दिलदार होली में;
- होली डफ की
7. सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला‘
- ख़ून की होली जो खेली;
- खेलूँगी कभी न होली;
- केशर की कलि की पिचकारी;
- नयनों के डोरे लाल-गुलाल भरे;
- मार दी तुझे पिचकारी
8. केदारनाथ अग्रवाल
- फूलों ने होली
9. बेढब बनारसी
- संपादक की होली
10. हरिवंशराय बच्चन
- होली;
- तुम अपने रँग में रँग लो तो होली है;
- विश्व मनाएगा कल होली
11. फणीश्वर नाथ रेणु
- साजन! होली आई है!
12. नज़ीर अकबराबादी
- होली (1-16);
- देख बहारें होली की;
- होली की बहार;
- होली पिचकारी
13. अशोक चक्रधर
- रंग जमा लो
14. अनिल जनविजय
- होली का वह दिन
15. कुमार विकल-
- होली के दिन एक कविता
होली व फाग पर आधारित हिंदी साहित्य की प्रमुख कविताएँ
1. मीराबाई
मीराबाई भक्तिकाल की महत्वपूर्ण कवयित्री रहीं हैं। इनके होली से संबंधित दो पद- ‘फागुन के दिन चार होली खेल मना रे’ और ‘होरी खेलत हैं गिरधारी’ मिलते हैं। इन दोनों पदों में कृष्ण भक्ति भावना की अभिव्यक्त हुई है। ‘फागुन के दिन चार होली खेल मना रे’ पद ‘राग होरी सिन्दूरा’ है। “इस पद में होली के व्याज से सहज समाधि का चित्र खींचा गया है और ऐसी समाधि का साधन प्रेम भक्ति को बताया गया है।” इस पद का एक पंक्ति कुछ इस प्रकार है-
‘सील संतोखकी केसर घोली प्रेम प्रीत पिचकार रे।
उड़त गुलाल लाल भयो अंबर, बरसत रंग अपार रे॥’[1]
2. रसखान
भक्तिकालीन कवि रसखान ने एक पद ‘राग सारंग’ में ‘मोहन हो-हो, हो-हो होरी’ पद लिखा है, जिसमें कृष्ण का मनोहर रूप उभर कर आता है-
“मोहन हो-हो, हो-हो होरी।
काल्ह हमारे आँगन गारी दै आयौ, सो को री॥
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कहै ’रसखान’ एक गारी पर, सौ आदर बलिहारी॥”[2]
3. अछूतानंदजी ‘हरिहर’
अछूतानंदजी जी के यहाँ भी होली से जुड़ा एक पद ‘सतगुरु-ज्ञान होरी’ मिलता है। कवि ज्ञान रूपी गुलाल और प्रेम रूपी पिचकारी से सबको सराबोर करना चाहता है। ताकि समाज में व्याप्त छल, पाखंड, प्रपंच और धूर्तता धूल की तरह उड़ जाए।
“सतगुरु सबहि समझावें, सबन हित होरी रचावें।
ज्ञान-गुलाल मले मन मुख पर, अद्धै अबीर लगावें।
प्रेम परम पिचकारी लेकर, सतसंग रुचि रंग लावें।
तत्व-त्यौहार मनावें॥”[3]
4. भारतेंदु हरिश्चंद्र
भारतेंदु ने होली पर कई कविताएँ समय-समय पर लिखी हैं। जिनमें ‘होली’, ‘गले मुझको लगा लो ए दिलदार होली में’; ‘बसंत होली’; ‘गले मुझको लगा लो ए दिलदार होली में’ तथा ‘होली डफ की’ प्रमुख हैं। इन कविताओं का विषय उमंग और हास्य-परिहास है। ‘होली’ कविता की दो पंक्तियाँ देखिए-
“कैसी होरी खिलाई।
आग तन-मन में लगाई॥”[4]
यह कविता भारतेन्दु की रचना ‘मुशायरा’ में संकलित है। ‘गले मुझको लगा लो ए दिलदार होली में’ कविता भी इसी तरह की है-
“गुलाबी गाल पर कुछ रंग मुझको भी जमाने दो
मनाने दो मुझे भी जानेमन त्योहार होली में”[5]
5. सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’
छायावाद के आधार स्तंभ कवि निराला ने भी कई सारी कविताएँ होली और फाग पर लिखीं हैं। उनकी एक कविता ‘ख़ून की होली जो खेली’ है’ जिसे उन्होंने 1946 के स्वाधीनता संग्राम में विद्यार्थियों के देश-प्रेम पर लिखी थी। यह कविता गया से प्रकाशित साप्ताहिक ‘उषा’ के होलिकांक में मार्च 1946 ई. में प्रकाशित हुई थी। निराला के लिए होली हंसी-ठिठोली और हुड़दंगई की चीज नहीं है, यह बात उनके होली संबंधी अन्य कविताओं में देखा जा सकता है। ‘खेलूँगी कभी न होली’ कविता में वे लिखते हैं-
“खेलूँगी कभी न होली
उससे जो नहीं हमजोली।”[6]
ऐसा भी नहीं है की निराला जी की होली को लेकर गुरु गंभीर नजर आते हैं। होली उनके लिए भी उत्सव, उमंग और प्रेम की चीज है। ‘नयनों के डोरे लाल-गुलाल भरे’ कविता इसका प्रमाण है। निराला जी की यह कविता ‘जागरण’, पाक्षिक, काशी, 22 मार्च 1932 ई. को ‘होली’ शीर्षक से प्रकाशित हुई थी। इसकी दो पंक्तियाँ देखिये-
“बीती रात सुखद बातों में प्रात पवन प्रिय डोली,
उठी सँभाल बाल, मुख-लट,पट, दीप बुझा, हँस बोली
रही यह एक ठिठोली।”[7]
इसी तरह की निराला जी की एक कविता ‘मार दी तुझे पिचकारी’ नवगीत इंदौर से प्रकाशित मासिक पत्रिका ‘वीणा’ के जून 1935 ई. अंक में ‘होली’ शीर्षक से छपा था।
6. केदारनाथ अग्रवाल
प्रगतिशील कवि केदारनाथ अग्रवाल की होली पर एक कविता ‘फूलों ने होली’ है जिसका रचनाकाल 04/03/1991 है। यह कविता उनकी अन्य कविताओं की तरह प्रकृति के बिम्ब धारण किये हुए है-
“फूलों ने
होली
फूलों से खेली
लाल
गुलाबी
पीत-परागी
रंगों की रँगरेली पेली”[8]
7. बेढब बनारसी
बेढब बनारसी के बिना बनारस में होली की कल्पना ही नहीं की जा सकती थी। वे हर साल अपने घर पर होलीबाजों को आमंत्रित करते थे, जिसमें अधिकतर साहित्यकार होते थे। होली पर उनकी एक कविता ‘संपादक की होली’है जो हास्य और व्यंग का पुट लिए हुए है-
“आफिस में कंपोजीटर कापी कापी चिल्लाता है
कूड़ा-करकट रचनाएँ पढ़, सर में चक्कर आता है
बीत गयी तिथि, पत्र न निकला, ग्राहकगण ने किया प्रहार
तीन मास से मिला न वेतन, लौटा घर होकर लाचार
बोलीं बेलन लिए श्रीमती, होली का सामान कहाँ,
छूट गयी हिम्मत, बाहर भागा, मैं ठहरा नहीं वहाँ
चुन्नी, मुन्नी, कल्लू, मल्लू, लल्लू, सरपर हुए सवार,
सम्पादकजी हाय मनायें कैसे होली का त्यौहार”
8. हरिवंशराय बच्चन
बच्चन जी की ‘होली’ कविता बहुत ही प्यारी है, यह प्रेम, भाई-चारा और सौहार्द के संदेश को अपने में समेटे हुए है। बच्चन जी के लिए होली अपरिचित से परिचय करने का दिन है, आज़ादी और प्रेम का दिन है। अपना वर चुनने, मित्रों को पलकों पर बैठाने का दिन है। उनके लिए होली शत्रु को भी बाहों में भरने का दिन है-
“प्रेम चिरंतन मूल जगत का,
वैर-घृणा भूलें क्षण की,
भूल-चूक लेनी-देनी में
सदा सफलता जीवन की,
जो हो गया बिराना उसको फिर अपना कर लो।
होली है तो आज शत्रु को बाहों में भर लो!”[9]
इसी भाव-भूमि की उनकी दूसरी कविता ‘तुम अपने रँग में रँग लो तो होली है’ भी है। जिसमें प्रेम का उदात्त चित्रण हुआ है-
“तन के तार छूए बहुतों ने
मन का तार न भीगा,
तुम अपने रँग में रँग लो तो होली है।”[10]
9. नज़ीर अकबराबादी
नज़ीर अकबराबादी हिंदुस्तानी जबान के कवि हैं, कुछ लोग उन्हें उर्दू कविता तक सीमित कर देते हैं। सही मायनों में वे हिन्दुस्तानी कविता के मरकज़ हैं। इन्हें ‘नज़्म का पिता’ माना जाता है। उन्होंने बहुत सारी नज्में और ग़ज़लें लिखी हैं। नज़ीर ने होली पर 16 से अधिक रचनाएँ लिखीं हैं। होली पर हिंदी के किसी भी लेखक ने इतनी रचनाएँ नहीं की हैं। न केवल संख्यात्म लिहाज से बल्कि स्तरीय और गंगा-जमुनी तहजीब को भी पुरुजोर तरीके से अभिव्यक्त करती हैं।
नज़ीर एक कविता ‘देख बहारें होली की’ है, उसके चंद पंक्तियाँ पेशे नज़र है-
“जब फागुन रंग झमकते हों तब देख बहारें होली की।
और दफ़ के शोर खड़कते हों तब देख बहारें होली की।
परियों के रंग दमकते हों तब देख बहारें होली की।
ख़ूम शीश-ए-जाम छलकते हों तब देख बहारें होली की।
महबूब नशे में छकते हो तब देख बहारें होली की।”[11]
नज़ीर ने सिर्फ होली पर कविता लिखने तक सीमित नहीं रहते बल्कि वे स्वंय होली में भाग लेते हैं वह भी ठेठ देहाती की तरह। इसीलिए वे आगे लिखते हैं-
“लड़भिड़ के ‘नज़ीर’ भी निकला हो, कीचड़ में लत्थड़ पत्थड़ हो
जब ऐसे ऐश महकते हों, तब देख बहारें होली की।।”[12]
गंगा जमुनी तहज़ीब को अभिव्यक्ति करती उनकी दूसरी कविता ‘होली की बहार’ है, उसकी दो पंक्तियाँ पढ़िए-
“और हो जो दूर या कुछ खफा हो हमसे मियां।
तो काफिर हो जिसे भाती है होली की बहार।।”[13]
होली की चर्चा हो और कृष्ण की बात न हो, यह कैसे संभव है? नज़ीर अकबराबादी भी ने कृष्ण और राधा पर होली को लेकर एक कविता ‘जब खेली होली नंद ललन’ लिखा है।
“होरी खेलें हँस हँस मनमोहन और उनसे राधा प्यारी भी।
यह भीगी सर से पाँव तलक और भीगे किशन मुरारी भी।।”[14]
10. फणीश्वर नाथ रेणु-
रेणु की पहचान एक कथाकार के रूप में बनी है लेकिन उन्होंने कथेतर विधाओं के साथ कई कविताएँ भी लिखी हैं। उनकी एक कविता होली पर है जिसका नाम- ‘साजन! होली आई है!’ रेणु के लिए होली मौज मस्ती के लिए नहीं है बल्कि वे इसके बहाने क्षण भर गा लेना चाहते हैं ताकि दुख:मय जीवन को बहलाया जा सकें। त्यौहारों का उद्देश्य भी यही होना चाहिए।
“साजन! होली आई है!
रंग उड़ाती
मधु बरसाती
कण-कण में यौवन बिखराती,
ऋतु वसंत का राज-
लेकर होली आई है!”[15]
यहाँ पर होली और फाग से संबंधित कुछ ही कविताओं को दिया गया है। जबकि अधिक्तर कवियों ने इसपर कुछ न कुछ लिखा है। हिंदी साहित्य में होली पर केवल काव्य और कविता नहीं लिखा गया बल्कि गद्य की बहुत सारी रचनाओं में उमंग और हर्षोल्लास के साथ चित्रित हुआ है। प्रेमचंद की होली पर दो महत्वपूर्ण कहानियाँ- ‘होली का उपहार’ और ‘प्रेम की होली’ लिखा है। जिसे आप hindisamay की वेबसाइट पर जाकर पढ़ सकते हैं। लब्बोलुआब यह की होली पर न केवल बहुत सारे गीत और लोकगीत रचे हुए हैं बल्कि हिंदी साहित्य पद्य और गद्य भी इस मामले में काफी समृद्धि है।
[1] फागुन के दिन चार होली खेल मना रे- मीराबाई
[2] मोहन हो-हो, हो-हो होरी- रसखान
[3] सतगुरु-ज्ञान होरी- अछूतानंदजी ‘हरिहर’
[5] गले मुझको लगा लो ए दिलदार होली- भारतेन्दु
[6] खेलूँगी कभी न होली- निराला
[7] नयनों के डोरे लाल-गुलाल भरे- निराला
[8] फूलों ने होली- केदारनाथ अग्रवाल
[10] तुम अपने रँग में रँग लो तो होली है- बच्चन
[11] देख बहारें होली की- नज़ीर अकबराबादी
[12] वही
[13] होली की बहार- नज़ीर अकबराबादी
[14] जब खेली होली नंद ललन- नज़ीर अकबराबादी