कविता क्या है, भाग- 1
कविता से मनुष्य-भाव की रक्षा होती है। सृष्टि के पदार्थ या व्यापार-विशेष को कविता इस तरह व्यक्त करती है मानो वे पदार्थ या व्यापार-विशेष नेत्रों के सामने नाचने लगते हैं। वे मूर्तिमान दिखायी देने लगते हैं। उनकी उत्तमता या अनुत्तमता का विवेचन करने में बुद्धि से काम लेने की जश्रूरत ही नहीं पड़ती। कविता की प्रेरणा से मनोवेगों[1] के प्रवाह जोर से बहने लगते हैं। तात्पर्य यह कि कविता मनोवेगों को उत्तेजित करने का एक उत्तम साधन है। यदि क्रोध, करुणा, दया, प्रेम आदि मनोभाव मनुष्य के अन्त:करण से निकल जाएं तो वह कुछ भी नहीं कर सकता। कविता हमारे मनोभावों को उच्छ्वसित करके हमारे जीवन में एक नया जीव डाल देती हैं। हम सृष्टि के सौन्दर्य को देखकर मोहित होने लगते हैं। कोई अनुचित या निष्ठुर काम हमें असह्य होने लगता है। हमें जान पड़ता है कि हमारा जीवन कई गुना अधिक होकर समस्त संसार में व्याप्त हो गया है।
कार्य में प्रवृत्ति कविता की प्रेरणा से कार्य में प्रवृत्ति बढ़ जाती है। केवल विवेचना के बल से हम किसी कार्य में बहुत कम प्रवृत्त होते हैं। केवल इस बात को जानकर ही हम किसी काम के करने या न करने के लिए प्राय: तैयार नहीं होते कि वह काम अच्छा है या बुरा, लाभदायक है या हानिकारक। जब उसकी या उसके परिणाम की कोई ऐसी बात हमारे सामने उपस्थित हो जाती है जो हमें आधाद, क्रोध और करुणा आदि से विचलित कर देती है तभी हम उस काम को करने या न करने के लिए प्रस्तुत होते है। केवल बुद्धि हमें काम करने के लिए उत्तेजित नहीं करती। काम करने के लिए मन ही हमको उत्साहित करता है। अत: कार्य-प्रवृत्ति के लिए मन में वेग का आना आवश्यक है। यदि किसी से कहा जाय कि अमुक देश तुम्हारा
इतना रुपया प्रतिवर्ष उठा ले जाता है; इसी से तुम्हारे यहाँ अकाल और दारिद्रय बना रहता है; तो सम्भव है कि उसपर कुछ प्रभाव न पड़े। पर यदि दारिद्रय और अकाल का भीषण दृश्य दिखाया जाय, पेट की ज्वाला से जले हुए प्राणियों के अस्थि पंजर सामने पेश किये जायँ, और भूख से तड़पते हुए बालक के पास बैठी हुई माता का आत्तास्वर सुनाया जाय तो वह मनुष्य क्रोध और करुणा से विह्नल हो उठेगा और इन बातों को दूर करने का यदि उपाय नहीं तो संकल्प अवश्य करेगा। पहले प्रकार की बात कहना राजनीतिज्ञ का काम है और पिछले प्रकार का दृश्य दिखाना, कवि का कर्तव्य है। मानव-हृदय पर दोनों में से किसका अधिकार अधिक हो सकता है, यह बतलाने की आवश्यकता नहीं।
मनोरंजन और स्वभाव-संशोधान
कविता के द्वारा हम संसार के सुख, दु:ख, आनन्द और क्लेश आदि यथार्थ रूप से अनुभव कर सकते हैं। किसी लोभी और कंजूस दुकानदार को देखिए जिसने लोभ के वशीभूत होकर क्रोध, दया, भक्ति, आत्माभिमान आदि मनोविकारों को दबा दिया है और संसार के सब सुखों से मुँह मोड़ लिया है। अथवा किसी महाक्रूर राजकर्मचारी के पास जाइए जिसका हृदय पत्थर के समान जड़ और कठोर हो गया है, जिसे दूसरे के दु:ख और क्लेश का अनुभव स्वप्न में भी नहीं होता। ऐसा करने से आपके मन में यह प्रश्न अवश्य उठेगा कि क्या इनकी भी कोई दवा है। ऐसे हृदयों को द्रवीभूत करके उन्हें अपने स्वाभाविक धर्म पर लाने का सामर्थ्य काव्य ही में है। कविता ही उस दुकानदार की प्रवृत्ति भौतिक और आधयात्मिक सृष्टि के सौन्दर्य की ओर ले जाएगी; कविता ही उसका ध्यान औरों की आवश्यकता की ओर आकर्षित करेगी और उनकी पूर्ति करने की इच्छा उत्पन्न करेगी; कविता ही उसे उचित अवसर पर क्रोध, दया, भक्ति, आत्माभिमान आदि सिखावेगी। इसी प्रकार उस राजकर्मचारी के सामने कविता ही उसके कार्यों का प्रतिबिम्ब खींचकर रक्खेगी और उनकी जघन्यता और भयंकरता का आभास दिखलावेगी; तथा दैवी किंवा अन्य मनुष्यों द्वारा पहुँचाई हुई पीड़ा और क्लेश के सूक्ष्म से सूक्ष्म अंश को दिखलाकर उसे दया दिखाने की शिक्षा देगी।
प्राय: लोग कहा करते हैं कि कविता का अंतिम उद्देश्य मनोरंजन है। पर मेरी समझ में मनोरंजन उसका अंतिम उद्देश्य नहीं है। कविता पढ़ते समय मनोरंजन अवश्य होता है, पर इसके सिवा कुछ और भी होता है। मनोरंजन करना कविता का प्रधान गुण है। इससे मनुष्य का चित्त एकाग्र हो जाता है; इधर उधर जाने नहीं पाता। यही कारण है कि नीति और धर्म-संबंधी उपदेश चित्त पर वैसा असर नहीं करते जैसाकि किसी काव्य या उपन्यास से निकली हुई शिक्षा असर करती है। केवल यही कहकर कि ‘परोपकार करो’, ‘सदैव सच बोलो’, ‘चोरी करना महापाप है’ हम यह आशा कदापि नहीं कर सकते कि कोई उपकारी मनुष्य परोपकारी हो जायगा, झूठा सच्चा हो जायगा, और चोर चोरी करना छोड़ देगा। क्योंकि पहिले तो मनुष्य का चित्त ऐसी शिक्षा ग्रहण करने के लिए उद्यत ही नहीं होता, दूसरे मानव-जीवन पर उसका कोई प्रभाव अंकित हुआ न देखकर वह उनकी कुछ परवाह नहीं करता। पर कविता अपनी मनोरंजक शक्ति के द्वारा पढ़ने या सुननेवाले का चित्त उचटने नहीं देती, उसके हृदय आदि अत्यन्त कोमल स्थानों का स्पर्श करती है, और सृष्टि में उक्त कर्मों के स्थान और संबंध की सूचना देकर मानव जीवन पर उनके प्रभाव और परिणाम को विस्तृत रूप से अंकित करके दिखलाती है। इन्द्रासन खाली कराने का वचन देकर, हूर और गिलमा का लालच दिखाकर, यमराज का स्मरण दिलाकर और दोजख की जलती हुई आग की धमकी देकर हम बहुधा किसी मनुष्य को सदाचारी और कर्तव्य-परायण नहीं बना सकते। बात यह है कि इस तरह का लालच या धमकी ऐसी है जिससे मनुष्य परिचित नहीं और जो इतनी दूर की है कि उसकी परवाह करना मानव-प्रकृति के विरूद्ध है। सदाचार में एक अलौकिक सौन्दर्य और माधुर्य होता है। अत: लोगों को सदाचार की ओर आकर्षित करने का प्रकृत उपाय यही है कि उनको उसका सौन्दर्य और माधुर्य दिखाकर लुभाया जाय, जिससे वे बिना आगा पीछा सोचे मोहित होकर उसकी ओर ढल पड़ें।
मन को हमारे आचार्यो ने ग्यारहवीं इन्द्रिय माना है। उसका रंजन करना और उसे सुख पहुँचाना ही यदि कविता का धर्म माना जाय तो कविता भी केवल विलास की सामग्री हुई। परन्तु क्या हम कह सकते हैं कि वाल्मीकि का आदि-काव्य, तुलसीदास का रामचरितमानस, या सूरदास का सूरसागर विलास की सामग्री है? यदि इन ग्रन्थों से मनोरंजन होगा तो चरित्रा-संशोधान भी अवश्य ही होगा। खेद के साथ कहना पड़ता है कि हिंदी भाषा के अनेक कवियों ने ऋंगांर रस की उन्मादकारिणी उक्तियों से साहित्य को इतना भर दिया है कि कविता भी विलास की एक सामग्री समझी जाने लगी है। पीछे से तो ग्रीष्मोपचार आदि के नुस्खे भी कवि लोग तैयार करने लगे। ऐसी शृंगारिक कविता को कोई विलास की सामग्री कह बैठे तो उसका क्या दोष? सारांश यह कि कविता का काम मनोरंजन ही नहीं कुछ और भी है।
उच्च आदर्श
कविता मनुष्य के हृदय को उन्नत करती है और ऐसे ऐसे उत्कृष्ट और अलौकिक पदार्थों का परिचय कराती है जिनके द्वारा यह लोक देवलोक और मनुष्य देवता हो सकता है।
कविता की आवश्यकता
कविता इतनी प्रयोजनीय वस्तु है कि संसार की सभ्य और असभ्य सभी जातियों में पाई जाती है। चाहे इतिहास न हो, विज्ञान न हो, दर्शन न हो, पर कविता अवश्य ही होगी। इसका क्या कारण है? बात यह है कि संसार के अनेक कृत्रिम व्यापारों में फँसे रहने से मनुष्य की मनुष्यता जाती रहने का डर रहता है। अतएव मानुषी प्रकृति को जागृत रखने के लिए ईश्वर ने कविता रूपी औषधि बनाई है। कविता यही प्रयत्न करती है कि प्र्रकृति से मनुष्य की दृष्टि फिरने न पावे। जानवरों को इनकी जश्रूरत नहीं। हमने किसी उपन्यास में पढ़ा है कि एक चिड़चिड़ा बनिया अपनी सुशीला और परम रूपवती पुत्रवधू को अकारण निकालने पर उद्यत हुआ। जब उसके पुत्र ने अपनी स्त्री की ओर से कुछ कहा तब वह चिढ़कर बोला, “चल चल! भोली सूरत पर मरा जाता है” आह! यह कैसा अमानुषिक बर्ताव है! सांसारिक बन्धानों में फँसकर मनुष्य का हृदय कभी-कभी इतना कठोर और कुंठित हो जाता है कि उसकी चेतनता उसका मानुषभाव-कम हो जाता है। न उसे किसी का रूप-माधुर्य देखकर उस पर उपकार करने की इच्छा होती है; न उसे किसी दीन दुखिया की पीड़ा देखकर करुणा आती है; न उसे अपमानसूचक बात सुनकर क्रोध आता है। ऐसे लोगों से यदि किसी लोमहर्षण अत्याचार की बात कही जाय तो, मनुष्य के स्वाभाविक धार्मानुसार, वे क्रोध या घृणा प्रकट करने के स्थान पर रूखाई के साथ यही कहेंगे “जाने दो; हमसे क्या मतलब; चलो अपना काम देखो।” याद रखिए, यह महा भयानक मानसिक रोग है। इससे मनुष्य जीते-जी मृतवत् हो जाता है। कविता इसी मरज की दवा है।
सृष्टि-सौन्दर्य
कविता सृष्टि-सौन्दर्य का अनुभव कराती है और मनुष्य को सुन्दर वस्तुओं में अनुरक्त करती है। जो कविता रमणी के रूप-माधुर्य से हमें आधादित करती है वही उसके अन्त:करण की सुन्दरता और कोमलता आदि की मनोहारिणी छाया दिखा कर मुग्धा भी करती है। जिस बंकिम की लेखनी ने गढ़ के ऊपर बैठी हुई राजकुमारी तिलोत्तामा के अंग प्रत्यंग की शोभा को अंकित किया है उसी ने आयशा के अन्त:करण की अपूर्व सात्तिवकी ज्योति दिखा कर पाठकों को चमत्कृत किया है। भौतिक सौन्दर्य के अवलोकन से हमारी आत्मा को जिस प्रकार संतोष होता है उसी प्रकार मानसिक सौन्दर्य से भी। जिस प्रकार वन, पर्वत, नदी, झरना आदि से हम प्रफुल्लित होते हैं उसी प्रकार मानवी अन्त:करण में प्रेम, दया, करुणा, भक्ति आदि मनोवेगों के अनुभव से हम आनन्दित होते हैं। और यदि इन दोनों पार्थिव और अपार्थिव सौन्दर्य का कहीं संयोग देख पड़े तो फिर क्या कहना है। यदि किसी अत्यन्त सुन्दर पुरुष या अत्यन्त रूपवती स्त्री के रूप मात्र का वर्णन करके हम छोड़ दें तो चित्र अपूर्ण होगा; किन्तु यदि हम साथ ही उसके हृदय को दृढ़ता और सत्यप्रियता अथवा कोमलता और स्नेह-शीलता आदि की भी झलक दिखावें तो उस वर्णन में सजीवता आ जायगी। महाकवियों ने प्राय: इन दोनों सौंदर्यों का मेल कराया है जो किसी को अस्वाभाविक प्रतीत होता है। किन्तु संसार में प्राय: देखा जाता है कि रूपवान् जन सुशील और कोमल होते हैं और रूपहीन जन क्रूर और दु:शील। इसके सिवा मनुष्य के आन्तरिक भावों का प्रतिबिम्ब भी चेहरे पर पड़कर उसे रुचिर या अरुचिर बना देता है। पार्थिव सौन्दर्य का अनुभव करके हम मानसिक अर्थात् अपार्थिव सौन्दर्य की ओर आकर्षित होते हैं। अतएव पार्थिव सौन्दर्य को दिखलाना कवि का प्रधान कर्म्म है।
कविता का दुरुपयोग
जो लोग स्वार्थवश व्यर्थ की प्रशंसा और खुशामद करके वाणी का दुरुपयोग करते हैं वे सरस्वती का गला घोंटते हैं। ऐसी तुच्छ वृत्ति वालों को कविता न करना चाहिए। कविता उच्चाशय, उदार और नि:स्वार्थ हृदय की उपज है। सत्कवि मनुष्य मात्र के हृदय में सौन्दर्य का प्रवाह बहाने वाला है। उसकी दृष्टि में राजा और रंक सब समान हैं। वह उन्हें मनुष्य के सिवा और कुछ नहीं समझता। जिस प्रकार महल में रहने वाले बादशाह के वास्तविक सद्गुणों की वह प्रशंसा करता है उसी प्रकार झोंपड़े में रहने वाले किसान के सद्गुणों की भी। श्रीमानों के शुभागमन की कविता लिखना, और बात बात पर उन्हें बधाई देना सत्कवि का काम नहीं। हाँ जिसने नि:स्वार्थ होकर और कष्ट सहकर देश और समाज की सेवा की है, दूसरों का हित-साधन किया है, धर्म का पालन किया है, ऐसे परोपकारी महात्मा का गुणगान करना उसका कर्तव्य है।
कविता की भाषा
मनुष्य स्वभाव ही से प्राचीन पुरुषों और वस्तुओं को श्रद्धा की दृष्टि से देखता है। पुराने शब्द हम लोगों को मालूम ही रहते हैं। इसी से कविता में कुछ न कुछ पुराने शब्द आ ही जाते हैं। उनका थोड़ा बहुत बना रहना अच्छा भी है। वे आधुनिक और पुरातन कविता के बीच संबंध-सूत्रा का काम देते हैं। हिंदी में ‘राजते हैं’, ‘गहते हैं’, ‘लहते हैं’, ‘सरसाते हैं’ आदि प्रयोगों का खड़ी बोली तक की कविता में बना रहना कोई अचम्भे की बात नहीं। अंग्रेजी-कविता में भी ऐसे शब्दों का अभाव नहीं जिनका व्यवहार बहुत पुराने जमाने से कविता में होता आया है। ‘Main’, ‘Swain’ आदि शब्द ऐसे ही हैं। अंग्रेजी-कविता समझने के लिए इनसे परिचित होना पड़ता है। पर ऐसे शब्द बहुत थोड़े आने चाहिए; वे भी ऐसे जो भद्दे और गँवारू न हों। खड़ी बोली में संयुक्त क्रियाएँ बहुत लम्बी होती हैं; जैसे-”लाभ करते है”, “प्रकाश करते हैं” आदि। कविता में इनके स्थान पर “लहते हैं”, “प्रकाशते हैं,” कर देने से कोई हानि नहीं, पर यह बात इस तरह के सभी शब्दों के लिए ठीक नहीं हो सकती।
कविता में कही गई बात हृत्पटल पर अधिक स्थायी होती है। अत: कविता में प्रत्यक्ष और स्वभावसिद्ध व्यापार-सूचक शब्दों की संख्या अधिक रहती है। समय बीता जाता है, कहने की अपेक्षा, समय भागा जाता है, कहना अधिक काव्य-सम्मत है। किसी काम से हाथ खींचना, किसी का रुपया खा जाना, कोई बात पी जाना, दिन ढलना या डूबना, मन मारना, मन छूना, शोभा बरसना आदि ऐसे ही कवि-समय-सिद्ध वाक्य हैं जो बोल-चाल में आ गए हैं। नीचे कुछ पद्य उदाहरण-स्वरूप दिए जाते हैं-
(क) धान्य भूमि वन पंथ पहारा। जहँ जँह नाथ पाँव तुम धारा।। -तुलसीदास
(ख) मनहूँ उमगि ऍंग ऍंग छवि छलकै।। -तुलसीदास, गीतावली
(ग) चूनरि चारु चुई सी परै चटकीली हरी ऍंगिया ललचावे।
(घ) वीथिन में ब्रज में नवेलिन में बेलिन में बनन में बागन में बगरो वसंत है। -पद्माकर
(ड़) रंग रंग रागन पै, संग ही परागन पै, वृन्दावन बागन पै वसत बरसोपरै।
बहुत से ऐसे शब्द हैं जिनसे एक ही का नहीं किन्तु कई क्रियाओं का एक ही साथ बोध होता है। ऐसे शब्दों को हम जटिल शब्द कह सकते हैं। ऐसे शब्द वैज्ञानिक विषयों में अधिक आते हैं। उनमें से कुछ शब्द तो एक विलक्षण ही अर्थ देते हैं और पारिभाषिक कहलाते हैं। विज्ञानवेत्ता को किसी बात की सत्यता या असत्यता के निर्णय की जल्दी रहती है। इससे वह कई बातों को एक मानकर अपना काम चलाता है; प्रत्येक काम को पृथक्-पृथक् दृष्टि से नहीं देखता। यही कारण है जो वह ऐसे शब्द अधिक व्यवहार करता है जिनसे कई क्रियाओं से घटित एक ही भाव निकलता है। परन्तु कविता प्राकृतिक व्यापारों को कल्पना द्वारा प्रत्यक्ष कराती है-मानव हृदय पर अंकित करती है। अतएव पूर्वोक्त प्रकार के शब्द अधिक लाने से कविता के प्रसाद गुण की हानि होती है और व्यक्त किये गये भाव हृदय पर अच्छी तरह अंकित नहीं होते। बात यह है कि मानवी कल्पना इतनी प्रशस्त नहीं कि एक दो बार में कई व्यापार उसके द्वारा हृदय पर स्पष्ट रीति से खचित हो सकें। यदि कोई ऐसा शब्द प्रयोग में लाया गया जो कई संयुक्त व्यापारों का बोधक है तो सम्भव है, कल्पना-शक्ति किसी एक व्यापार को भी न ग्रहण कर सके; अथवा तदन्तर्गत कोई ऐसा व्यापार प्रगट करे जो मानवी प्रवृत्ति का उद्दीपक न हो। तात्पर्य्य यह है कि पारिभाषिक शब्दों का प्रयोग, तथा ऐसे शब्दों का समावेश जो कई संयुक्त व्यापारों की सूचना देते हैं, कविता में वांछित नहीं।
किसी ने ‘प्रेमफौजदारी’ नाम की ऋंगार-रस-विशिष्ट एक छोटी-सी कविता अदालती कार्रवाइयों पर घटा कर लिखी है और उसे ‘एकतरफा डिगरी’ आदि कषनूनी शब्दों से भर दिया है। यह उचित नहीं। कविता का उद्देश्य इसके विपरीत व्यवहार से सिद्ध होता है। जब कोई कवि किसी दार्शनिक सिद्धान्त को अधिक प्रभावोत्पादक बना कर उसे लोगों के चित्त पर अंकित करना चाहता है तब वह जटिल और पारिभाषिक शब्दों को निकाल कर उसे अधिक प्रत्यक्ष और मर्मस्पर्शी रूप देता है। भर्तृहरि और गोस्वामी तुलसीदास आदि इस बात में बहुत निपुण थे। भर्तृहरि का एक श्लोक लीजिए-
तृषा शुष्यत्यास्ये पिबति सलिलं स्वादु सुरभि
क्षुधर्त्ता: संछालीन्कवलयति शाकादिवलितान्
प्रदीप्ते रागाग्रो सुदृढ़तरमाश्ल्प्यिति वधू
प्रतीकारौ व्याधौ: सुखमिति विपर्यस्यति जन:।।
भावार्थ– प्यासे होने पर स्वादिष्ट और सुगन्धित जल-पान, भूखे होने पर शाकादि के साथ चावलों का भोजन, और हृदय में अनुरागाग्नि के प्रज्वलित होने पर प्रियात्मा का आलिंगन करने वाले मनुष्य विलक्षण मूर्ख हैं। क्योंकि प्यास आदि व्याधियों की शान्ति के लिए जल-पान आदि प्रतीकारों ही को वे सुख समझते हैं। वे नहीं जानते कि उनका यह उपचार बिलकुल ही उलटा है।
देखिए, यहाँ पर कवि ने कैसी विलक्षण उक्ति के द्वारा मनुष्य की सुख-दु:ख विषयक बुद्धि की भ्रामिकता दिखलाई है।
अंग्रेजी में भी पोप कवि इस विषय में बहुत सिद्धहस्त था। नीचे उसका एक साधारण सिद्धान्त लिखा जाता है-
“भविष्यत् में क्या होने वाला है, इस बात की अनभिज्ञता इसलिए दी गई है जिसमें सब लोग, आने वाले अनिष्ट की शंका से, उस अनिष्ट घटना के पूर्ववत्तर दिनों के सुख को भी न खो बैठें।”
इसी बात को पोप कवि इस तरह कहता है-
The lamb thyariot dooms to bleed to day
Had he thy reason would he skip and play?
Pleased to the last he crops the flow’ry food
And licks the hand just raised to shed his blood.
The blindness to the future kindly given. -Essay on man.
भावार्थ- उस भेड़ के बच्चे को, जिसका तू आज रक्त बहाना चाहता है, यदि तेरा ही सा ज्ञान होता तो क्या वह उछलता कूदता फिरता? अंत तक वह आनंदपूर्वक चारा खाता है और उस हाथ का चाटता है जो उसका रक्त बहाने के लिए उठाया गया है।… भविष्यत् का अज्ञान हमें (ईश्वर) ने बड़ी कृपा करके दिया है।
‘अनिष्ट’ शब्द बहुत व्यापक और संदिग्धा है; अत: कवि मृत्यु ही को सबसे अधिक अनिष्ट वस्तु समझता है। मृत्यु की आशंका से प्राणिमात्र का विचलित होना स्वाभाविक है। कवि दिखलाता है कि परम अज्ञानी पशु भी मृत्यु सिर पर नाचते रहते भी सुखी रहता है। यहाँ तक कि वह प्रहारकत्त के हाथ को चाटता जाता है। यह एक अद्भुत और मर्मस्पर्शी दृश्य है। पूर्वोक्त सिद्धान्त को यहाँ काव्य का रूप प्राप्त हुआ है।
एक और साधारण सा उदाहरण लीजिए। “तुमने उससे विवाह किया” यह एक बहुत ही साधारण वाक्य है। पर “तुमने उसका हाथ पकड़ा” यह एक विशेष अर्थ-गर्भित और काव्योचित वाक्य है। ‘विवाह’ शब्द के अन्तर्गत बहुत से विधान हैं जिन सब पर कोई एक दफे दृष्टि नहीं डाल सकता। अत: उससे कोई बात स्पष्ट रूप से कल्पना में नहीं आती। इस कारण उन विधानों में से सबसे प्रधान और स्वाभाविक बात जो हाथ पकड़ना है उसे चुनकर कवि अपने अर्थ को मनुष्य के हृत्पटल पर रेखांकित करता है।
श्रुति सुखदता
कविता की बोली और साधारण बोली में बड़ा अन्तर है। “शुष्को वृक्षस्तिष्ठत्यग्रे” और “नीरसतरुरिह विलसति पुरत:” वाली बात हमारी पंडित मंडली में बहुत दिन से चली आती है। भाव-सौन्दर्य और नाद-सौन्दर्य दोनों के संयोग से कविता की सृष्टि होती है। श्रुति-कटु मानकर कुछ अक्षरों का परित्याग, वृत्त-विधान और अन्त्यानुप्रास का बन्धान, इसी नाद-सौन्दर्य के निबाहने के लिए हैं। बिना इसके कविता करना अथवा केवल इसी को सर्वस्व मानकर कविता करने की कोशिश करना, निष्फल है। नाद-सौन्दर्य के साथ भाव-सौन्दर्य भी होना चाहिये। हिंदी के कुछ पुराने कवि इसी नाद-सौन्दर्य के इतना पीछे पड़ गए थे कि उनकी अधिकांश कविता विकृत और प्राय: भावशून्य हो गई है। यह देखकर आजकल के कुछ समालोचक इतना चिढ़ गए हैं कि ऐसी कविता को एकदम निकाल बाहर करना चाहते हैं। किसी को अन्त्यानुप्रास का बन्धान खलता है; कोई गणात्मक छन्दों को देखकर नाक भौं चढ़ाता है; कोई फारसी के मुखम्मस और रुबाई की ओर झुकता है। हमारी छन्दोरचना तक की कोई कोई अवहेलना करते हैं- वह छन्दोरचना जिसके माधुर्य को भूमंडल के किसी देश का छन्द शास्त्रा नहीं पा सकता और जो हमारी श्रुति-सुखदता के स्वाभाविक प्रेम के सर्वथा अनुकूल है। जो लोग अन्त्यानुप्र्रास की बिलकुल आवश्यकता नहीं समझते, उनसे मुझे यही पूछना है कि अन्त्यानुप्रास ही पर इतना कोप क्यों? छन्द और तुक दोनों ही नाद-सौन्दर्य के उद्देश से रक्खे गए हैं। फिर क्यों एक निकाला जाय, दूसरा नहीं? यदि कहा जाय कि सिर्फ छन्द ही से उस उद्देश की सिद्धि हो जाती है तो यह जानने की इच्छा बनी रहती है कि क्या कविता के लिए नाद-सौन्दर्य की कोई सीमा नियत है। यदि किसी कविता में भाव-सौन्दर्य के साथ नाद-सौन्दर्य भी वर्तमान हो तो वह अधिक ओजस्विनी और चिरस्थायिनी होगी। नाद-सौन्दर्य कविता के स्थायित्व का वर्ध्दक है, उसके बल से कविता ग्रंथाश्रय-विहीन होने पर भी किसी न किसी अंश में लोगों की जिह्वा पर बनी रहती है। अतएव इस नाद-सौन्दर्य को केवल बन्धान ही न समझना चाहिए। यह कविता की आत्मा नहीं तो शरीर अवश्य है।
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नाद-सौन्दर्य संबंधी नियमों की गणित-क्रिया के समान काम में लाने से हमारी कविता में कहीं-कहीं बड़ी विलक्षणता आ गई है। श्रुति-कटु वर्णों का निर्देश इसलिए नहीं किया गया कि जितने अक्षर श्रवण-कटु हैं, वे एकदम त्याज्य समझें जायँ और उनकी जगह पर श्रवण-सुखद वर्ण ढूँढ़-ढूँढ़कर रक्खे जायँ। इस नियम-निर्देश का मतलब सिर्फ इतना ही है कि यदि मधुराक्षर वाले शब्द मिल सकें और बिना तोड़ मरोड़ के प्रसंगानुसार खप सकें तो उनके स्थान पर श्रुति-कर्कश अक्षर वाले शब्द न लाए जायँ। संस्कृत से संबंध रखनेवाली भाषाओं में इस नाद-सौन्दर्य का निर्वाह अधिकता से हो सकता है। अत: अंग्रेजी आदि अन्य भाषाओं की देखा-देखी जिनमें इसके लिए कम जगह है, अपनी कविता को भी हमें इस विशेषता से वंचित कर देना बुद्धिमानी का काम नहीं। पर, याद रहे, सिर्फ श्रुति-मधूर अक्षरों के पीछे दीवाने रहना और कविता को अन्यान्य गुणों से भूषित न करना सबसे बड़ा दोष है। एक और विशेषता हमारी कविता में है। वह यह है कि कहीं-कहीं व्यक्तियों के नामों के स्थान पर उनके रूप, गुण या कार्यबोधक शब्दों का व्यवहार किया जाता है। पद्य के नपे हुए चरणों में खपाने के लिए शब्दों की संख्या का बढ़ाना ही इसका प्रयोजन जान पड़ता है; पर विचार करने से इसका इससे भी गुरुतर उद्देश प्रगट होता है। सच पूछिए तो यह बात कृत्रिमता बचाने के लिए की जाती है। मनुष्यों के नाम यथार्थ में कृत्रिम संकेत हैं जिनसे कविता की परिपोषकता नहीं होती। अतएव कवि मनुष्यों के नामों के स्थान पर कभी-कभी उनके ऐसे रूप, गुण या व्यापार की ओर इशारा करता है जो स्वाभाविक होने के कारण सुनने वाले के ध्यान में अधिक आ सकते हैं औेर प्रसंग विशेष के अनुकूल होने से वर्णन की यथार्थता को बढ़ाते है। गिरिधर, मुरारि, त्रिपुरारि, दीनबन्धाु, चक्रपाणि, दशमुख आदि शब्द ऐसे ही हैं। ऐसे शब्दों को चुनते समय प्रसंग या अवसर का ध्यान रखना चाहिए। जैसे यदि कोई मनुष्य किसी दुर्धर्ष अत्याचारी के हाथ से छुटकारा पाना चाहता हो तो उसके लिए- ‘हे गोपिकारमण!’, ‘हे वृन्दावनबिहारी!’ आदि कहकर कृष्ण को पुकारने की अपेक्षा ‘हे मुरारि!’, ‘हे कंसनिकंदन!’ आदि सम्बोधानों से पुकारना अधिक उपयुक्त है। क्योंकि श्रीकृष्ण के द्वारा मुर और कंस आदि दुष्टों का मारा जाना देख कर उसे उनसे अपनी रक्षा की आशा हुई है, न कि उनका वृन्दावन में गोपियों के साथ विहार करना देखकर। इसी तरह किसी आपत्ति से उद्धार पाने के लिए कृष्ण को ‘मुरलीधर’ कह कर पुकारने की अपेक्षा ‘गिरिधर’ कहना अधिक अर्थ-संगत है।
अलंकार
कविता में भाषा को खूब जोरदार बनाना पड़ता है-उसकी सब शक्तियों से काम लेना पड़ता है! कल्पना को चटकीली करने और रस-परिपाक के लिए कभी-कभी किसी वस्तु का गुण या आकार बहुत बढ़ाकर दिखाना पड़ता है और कभी घटाकर। कल्पना-तरंग को ऊँचा करने के लिए कभी कभी किसी वस्तु के रूप और गुण को उसके समान रूप और धार्म्म वाली और और वस्तुओं को सामने लाकर रखना पड़ता है। इस तरह की भिन्न भिन्न प्रकार की वर्णन-प्रणालियों का नाम अलंकार है। इनका उपयोग काव्य में प्रसंगानुसार विशेष रूप से होता है। इनसे वस्तु-वर्णन में बहुत सहायता मिलती है। कहीं-कहीं तो इनके बिना कविता का काम ही नहीं चल सकता। किन्तु इससे यह न समझना चाहिए कि अलंकार ही कविता है। ये अलंकार बोलचाल में भी रोज आते रहते हैं। जैसे, लोग कहते हैं ‘जिसने शालग्राम को भून डाला उसे भँटा भूँनते क्या लगता है?’ इसमें काव्यार्थापत्ति अलंकार है। ‘क्या हमसे वैर करके तुम यहाँ टिक सकते हो?’ इसमें वक्रोक्ति है।
कई वर्ष हुए ‘अलंकारप्रकाश’ नामक पुस्तक के कर्तव्य का एक लेख ‘सरस्वती’ में निकला था। उसका नाम था- ‘कवि और काव्य’। उसमें उन्होंने अलंकारों की प्रधानता स्थापित करते हुए और उन्हें काव्य का सर्वस्व मानते हुए लिखा था कि “आजकल के बहुत से विद्वानों का मत विदेशी भाषा के प्रभाव से काव्य विषय में कुछ परिवर्तित देख पड़ता है। वे महाशय सर्वलोकमान्य साहित्य-ग्रन्थों में विवेचन किए हुए व्यंग्य-अलंकार-युक्त काव्य को उत्कृष्ट न समझ केवल सृष्टि-वैचित्र्य-वर्णन में काव्यत्व समझते हैं। यदि ऐसा है तो इसमें आश्चर्य ही क्या? रस और भाव ही कविता के प्राण हैं। पुराने विद्वान् रसात्मक कविता ही को कविता कहते थे। रसों अथवा मनोविकारों के यथेष्ट परिपाक ही की ओर उनका ध्यान अधिक था। अलंकारों को वे आवश्यकतानुसार वर्णित विषय को विशेषतया हृदयंगम करने के लिए ही लाते थे। यह नहीं समझा जाता था कि अलंकार के बिना कविता हो ही नहीं सकती। स्वयं काव्य-प्रकाश के कर्तव्य मम्मटाचार्य्य ने बिना अलंकार के काव्य का होना माना है और उदाहरण भी दिया है-”तददोषौ शब्दार्थ सगुणा-बलनलंकृती पुन: क्वापि”। किन्तु पीछे से इन अलंकारों ही में काव्यत्व मान लेने से कविता अभ्यासगम्य और सुगम प्रतीत होने लगी। इसी से लोग उनकी ओर अधिक झुक पड़े। धीरे-धीरे इन अलंकारों के लिए आग्रह बढ़ने लगा। यहाँ तक कि चन्द्रालोककार ने लिख डाला कि-
अंगीकरोति य: काव्यं शब्दार्थावनलंकृती।
असौ न मन्यते कस्मादनुष्णमनलंकृती।।
अर्थात्-जो अलंकार-रहित शब्द और अर्थ को काव्य मानता है वह अग्नि को उष्णता रहित क्यों नहीं मानता? परन्तु यथार्थ बात कब तक छिपाई जा सकती है। इतने दिनों पीछे समय ने फिर पलटा खाया। विचारशील लोगों पर यह बात प्रगट हो गई कि रसात्मक वाक्यों ही का नाम कविता है और रस ही कविता की आत्मा है।
इस विषय में पूर्वोक्त ग्रंथकार महोदय को एक बात कहनी थी; पर उन्होंने नहीं कही। वे कह सकते थे कि सृष्टि-वैचित्र्य-वर्णन भी तो स्वभावोक्ति अलंकार है। इसका उत्तर यह है कि स्वभावोक्ति को अलंकार मानना उचित नहीं। वह अलंकारों की श्रेणी में आ ही नहीं सकती। वर्णन करने की प्रणाली का नाम अलंकार है। जिस वस्तु को हम चाहें उस प्रणाली के अन्तर्गत करके उसका वर्णन कर सकते हैं। किसी वस्तु-विशेष से उसका संबंध नहीं। यह बात अलंकारों की परीक्षा से स्पष्ट हो जायगी। स्वभावोक्ति में वर्ण्य वस्तु का निर्देश है; पर वस्तु-निर्वाचन अलंकार का काम नहीं।
इससे स्वभावोक्ति को अलंकार मानना ठीक नहीं। उसे अलंकारों में गिनने वालों ने बहुत सिर खपाया है; पर उसका निर्दोष लक्षण नहीं कर सके। काव्य-प्रकाश के कारिकाकार ने उसका लक्षण लिखा है-
स्वभावोक्तिस्तु डिम्भादे: स्वक्रियारूपवर्णनम्।
अर्थात्-जिसमें बालकादिकों की निज की क्रिया या रूप का वर्णन हो वह स्वभावोक्ति है। बालकादिक कहने से किसी वस्तुविशेष का बोध तो होता नहीं। इससे यही समझा जा सकता है कि सृष्टि की वस्तुओं के व्यापार और रूप का वर्णन स्वभावोक्ति है। इस लक्षण में अतिव्याप्ति दोष के कारण अलंकारता नहीं आती। अलंकारसर्वस्व के कर्तव्य राजानक रुय्यक ने इसका यह लक्षण लिखा है–
सूक्ष्मवस्तु स्वभावयथावद्वर्णनं स्वभावोक्ति:।
अर्थात्-वस्तु के सूक्ष्म स्वभाव का ठीक-ठीक वर्णन करना स्वभावोक्ति है।
आचार्य दंडी ने अवस्था की योजना करके यह लक्षण लिखा है-
नानावस्यं पदार्थानां रूपं साक्षाद्विवृण्वती।
स्वभावोक्तिश्च जातिश्चेत्याद्या सालंकृतिर्यथा।।
बात यह है कि स्वभावोक्ति अलंकार के अंतर्गत आ ही नहीं सकती, क्योंकि वह वर्णन की प्रणाली नहीं, किन्तु वर्ण्य वस्तु या विषय है।
जिस प्रकार एक कुरूपा स्त्री अलंकार धारण करने से सुन्दर नहीं हो सकती, उसी प्रकार अस्वाभाविक भद्दे और क्षुद्र भावों को अलंकार-स्थापना सुन्दर और मनोहर नहीं बना सकती। महाराज भोज ने भी अलंकार को ‘अलमर्थमलर्कत्ता:’ अर्थात् सुन्दर सुन्दर अर्थ को शोभित करने वाला ही कहा है। इस कथन से अलंकार आने के पहले ही कविता की सुन्दरता सिद्ध है। अत: उसे अलंकारों में ढूँढ़ना भूल है। अलंकारों से युक्त बहुत से ऐसे काव्योदाहरण दिये जा सकते हैं जिनको अलंकार के प्रेमी लोग भी भद्दा और नीरस कहने में संकोच न करेंगे। इसी तरह बहुत से ऐसे उदाहरण भी दिए जा सकते हैं जिनमें एक भी अलंकार नहीं, परन्तु उनके सौन्दर्य और मनोरंजकत्व को सब स्वीकार करेंगे। जिन वाक्यों से मनुष्य के चित्त में रस-संचार न हो-उसकी मानसिक स्थिति में कोई परिवर्तन न हो-वे कदापि काव्य नहीं। अलंकार शास्त्रा की कुछ बातें ऐसी हैं जो केवल शब्द चातुरी मात्र हैं। उसी शब्दकौशल के कारण वे चित्त को चमत्कृत करती हैं। उनसे रस-संचार नहीं होता। वे कान को चाहे चमत्कृत करें, पर मानव-हृदय से उनका विशेष संबंध नहीं। उनका चमत्कार शिल्पकारों की कारीगरी के समान सिर्फ शिल्प-प्रदर्शनी में रखने ही योग्य होता है। हर्ष की बात है कि एक ऐसी रचना अपने उचित स्थान पर पहुँच गई। सुनते हैं कि नागपुर की शिल्प-प्रदर्शनी में चित्र-काव्य के बहुत अच्छे नमूने आये थे।
अलंकार है क्या वस्तु? विद्वानों ने काव्यों के सुन्दर-सुन्दर स्थलों को पहले चुना। फिर उनकी वर्णन-शैली के सौन्दर्य का कारण ढूँढ़ा। तब वर्णन-वैचित्र्य के अनुसार भिन्न-भिन्न लक्षण बनाए। जैसे ‘विकल्प’ अलंकार को पहले पहल राजानक रुय्यक ने ही निकाला है। अब कौन कह सकता है कि काव्यों के जितने सुन्दर-सुन्दर स्थल थे सब ढूँढ़ डाले गए, अथवा जो सुन्दर समझे गए- जिन्हें लक्ष्य करके लक्षण बने- उनकी सुन्दरता का कारण कही हुई वर्णन प्रणाली ही थी। अलंकारों के लक्षण बनने तक काव्यों का बनना नहीं रुका रहा। आदि-कवि महर्षि वाल्मीकि ने- “मां निषाद प्रतिष्ठां त्वमगम: शाश्वती:समा:” का उच्चारण किसी अलंकार को ध्यान में रखकर नहीं किया। अलंकार लक्षणों के बनने के बहुत पहले कविता होती थी, और अच्छी होती थी। अथवा यों कहना चाहिए कि जब से इन अलंकारों को हठात् लाने का उद्योग होने लगा तबसे कविता कुछ बिगड़ चली।
-सरस्वती, अप्रैल 1909
[चिन्तामणि, भाग- 3]
[1] इन्हीं मनोवेगों का नाम अलंकारशास्त्रा में रस रक्खा गया है।