देश की बात निबंध- महावीरप्रसाद द्विवेदी

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देश की बात निबंध- महावीर प्रसाद द्विवेदी

आजकल देशभक्ति, देशहित और देशप्रेम आदि शब्द बहुत अधिक सुनायी पड़ते हैं। स्वदेश, स्वदेशी, स्वदेशप्रेम और स्वदेश-हितैषणा के गीत गाये जाते हैं, पुस्तकें लिखी जाती हैं, अख़बारों में कविताएँ प्रकाशित होती हैं। परन्तु इस बात का विचार बहुत कम लोग करते होंगे कि हमारी भक्ति और हमारे प्रेम के आस्पद देश का अर्थ क्या है। देश कहते किसे हैं? किसकी भक्ति करने-किसका हित साधन करने, से मनुष्य देशभक्त कहा जा सकता है? नगर, क़स्बे, गाँव, पेड़, पहाड़, जंगल, नदियाँ, तालाब, मकान, मन्दिर, मसजिद आदि का समूह ही देश नहीं। ये सब देश के अन्तर्गत हैं अवश्य, पर ‘देश’ के साथ जिस ‘भक्ति’ का ग्रंथि-बंधन हुआ है उस भक्ति का संबंध एकमात्र इन्हीं से नहीं है। इस भक्ति और इस हित का संबंध देश में रहनेवालों से है, पेड़, पहाड़, नगर और क़सबे आदि से नहीं। अच्छा तो देश में रहते कौन हैं? देश में रहते हैं कोई 70 फ़ीसदी कृषक-किसान, खेतिहर, 11 फ़ीसदी, उद्योग-धन्धा करनेवाले, 6 फ़ीसदी खनिज व्यापार और महाजनी करने वाले। बाक़ी 13 फ़ीसदी में आपके वकील, डॉक्टर, बैरिस्टर, मास्टर, डिप्टी कलेक्टर आदि हैं। पर इस ‘आदि’ में भिखमंगों, वेश्याओं, खानगी नौकरों, पुलिस और पलटन के जवानों और अनिश्चित पेशेवालों ही की संख्या अधिक है। गिनती में वह 12 फ़ीसदी से भी अधिक है। अतएव सुशिक्षित कहाने वाले भारतवासियों का औसत सैकड़ों पीछे भी नहीं पड़ता। मर्दुमशुमारी की रिपोर्ट यही कहती है। इस दशा में, यदि देशभक्ति का अर्थ देश में रहनेवालों पर भक्ति करने से है, तो देशवासियों में अधिक संख्या किसानों ही की है। परन्तु देश की उन्नति के लिए अब तक जो प्रयत्न किया गया है और इस समय भी जो किया जा रहा है उसके कितने अंश का संबंध किसानों से है? हर साल जो यह कांग्रेस होती है उसने आज तक किसानों पर अपनी कितनी भक्ति प्रकट की है? उसके पास किये हुए प्रस्तावों में कितने प्रस्ताव ऐसे हैं जिनसे किसानों को लाभ पहुँचने की सम्भावना है? अथवा इन प्रान्तिक सभाओं ने ही इन बेचारों के लिए क्या किया है? कांग्रेस के जो प्रतिनिधि इस समय विलायत की हवा खा रहे हैं वे इन लोगों की कौन-कौन-सी शिकायत सुनाने के इरादे से वहाँ गये हैं? यदि ये 70 फ़ीसदी कृषक दुर्भिक्ष और अत्याचार से पीड़ित होकर नष्ट हो जायें तो फिर देश की क्या दशा हो? तो भी क्या यह देश ‘देश’ रह जायेगा। जब देश ही उत्स हो जायेगा तो सैकड़ों सुरेन्द्र, सैकड़ों मालवीय और सैकडों गोखले की स्पीचों से भी वह अपनी पूर्वावस्था को न प्राप्त होगा। इसलिए कि यदि कृषकों से लगान मिलना बन्द हो जाय तो बड़े-बड़े राजा-महाराजाओं और ताल्लुक़दारों की दुर्गति का ठिकाना न रहे, सरकार के शासन-चक्र का चलना बन्द हो जाय, वकीलों और बैरिस्टरों के गाडी-घोडे बिक जायें और व्यापारियों तथा महाजनों को शीघ्र ही टाट उलटना पडे। जिस अन्न के बिना कंगाल से चक्रवर्ती राजा तक का काम नहीं चल सकता उसके उत्पादक किसानों की संख्या जिस देश में कुल आबादी की 3/4 हो उनकी उन्नति की कुछ भी चेष्टा न करके देशभक्ति और देशप्रेम का नाम लेना इन शब्दों की विडम्बना करना है। कांग्रेस का प्रतिनिधि-दल विलायत गया है। किसलिए? कौन्सिल के कायदों में संशोधन कराने! कौन्सिल में दस-पाँच हिन्दुस्तानी मैम्बरों के अधिक बैठने ही से जैसे हिन्दुस्तान धन-धान्य से परिपूर्ण हो जायेगा। 70 फ़ीसदी देशवासी भूखों मर रहे हैं, अत्याचार से पीड़ित किये जा रहे हैं, मूर्खता के गड्ढे में पड़े तड़प रहे हैं! कुछ फ़िक्र नहीं। वे देश के बाहर हैं! उनका बहिष्कार करने से भी देशभक्ति में बाधा नहीं आ सकती!!! हमारे देशभक्तों की क्या यही धारणा है?

इन 70 फ़ीसदी किसानों की दुर्गति का ज्ञान शहरों में मेज़-कुर्सी लगाकर बैठने और मोटरकार तथा फिटनों पर घूमनेवालों को नहीं हो सकता। इन लोगों का हाहाकार इनके गन्दे गाँवों में घूमने, इनके साथ रहने और इनसे बातचीत करने से हो सकता है। प्रजा के प्रतिनिधि बनने का दम भरनेवाले कितने माननीय महाशय वर्तमान कौन्सिलों में ऐसे हैं जिन्हें इन बेचारों की दुर्गति का ज्ञान हो? हर साल हज़ारों रुपया नज़राने के नाम से इनसे ऐंठा जाता है। फ़ी रुपया एक आने के क़ानून को पैरों तले कुचलकर, हर सातवें वर्ष, रुपये पीछे दो-दो चार-चार आने ही नहीं, किन्तु कभी-कभी बारह-बारह आने तक इन पर इज़ाफ़ा किया जाता है। कभी-कभी सात वर्ष बीतने के पहले ही इस तरह के इज़ाफ़े और नज़राने की नौबत आती है। आज जिस ज़मीन का लगान 5 रुपया बीघा है, चौदह या इक्कीस ही वर्ष में बढ़कर वह दूना हो सकता है। खुश्कसाली में यदि गवर्नमेण्ट कुल मालगुज़ारी माफ़ करना चाहती है तो अवध के ज़मींदार और ताल्लुक़ेदार माफ़ी मंजूर नहीं फ़रमाते। और क़ानून ऐसा है कि गवर्नमेण्ट माफ़ी मंजूर करने और काश्तकारों को उतना ही लगान छोड़ देने के लिए इन प्रजा-वत्सल ज़मींदारों को मजबूर नहीं कर सकती। यदि ये कृषक बन्धु अनिच्छा से गवर्नमेण्ट के पेच में पड़ भी जाते हैं तो उजाड़ में आबादी और परती ज़मीन में सरसब्ज़ी दिखानेवाले नक्शे पेश करते हैं। काश्तकार निरन्न होकर मर जायँ, कुछ परवा नहीं। इनके हल-बैल बिक जायँ, कुछ परवा नहीं। वे देश छोड़कर फीजी, जमाइका और ट्रिनिडाड को चले जायें, कुछ परवा नहीं। उन्हें रुपये से काम। प्रजा के प्रतिनिधि बतायें, इसके लिए उन्होंने क्या किया? जिस क़ानून की रू से इन ज़मींदारों को यह अख्तियार हासिल है कि गवर्नमेण्ट की इच्छा होते भी ये यदि चाहें तो मालगुजारी माफ़ या मुलतवी करा लेने से साफ़ इनकार कर दें, उसमें परिवर्तन कराने के लिए इन माननीयों ने कितने प्रस्ताव कौन्सिल में किये? कितने प्रश्न कौन्सिल में पूछे? कितने डेपुटेशन लेकर लाट साहब के दरबार में हाजिर हुए। कोकेन की बिक्री बन्द या कम करने, छोटे-छोटे बच्चों के साधु न बनाये जाने, देवदासियों की प्रथा का उच्छेद करने से शायद लाख में एक आदमी को लाभ पहुँचेगा। उस लाभ के लिए तो ये लोग इतने व्यति-व्यस्त, पर जो वे फ़ीसदी 70 कृषक मर्म-कुन्तक कष्ट सह रहे हैं उनके नफ़े-नुक़सान का इन्हें कुछ भी ध्यान नहीं। फिर भी ये महोदार महाशय इन किसानों के प्रतिनिधि कहे जाने से लज्जित नहीं होते। चुनाव के समय इन्हें शपथपूर्वक प्रतिज्ञापत्र लिख देना चाहिए कि साल में कम-से-कम एक महीना हम अपने हलके या ज़िले में घूमकर प्रजा की स्थिति का ज्ञान प्राप्त करेंगे और उनके दुःख दूर करने की चेष्टा करेंगे। यदि वे ऐसा न करें तो ये कौन्सिल के मेम्बर न चुने जायें। तभी इनको अपने कर्त्तव्य का ज्ञान होगा। अभी तो इनमें से कितने ही सज्जन ऐसे हैं जो प्रजा की दुःखदर्द भरी कहानी सुनकर भी अनसुनी कर जाते हैं। ऐसे एक महाशय से हमारा परिचय कोई 20 वर्ष से है। उनको हमने एक बात लिख भेजी। पर उन्होंने उस पत्र की पहुँच तक लिखने की उदारता और सज्जनता न दिखायी। आपका शुभस्थान संयुक्त प्रान्त के दक्षिणी भाग में है। प्रजा के ऐसे-वैसे पक्षपातियों की बात सुनने और उसका उत्तर देने में ये शायद अपना अपमान समझते हैं। इन्हें इन्हीं के जैसे धुक्कड़ वकील, डॉक्टर, बैंकर, जमींदार और राजे यदि लिखें, और अँगरेज़ी में लिखें तो ये उनके पत्र का शायद उत्तर दें और उस पर विचार करने की कृपा करें!!!

हिन्दुस्तान में फ़ीसदी 6 आदमी कुछ गोदगाद लेते हैं। बाक़ी 94 आदमी अपढ़ हैं। अँगरेज़ी भाषा के ज्ञान का तो यह हाल है कि सौ में मुश्किल से एक आदमी अँगरेज़ी लिख, पढ़ और समझ सकता है। हमारे प्रान्त की दशा तो और भी गयी-गुज़री है। यहाँ तो सौ में 1/9 आदमी भी अँगरेज़ी नहीं जानता। फिर भी अँगरेज़ी का यहाँ इतना पक्षपात ! वक्तृताएँ होंगी तो अँगरेज़ी में लेख लिखे जायेंगे तो अँगरेज़ी में, पत्र-व्यवहार होगा तो अँगरेज़ी में। 99 के सुभीते की रत्ती भर भी परवा नहीं; 1/9 के सुभीते का ख़याल रखना ही देशभक्ति और देशहित चिन्ता की पराकाष्ठा है। अकारण अँगरेज़ी भाषा में पत्र लिखने के पक्षपातियों के प्रतिकूल हम अनेक बार सरस्वती में अपना वक्तव्य प्रकाशित कर चुके हैं। उस दिन बिहार-प्रान्त के एक सज्जन ने हमें अँगरेज़ी में चिट्ठी लिखी। उसके अन्त में आपने फ़रमाया कि अनवधानता के कारण उन्होंने अँगरेज़ी से काम लिया, माफ़ किये जायें। उसका उत्तर हमने हिंदी में दिया। पर आपने उस उत्तर का जो प्रत्युत्तर भेजा वह फिर भी अँगरेज़ी में! और, इस दफ़े माफ़ी की दरख्वास्त भी नहीं! जब हमारे अँगरेज़ी-दाँ हिंदी-साहित्य सेवियों का यह हाल है तो माननीयों की मनस्विता का कहना ही क्या है। अँगरेज़ी से अनभिज्ञ 99 आदमियों की बदौलत माननीयता का तमगा लटकाकर भी वे 1/9 ही आदमी की समझ में आनेवाली अँगरेज़ी भाषा लिख और बोलकर अपने कर्त्तव्य से छुट्टी पा जाते हैं। ऐसे लोग कदापि प्रजा के प्रतिनिधि नहीं माने जा सकते। गवर्नमेण्ट सच कहती है कि ये मुट्ठी भर अँगरेज़ी-दाँ, सभाओं और कान्फ़रेन्सों में, जो कुछ कहते हैं सब अपनी ही तरफ़ से कहते हैं। इनका वक्तव्य सर्व-साधारण का वक्तव्य नहीं। इसी से इनकी बातों का बहुत कम असर गवर्नमेण्ट पर पड़ता है। यदि ये लोग प्रजा के सच्चे प्रतिनिधि होना चाहते हैं तो इन्हें प्रजा की बोली बोलना चाहिए, प्रजा जिस भाषा को समझे उसी में अपने व्याख्यान देना या सुनाना चाहिए, देहात में घूम-फिरकर प्रजा का सच्चा हाल जानना चाहिए-उन्हें उन्हीं की भाषा में सदुपदेश और शिक्षा देना चाहिए। यदि हमारी सभाओं और कान्फरेन्सों की कार्रवाई हमारी निज की भाषा में होने लगे तो उनमें शामिल होनेवालों की संख्या बहुत बढ़ जाय, वक्ताओं की वक्तृताओं की प्रतिध्वनि दूर-दूर तक सुनायी दे, बहु-संख्यक लोगों का अज्ञान दूर हो जाय और कार्य-कर्त्ताओं की शक्ति भी अधिक हो जाय। फल यह हो कि गवर्नमेण्ट पर ऐसी सभाओं का असर अवश्य पड़े। शक्तिसंचय के लिए इसकी बड़ी ही जरूरत है। क्योंकि शक्तिमान् ही की जीत होती है, शक्तिहीन की नहीं।

महावीरप्रसाद द्विवेदी

जनवरी, 1914

📘 ‘देश की बात निबंध- महावीर प्रसाद द्विवेदी पर आधारित FAQ

1. ‘देश की बात’ निबंध के लेखक कौन हैं?

इस निबंध के लेखक महावीर प्रसाद द्विवेदी हैं, जो हिंदी नवजागरण के प्रमुख साहित्यकार और द्विवेदी युग के प्रवर्तक माने जाते हैं।

2. ‘देश की बात’ निबंध पहली बार कब और कहाँ प्रकाशित हुआ था?

यह निबंध जनवरी 1914 में प्रकाशित हुआ था और इसे नवजागरण कालीन हिंदी गद्य का प्रतिनिधि निबंध माना जाता है।

3. ‘देश की बात’ निबंध का केंद्रीय विषय क्या है?

इस निबंध में लेखक ने सच्चे देशप्रेम, सांस्कृतिक चेतना, और भाषा की भूमिका पर बल दिया है। द्विवेदी जी के अनुसार, देश की सेवा केवल भावनात्मक नहीं, बल्कि बौद्धिक और नैतिक दृष्टि से भी होनी चाहिए।

4. इस निबंध में महावीर प्रसाद द्विवेदी ने किस प्रकार की आलोचना की है?

उन्होंने सतही देशभक्ति, अंधानुकरण, और संस्कृति से कटे राष्ट्रवाद की आलोचना की है। वे चाहते हैं कि देशप्रेम ज्ञान, विवेक और सामाजिक सुधार से जुड़ा हो।

5. ‘देश की बात’ निबंध आज के संदर्भ में कैसे प्रासंगिक है?

आज जब राष्ट्रवाद, भाषा और सांस्कृतिक पहचान के मुद्दे पुनः चर्चा में हैं, यह निबंध हमें याद दिलाता है कि देश की सच्ची सेवा विचार, भाषा और संस्कृति की रक्षा से होती है, न कि केवल नारों से।

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