शिवशंभु के चिट्ठे निबंध- बालमुकुंद गुप्त

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3. वैसराय का कर्तव्य

माई लार्ड! आपने इस देश में फिर पदार्पण किया, इससे यह भूमि कृतार्थ हुई। विद्वान बुद्धिमान और विचारशील पुरुषों के चरण जिस भूमि पर पड़ते हैं, वह तीर्थ बन जाती है। आप में उक्त तीन गुणों के सिवा चौथा गुण राजशक्ति का है। अत: आपके श्रीचरण-स्पर्श से भारत भूमि तीर्थ से भी कुछ बढ़कर बन गई। आप गत मंगलवार को फिर से भारत के राजसिंहासन पर सम्राट के प्रतिनिधि बनकर विराजमान हुए। भगवान आपका मंगल करे और इस पतित देश के मंगल की इच्छा आपके हृदय में उत्पन्न करे।

बम्बई में पांव रखते ही आपने अपने मन की कुछ बात कह डाली हैं। यद्यपि बम्बई की म्यूनिसिपलिटी ने वह बातें सुनने की इच्छा अपने अभिनन्दन पत्र में प्रकाशित नहीं की थी, तथापि आपने बेपूछे ही कह डालीं। ठीक उसी प्रकार बिना बुलाये यह दीन भंगड़ ब्राह्मण शिवशम्भु शर्मा तीसरी बार अपना चिट्ठा लेकर आपकी सेवामें उपस्थित है। इसे भी प्रजा का प्रतिनिधि होने का दावा है। इसी से यह राज प्रतिनिधि के सम्मुख प्रजा का कच्चा चिट्ठा सुनाने आया है। आप सुनिये न सुनिये, यह सुनाकर ही जावेगा।

अवश्य ही इस देश की प्रजाने इस दीन ब्राह्मण को अपनी सभा में बुलाकर कभी अपने प्रतिनिधि होने का टीका नहीं किया और न कोई पट्टा लिख दिया है। आप जैसे बाजाब्ता राज-प्रतिनिधि हैं वैसा बाजाब्ता शिवशम्भु प्रजा का प्रतिनिधि नहीं है आपको सम्राट ने बुलाकर अपना वैसराय फिर से बनाया। विलायती गजट में खबर निकली। वही खबर तार द्वारा भारत में पहुंची। मार्ग में जगह-जगह स्वागत हुआ। बम्बई में स्वागत हुआ। कलकत्ते में कई बार गजट हुआ। रेल से उतरते और राजसिंहासन पर बैठते समय दो बार सलामी की तोपें सर हुईं। कितने ही राजा, नवाब, बेगम आपके दर्शनार्थ बम्बई पहुंचे। बाजे बजते रहे, फौजें सलामी देती रहीं। ऐसी एक भी सनद प्रजा-प्रतिनिधि होने की शिवशम्भु के पास नहीं है। तथापि वह इस देश की प्रजा का यहां के चिथड़ा-पोश कंगालों का प्रतिनिधि होने का दावा रखता है। क्योंकि उसने इस भूमि में जन्म लिया है। उसका शरीर भारत की मट्टी से बना है और उसी मट्टी में अपने शरीर की मट्टी को एक दिन मिला देने का इरादा रखता है। बचपन में इसी देश की धूल में लोटकर बड़ा हुआ, इसी भूमि के अन्न-जल से उसकी प्राणरक्षा होती है। इसी भूमि से कुछ आनन्द हासिल करने को उसे भंग की चन्द पत्तियां मिल जाती है। गांव में उसका कोई झोंपड़ा नहीं है। जंगल में खेत नहीं है। एक पत्तीपर भी उसका अधिकार नहीं है। पर इस भूमि को छोड़कर उसका संसार में कहीं ठिकाना भी नहीं है। इस भूमि पर उसका जरा स्वत्व न होने पर भी इसे वह अपनी समझता है।

शिवशम्भु को कोई नहीं जानता। जो जानते हैं, वह संसार में एकदम अनजान हैं। उन्हें कोई जानकर भी जानना नहीं चाहता। जानने की चीज शिवशम्भु के पास कुछ नहीं है। उसके कोई उपाधि नहीं, राजदरबार में उसकी पूछ नहीं। हाकिमों से हाथ मिलाने की उसकी हैसियत नहीं, उनकी हां में हां मिलाने की उसे ताब नहीं। वह एक कपर्दक-शून्य घमण्डी ब्राह्मण है। हे राजप्रतिनिधि। क्या उसकी दो चार बातें सुनियेगा?

आपने बम्बई में कहा है कि भारतभूमि को मैं किस्सा-कहानी की भूमि नहीं, कर्तव्यभूमि समझता हूं। उसी कर्तव्य के पालन के लिये आपको ऐसे कठिन समय में भी दूसरी बार भारत में आना पड़ा। माई लार्ड! इस कर्तव्य भूमि को हम लोग कर्मभूमि कहते है। आप कर्तव्य-पालन करने आये हैं और हम कर्मो का भोग भोगने। आपके कर्तव्य-पालन की अवधि है, हमारे कर्मभोग की अवधि नहीं। आप कर्तव्य-पालन करके कुछ दिन पीछे चले जावेंगे। हमें कर्म के भोग भोगते-भोगते यहीं समाप्त होना होगा और न जाने फिर भी कब तक वह भोग समाप्त होगा। जब थोड़े दिन के लिए आपका इस भूमि से स्नेह है तो हम लोगों का कितना भारी स्नेह होना चाहिए, यह अनुमान कीजिये। क्योंकि हमारा इस भूमि से जीने-मरने का साथ है।

माई लार्ड! यद्यपि आपको इस बात का बड़ा अभिमान है कि अंग्रेजों में आपकी भांति भारतवर्ष के विषय में शासन नीति समझने-वाला और शासन करने वाला नहीं है। यह बात विलायत में भी आपने कई बार हेर-फेर लगाकर कही और इस बार बम्बई में उतरते ही फिर कही। आप इस देश में रहकर 72 महीने तक जिन बातों की नीव डालते रहे, अब उन्हें 24 मास या उससे कम में पूरा कर जाना चाहते है। सरहदों पर फौलादी दीवार बना देना चाहते हैं, जिससे इस देश की भूमि को कोई बाहरी शत्रु उठाकर अपने घर में न लेजावे। अथवा जो शान्ति आपके कथनानुसार धीरे-धीरे यहां संचित हुई है, उसे इतना पक्का कर देना चाहते हैं कि आपके बाद जो वैसराय आपके राजसिंहासन पर बैठे उसे शौकीनी और खेल-तमाशे के सिवा दिन में और नाच, बाल या निद्रा के सिवा रातको कुछ करना न पड़ेगा। पर सच जानिये कि आपने इस देश को कुछ नहीं समझा, खाली समझने की शेखी में रहे और आशा नहीं कि इन अगले कई महीनों में भी कुछ समझें। किन्तु इस देश ने आपको खूब समझ लिया और अधिक समझने की जरूरत नहीं रही। यद्यपि आप कहते हैं, कि यह कहानी का देश नहीं कर्तव्यका देश है, तथापि यहां की प्रजाने समझ लिया है कि आपका कर्तव्य ही कहानी है। एक बड़ा सुन्दर मेल हुआ था, अर्थात आप बड़े घमण्डी शासक हैं और यहां की प्रजा के लोग भी बड़े भारी घमण्डी। पर कठिनाई इसी बात की है कि दोनों का घमण्ड दो तरह का है। आपको जिन बातों का घमण्ड है, उनपर यहां के लोग हँस पड़ते हैं। यहां के लोगों को जो घमण्ड है, उसे आप समझते नहीं और शायद समझेंगे भी नहीं।

जिन आडम्बरों को करके आप अपने मन में बहुत प्रसन्न होते हैं या यह समझ बैठते हैं कि बड़ा कर्तव्य-पालन किया, वह इस देश की, प्रजा की दृष्टि में कुछ भी नहीं है। वह इतने आडम्बर देख सुन चुकी और कल्पना कर चुकी है कि और किसी आडम्बर का असर उस पर नहीं हो सकता। आप सरहद को लोहे की दीवार से मजबूत करते हैं। यहां की प्रजाने पढ़ा है कि एक राजा ने पृथ्वी को काबू में करके स्वर्ग में सीढ़ी लगानी चाही थी। आप और लार्ड किचनर मिलकर जो फौलादी दीवार बनाते हैं, उससे बहुत मजबूत एक दीवार लार्ड केनिंग बना गये थे। आपने भी बम्बई की स्पीच में केनिंग का नाम लिया है। आज 46 साल हो गये, वह दीवार अटल अचल खड़ी हुई है। वह स्वर्गीया महाराणी का घोषणापत्र है, जो 1 नवम्बर 1858 ई. को केनिंग महोदय ने सुनाया था। वही भारतवर्ष के लिये फौलादी दीवार है। वही दीवार भारत की रक्षा करती है। उसी दीवार को भारतवासी अपना रक्षक समझते हैं। उस दीवार के होते आपके या लार्ड किचनर के कोई दीवार बनाने की जरूरत नहीं है। उसकी आड़ में आप जो चाहे जितनी मजबूत दीवारों की कल्पना कर सकते हैं। आडम्बर से इस देश का शासन नहीं हो सकता। आडम्बर का आदर इस देश की कंगाल प्रजा नहीं कर सकती। आपने अपनी समझ में बहुत-कुछ किया, पर फल यह हुआ कि विलायत जाकर वह सब अपने ही मुंह से सुनाना पड़ा। कारण यह कि करने से कहीं अधिक कहने का आपका स्वभाव है। इससे आपका करना भी कहे बिना प्रकाशित नहीं होता। यहां की अधिक प्रजा ऐसी है जो अबतक भी नहीं जानती कि आप यहां के वैसराय और राजप्रतिनिधि हैं और आप एक बार विलायत जाकर फिर से भारत में आये हैं। आपने गरीब प्रजा की ओर न कभी दृष्टि खोलकर देखा, न गरीबों ने आपको जाना। अब भी आपकी बोतों से आपकी वह चेष्टा नहीं पायी जाती। इससे स्मरण रहे कि जब अपने पद को त्यागकर आप फिर स्वदेश में जावेंगे तो चाहे आपको अपने कितने ही गुण कीर्तन करने का अवसर मिले, यह तो कभी न कह सकेंगे कि कभी भारत की प्रजाका मन भी अपने हाथ में किया था।

यह वह देश है, जहां की प्रजा एक दिन पहले रामचन्द्र के राजतिलक पाने के आनन्द में मस्त थी और अगले दिन अचानक रामचन्द्र बन को चले तो रोती-रोती उनके पीछे जाती थी। भरत को उस प्रजा का मन प्रसन्न करने के लिये कोई भारी दरबार नहीं करना पड़ा, हाथियों का जुलूस नहीं निकलना पड़ा, बरंच दौड़कर बन में जाना पड़ा और रामचन्द्र को फिर अयोध्या में लाने का यत्न करना पड़ा। जब वह न आये तो उनकी खड़ाऊं को सिरपर धरकर अयोध्या तक आये और खड़ाउओं को राजसिंहासन पर रखकर स्वयं चौदह साल तक वल्कल धारण करके उनकी सेवा करते रहे। तब प्रजा ने समझा कि भरत अयोध्या का शासन करने के योग्य है।

माई लार्ड! आप वत्कृता देने में बड़े दक्ष हैं। पर यहां वत्कृता कुछ और ही वजन है। सत्यवादी युधिष्ठिर के मुख से जो निकल जाता था, वही होता था। आयु भर में उसने एक बार बहुत भारी पोलिटिकल जरूरत पड़ने से कुछ सहज-सा झूठ बोलने की चेष्टा की थी। वही बात महाभारत में लिखी हुई है। जब तक महाभारत है, वह बात भी रहेगी। एक बार अपनी वत्कृताओं से इस विषय को मिलाइये और फिर विचारिये कि इस देश की प्रजा के साथ आप किस प्रकार अपना कर्तव्यपालन करेंगे। साथ ही इस समय इस अधेड़ भंगड़ ब्राह्मण को अपनी भांग बूटी की फिकर करने के लिये आज्ञा दीजिये।

भारतमित्र, 17 सितम्बर, 1904 ई.

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