अलंकार क्या है
काव्य की शोभा बढ़ानेवाले उपकरणों को अलंकार करते हैं। जैसे अलंकरण धारण करने से शरीर की शोभा बढ़ जाती है, वैसे ही अलंकरण के प्रयोग से काव्य में चमक उत्पन्न हो जाती है। संस्कृत आचार्य दंडी के अनुसार ‘अलंकार काव्य का शोभाकारक धर्म है’ और आचार्य वामन के अनुसार ‘अलंकार ही सौंदर्य है।’ रीतिकालीन आचार्य केशवदास के अनुसार-
‘भूषण बिन न बिराजहीं कविता, बनिता मित्त।’
वहीं अभिनवगुप्त के अनुसार, “यदि शव को गहने पहना दिए जाएँ, या साधु सोने की छड़ी धारण कर ले तो वह सुंदर नहीं हो सकता। अथार्त अलंकार सौंदर्य की वृद्धि करता है, सुंदर की सृष्टि नहीं कर सकता।”[1]
आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार, “कथन की रोचक, सुंदर और प्रभावपूर्ण प्रणाली अलंकार है। गुण और अलंकार में यह अंतर है की गुण सीधे रस का उत्कर्ष करते हैं, अलंकार सीधे रस का उत्कर्ष नहीं करते हैं।”[2]
अत: भले ही अलंकार को काव्य का आवश्यक अंग माना गया है, परंतु यह वर्णन शैली की विशेषता है।
अलंकार के भेद
कवि शब्द और अर्थ में विशेषता लाकर अपने काव्य को प्रभावकारी बनाते हैं। इसी आधार पर अलंकार के दो भेद किए गये हैं-
क. शब्दालंकार, ख. अर्थालंकार।
जब केवल शब्दों में चमत्कार पाया जाता है तब शब्दालंकार और जब अर्थ में चमत्कार होता है तब अर्थालंकार कहलाता है। इसके अतिरिक्त जहाँ शब्द और अर्थ दोनों में किसी प्रकार की विशेषता प्रतीत हो, वहाँ उभयालंकार माना जाता है।
शब्दालंकार के भेद
‘शब्दालंकार 7 प्रकार के होते हैं। इनमें अनुप्रास, यमक, श्लेष तथा वक्रोक्ति मुख्य हैं।’[3] इनका परिचय यहाँ दिया जा रहा है-
1. अनुप्रास अलंकार
‘जहाँ व्यंजन वर्णों की आवृत्ति होती है वहाँ अनुप्रास अलंकार होता है।’ अर्थात जहाँ किसी पंक्ति के शब्दों में एक ही वर्ण की अनेक बार क्रम से आवृत्ति हो वहां अनुप्रास अलंकार होता है। उदाहरण-
‘तरनि-तनूजा तट तमाल-तरुवर बहु छाए।’इस पंक्ति में ‘त’ वर्ण की आवृत्ति से अनुप्रास अलंकार है।
अन्य उदाहरण-
i. ‘चारू चंद्र की चंचल किरणें खेल रही हैं जल थल में।’
ii. ‘पावस ऋतु थी पर्वत प्रदेश,पल पल परिवर्तित प्रकृति वेश।’
अनुप्रास के 5 भेद हैं- a. छेकानुप्रास, b. वृत्यानुप्रास, c. लाटानुप्रास, d. अन्त्यानुप्रास, e. श्रुत्यानुप्रास। इनमें 3 ही महत्वपूर्ण हैं-
a. छेकानुप्रास
जहाँ कोई वर्ण किसी पंक्ति में केवल दो बार आये, वहाँ पर छेकानुप्रास होता है, जैसे-
‘इस करुणा कलित हृदय में अब विकल रागिनी बजती।’
b. वृत्यानुप्रास
जहाँ किसी वर्ण की आवृत्ति वृतियों के अनुसार हो वहाँ वृत्यानुप्रास अलंकार होता है, जैसे-
i. ‘रघुनंद आनंद कंद कोशल चंद दशरथ नंदनम्।’
ii. ‘चामर-सी, चन्दन–सी, चंद–सी,चाँदनी चमेली चारु चंद-सुघर है।’
iii. कुलनि में केलि में कछारन में कुंजन मेंक्यारिन में कलित कलीन किलंकत है।वीथिन में ब्रज में नवेलिन में बेलिन मेंबनन में बागन में बगरयो बसंत है।
c. लाटानुप्रास
इसमें ऐसे शब्द या वाक्य दुबारा आते हैं, जिनका सामान्य अर्थ एक ही होता है, किंतु अन्वय करने पर पुरी उक्ति का अर्थ बदल जाता है, जैसे-
i. ‘तेगबहादुर, हाँ, वे ही थे गुरु-पदवी के पात्र समर्थ,तेगबहादुर, हाँ, वे ही थे गुरु-पदवी थी जिनके अर्थ।’
ii. ‘पूत सपूत तो क्यों धन संचिय?पूत कपूत तो क्यों धन संचिय?’
2. यमक अलंकार
‘जहाँ पर एक ही शब्द की अनेक बार भिन्न अर्थों में आवृत्ति हो वहाँ पर यमक अलंकार होता है।’ अर्थात जब किसी पंक्ति में एक ही शब्द दो या दो से अधिक बार आये और हर बार उसका अर्थ भिन्न हो तब यमक अलंकार होता है।
उदाहरण-
‘खग-कुल कुल-कुल सा बोल रहा।किसलय का अंचल डोल रहा।।’
यहाँ प्रथम ‘कुल’ शब्द का अर्थ समूह है। द्वितीय, तृतीय कुल-कुल शब्द पक्षियों के कुल-कुल कलरव के सूचक हैं। ‘कुल’ शब्द के भिन्न अर्थों में प्रयुक्त होने के कारण यहाँ यमक अलंकार है।
अन्य उदाहरण
i. ‘सजना है मुझे सजना के लिए।’(सजना- श्रृंगार, नायक)
ii. ‘कनक कनक ते सौ गुनी, मादकता अधिकाय।वा खाये बौराय नर, या पाये बौराय।।’(कनक- स्वर्ण, धतूरा)
iii. ‘केकी रव की नूपुर ध्वनि सुनजगती, जगती की भूख प्यास।’(जगती- जागना, पृथ्वी)
3. श्लेष अलंकार
‘जहाँ किसी शब्द के एक से अधिक अर्थ निकलें, वहाँ श्लेष अलंकार होता है।’ श्लेष का अर्थ ही होता है चिपका हुआ, यहाँ पर एक ही शब्द कई अर्थों को लिए हुए होता है।
उदाहरण-
‘रहिमन पानी राखिए, बिनु पानी सब सून।पानी गये न ऊबरे, मोती मानुष चून।।’
इस उदाहरण में तीसरा ‘पानी’ शब्द श्लिष्ट है और इसके यहाँ तीन अर्थ हैं- चमक (मोती के पक्ष में), प्रतिष्ठा (मनुष्य के पक्ष में), जल (चूने के पक्ष में), अतः इस दोहा में ‘श्लेष’ अलंकार है।
अन्य उदाहरण-
i. ‘चिर जीवौ जोरी जुरै, क्यों न सनेह गंभीर।को घटि, ये वृषभानुजा, वे हलधर के वीर।।’
(वृषभानुजा- राधा, बैल की बहन, हलधर- बैल, बलराम)
ii. ‘चरन धरत चिंता करत, फिर चितवत चहुँ ओर।सुबरन को ढूँढ़त फिरत, कवि व्यभिचारी चोर।।’
(सुबरन- अच्छे शब्द, अच्छा रूप-रंग, स्वर्ण)
iii. ‘मेरी भव-बाधा हरौ, राधा नागरि सोइ।जा तन की झाई परै-श्यामु हरित, दुति होय।।’
(झाई- छाया, स्याम- श्याम, दुति- प्रकाश)
4. वक्रोक्ति अलंकार
‘जहाँ बात किसी एक आशय से कही जाय और सुनने वाला उससे भिन्न दूसरा अर्थ लगा दे, वहाँ वक्रोक्ति अलंकार होता है।’ अर्थात वक्ता के द्वारा बोले गए शब्दों का श्रोता अलग अर्थ निकाल ले तो उसे वक्रोक्ति अलंकार कहते है।
वक्रोक्ति अलंकार 2 प्रकार का होता है- a. श्लेष वक्रोक्ति और b. काकु वक्रोक्ति
a. श्लेष वक्रोक्ति अलंकार
‘जहाँ उक्ति की वक्रता का आधार श्लेष हो, वहाँ श्लेष वक्रोक्ति होती है। इसमें श्लेष के दो अर्थों में से वक्ता एक अर्थ ग्रहण करता है, श्रोता दूसरा।’
उदाहरण-
‘को तुम हो? इत आये कहाँ?घनस्याम हैं, तो कितहूँ बरसो।’
कृष्ण ने राधा से अपना परिचय देते हुए कहा की मैं ‘घनश्याम’ हूँ। घनश्याम का एक अर्थ काले बादल भी होता है। राधा ने शरारत से कहा कि यदि घनश्याम हो तो यहाँ तुम्हारा क्या काम है, कहीं जाकर बरसो।
b. काकु वक्रोक्ति अलंकार
‘जहाँ कहे हुए वाक्य का कंठ की ध्वनि के कारण दूसरा अर्थ निकले, वहाँ काकु वक्रोक्ति होती है।’
उदाहरण-
i. ‘मैं सुकुमारि, नाथ बन जोगू।तुमहिं उचित तप, मो कह भोगू।।’
ii. ‘राम लखन सिय कहँ बन दीन्हा।पठै अमरपुर पति हित कीन्हा।।’
अर्थालंकार के भेद
अर्थालंकारों की संख्या नियत नहीं है, महत्वपूर्ण अर्थालंकार निम्नलिखित हैं-
1. उपमा, 2. रूपक, 3. उत्प्रेक्षा, 4. प्रतीप, 5. व्यतिरेक, 6. असंगति, 7. निदर्शना, 8. विभावना, 9. दृष्टांत, 10. उदहारण, 11. उल्लेख, 12. संदेह, 13. भ्रांतिमान 14. विरोधाभाष 15. अतिशयोक्ति 16. अन्योक्ति, 17. समासोक्ति, 18. विशेषोक्ति, 19. दीपक, 20. मानवीकरण
1. उपमा अलंकार
‘दो वस्तुओं में जहाँ समानता (तुलना) का भाव व्यक्त किया जाता है, वहाँ उपमा अलंकार होता है।’ उदाहरण-
‘सीता का मुख चंद्रमा के समान सुंदर है।’
यहाँ पर सीता के मुख की सुंदरता को बढ़ा कर बताने के लिए चंद्रमा का प्रयोग किया गया है। दोनों में सुंदरता के कारण संबंध बताया गया है। इस संबंध की सूचना ‘समान’ शब्द से दी गई है। इस तरह उपमा के चार अंग होते हैं-
क. उपमेय
जिसकी तुलना की जाती है, उसे उपमेय (वर्ण्यवस्तु) कहते हैं, जैसे यहाँ सीता का मुख।
ख. उपमान
वर्ण्यवस्तु की शोभा बढ़ाने के लिए जिससे तुलना की जाती है, उसे उपमान (अप्रस्तुत) कहते हैं, जैसे यहाँ चंद्रमा।
ग. साधारण धर्म
जिस विशेषता की समानता के कारण उपमेय-उपमान में तुलना की जाती है, उसे साधारण धर्म कहते हैं, जैसे उपर सुंदरता।
घ. वाचक
जिस शब्द के कारण यह तुलना (उपमेय-उपमान के बीच) प्रगट होती है उसे वाचक कहते हैं, जैसे यहाँ के समान।
उपमा अलंकार के भेद
उपमा अलंकार के 2 भेद होते हैं- क. पूर्णोपम अलंकार, ख. लुप्तोपमा अलंकार
क. पूर्णोपम अलंकार
जहाँ इन चारों अंगों (उपमेय, उपमान, धर्म और वाचक) का प्रयोग किया जाता है, वहाँ पूर्णोपम अलंकार कहते हैं।
उदाहरण-
‘छत्र-सा सिर पर उठा था प्राणपति का हाँथ।’
(उपमेय- हाथ, उपमान- छत्र, वाचक- सा, किंतु साधारण धर्म- उठा था)
अन्य उदाहरण–
‘सागर-सा गंभीर ह्रदय हो,गिरी-सा ऊँचा हो जिसका मन।’
ख. लुप्तोपमा अलंकार
जब उपमा के इन चारों अगों (उपमेय, उपमान, धर्म और वाचक) में से यदि कोई लुप्त होता है तो उसे लुप्तोपमा अलंकार कहते हैं। जो अंग लुप्त होगा उसी के अनुसार उसका नाम हो जाता है, जैसे उपमेय लुप्तोपमा, उपमान लुप्तोपमा, धर्म लुप्तोपमा और वाचक लुप्तोपमा
उदाहरण-
‘यह किसलय से अंगवाला कहाँ है?’ -हरिऔध
(उपमेय- अंग, उपमान- किसलय, वाचक- से, किंतु साधारण धर्म- कोमल नहीं है)
2. रूपक अलंकार
जहाँ उपमेय पर उपमान का आरोप करते हुए दोनों में अभेद बताया जाय, वहाँ पर रूपक अलंकार होता है। उपमेय और उपमान दोनों की एकरूपता प्रदर्शित करना ही इस अलंकार का प्रमुख धर्म है। जैसे- मुख-चंद्र, यहाँ आशय है- मुख ही चंद्रमा है।
अन्य उदाहरण–
i. ‘अम्बर-पनघट में डुबो रही तारा-घट ऊषा-नागरी।’
(यहाँ अम्बर में पनघट, तारा में घट और ऊषा में नागरी का आरोप किया गया है।)
ii. ‘उदित उदय गिरि मंच पर, रघुवर बाल पतंग।विकसे संत सरोज सब, हरषे लोचन भृंग।।’
iii. इकटक सब चितवहिं तेहिं ओरा।रामचंद्र मुख-चंद्र-चकोरा।।
3. उत्प्रेक्षा अलंकार
‘जहाँ उपमेय में उपमान की संभावना या कल्पना की जाती है, वहाँ उत्प्रेक्षा अलंकार होता है।’ प्रायः इसमें मनु, मानो, मानहु, जनु, जानो, जानहु, निश्चय, इव आदि का प्रयोग होता है।
उदाहरण–
‘सोहत ओढ़े पीत पट स्याम सलोने गात।मनो नीलमनि सैल पर आतप परयो प्रभात।।’
पीला वस्त्र ओढ़े हुए श्री कृष्ण ऐसे सुशोभित हो रहे जैसे नीलमणि पर्वत पर प्रभात किरण पड़ रही हो। यहाँ पीत वस्त्रधारी कृष्ण (उपमेय) में प्रभात की किरण से सुशोभित नीलमणि पर्वत की संभावना की गई है।
उत्प्रेक्षा अलंकार के भेद
उत्प्रेक्षा अलंकार के 3 भेद हैं- क. वस्तूत्प्रेक्षा, ख. हेतूत्प्रेक्षा, ग. फलोत्प्रेक्षा
क. वस्तूत्प्रेक्षा अलंकार
जहाँ पर एक वस्तु में दूसरी वस्तु के आरोप की संभावना की जाए, वहाँ पर वस्तूत्प्रेक्षा अलंकार होता है।
उदाहरण–
‘जान पड़ता नेत्र देख बड़े-बड़े।हीरकों में गोल नीलम हैं जड़े।।पद्मरागों से अधर मानों बने।मोतियों से दांत निर्मित हैं घने।।’
ख. हेतूत्प्रेक्षा अलंकार
जहाँ पर संभावना के मूल में कोई कारण या हेतु हो, वहाँ हेतूत्प्रेक्षा अलंकार होता है।
उदाहरण–
‘घिर रहे थे घुंघराले बाल, अंस अवलंबित मुख के पास।नील धन शावक से सुकुमार, सुधा भरने को विधु के पास।।’
ग. फलोत्प्रेक्षा अलंकार
जहाँ किसी क्रिया के मूल में किसी फल की संभावना हो, वहाँ फलोत्प्रेक्षा अलंकार होता है।
उदाहरण–
‘नित्य ही नहाता क्षीर सिन्धु में कलाधर है,सुंदरि, तवानन की समता की इच्छा से।’
नोट-
‘उपमा अलंकार में उपमेय और उपमान की समता दिखाई जाती है, रूपक में उसकी एकरूपता कर दी जाती है और उत्प्रेक्षा में उसकी समानता की संभावना की जाती है। उपमा में उपमेय और उपमान की भिन्नता पूरी होती है। रूपक में भिन्नता लगभग समाप्त कर दी जाती है और उत्प्रेक्षा में उपमेय-उपमान के बीच की समानता संभाव्य हो जाती है।’[4]
4. प्रतीप अलंकार
जहाँ उपमान को उपमेय के समान कहा जाय अथवा उपमेय को उपमान से श्रेष्ठ बताया जाय वहाँ प्रतीप अलंकार होता है।
उदाहरण–
‘मैं केलों में जघनयुग की देखती मंजुता हूँ।’
अक्सर केले को जांघों के लिए उपमान के रूप में प्रयोग किया जाता है। लेकिन यहाँ आप देखेंगे की जांघ उपमान और केला उपमेय के रूप में आया है।
नोट- प्रतीप अलंकार उपमा का विपरीत होता है। दरअसल प्रतीप का अर्थ ही होता है विपरीत या उल्टा।यदि कहा जाए कि, ‘कमल के समान नेत्र है।’, तो यह उपमा अलंकार के अंतर्गत आएगा। लेकिन यदि कहा जाए कि, ‘नेत्र के समान कमल है।’ तो यह प्रतीप अलंकार के अंतर्गत आएगा।
5. व्यतिरेक अलंकार
जहाँ उपमेय को उपमान से श्रेष्ठ (उत्कृष्ट) दिखाया जाए और साथ में उसका वजह (कारण) भी दिया जाए, वहाँ व्यतिरेक अलंकार होता है।
उदाहरण–
‘का सरवरि तेहिं देउं मयंकू। चांद कलंकी वह निकलंकू।।’
इस कविता में मुख की तुलना चंद्रमा से की गई है। मुख की समानता चन्द्रमा से कैसे दूँ? चन्द्रमा में तो कलंक है, जबकि मुख निष्कलंक है। यहाँ पर मुख (उपमेय) को चंद्रमा से श्रेष्ठ (उत्कृष्ट) बताया गया है।
6. असंगति अलंकार
जहाँ कारण कहीं हो और उसका प्रभाव (कार्य) कहीं और अथार्त कारण और कार्य में संगति न हो, वहाँ असंगति अलंकार होता है।
उदाहरण–
‘हृदय घाव मेरे पीर रघुवीरै।’
इस पंक्ति में घाव तो लक्ष्मण के हृदय में हैं, परंतु पीड़ा राम को हो रही है, यहाँ कारण और कार्य में संगति नहीं बन पा रही है।
7. निदर्शना अलंकार
जब उपमेय और उपमान के वाक्यों में भिन्नता होते हुए भी, एक दूसरे से ऐसा सम्बन्ध स्थापित हुआ हो की उनमें समानता दिखाई पड़े, वहाँ निदर्शना अलंकार होता है।
उदाहरण–
‘यह प्रेम को पंथ कराल महा,तरवारि की धार पै धावनो है।।’
8. विभावना अलंकार
जहाँ बिना कारण के ही कार्य हो रहा हो, वहां विभावना अलंकार होता है।
उदाहरण–
‘बिनु पग चलै सुनै बिनु काना, कर बिनु करम करै विधि नाना।आनन रहित सकल रस भोगी, बिनु वाणी वकता बड़ योगी।।’
निर्गुण ब्रह्म बिना पैरों के चलता है और बिना कानों के सुनता है, यहाँ पर कारण के अभाव में कार्य होने से यहाँ विभावना अलंकार है
9. दृष्टांत अलंकार
‘जहाँ कोई बात पहले कहकर उससे मिलती-जुलती बात द्वारा दृष्टांत दिया जाय, लेकिन समानता किसी शब्द द्वारा प्रगट न हो, वहाँ दृष्टांत अलंकार होता है।
उदाहरण–
एक राज्य न हो बहुत-से हों जहाँ, राष्ट्र का बल बिखर जाता है वहाँ।बहुत तारे थे अँधेरा कब मिटा, सूर्य का आना सुना जब तब मिटा।।
उपर्युक्त दोनों पंक्तियों में दो बातें हैं, दोनों का साधारण धर्म भिन्न-भिन्न है, अथार्त धर्म में समानता नहीं है फिर भी समानता प्रतीत होती है। इसलिए यहाँ दृष्टांत अलंकार है।
10. उदहारण अलंकार
‘जहाँ किसी बात के समर्थन में उदाहरण किसी वाचक शब्द के साथ दिया जाय, वहाँ उदाहरण अलंकार होता है।
उदाहरण–
‘छुद्र नदी भरि चलि उतराई।जस थोरेहूँ धन खल बौराई।।’
उपर्युक्त पंक्तियों में छोटी नदी कम पानी में वैसे ही उफान मारने लगती है जैसे दुष्ट अल्प धन पा कर बौरा जाता है। यहाँ पर कवि ने उदहारण के द्वारा पहली अवधारणा की पुष्टि की है, इसलिए यहाँ उदहारण अलंकार है।
11. उल्लेख अलंकार
जब किसी वस्तु को अनेक प्रकार से वर्णन (बताया) किया जाये, तब वहाँ पर उल्लेख अलंकार होता है।
उदाहरण–
‘तू रूप है किरण में, सौंदर्य है सुमन में,तू प्राण है पवन में, विस्तार है गगन में।’
उपर्युक्त पंक्तियों में रूप का किरण, सुमन में और प्राण का पवन, गगन में, कई रूपों में उल्लेख हुआ है। इसलिए यहाँ पर उल्लेख अलंकार है।
12. संदेह अलंकार
जहाँ पर उपमेय में उपमान का संदेह हो, दूसरे शब्दों में जहाँ पर किसी वस्तु को देखकर संशय बना रहे, निश्चय न हो वहाँ संदेह अलंकार होता है। जैसे- यह मुख है या चंद्र है।
उदाहरण–
‘सारी बीच नारी है, कि नारी बीच सारी है,सारी ही की नारी है, कि नारी ही सारी है?’
उपर्युक्त पंक्तियों में नारी और सारी के बीच संशय बना हुआ है कि कौन किसके बीच है, इसलिए यहाँ संदेह अलंकार है।
13. भ्रांतिमान अलंकार
जब भ्रमवश किसी वस्तु को देखकर उसके समान किसी अन्य (दूसरी) वस्तु का भ्रम हो जाए, तब वहाँ भ्रांतिमान अलंकार होता है।
उदाहरण–
‘पाइ महावरु दैन कौं नाइनि बैठी आइ।फिरि फिरि जानि महावरी एड़ी मीड़ति जाइ॥’
नायिका के पाँव में महावर लगाने के लिए नाइन आ बैठी। किन्तु उसकी एड़ी स्वाभाविक रूप से इतनी लाल थी कि वह बराबर उसे महावर लगी हुई जानकर माँज-माँजकर धोने लगी। इस भ्रम के कारण यहाँ भ्रांतिमान अलंकार है।
अन्य उदाहरण–
‘नाक का मोती अधर की कान्ति से, बीज दाड़िम का समझकर भ्रान्ति से।देखकर सहसा हुआ शुक मौन है। सोचता है अन्य शुक यह कौन है।।’
14. विरोधाभाष अलंकार
जहाँ पर दो विरोधी पदार्थों का संयोग एक साथ दिखाया जाय, वहाँ पर विरोधाभास अलंकार होता है।
उदाहरण–
‘या अनुरागी चित्त की गति समुझै नहिं कोय।ज्यों-ज्यों बूड़ै स्याम-रंग, त्यों-त्यों उज्ज्वल होय।।’
15. अतिशयोक्ति अलंकार
जब कोई बात बहुत बढ़ा-चढ़ाकर कर (अतिरंजित रूप में) कही जाय, तो वहाँ अतिशयोक्ति अलंकार होता है।
उदाहरण–
‘हनुमान की पूंछ में लगन न पाई आग।लंका सारी जल गई गए निशाचर भाग।’
यहाँ पर लंका के जलने की बात अतिरंजित रूप में कही गई है इसलिए यहाँ अतिशयोक्ति अलंकार है।
अन्य उदाहरण–
i. ‘देख लो साकेत नगरी है यही।स्वर्ग से मिलने गगन में जा रही।।’
ii. ‘वह शर इधर गांडीव गुण से भिन्न जैसे ही हुआ।धड़ से जयद्रथ का इधर सिर छिन्न वैसे ही हुआ।।’
16. अन्योक्ति अलंकार
जहाँ पर अप्रस्तुत के माध्यम से प्रस्तुत का वर्णन हो, सरल शब्दों में- किसी की बात किसी और पर ढाल कर (को माध्यम बनाकर) कही जाए, वहाँ पर अन्योक्ति अलंकार होता है।
उदाहरण–
‘नहिं पराग, नहीं मधुर मधु, नहिं विकास एहिं काल।अली कली ही सौं बँध्यो, आगे कौन हवाल।।’
17. समासोक्ति अलंकार
जहाँ प्रस्तुत में अप्रस्तुत का बोध (ज्ञान) होता है वहाँ समासोक्ति अलंकार होता है।।।
उदाहरण–
‘कुमुदिनिहु प्रमुदित भई साँझ कलानिधि जोय।’
(समासोक्ति में प्रस्तुत और अप्रस्तुत दोनों प्रधान होते हैं जबकि अन्योक्ति में अप्रस्तुत की व्यंजना ही मुख्य होती है।)
18. विशेषोक्ति अलंकार
जहाँ प्रबल कारण के होने पर भी कार्य सिद्ध न हो, वहाँ पर विशेषोक्ति अलंकार होता है।
उदाहरण–
‘पानी बिच मीन मीन पियासी।मोहि सुनि-सुनि आवै हाँसी।।’
उपरोक्त पंक्ति में प्यास बुझने का कारण पानी उपस्थित है फिर भी मझली की प्यास बुझती नहीं है।
19. दीपक अलंकार
जहाँ पर प्रस्तुत और अप्रस्तुत दोनों में एक ही धर्म (गुण) कहा जाय, स्थापित किया जाय, वहाँ दीपक अलंकार होता है।
उदाहरण–
‘रहिमन पानी रखिये, बिन पानी सब सून।पानी गये न ऊबरे, मोती मानुस चून।।’
इस पंक्ति में ‘मानुष’ प्रस्तुत है और ‘मोती’ तथा ‘चून’ अप्रस्तुत हैं। यहाँ पर तीनों का एक ही धर्म- पानी रखिये बताया गया है।
जब एक ही कारक अनेक क्रियाओं का कर्ता हो, तब भी प्रतीक अलंकार ही होता है।
अन्य उदाहरण–
‘कहत नटत रीझत खिझत, मिलत खिलत लजियात।भरे भौन में करत हैं नैनन ही सब बात।।’
उपरोक्त दोहे में ‘नैनन ही’ वह कारक है जो सभी कथित क्रियाओं का सम्पादन कर रहा है। इसे कारक दीपक अलंकार कहा जाता है।
20. मानवीकरण अलंकार
जहाँ पर जड़ अथवा अचेतन तत्वों पर मानवीय भावों, सम्बन्धों और क्रियाओं के आरोप से उन्हें मनुष्य अथवा चेतन की तरह व्यवहार करते हुए दिखाया जाए, वहाँ पर मानवीकरण अलंकार होता है।
उदाहरण–
‘बीती विभावरी जाग री।अम्बर-पनघट में डुबो रही तारा घट ऊषा नागरी।’
उपरोक्त कविता में ऊषा को अम्बर रूपी पनघट पर गागर भरती हुई स्त्री के रूप में चित्रित किया गया है। ऊषा के मानवीकरण व्यवहार करने की वजह से यहाँ मानवीकरण अलंकार है।
अन्य उदाहरण–
‘फूल हँसे, कलियाँ मुसकाई।’
[1] साहित्य का स्वरूप- डॉ. नित्यानंद तिवारी, एनसीईआरटी, नई दिल्ली- 2000, पृष्ठ- 49
[2] रस-छंद-अलंकार- राजेंद्र कुमार पांडेय, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली-2012, पृष्ठ- 25
[3] रस छंद अलंकार- विश्वम्भर ‘मानव’, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद- 2005, पृष्ठ- 44
[4] साहित्य का स्वरूप- डॉ. नित्यानंद तिवारी, एनसीईआरटी, नई दिल्ली- 2000, पृष्ठ- 60