इस ब्लॉग पोस्ट में धर्मशाला दर्शनीय स्थल का अनुभव लेखन दिया जा रहा है। यह अनुभव डॉ. रंजन पाण्डेय जी का है। उनके इस अनुभव यात्रा का आप आनंद लेने के साथ-साथ आप खुद अपनी किसी दर्शनीय स्थल की यात्रा का अनुभव भी लिखना सीख सकते हैं। उन्होंने इस यात्रा को बहुत ही आत्मीयता के साथ खुद से संवाद किया है। यह एक ऐसा संवाद है, जो कहे बिना भी बहुत कुछ कह जाता है। इसी मौन के संसार में चलिए हम भी कदम रखते हैं और धर्मशाला के सुकून भरे जादू को महसूस करते हैं।
धर्मशाला: पहाड़ों के संग एक मौन संवाद
जीवन की भाग-दौड़ में अक्सर हम अनजाने ही खुद से दूर होते जाते हैं। शहर के कोलाहल में, रोज़मर्रा की भाग-दौड़ में, भीतर कहीं एक सूना कोना बन जाता है, जिसे हम अनदेखा कर देते हैं। दिल्ली की गर्मी और व्यस्तता के बीच, मन में एक हल्की-सी टीस उठी— कहीं दूर जाने की, अपने भीतर उतरने की। ऐसी ही एक धुंधली प्यास के साथ मैंने धर्मशाला का रुख किया।
यह यात्रा महज एक स्थल दर्शन नहीं थी, बल्कि एक शांत संवाद था— मेरे और उस अनसुने, अनकहे हिस्से के बीच, जिसे मैं अक्सर नज़रअंदाज़ कर देता था। कभी-कभी जीवन की भीड़-भाड़ और तेज़ रफ्तार से थककर, मन किसी शांत कोने की तलाश में भटकने लगता है। दिल्ली की चिलचिलाती गर्मी और धुएँ से भरी सड़कों के बीच, मेरे भीतर भी एक ऐसी ही प्यास जन्मी थी। एक ऐसी जगह की तलाश, जहाँ समय रुक जाए और हवा में थकान की जगह ताज़गी घुली हो।
उसी पुकार का पीछा करते हुए मैंने धर्मशाला का रुख किया— हिमालय की गोद में बसा एक छोटा-सा सपना, जहाँ न सिर्फ प्रकृति, बल्कि खुद से भी मुलाक़ात होती है। यह यात्रा महज एक पर्यटन नहीं थी, यह एक ऐसी अनुभूति थी जिसे शब्दों में बाँधना कठिन है— फिर भी मेरे शब्द मेरे भाव को वहन कर लेंगे इस आशा के साथ लेखन कर रहा हूँ।
दिल्ली की भाग-दौड़, भीड़-भाड़ और महनगरीय आपाधापी से निकलने की प्रबल चाह लिए मैं जब रात के अंधेरे में बस पकड़ रहा था उस समय से शहर की हलचल पीछे छूटती जा रही थी। खिड़की के पार तेज़ रफ्तार से भागती सड़कें, लाइट्स की झिलमिलाहट और कभी-कभार सुनाई देती रेल की सीटी, धीरे-धीरे एक गहरी चुप्पी में डूबती गई।
बस के भीतर नींद और जागने के बीच डोलते हुए, मैंने महसूस किया— पहाड़ पास आ रहे हैं और दिल्ली दूर जा रही है। हवा अब भारी, गर्म और बोझिल नहीं थी; उसमें कहीं पहाड़ों की ठंडक और देवदार के पेड़ों की भीनी महक घुलने लगी थी।
सुबह की पहली किरणों के साथ जब धर्मशाला पहुँचा, तो सामने हिमालय की चोटियाँ सोने की हल्की परत से ढकी थीं। ठंडी, साफ हवा के झोंकों ने जैसे स्वागत में मुझे हल्के से छुआ। रास्ते पर बिखरी धुंध, देवदार के लंबे वृक्षों की कतारें और दूर-दूर तक फैली हरियाली ने एक ऐसी दुनिया का दरवाज़ा खोला, जो अनजानी थी, फिर भी बहुत अपनी सी लगी।
अब मैं अपने रुकने की जगह पर पहुँच गया था। एक सस्ता होमस्टे पहले से किसी परिचित मित्र के संपर्क से ले रखा था। वह छोटा जरूर था, लेकिन उसमें घर जैसी गर्माहट थी। उसमें देखभाल के लिए एक बाबा जी पहले से रहते थे। उन्होंने मेरे सारे इंतजाम कर रखे थे। उनका आतिथ्य जगह के अपरिचय को मिटा दिया था।
बालकनी में खड़े होकर दूर से आती प्रार्थना धुन सुनते हुए, मैंने बाबा जी की बनाई चाय की प्याली उठाई और उन्हें आदर से धन्यवाद किया। पहाड़ों में चाय भी जैसे कुछ और ही हो जाती है— मिट्टी, हवा और धूप का एक गुनगुनाता घूँट। वहीं खड़े-खड़े मैं इस जगह के प्रेम में गिरफ़्तार हो गया।
थोड़ी देर बाद, मैं भागसू झरने की ओर निकल पड़ा। रास्ता कहीं चिकना, कहीं पथरीला था, लेकिन हर मोड़ एक नया दृश्य खोलता— पहाड़ियों पर खेलती धूप, झाड़ियों से झाँकते जंगली फूल और रास्ते के किनारे बैठे साधारण से लोग जिनकी आँखों में एक स्थायी शांति थी। चलते-चलते ऐसा लगा जैसे मैं किसी लोककथा के पन्नों में उतर गया हूँ।
भागसू झरने के पास पहुँचकर मन ठहर सा गया। सफेद फुहारों में नहाता वह झरना, चट्टानों पर उछलता, एक अजानी भाषा में बातें कर रहा था। मैंने चट्टान पर बैठकर अपने पैर पानी में डाले। पानी की ठंडक त्वचा से गुजरती हुई सीधा आत्मा तक पहुँच गई। उस पल लगा, जैसे सारे विचार— जो दिल और दिमाग में उलझे थे— उस बहते पानी के साथ बहते जा रहे हैं।
शाम को मैक्लोडगंज की गलियों में टहलते हुए, मैंने तिब्बती प्रार्थना झंडियों को हवा में नाचते देखा। हर रंग एक प्रार्थना थी, हर फड़फड़ाहट एक गीत। छोटे-छोटे कैफे, सड़क किनारे बिकते ऊनी स्वेटर और मोमोज़ की दुकान से उठती भाप— हर दृश्य जीवन का एक नया चेहरा था।
यहाँ जीवन में ठहराव था, लेकिन उसमें एक गहराई थी जो किसी समुद्र जैसी लगती थी। मैंने एक मोमोज़ स्टॉल पर रुककर गरम थुक्पा खाया। हाथों में कटोरा पकड़े, ठंडी हवा में उसे पीते हुए मुझे ऐसा लगा जैसे मैं कोई साधारण काम नहीं कर रहा, बल्कि किसी प्राचीन रीतिरिवाज का हिस्सा बन गया हूँ— जहाँ खाना एक प्रार्थना था और जीवन एक उत्सव।
रात को होमस्टे लौटते हुए जब सिर ऊपर उठाया, तो आसमान सितारों से भरा था। चाँद की चुप्पी में, तारों की चमक में, और पहाड़ियों की गहरी छाया में— एक ऐसी कविता लिखी जा रही थी, जिसे न तो किसी ने पढ़ा था, न किसी ने लिखा था, फिर भी वह हर दिल में दर्ज थी।
बालकनी में बैठकर मैंने देर तक उस आकाश को देखा। हर सितारा जैसे कोई भूला-बिसरा सपना था, जो पहाड़ों के बीच अब भी जिन्दा था।
धर्मशाला की उस यात्रा ने मुझे सिखाया कि शांति कहीं बाहर नहीं, बल्कि भीतर होती है— बस उसे सुनने के लिए हमें कुछ पल चुप रहना होता है। कभी-कभी उसे खोजने के लिए बस इतना करना होता है— चुपचाप चल पड़ना, किसी अनजाने रास्ते पर, और खुले दिल से हर पल को आत्मसात करना। धर्मशाला के पहाड़, झरने और हवाएँ अब भी मेरे भीतर बहते हैं— जैसे कोई मधुर, शांत सुर जो कभी थमता नहीं। प्रकृति के करीब जाकर मैंने सीखा की सच्ची सुंदरता सरलता में छुपी होती है। पहाड़ों ने सिखाया कि ऊँचाइयाँ बिना धीरज के नहीं मिलतीं। झरनों ने बताया कि गिरकर भी बहते रहना जीवन की सबसे बड़ी कला है। और सितारों ने फुसफुसाकर कहा— ‘तुम भी अनंत का एक छोटा-सा टुकड़ा हो।’
इस यात्रा के बाद मैंने अनुभव किया कि सबसे खूबसूरत यात्राएँ वे नहीं होतीं जहाँ हम सबसे अधिक चलते हैं, बल्कि वे होती हैं जहाँ हम सबसे अधिक ठहरते हैं— अपने भीतर, अपने मौन में। कभी-कभी सबसे लंबी यात्राएँ बाहर नहीं, भीतर तय होती हैं। इस यात्रा ने मुझे यह सबसे प्यारा पाठ पढ़ाया जिसे हम खोजने बाहर निकलते हैं, वह अक्सर हमारे भीतर ही होता है। यह यात्रा मुझे मेरे ही हृदय तक ले आई।
-डॉ. रंजन पाण्डेय