विद्यापति पदावली के पदों की व्याख्या | vidyapati pad

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विद्यापति के पदों की व्याख्या- शिवप्रसाद सिंह

मैथिली कोकिल विद्यापति द्वारा विरचित और डॉ. शिवप्रसाद सिंह द्वारा संपादित ‘विद्यापति पदावली’ की 4 पदों की व्याख्या संदर्भ एवं प्रसंग के साथ यहाँ दी जा रही है-

  • नंदक नंदन कदम्बेरि तरुतरे…
  • देख-देख राधा-रूप अपार…
  • चाँद-सार लए मुख घटना…
  • बदन चाँद तोर नयन चकोर मोर…

पद 8: नंदक नंदन कदम्बेरि तरुतरे-विद्यापति

नंदक नंदन कदम्बेरि तरुतरे
धीरे धीरे टरलि बोलाव।
समय संकेत निकेतन बइसल
बेरी बेरी बोली पठाव॥
सामरी तोरा लागि अनुखने बिकल मुरारि॥
जमुनाक तिर उपवन उदवेगल
फिर फिर ततहि निहारी।
गौरस बिके निके अबइते जाइते
जनि जनि पुंछ वनवारि॥
तोहे मतिमान सुमति मधसूदन
वचन सुनह किछु मोरा।
भनइ विद्यापति सुन बरजौवति
वन्दह नन्दकिसोरा॥

nandak nandan kadamberi tarutare- vidyapati pad

शब्दार्थ: नंदक-नंदन: नंद के बेटे कृष्ण; तरुतरे: नीचे; टरलि: बाँसुरी; बोलाव: बजाकर; संकेत निकेतन: मिलने का सांकेतिक स्थान; बइसल: बैठे हुए; बेरि-बेरि: बार बार; बोलि: बुलाकर; पठाव: भेजकर; सामरी: राधा; तोरा लागि: तुम्हारे लिए; अनुखने: प्रतिक्षण; मुरारि- कृष्ण; तिर: तट; उद्बेगल: उद्विग्न हुए, व्याकुल; ततहि: उसी ओर; जनि-जनि: प्रत्येक से; मतिमान: जिसमें मति हो, बुद्धिमान, समझदार, ज्ञानी; सुमति: बुद्धिमान; मधसूदन: कृष्ण; भनइ: कहते हैं; वन्दह: वन्दना करना।

संदर्भ: प्रस्तुत पद्यांश आदिकालीन कवि विद्यापति द्वारा रचित है। यह पद उनकी ‘पदावली’ के ‘वंशी माधुरी’ खंड में संकलित है।

प्रसंग: विद्यापति ने इस पद में कृष्ण की वंदना करने के साथ उनकी व्यथा, राधा से मिलने की आतुरता आदि का वर्णन किया है। ऐसे पद बहुत कम मिलते हैं जिसमें कृष्ण के विरह और व्याकुलता को दर्शाया गया हो।

व्याख्या: राधा से उसकी सखी कृष्ण की विरह-वेदना को बताते हुए कहती है कि नंद के पुत्र श्रीकृष्ण कदंब के पेड़ के नीचे धीरे-धीरे बाँसुरी बजा रहे हैं। वे नियत समय पर मिलने के सांकेतिक स्थान पर अर्थात जहाँ पर हमेशा तुमसे मिला करते थे, वहीं बैठ गये हैं। राधा की सखी कहती है कि हे सुंदरी कृष्ण अपनी बाँसुरी से तुम्हे बार-बार पुकार रहे हैं। अर्थात तुम्हें बुला रहे हैं। हे सुंदरी तुम्हारे प्रेम में कृष्ण व्याकुल हैं, तुम्हारी स्मृति उन्हें प्रतिक्षण और अधिक व्याकुल कर रही है। यमुना नदी के किनारे उपवन में व्याकुल कृष्ण बार-बार तुम्हारे आने वाले मार्ग की तरफ देख रहे हैं। यही नहीं आस-पास से गुजरने वाले सभी पथिकों और दूध-दही बेचने वाले प्रत्येक व्यक्ति से तुम्हारे बारे में पूछ रहे हैं। हे सखी तुम कुछ मेरी बात भी सुनो, तुम दोनों बुद्धिमान हो इसलिए तुम मान मत करो। कवि विद्यापति कहते हैं कि हे राधा तुम्हारी बाँट जोहते हुए नंद किशोर (कृष्ण) तुम्हारी बंदना कर रहे हैं।

विशेष:

  1. पदावली का यह पद मंगलाचरण है।
  2. इस पद की भाषा मैथिली है।
  3. ‘धीरे-धीरे’ बाँसुरी बजाने में कृष्ण की राधा से मिलने की आतुरता और लोक-लाज का भय मुखरित हुआ है।
  4. नंदक-नंदन में यमक और धीरे-धीरे, बेरी-बेरी, फिर-फिर तथा जनि-जनि में वीप्सा अलंकार है।

पद 11: देख-देख राधा-रूप अपार- विद्यापति

देख-देख राधा-रूप अपार।
अपरूब के बिहि आनि मिलाओल खिति तल लाबनि-सार।
अंगहि अंग अनंग मुरछायत हेरए पड़ए अथीर।
मनमथ कोटि मथन करु जे जन से हेरि महि मधि गीर।
कत-कत लखिमी चरण-तल नेओछए रंगिनी हेरि विभोरी।
करु अभिलाख मनहि पद-पंकज अहोनिसि कोर अगोरि।

dekh-dekh raadha-roop apar- vidyapati pad

शब्दार्थ: अपरूब: अपूर्व रूप, सुंदर; बिहि: विधि, ब्रह्मा; आनि मिलाओल: लाकर मिला दिया; खिति तल: क्षितिज, पृथ्वी; लाबनि-सार: लावण्य का सार; अनंग: कामदेव; हेरए- देखकर; अथीर: अधीर, अस्थिर, चंचल; मनमथ: कामदेव; मधि: मध्य; लखिमी: लक्ष्मी; नेओछए: न्यौछावर होना; रंगिनी: सुन्दरी; विभोर: मुग्ध; अहोनिसि: अहर्निश, रात-दिन; कोर: गोद; अगोरि: अगोरते हुए, रखवाली देना, पहरा देना।

संदर्भ: प्रस्तुत पंक्तियों के रचनाकार मैथिल कोकिला विद्यापति हैं। उपरोक्त पद उनकी ‘पदावली’ के ‘रूप वर्णन’ खंड में संकलित है।

प्रसंग: विद्यापति ने इस पद में राधा के रूप-रंग का सुंदर चित्रण किया है। कवि ने राधा की सुंदरता का वर्णन करते हुए यह दिखाया है कि उनकी सुंदरता के सामने कामदेव और कृष्ण से लेकर लक्ष्मी तक उनके चरणों के बराबर भी नहीं हैं।

व्याख्या: हे सखी राधा के रूप की अपार सुंदरता को देखो! ऐसा लग रहा है कि विधाता ने क्षितिज और पृथ्वी के सुंदरतम् तत्वों को लेकर इस अपूर्व सौंदर्य को रचा है। राधा के प्रत्येक अंग की सुंदरता को देखकर सौंदर्य के देवता कामदेव मूर्छा खाकर व्याकुल हो जाते हैं। करोड़ों कामदेवों के सौंदर्य को मथ कर जिस कृष्ण का सौंदर्य बना है, वे भी राधा के अपूर्व सौंदर्य से मूर्छित होकर पृथ्वी में मध्य में गिर जाते हैं। सुंदरी राधा का रूप इतना आकर्षक और मुग्ध करने वाला है कि उनके चरणों में कितनी ही लक्ष्मी का सौंदर्य न्यौछावर हो जाता है। कवि विद्यापति कहते हैं कि मेरे मन में यह अभिलाषा उत्पन्न होने लगती है कि वे कमल के सामान इन चरणों को अपनी गोद में रखकर दिन-रात रखवाली (सेवा) करें।

विशेष:

  1. राधा की सौंदर्यातिशयोक्ति वर्णन और कृष्ण का अत्युक्ति वर्णन हुआ है।
  2. मथिली भाषा का प्रयोग।
  3. ‘अपरूब के बिहि’ में गम्योत्प्रेक्षा अलंकार, ‘अंगहि अंग अनंग’ में वृत्त्यनुप्रास है।

पद 14: चाँद-सार लए मुख घटना करु- विद्यापति

चाँद-सार लए मुख घटना करु लोचन चकित चकोरे।
अमिय धोय आँचर धनि पोछलि दह दिसि भेल उँजोरे।
जुग-जुग के बिहि बूढ़ निरस उर कामिनी कोने गढ़ली।
रूप सरूप मोयँ कहइत असंभव लोचन लागि रहली।
गुरु नितम्ब भरे चलए न पारए माझ खानि खीनि निमाई।
भाँगि जाइत मनसिज धरि राखलि त्रिबलि लता अरुझाई।
भनइ विद्यापति अद्भुत कौतुक ई सब वचन सरूपे।
रूप नारायण ई रस जानथि सिबसिंघ मिथिला भूपे।

chand-sar lae mukh ghatana- vidyapati pad

शब्दार्थ: चाँदसार: चंद्रमा का सार तत्व; घटना करू- रचना कर; अमिय: अमृत; आँचर: आँचल; धनि: स्त्री, नायिका; पोछलि- पोंछा; उँजोरे: प्रकाशित; कोने: किसने; गढ़ली: रचना की; सरूप: प्रत्यक्ष; रहली: लगे रह गये; भरे: भार से; माझ खानि: मध्य भाग में; खीनि: क्षीर; निमाई: निर्माण की; भाँगि जाइत: भंग हो जाएगी; त्रिबलि लता: पेट में पड़ी तीन रेखाएँ; अरुझाई- उलझाकर, लपेटकर; जानथि: जानते हैं।

संदर्भ: प्रस्तुत पद्यांश के रचनाकार मैथिल कोकिला विद्यापति हैं। उपरोक्त पद उनकी ‘पदावली’ के ‘रूप वर्णन’ खंड में संकलित है।

प्रसंग: विद्यापति ने इस पद में नायिका के रूप में राधा के अपूर्व सुंदरता का मनोयोग से चित्रण किया है। राधा की सुंदरता का चित्रण करने में उन्होंने अपनी सारी कल्पना को लगा दिया। इस पद में नायिका की सखी या दूती नायक से नायिका की शोभा का वर्णन कर रही है।

व्याख्या: हे सखी विधाता ने चंद्रमा का सार तत्व लेकर उस सुंदरी (राधा) के मुख की रचना की है जिसे देखकर चकोर (रसज्ञ) की आँख भी चकित हो गई। उस सुंदरी ने अमृत जल से धोकर जब अपने मुख को आंचल से पोंछा तो दसों दिशाओं में उसके मुख-चंद्र का प्रकाश फैल गया। युगों-युगों के विधाता जब बूढ़े और नीरस हो गए हैं तब इस सुंदरी की रचना किसने की? इस सुंदरी के रूप सौंदर्य का वर्णन करना मेरे लिए असंभव है क्योंकि मेरे नेत्र उसे देखने में लगे हुए हैं। वह गुरु नितम्बों के भार से चल नहीं पा रही ऊपर से विधाता ने उसके मध्य भाग (कटि) को इतना क्षीण बना दिया है। नितम्बों के भार से उसका कटि कहीं टूट न जाए। इसीलिए कामदेव ने त्रिबलि रूपी लता में उलझाकर उसे बाँध रखा है। कवि विद्यापति कहते हैं कि मैंने जिस रूप सौंदर्य का वर्णन किया है वह अनूठा और कौतुहल से भरा हुआ है। मिथिला के रूप नारायण राजा शिवसिंह इस रूप-रस को जानते हैं।

विशेष:

  1. यह पद मैथिली भाषा में रचित है।
  2. ‘चाँद-सार लए मुख घटना करु लोचन चकित चकोरे।’ में दीपक अलंकार है।
  3. ‘लोचन चकित चकोरे।’ में व्यक्तिरेक अलंकार है।

पद 24: बदन चाँद तोर नयन चकोर मोर

बदन चाँद तोर नयन चकोर मोर
रूप अमिय-रस पीवे।
अधर मधुर फुल पिया मधुकर तुल
बिनु मधु कत खन जीवे॥
मानिन मन तोर गढ़ल पसाने।
कके न रभसे हसि किछु न उतरि देसि
सुखे जाओ निसि अवसाने॥
परमुखे न सुनसि निअ मने न गुनसि
न बुझसि लडलरी बानी।
अपन अपन काज कहइत अधिक लाज
अरथित आदर हानी॥
कवि भन विद्यापति अरेरे सुनु जुवति
नहे नूतन भेल माने।
लखिमा देह पति सिवसिंघ नरपति
रूपनरायण जाने।

badan chand tor nayan chakor mor- vidyapati pad

शब्दार्थ: तुल: तुल्य, समान; कत खन: कितने क्षण; मानिन: जैसे, समान; गढ़ल: निर्मित हुआ है; पसाने: पाषाण से; कके: किसको; रभसे- शोभायुक्त ढंग से; देसि: देती है; निअ: अपने; गुनसि: सोचती है; बुझसि: समझती है। लडलरी: प्रेमयुक्त; अरथित आदर हानी: ज्यादा स्पष्ट कहने से हानि होगी।

संदर्भ: प्रस्तुत पंक्तियाँ ‘पदावली’ के ‘रूप वर्णन’ खंड में संकलित हैं, जिसके रचनाकार मैथिल कोकिल विद्यापति हैं।

प्रसंग: इस पद में कवि विद्यापति ने नायिका के अपूर्व सुंदरता का मनोयोग से चित्रण किया है। नायक बार-बार उसे रिझाने का प्रयास करता है परंतु वह उस पर ध्यान नहीं दे रही है।

व्याख्या: हे सुंदरी तुम्हारा बदन (मुख) चंद्रमा के सामान सुंदर है और मेरे नयन (नेत्र) चकोर के सामान हैं। चकोर रूपी मेरे नेत्र तुम्हारे अमृत रूपी सौंदर्य का रसपान करते रहते हैं। तुम्हारे होंठ फूल के समान मधुर हैं और मैं भँवरा रूपी प्रीयतम हूँ। बिना मधु पान किए भला यह भौरा कितने क्षण जीवित रहे। तुम्हारा मन (ह्रदय) पाषाण (पत्थर) से गढ़ा (निर्मित) हुआ है। तुम किसी को भी शोभामान अर्थात ठीक ढंग से हँस कर कुछ भी उत्तर नहीं देती हो। तुम हँसते हुए ऐसा जाओ की सुख से रात कट (बीत) जाए। तुम दूसरों के मुख की बात नहीं सुनती हो और न ही उस पर अपने मन में विचार करती हो। और तुम न ही इस रसिक की प्रेमयुक्त बात को समझती हो। अपने काम को स्वयं कहने से और अधिक लज्जा होती है और ज्यादा स्पष्ट बोलने से स्वयं की आदरहानि होती है। कवि विद्यापति कहते हैं कि अरे युवती सुन, भले ही तुम इस प्रेम को न मानों लेकिन लखिमा देवी के पति राजा शिवसिंह रूपनारायण यह जानते हैं।

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